Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 89
________________ हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल एक मूल्यांकन डा. देवेन्द्रकुमार जैन हिन्दी साहित्य के मादिकाल की अवधि (१०वीं से अपभ्रंश साहित्य को साम्प्रदायिक कह कर उसका उपयोग १४ी तक) निर्विवाद है, परन्तु उसके नाम भाषा मोर नहीं किया। चेतना को लेकर भारी विसंवाद है। काल के प्राधार पर इसके दो नाम है-प्रारंभिक काल, भादिकाल । प्रवृत्ति परम्तु जिस समय (१९२९) में शुक्ल जी ने हिन्दी के माधार पर चार नाम है-वीरगाथा, चारण, साहित्य का इतिहास लिखा उस समय कई बातें प्रस्पष्ट रासो, सिमसामंतकाल । लेकिन इन मेसे एक भी नाम- थी। उस समय विवाद का रूप से बड़ा मुद्द। यह था कि पालोच्यकाल के साहित्य को समन चेतना का प्रतिनिधित्व अपभ्रंश बोलचाल की भाषा है या कृत्रिम । महत्त्वपूर्ण नहीं करता! पोर जब, प्रारम्भिक युग की प्रवृत्तियों का, अपभ्रश साहित्यिक कृतियां मूल रूप में प्रकाशित अवश्य बिन पर हिन्दी साहित्य के इतिहास का भवन खड़ा है, हो चुकी थीं, परन्तु हिन्दी अनुवाद के प्रभाव में ठेठ निर्धारण न हो, तो बाकी इतिहास कथा विश्वसनीय नहीं हिन्दी-विद्वानों का उनमें प्रवेश करना निपट असभव रह जाती। था। अपभ्रंश और हिन्दी के भाषिक रिश्तों की पहचान पभी होना बाकी थी। इसलिए शुक्ल जी सारी अपेक्षाएं प्रवत्तियों के निर्धारित न होने के कई कारण हैं। यदि पूरी नहीं कर सके तो यह उक्त सीमानों के कारण । एक.-पालोग्यकाल के साहित्य की भाषा और हिन्दी के लेकिन डा० द्विवेदी के समय (१९५०.६५) सारी सम्बन्ध का निर्णय भी तक नहीं हो सका । दो-उपलब्ध स्थितियां स्पष्टतर थीं। कुहासा छट चुका था। उन्हें वह साहित्य का अभी तक मूल्यांकन नहीं किया जा सका। लोकदष्टि प्राप्त थी जो पशिक्षित जनता की चित्तवृत्तियों तीन-पालोच्य साहित्य-हिन्दी प्रदेश के किनारों पर का प्रतिबिम्ब बखूबी झांक सकती थी। उनके समय तक लिखा गया। चार-मध्य देश में जो साहित्य लिखा हिंदी अनुवाद सहित, महत्वपूर्ण अपभ्रंश कृतियां प्रकाश गया वह प्रक्षिप्त और प्रमाणिक है। पांच-यह अभी में प्रा चुकी थी, फिर भी उन्होंने पालोच्य युग के मूलभूत भी विचारणीय है कि साहित्य के इतिहास लेखन का सही साहित्य को नहीं छपा। उसका प्रध्ययन-विश्लेषण के वृष्टिकोण क्या हो? यह कह कर टाल गये कि उक्त साहित्य हिन्दीभाषी प्रदेश के किनारों पर लिखा गया है। उक्त प्रश्नों का समाधान खोजे बिना, हिंदी साहित्य का ऐसा इतिहास, लिखा जाना सम्भव है कि जो विवादों मादिकाल में वह अपभ्रंश के मुक्तक काव्य की पर्चा से परे हो। स्व. ह.प्र. द्विवेदी ने प्राचार्य शुक्ल तो करते हैं जो सिद्ध हेम व्याकरण, प्रबंध-चितामणि पादि को इस बात का श्रेय दिया है कि उन्होंने कविवत्त संग्रह में बिखरामा है, लेकिन स्वयंभू पुष्पदंत धनपाल जैसे की पिटारी से निकालकर, हिंदी साहित्य के इतिहास को शीर्षस्थ रससिद्ध अपभ्रंश कवियों के एक शब्द को भी जीवंत प्रवाह से जोड़ा। फिर भी उनकी शुक्ल जी से दो उन्होंने नहीं छपा । पुस्तक में साहित्येतर तथ्यों का शिकायतें है। एक तो यह कि उनकी दृष्टि शिक्षित जनता विस्तार से उल्लेख है, इस बात की भी विशद चर्चा है कि की चित्तवृत्तियों तक सीमित है। दूसरे, उन्होंने बहुत से हिन्दी प्रदेश में अपभ्रंश साहित्य क्यों नहीं लिखा गया,

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