Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध-पत्रिका अनकान्त ३४: किरण १ जनवरी-मार्च १९९१ विषयानुक्रमणिका सम्पादन-मण्डल १० ज्योतिप्रसाद जैन 1. प्रेमसागर जन श्रीपचन्द्र शास्त्री श्री गोकुलप्रसाद बन सम्पादक भी गोकुलप्रसाद जन एम.ए., एल-एल.बी. साहित्यरत्न विषय १. णमोकार-महिमा २. श्वेताम्बर जैन पडित-परम्परा श्री प्रगरचन्द नाहटा, बीकानेर ३. प्राचार्य नेमिचन्द्र और उनका दम्म संग्रह 4. कमलेशकुमार जैन ४. पात्मा सर्वथा प्रसत्यात प्रदेशी है श्री पवाद शास्त्री, नई दिल्ली , ५. पानाद कहां है?-- श्री बाबुलाल जैन, नई दिल्ली १. न सस्कृति में दसवीं-बारहवीं सदीको नारी-डा. श्रीमती रमा जैन ७. दक्षिण की जैन परंपरा ० मल्लिनाथ जैन शास्त्री, महास ८. यूनानी दर्शन पोर जैन दर्शन---- डा. रमेशवाद जैन ६. हिन्दी साहित्य में नेमि राजुल डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, वार्षिक मूल्य १) रुपये इस किरण का मूल्म स्पये.पैसे . प्रकाशक बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करो ने महान विश्वस्त्रा का स्वशान में झलकार्जन लक्षात तो यह रहायों के प्राचार पारि वीर सेवा मन्दिर का एक महत्वपूर्ण प्रकाशन जैन लक्षणावली ० श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर जैनधर्म एक वैज्ञानिक और विश्वकल्याणकारी धर्म दिल्ली में मैं जब भी दिल्ली जाता ह तो वीर सेवा मन्दिर है तीर्थकरो न महान माधना करके के वन ज्ञान प्राप्त में भी पहुंचता है। प्रतः पं० बालचन्द्र जी के काम किया और उनके द्वारा विश्वस्वी का स्वरूप तथा शान्ति का मुझे अनुभव भी है। अब यह काम पूरा हो गया। ल्याण का मार्ग जो कुछ भी उनके ज्ञान में झलका, इससे मुझे व उन्हे दोनो को संतोष है। प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हो, जगह-जगह धमकर न लक्षणावली प्रन्थ के निर्माण में सबसे बड़ी वर्षों तक लोक भाषा में प्रसारित किया। अपने ज्ञान को उल्लेखनीय विशेषता तो यह रही है कि दि. और इवे. दूसरो तक पहचाने के लिए शब्दो का सहारा लेना ही दोनों सम्प्रदायों के करीब ४०० ग्रन्थों के माघार से यह पड़ता है। बहुत से गये-नये शब्द गढ़ने भी पड़ते है। महान् अव तयार किया गया है। एक-एक जैन पारि फिर भी मर्वज्ञ का ज्ञान बहुत थोड़े रूप में ही प्रचारित भाषिक शब्द को व्याख्या किस प्राचार्य ने किस ग्रंथ मे हो पाता. क्योकि वह शब्दातीत व अनन्त होता है। किस रूप में की है इसकी खोज करके उन ग्रन्थो का शब्द मोमित है। ज्ञान असाम है। जनघम की अपनी प्रावषयक उद्धरण देते हए हिन्दी मे उन व्याख्यानोका मौलिक विशेषताएं है। वह उनके पारिभाषिक शब्दों से सार दिया गया है। इससे उन-उन ग्रन्थों के उद्धरणो के प्रकट होता है। बहुत से शब्द जैन ग्रन्थों मे ऐसे प्रयुक्त हुए है ढूंढने का सारा श्रम बच गया है, और हिन्दी में उन जो अन्य किमी ग्रन्थ व कोष ग्रन्यो में नही पाये जाते । व्याख्यानों का सार लिख देने से हिन्दी वालो के लिए कई शब्द मिलते भी है तो उनका प्रर्थ वहा जैन ग्रन्यो यह ग्रंष बहुत उपयोगी हो गया है। ४०० ग्रन्थों के करीब में प्रयुक्त मथों से भिन्न पाया जाता है। अत: जैन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ सहित कोश प्रकाशित होना बहुत का संक्षेप या मंत्र दोहन इसी एक बन्ध में कर देना वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य है। पं० बालचन्द्र जी ही अावश्यक पोर अपेक्षित था, और अब भी है । अग्रेजी ने तो वर्षों तक परिश्रम करके जिज्ञासु के लिए बहुत बड़ी भाषामाज विश्व में विशिष्ट स्थान रखती है पर जैन ग्रन्थों के बहुत से शब्दो के मही अर्थ व्यक्त करने वाले ___ सुविधा उपस्थित कर दी है इसके लिए वे बहुत ही घन्यबहन म गब्द उस भाषा मे मिन ए है। यह जैन प्रन्बो बाद के पात्र है। बीर सेवा मन्दिर ने काफी खर्मा उठा के अग्रौ घनवादको को अनुभव होता है। प्रतः जैन कर बड़भन्छे रूप में इस प्रन्थ को प्रकाशित किया। इसके पारिभाषिक शब्दों के पर्याय पानी अग्रेजी शब्दो के एक बड़े लिए सस्था व उसके कार्यकर्ता भी धन्यवाद के पात्र है। कोष को आवश्यकता माज भी अनुभव की जा रही है। जन लक्षणावली इसका दूसरा नाम जैन पारिभाषिक ढाई हजार वर्षों में शब्दों के पनेक रूप और अर्थ हुए है। शब्द कोष रखा गया है । इसके नीन भाग हैं जिनमें १२२० प्रष्टों में पारिभाषिक शब्दों के लक्षण भोर मयं मकारादि उनमे परिकान हो जाना ग्वभाविक है । अनेकों प्राचार्यो, क्रम से दिये गये है। पहले के दो भागों में जिन-जिन ग्रन्थमनियो पोर विद्वानों ने एक-एक पारिभाषिक शब्द की। व्याख्या अपने-अपने ढंग की है। अत: एक ही शब्द के कारों के जिन-जिन अन्यों का उपयोग इस ग्रन्थ में हवा है उनका विवरण भी दिया गया था तीसरे भागके ४४ पृष्ठो अथं और अर्धान्तर बहु प्रकार के पाये जाते है। किसकिम नरिभाषिगाब्द का किस तरह व्याख्यान की प्रस्तावना में बहुत सी शब्दों सबंधी विशेष बाते देकर किया है. मका पता लगाने का कोई साधन नही था। प्रम्य की पाशिक पूति कर दी गयी है। पं० की प्रस्वस्थता इम कमी को पति और महीएक कोष को प्रावश्यकता के कारण तीसरा भाग काफी देरी से प्रकाशित हमा। पर का पानभन 20 श्री जगन किशोर जी मनियार को यह सम्वोष का विषय है कि इसके प्रकाशन से यह काम हमा और उन्होंने इस काम का अपने ढंग से प्रारम्भ पूरा हो गया। अब कोई भी व्यक्ति जैन लक्षणावली के किया। पर वह काम बहुत बड़ा था और वे अन्य तीनो भागो से किसी भी न पारिभाषिक शन्द के संबंध कामो मे लग रहते थे। इसलिए इसे पूरा करना उनके मे पावश्यक जानकारी प्राप्त कर सकता है। पहले दो लिए सम्भव नही हो पाया। कुछ व्यनियो के सहयोग से भागों का मूल्य तो २५.२५ रुपये रखा गया था और इस प्रयत्न को प्रागे बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। पर अब मंहगाई बढ़ जाने से तीसरे भाग का मूल्य ४० रुपये वर्षों तक एकनिष्ठ होकर उसे पूरा कर पाना संभव रखा गया है और तीनों भागों का मूल्य १२० रुपये कर नही हो पाया। वह पूरा करने का श्रेय प० बालचन्द्र जी दिया गया है। यह प्रस्थ संग्रहणीय एवं बहत्त काम का सिद्धान्त शास्त्री को मिला। वर्षों से वीर सेवा मन्दिर, है इसलिए सभी जैन ग्रन्थालयों को खरोषना ही चाहिये । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३४ किरण १ श्रीम् ग्रर्हम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । कलनगविलमितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर- सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर- निर्वाण सवत् २५०७ वि० सं० २०३७ णमोकार - महिमा घरघाइकम्ममा, तिहुवरणवरभव्व-कमलमत्तण्डा । रातराणी, प्रागुवमसोक्खा जयंतु जए ॥१॥ विकम्मवियला, स्पिठिपकज्जा परणटुसंसारा । मित्यमारा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ २ ॥ पंचमहव्ययतुंगा, तक्कालिय- सपरममय - सुदधारा । सामागुगरिया, आइरिया मम पसीदंतु ॥३॥ जनवरी-मार्च १६८१ तिमिरे, दुनतीरम्ह हिडमारणारणं । भवियाजीयरा, उवज्झाया वरर्याद देतु ॥ ४ ॥ थिरपरि मोलभाला, बगराया जसोहपडिहत्था । बहुविभूसिंगंगा, सुहाई साहू पयच्छंतु ॥५॥ भावार्थ गन-पानि कर्मा का यानी न करने वाले, तीनो लोकों में विद्यमान भव्यजीवरूपी कमलों को विकसित करने वाले और अनुपम सुखमय अरहंतों की जगत् में जय हो । टकों से कृत्य जगत्यु के चक्र से मुक्त तथा सकलतत्त्वार्थ के दृष्टा सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करे । समय और पर समयरूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना पंचमहातो से समुन्नत, तत्काली न हों। जिसका श्रोर-छोर पाना कठिन है, उस अज्ञानरूपी घोर अधकार में भटकने वाले भव्यजीवों के लिए ज्ञान का प्रकाश देने वाले उपाध्याय मुझे उत्तम मति प्रदान करे । गुणसमूह से परिपूर्ण याचार्य मुझ पर शीलरूपी माला को स्थिरतापूर्वक धारण करने वाले, संगरहित, यशः समूह से परिपूरणं तथा प्रवर विनय से अलंकृत शरीर वाले साधु मुझे सुख प्रदान करें । שרים Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैन पंडित-परम्परा ॥ श्री प्रगरचंद नाहटा, बोकानर पडित किसे कहा जाय, यह एक ममस्या है। व शास्त्रीय ग्रंथों में बिता प्राप्त करने का प्रावश्यकता साधारणतया किसी भाषा या विषय के विशिष्ट प्रध्येता नहीं रही। प्रत: ११वी शताब्दी से ही विनम्बर श्रावको या विद्वान को पंडित कहा जाता है, जब कि गोता के मे विद्वान, ग्रन्थकार, तो बराबर होते हा पर दिगवार मनसार पंडित बहुत बड़ी साधना का परिणाम है। प्रत: विद्वानों की तरह वे स्वाध्याय-गद्दी पर बैठ कर शास्त्री पडित में शान के साथ साथ साधना भी उसमे अच्छे रूप के बाचन प्रादि का काम नहीं करते थ। क्योकि वह कार्य में होना चाहिये। जैन परम्परा में ज्ञान-क्रियाभ्याम् तो मुनियों और यतियो के द्वारा अच्छी तरह चल हो रहा मोक्षः क्या है, अर्थात ज्ञान पोर क्रिया यानि प्राचरण, था। और उनकी संख्या भी काफी थी। अतः यहा सदाचार और साधना इन दोनो के सम्मेलन से मोक्ष श्वेताम्बर पडिन-परम्परा पर प्रकाश डालते हुये मैं मिलता है। जैनाचार्य पोर मनिण ज्ञानी पोर पदाचारी श्वेताम्बर श्रावक-ग्रथकाग पर ही कुछ प्रकाश डालेगा। हित कर लाने के श्वेताम्बर ग्रन्थकाग मे सबसे उल्लेखनीय पहला वेकी अधिकारी है। श्वेताम्बर समाज में मनिगण, जब विद्वान है -- कवि धनपाल। जो कि धाग के नि को मम सीमा तक का अभ्यास कर लेते है, तो उन्हे विलासी महाराजा भोज के सभा-पडित थे। वे मूलतः 'पश्याम' पद से विभूषित किया जाता है। पन्यास का ब्राह्मण पाडत थ । पर जनाचार्यों के सम्पर्क में प्राय पोर सक्षिप्त रूप 'पं०' उनके नाम के प्रागं लिखा हवा मिलता उनका भाई सोमन तो जैन दीक्षित साधु भो बन गया। है। इस दष्टि से श्वेताम्बर पडित परम्परा प्राचायाँ पोर इसलिए कवि धनपाल ने भी जैनधर्म ग्वीकार कर लिया। मुनिपो से प्रारम्भ हुई, कहा जा सकता है। कादम्बरी के समान उन्होंने तिलक 4जगे' संस्कृत ग. दिगवर-संप्रदाय में मुनि के लिय शायद ऐसा कोई कथा की रचना करके कहो याति प्राप्त की। प्रपन भाई योग्यता या पद का प्रचार नही रहा, मध्य काल मे तो सोमन मुनि के रचित ग्रन्थ चविशतिका को सस्कृत अटारक-सप्रदाय मे विद्वान काफी हुए, पर प्राचार मे वे टोका बनाई। प्राकृत में रिषभप.शिका और संस्कृत म जर शिथिल थे। गृहस्थी मे जो विद्याध्ययन करने के बाद भी तीथंकरो की स्तुतिपय रचनाये की। अपभ्रश व स्वाध्याय मंडली में ग्रथो का वाचन करते व दूसरो को तत्कालीन लोक-भाषा में उन्होंने सत्यपूर्गय महावीर सनात पोर धार्मिक क्रियानो को सम्पन्न करात है, वे उत्साह नामक स्तुनि-काव्य बनाया है। जो ऐतिहामिक पंडित के रूप में पहिचाने जाते है। श्वेताम्बर समाज मे दृष्टि से भी बड़े महत्व को रचना है। इसको एक मात्र ऐसी परम्परा तो नही रही, क्योकि दिगम्बर समाज मे प्रति मिलती है जिम के प्राधार से मुनि जिनविजयजी ने तो मुनियो को सरूपा बहुत ही कम रही। जबकि जैन साहित्य संशोधक में इसे प्रकाशित कर दी है। क्वेताम्बर प्राचार्यों व मनियों की संख्या सदा से १२वी शताब्दी मे नागोर कष्टी धनदेव के पर काफी रही प्रतः श्रावको की पंडित-परम्परा, दिगंबर. पद्यानन्द ने वैराग्य शतक नामक मक्तक काव्य की रचना सम्प्रदाय की तरह नही चल पाई। मध्यकाल में भट्टारकों की है। जो 'काव्य माना' मे बहुत वर्ष पहले प्रकाशित को तरह श्वेताम्बर समाज मे श्री पूज्यो व पतियो की हो चुका है । यह खरतरगच्छ के प्राचार्य श्री जिनवल्लभपरम्परा अवश्य चली। लम्बे समय तक वे धर्म प्रचार, सूरि जी के भक्त थे। वैराग्य शतक की प्रशस्ति-श्लोक मे व्याख्यान देने व धार्मिक क्रियानो को कराते और इसका उल्लेख उन्होंने स्वय किया है। नागौर में उनके वैद्यक ज्योतिष के अन्य उपयोगी कार्यों को सम्पन्न । पिता धनदेव ने नेमिनाथ का मंदिर बनाया था। जिसकी कराते रहे इसलिए वमे पडितों की परम्परा अवश्य चलती प्रतिष्ठा जिनवल्लभसूरि ने की थी। पद्मनंद के वैराग्य रही। ऐसे यतियों की संख्या भी काफी प्रषिक थी। शतक को एक नई पावृति भी छप गई है। इसलिये श्रावक लोगो को संस्कृत प्राकृत भाषायें सीखने १२-१३वी शताब्दी में श्वेताम्बर श्रावकों में कई Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेताम्बर जैन पंडित-परम्परा चकार है जिनमे वाग्भट्ट ने वागभट्टाचार की रचना की । कपूरचंद ने एक प्रकरण बनाया । जो हमारे मणिधारी जिनचद्रसूरि ग्रंथ में प्रकाशित हो चुके है । १३वी शताब्दी के उल्लेखनीय श्रावक-कारो में भिल्लमन कुल के कवि 'घास' हो गये है। जिनको कवि सभा श्रृंगार का उपमान मिला। उन्होने मेघदूत की सबसे पहली टीका बनाई । पर वह अभी उपलब्ध नही है । उनकी प्राकृत की रचनायें उपदेश कदमी और 'विवेकमजरो प्राप्त है विवेकमंजरी पर बालचंद्र ने विस्तृत टीका बनाई है। विवेकमजरो का रचनाकाल स० १२४८ कवि ने जिन स्तुति आदि और भी कई रचनायें बनाई थी पर वे श्रव प्राप्त नही है । सवत् १२५५-६० के ग्राम-पास मरुकोट के नेमिनंद भंडारी भी प्रसिद्धधकार है, जिनके रचित 'राष्टशतक' ग्रंथ की श्वेताम्बर समाज में इतनी अधिक प्रसिद्धि हुई कि उसकी मस्कृत व भाया टोकायें तथा पद्यानुवाद मेरी जानकारी में १२ है । दिगवर सप्रदाय में भी यह 'उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला' के नाम से प्रसिद्ध है। प्रोर इस पर दि० भागचंद ने संवत् १९१२ मे वचनिका बनाई सो प्रकाशित भी हो चुक १२वी नाब्दी में ही 'कवि-चक्रवर्ती श्रीपाल ने कई प्रशस्ति काव्य और शतार्थो की रचना की और यशपाल ने 'मोह-पराजय नाटक बनाया । १३वी शताब्दी के प्रस्त मंत्राने वसंतविनाम महाकाव्य की रचना की तथा और भी कई विद्वान हुये है । १वी के नीताम्बर भावक कार ठकुर' है वे अपने ढंग के एक ही प्रकार थे। जिन्होंने वास्तुशास्त्र, मुद्राशास्त्र, गणित और ज्योतिष शास्त्र आदि विषयों को ७ रचनायें बनाई जो हमें प्राप्त १ मात्र प्रति के आधार से मूनि जिनविजय जी ने 'रत्नपरीक्षावि ग्रन्थ सप्तक' में प्रकाशित कर दी है । रन-परीक्षा, द्रम्प-परीक्षा धातु उत्पती यादि के हिन्दी अनुवाद भी हमने प्रकाशित कर दिये है । १५वी शताब्दी के विशिष्ट प्रकार मांडवगढ़ के कवि मदन है । ये भी ठक्कुर फेरु की तरह खरतरगच्छ के थे, उन्होंने मी व्याकरण प्रलंकार काव्य संगीत मादि कई विषयों के महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाये जिनमें से कई प्रयो मंडन पंचावली भाग १-२ मे प्रकाशित हो चुके है। संगीत मंडन मादि ग्रंथ अभी तक प्रकाशित है । ये श्रीमाल जाति के धौर बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। इन्ही के परिवार में घनद नामक कवि हुये हैं। जिनके रचित शतकृत्य प्रकाशित हो चुके है। मांडव गढ के ही तपा गच्छीय श्रावक संग्रामसिंह ने 'बुद्धिसागर' ग्रंथ बनाया । संवत १५२० में रचित यह ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुका है। ऊपर प्राकृत और संस्कृत के श्वेताम्बर श्रावष ग्रंथकारों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। लोक-भाषा के भी कई अच्छे कवि हो गये हैं उन कवियों की परम्परा भी १३वीं शताब्दी से निरंतर चालू रही। संवत् १२५० के पास-पास 'प्रासिगु' कवि ने चंदनवाना राम और जीवदया रास की रचना की। ये दोनों प्रकाशित हो चुके हैं । इसी शताब्दी में खरतरगच्छ के २ श्रावक कवियों ने 'जिनपतिसूरि गीत' बनाये जो हमारे संपादित ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मे छप चुके है। १४वी-१२वी शताब्दी मे कान्ह कवि ने अंचलगच्छ को गुरु परम्परा संबंधी काव्य बनाया । महाकवि ने तीर्थमाला व राणकपुर स्तवन आदि की रचना की। १७वी शताब्दी के कवि रिमदाम तो बहुत ही उल्लेखनीय कवि है । जिन्होंने हीरविजय मूरि राम मादि भनेको काव्यों की रचना की। इसी शताब्दी के सुप्रसिद्ध कवि बनारसीदास भी श्वेताम्बर मण्ड हे अनुयायी थे। उनकी प्राथमिक रचनायें दताम्बर श्रीर मान्यताओं पर प्राधारित है पर श्रागे चल कर वे समयमार गोमद्रसार आदि दिगंबर ग्रथों से प्रभावित हुये। उनका एक 'प्राध्यात्मिक मत' स्वतत्ररूप से प्रचारित हुआ, जो वर्तमान मे दिगबर तेरापथी संप्रदाय के रूप मे प्रसिद्ध है। १८वी शताब्दी में दलपतराय, १९वीं शताब्दी मे हरजमराय, मौर सवलदास, तथा विनयचंद कवि हुये । २०वी शताब्दी में भी यह परम्परा चालू रही। श्वेताम्बर विद्वानों और प्रकारो की २०वी की उत्तप्रार्द्ध में काफी अभिवृद्धि हुई । इस तरह श्वेताम्बर विद्वानों और कवियों तथा उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त में हो यहाँ प्रकाश डाला गया है। कई श्वेताम्बर विद्वानों को भी अपने श्रावककवियों एवं विद्वानों की परम्परा की जानकारी नहीं है । इसलिए यह प्रयास काफी उपयोगी सिद्ध होगा । नाइटों की गवाड़, वोकानेर 000 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य नेमिचन्द्र और उनका द्रव्यसंग्रह [] डा० कमलेशकुमार जैन उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के प्राधार पर ज्ञात ग्रन्थों के कर्ता है। प्राचार्य मरूतार को उक्त प्राशका होता है कि नेमिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान् हुए है जिन्होंने तत्कालीन शोध-खोज प्रेमियों को एक चनौती साबित हुई, अपनी उदात्त मनीषा का परिचय देते हुए भव्य जीवों के जिमसे परवर्ती विद्वानो ने न केवल उक्त दोनो ग्रन्थकर्तामों कल्याणार्थ विभिन्न मौलिक एवं टीका ग्रन्थों का सृजन में भिन्नता स्वीकार की, सपित विभिन्न प्रमाणो गे किया है। पर्याप्त शोष खोज के प्रभाव मे अब तक उद्धत कर उक्त कथन की पुष्टि भी की। नेमिचन्द्र नाम के एकाधिक विद्वानों मे ऐक्य माना जाता नेमिचन्द्र नाम के विद्वान - रहा है, किन्तु ऐतिहासिक मालोकम-विलोकन से अब यह डा० दरबारीलाल कोठिया ने नमिचन्द्र नाम के अनेक मान्यता प्राय: पुष्ट हो गई है कि गोम्मटसारादि के कत्ती विद्वानों पर विचार करते हए नेमिचन्द्र नाम के भिन्नने मिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती मोर द्रव्य संग्रह के कर्ता मुनि भिन्न निम्न चार विद्वानो का उल्लेख किया हैने मिचन्द्र सिद्धांतिदेव दो पृथक पृथक-पृथक् विद्वान है, एक १. मिदान चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित एव नहीं। गोम्मटमार प्रादि के प्रणेता लगा गंगवंशीय राजा गचमल्ल प्रारम्भ मे श्री शरच्चन्द्र घोषाल ने अपने द्रव्य स ग्रह के प्रधान सेनापनि चामण्ड गय के गुरु नेमिचन्द्र । इनका के अंग्रेजी संस्करण को विस्तृत भूमिका में गोम्मटसारादि समय विक्रम मवत् १०३५ ईमा की दशवी शती है।' के कर्ता और व्यसग्रह के कर्ता नेमिचन्द्र को एक मानते २. नयनन्दि के शिष्य प्रोर बसूनन्दि सिद्धान्तिदेव के हुए टीकाकार ब्रह्मदेव के इस कथन को स्वीकार किया गूळ नेमिचन्द्र । था कि मेमिचन्द्र का अस्तित्व मालवा के राजा भोज के ३. गोम्मट मार को जीवतत्त्व प्रदीपिका के टीकाकार राज्यकाल ई. सन् १.१८ से १०६०' मे था, क्योकि नेमिचन्द । इन का समय ईसा की भोलहवी शताब्दी है। उपर्युक्त समय में उसका अस्तित्व मानने के अन्य विभिन्न ४. द्रव्य संग्रह के कर्ता नेमिचन्द्र । स्रोतों से सिद्ध नेमिचन्द्र का समय ईसा की दशवी शती के उर्यक्त चार विद्वानो मे से दूसरे एवं चौथे नेमिचन्द्र स्थान पर ईसा को ग्यारहवी शती हो जाता है। को डा० कोठिया ने विभिन्न प्रमाणो क अाधार पर एक श्री घोषाल के इस कपन पर मापत्ति प्रकट करते हुए सिद्ध करते हुए द्रव्यसग्रह के कत्ता नेमिचन्द्र सिद्धात देव पाचार्य जगलकिशोर मुख्तार ने "जैन हितैषी" में "द्रव्य- का समय विक्रम सवत् ११२५ ईमा की ग्यारहवी शती संग्रह का प्रग्रेजी संस्करण नामक एक लेख में लिखा था के प्रास-पास निर्धारित किया है तथा डा. नेमिचन्द्र कि यह मापत्ति तभी उपस्थित होती है जबकि पहले यह शास्त्री विक्रम की बारहवी शती का पूर्वाधं । ये दोनो सिद्ध हो जाय कि यह द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ उन्ही नेमिचन्द्र मत एक ही समय की ओर इगित करत है। सिद्धान्त चक्रवर्ती का बनाया हुपा है जो गोम्मटसार मादि नभिचन्द्र नाम के उपयुक्त विद्वानो के अतिरिक्त १. पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना, पृष्ठ ६४ । 6. वही प्रस्तावना, पृष्ठ २६। २. द्रष्टव्य-युग निबम्बावली, द्वितीय खण्ड, ५. द्रव्यमग्रह प्रस्तावना, पृष्ठ ३२-३६ । पुष्ठ ५३९-५५६ । ६ तार्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परपरा, खण्ड ३. द्रव्य संग्रह, प्रस्तावना, पृष्ठ २६-३२ । २, पृष्ठ ४४१ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य नेमिचन्द्र और उनकाव्य संग्रह प्रवचनसारोबार के कर्ता भी नेमिचन्द्रसरि है, जो ईसा इम गाथा के माधार पर सम्मानित किया गया प्रतीत की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् है, किन्तु ये विद्वान होता है। श्वेताम्बर माम्नाय के है। प्रत: इनका द्रव्यम ग्रह में द्रव्यसग्रह को ढंढारी भाषा मे निबद्ध देश-भाषाकोई सम्बन्ध नही है। वचनिका के लेखक पंडितप्रवर जयचंद छाबड़ा ने द्रव्य. प्राचार्य नेमिचया मित्रान्त चक्रवर्ती और मनि नेमिचन्द्र सग्रह को प्राचार्य नेमिचन्द्र मिद्धातचक्रवर्ती की कृति सिडातिदेव : स्वीकार किया है।' थी छाबडा ने मवत् १८६३ मे श्रावण उपर्युक्त विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि गोम्मटसार वदि चोदम के दिन द्रव्यमग्रह को देश-भाषा-वचनिका मादि प्राथों के रचयिता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धातचक्रवर्ती पूर्ण की थी। इस भाषा-वचनिका मे श्री ब्रह्मदेव कृत ईसा की दसवी शताब्दी के सुप्रसिद्ध गगवशीय राजा संस्कृत टीका की छ.या कई स्थलो पर दिखाई देती है। दोनों टीकामो का तुलनात्मक अध्ययन करने में यह बात राचमल्ल के प्रधान सेनापति चामुण्डगय के गुरु थे। उन्होंने गोम्मटसार कर्मकाण्ड को अन्तिम प्रशस्ति' मे स्पष्ट हो जाती है। माग हो द्रव्य सग्रह के विशेष ध्य म्यान को जानने के लिए श्री छाबड़ा ने ब्रह्मदेव कृत गोम्मटराय का अपरनाम चामुण्डराय ममम्मान नेप टीका को देखने का निर्देश किया है। किन्तु सस्कृत किया है तथा जीवकाण्ड की अनिम गाथा' में तो उन्होंने टीकाकार द्वारा विभिन्न स्थलो पर नेमिचन्द्र को मिद्धातिश्री गोम्मटराय के अतिरिक्त अपने गुरु अजित मेन पद देव इम उपाधि में पाल कृत करने पर भी श्री छाबड़ा का दादा-गुरु प्राचार्य मार्यसेन का भी स्मरण किया है। दम ओर ध्यान नही गया। मभवहे गोम्मटसार के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती अपने ममय के जैन नमिचन्द्र सिद्धान चक्रवर्ती की प्रति प्रमिद्धि के कारण एवं सिद्धांतों के सुप्रसिद्ध प्रतिनीय वेत्ता थे। उनके नाम के मिद्धातचक्री गिद्धातिदेव इन दोनो विशेषणों में मागे पाई जाने वाली "सिद्धांतचक्रवर्ती" यह उपाधि उक्त एक देश गमानना होने में गोम्मटसार प्रादि पोर द्रव्यकपन की पुष्टि करती है। साथ ही जैसे महाकवि माथ। जय महाकवि मग्रह इन दोनो ग्रन्थो के भिन्न-भिन्न कर्ताग्री की पोर कालिदास को "दीपशिखा कालिदाम", महाकवि माघ को श्रो छाबड़ा न ध्यान न दिया हो। साथ ही दोनो अन्यों "घण्टामाघ" और अमरचन्द्रमूरि को "वेणीकृपाणप्रम" केकीलख : की प्राचीन धारणा उनके उक्त लेखन में कह कर उनके तत्-तत् उल्लेखों वाले प्रति प्रसिद्ध दलोको प्रमख कारण प्रतीत होती है। यहा एक विशेष बात यह कंपाधार पर सम्मानित किया जाता है ठीक उसी प्रकार भी ज्ञातव्य है कि मूलाचार को मत टीका के लेखक प्राचार्य नेमिचन्द्र को गोम्मटसार कर्मकाण्ड की - बसुनन्दि को भी एक स्थान पर वसुनन्दि सिद्धानचक्रवर्ती नहपण य चरको छक्खड साहियं प्रविग्घेण । के नाम ग अभिनगा गया है। लगता है यह भी तह महवपकेण मया छक्कखड साहियं सम्मं ।' ऊपर लिषित कारणों का ही प्रतिफल है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ १४६ । इष्ट... नमस्कार कीया है। २. मोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ६६५-६७२ । त्यसग्रह, देव-भाषा-वचनिका, पृष्ठ ८ ३. गोमम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ७३४। (ग) मागे श्री नमिचन्द्र प्राचार्य सिद्धांतचक्रवति इस प्रन्थि का कर्ता पपना लघतारूप वचन कहे हैं। ४. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ३६७ । -द्रव्यमग्रह, देश-भाषा-बनिका, पृष्ठ ७३ ५. (क) तहां श्री नेमिचन्द्र मिद्धांतचक्रवनि प्राचार्य इम ६. मंवत्सर विक्रम तण अठदश-शतत्रय साठ । ग्रन्थ का कर्ता कह शिष्य को ममभावने के श्रावण वदि चौदस दिवस, पूरण भयोमुपाठ ।। मिसकरि" --द्रव्यमग्रह, देशभाषा-बचनिका, पृष्ठ ७४ -- द्रव्यसग्रह, देश-भाषा-वनिका, पृष्ठ २ ७. मुलाचार, सुनन्दि वृत्ति, पृष्ठ १ । (ख) इहा श्री नेमिचन्द्र सिद्धातचक्रवति मगलक थि ८, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गापा ३६७ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३४, कि.१ अनेका इस प्रकार दोनों प्रत्यकारों के भेद का ज्ञान कराने प्रमाद को भावानब के भेदों में नही माना और अविरत वाले उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त निम्न तथ्य भी इसकी के (दूसरे ही प्रकार के) बारह तथा कषाय के पांच भेद पुष्टि में हेतु कहे जा सकते है स्वीकार किये हैं।' १. पाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने सगर्व लिखा ६. द्रव्यसंग्रह के सस्कृत टीकाकार श्री ब्रह्मदेव, है कि--जिस प्रकार चक्रवर्ती छ: खण्डों को अपने चक्ररल जिनका समय अनुमानत: ईसा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से निर्विघ्नतापूर्वक वश में करता है ठीक उसी प्रकार मैंने है। गोम्मटसार और द्रव्यसंग्रह के कर्ता में भेद मानते मति रूपी चक्र के द्वारा षट्खण्ड रूप सिद्धांतशास्त्र की हैं। इसीलिए उन्होंने विभिन्न स्थानों पर द्रव्यसंग्रहकार मच्छी तरह जाना है। किन्तु नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव द्वारा को "सिद्धांतिदेव" विशेषण से अभिहित किया है। इसके उपर्यक्त प्रकार की गर्वोक्ति के कही दर्शन नहीं होते हैं। अतिरिक्त ब्रह्मदेव ने अनेक स्थलों पर प्रवचनसार और भपित इससे भिन्न उन्होंने अपनी लघुता प्रकट करते हुए पंचास्तिकाय पादि ग्रन्थों की गाथानों की तरह प्राकृत अपने पापको 'तणुसुत्तघरेण" और "मुणि" इस विशेषण पंचसंग्रह की चौदह गुणस्थानों का नामोल्लेख करने वाली से उल्लिखित किया है तथा अन्यों को "दोससंचयचुदा उन दो गाथानों को प्रागम-प्रसिद्ध गापा कह कर उद्धृत सुदपुण्णा" एव "मणिणाहा" विशेषणो से। किया है, जो कि किंचित् परिवर्तन के साथ गोम्मटसार २. नेमिचन्द्र पिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा रचित ग्रन्थ जीवकाण्ड में भी पाई जाती हैं। विस्तार रूप से पाये जाते हैं। किन्तु नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव द्रव्यसंग्रह : द्वारा रचित द्रव्यसंग्रह सूत्र रूप मे लिखित लघुकृति है। व्यसंग्रह को श्री ब्रह्म देव कृत संस्कृत टीका के ३. नेमिचन्द्र सिद्धातचक्रवर्ती अपने ग्रन्थों में अपना उत्थानिका वाक्य से ज्ञात होता है कि प्राचार्य नेमिचन्द्र पौर अपने गुरुजनों का नामोल्लेख करते है, किन्तु सिद्धांतिदेव ने मालव देश के घारा नामक नगर के नेमिचन्द्र मनि लिखा है।' अधिपति राजा भोजदेव के संबंधी श्रीपाल के माश्रम ४. नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने अपने प्रमुख श्रावक नामक नगर में स्थित श्री मनिसवत तीथंकर के त्यालय गोम्मट राय (चामुण्डराय का उल्लेख किया है। मे भाण्डागार प्रादि अनेक नियोगों के अधिकारी सोम ५. प्राचार्य जुगलकिशोर महतार ने दोनों प्रकारो नामक नगरश्रेष्ठी के निमित्त पहले २६ गाथानों वाले के भिन्न-भिन्न होने मे यह भी कारण प्रस्तुत किया है लघद्रव्यसंग्रह की रचना की थी, पुनः तत्त्वों की विशेष कि-द्रव्यसंग्रह के कर्ता ने भावास्रव के भेदों में प्रमाद । म प्रमाद जानकारी हेतु बृहद्रव्यसग्रह की रचना की गई।' को भी गिनाया है और प्रविरत के पांच तथा कषाय के द्रव्य मंग्रह प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव की एक चार भेव ग्रहण किये है, परन्तु गोम्मटसार के कर्ता ने प्रमर कृति है। इतनी लघु कृति में इतने अच्छे ढंग से १. बृहद्रव्य संग्रह, गाथा ५८ । ६. पथ मालवदेशे धारानामनगराधिपतिराजभोजदेवा२. दव्यसंग्रहामणं मणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा । भिधानकलिकालचक्रवतिसंबंधिनः श्रीपालमहामण्डसोधयतु तणुसुत्तघरेण मिचन्द मणिणा भणियं ज॥ लेश्वरस्य संबंधिन्याश्रमामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीयंकर. ३. दृष्टव्य-पुरातन जैन वाक्य सूची प्रस्तावना पृष्ठ ६३ । चेत्यालये भाण्डागाराचनेकनियोगाधिकारिसोमाभि४. बृहद्रव्य संग्रह, गाथा ५८ । घानराज्ये ष्ठिनो निमित्तं श्रीनेमिचन्द्रसिांतदेवः ५. पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना, पृष्ठ ६३ । पूर्व षडर्विशासिगाथामिलद्रव्यसंग्रह करवा पश्चाहि. ६. पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना पृष्ठ ९४ । शेषस्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्याधिकारशुद्धिपूर्वकस्वेन ७. द्रव्य सग्रह, प्रस्तावना, पृष्ठ ३४, टिप्पणी १। व्याख्य वृत्तिः प्रारभ्यते । ८. प्रयागमप्रसिद्धगाथायेन गुणस्थाननामानि कथयति । -बृहद्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, पृष्ठ १-२ -बहदाव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, पृष्ठ २८ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य मिव और उनका प्रम्प संग्रह जोबादि पाण्यों का विवेचन उनके दुष्य का जीवन्त एवं समोचोन प्रतीत होता है कि लघु पोर बहद् ये प्रतीक है। इसके टीकाकार ब्रह्मदेव ने अपनी टोका में विशेषण भी ब्रह्मदेव द्वारा लगाये गये है। उनके पूर्व इन विभिन्न स्थानों पर गाथामो को सूत्र कह कर उल्लिखित विशेषणो का समायोजन अन्यत्र दृष्टिगत नही होता है, किया है। साथ ही उनके प्रति अपनी घनीभूत श्रद्धा को पतः मूल मे तो २६ गाथाम्रो बाले ग्रन्थ का नाम प्रकट करते.एनेकों स्थलों पर उन्हे भगवान् कह कर "पयस्थलक्खण" है और ५८ गाथाम्रो वाले प्रन्थ का नाम संबोधित किस।' "द्रव्यसंग्रह"। यह बात अलग है कि श्री ब्रह्मदेव द्वारा लाप संग्रहहनग्य संवह नामकरण : लघु और बृहद् विशेषण लगाने के पश्चात् उक्त दोनो ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका से शात होता है कि प्राचार्य ग्रन्थों को लघुद्रव्यसंग्रह नाम से प्रसिद्धि मिली है। मे मिचन्द्र ने सर्वप्रथम २६ गाथानों वाले लषद्रव्य संग्रह की रचना की थी। इसकी अंतिम गाथा इस प्रकार है लघद्रय संग्रह : उपलब्ध लघुसग्रह में कुल २५ गाथाएं पाई जाती हैं। सोमच्छलेन रह्या पयस्थलक्खणकराउ गहाम्रो। जबकि ब्रह्मदेव की टीका के अनुसार २६ गाथायें होनी भवदयारणिमित्त पणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥' चाहिए। प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने इसकी एक इस गापा से तीन विशेष बातो पर प्रकाश पड़ता है१. इस प्रभ्य की रचना सोम नामक श्रेष्ठी के निमित्त HTRोनिमित गाथा छूट जाने की संभावना प्रकट की है।' की गई थी। इस लघुद्रव्य संग्रह मे सर्वप्रथम विषय निर्देश के २. इस ग्रन्थ का नाम "पयस्थलक्षण" है। पश्चात् षड द्रव्यों का उल्लेख करके काल को छोड़कर ३. इस प्रस्थ के रचयिता श्री नेमिचन्द्र गणि है। शेष पांच द्रव्यों को वहप्रदेशी होने के कारण प्रस्तिकाय उपर्युक्त गाषा ब्रह्मदेव कृत सस्कृत टोका को कहा है। पून: जीवादि सप्त तत्त्वो मे पुण्य-पाप का समाउस्थानिका का एक प्रमुख प्राधार है जिसे ब्रह्मदेव ने अन्य वेश कर नौ पदार्थों का उल्लेख है । इसी क्रम मे जीव का जानकारी के साथ विस्तारपूर्वक लिखा है। नामकरण के लक्षण, मूतिक पुद्गलद्रका के छ: भेद, धर्म, अधर्म, पाकाश संबंध में मात्र इतना कहना ही पर्याप्त है कि "दब्ब. और काल का स्वरूप बतलाते हए जीवादि द्रव्यों के प्रदेशो सगहामण" इत्यादि गाथा हा "द्रव्य सग्रह" "इस नाम क का उल्लेख किया है। पूनः जीवादि सप्त पदाथों का मूल में हेतु है। डा. दरबारीलाल कोठिया ने लिखा है स्वरूप बतलाते हए शुभाशुभ प्रकृतियों, सर्व द्रव्यों का कि द्रव्य संग्रह नाम की कल्पना ग्रन्धकार को अपनी पूर्व उत्पाद, व्यय, प्रौव्यपना, कर्मों के नाश करने हेतु काय रचना के बाद इस द्रव्यसंग्रह को रचते समय उत्पन्न हुई को निश्चल और मन को स्थिर करके रागद्वेष को त्यागन है और इसके रचे जाने तथा उसे द्रव्यसग्रह नाम दे देने का निर्देश तथा प्रात्मध्यानपूर्वक सुख प्राप्ति के उपाय का के उपरान्त पदार्थलक्षण (पयत्यलक्खण) कारिणी गाथाम्रो विवेचन किया है। अन्त मे मोह रूपी हाथी के लिए केशरी को भी प्रन्यकार अथवा दूसरो के द्वारा लघुव्यसग्रह नाम के समान साधुनों को नमस्कार करके अपने नामोल्लेखदिया गया है।"डा. कोठिया के उक्त कथन के सदर्भ मे पूर्वक कहा गया है कि सोमश्रेष्ठो के बहाने से भव्य-जीवो मात्र इतना ही कहना अपेक्षित प्रतीत होता है कि इतनी के उपकारार्थ इस “पयत्थ-लक्खण" नामक ग्रन्थ की रचना क्लिष्ट कल्पना की अपेक्षा यह मानना अधिक स्वाभाविक को है। १.(क) "भगवान् सूत्रमिद प्रतिपादयति ॥ १८१ एवं १९२ भी अष्टव्य है। बृहद्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, पृष्ठ ३ २. लद्रव्य संग्रह, गाथा २५ । (ख) "भगवतां श्री नेमिचन्द्रसिदान्तदेवानाभिति।" । -यहन्तव्य संग्रह ब्रह्मदेव टीका ४६ ३. द्रव्य संग्रह, प्रस्तावना, पृष्ठ २०.२।। इसके लिए उपयुक्त टीका के पृष्ठ ८५, १३७, ४. द्रव्य संग्रह प्रस्तावना, पृष्ठ २१ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, वर्ष ३४, किरण १ पहाव्यसंग्रह : मे जीव का लक्षण व्यवहारनय से कहा है पौर शुखमय बहदद्रव्यसग्रह में कुल ५८ धारायें है, जो नोन की अपेक्षा शुद्ध दर्शन और ज्ञान ही जीव का लक्षण है। अधिकारों में विभक्त है। प्रथम अधिकार म कुल २७ जीव के तृतीय विशेषण "प्रमूतिक" की चर्चा करते गाथायें हैं, इसे षडद्रव्यपंचास्तिकम्य पनिपादकनामा प्रथम हुए ग्रन्थकार ने लिया है कि निश्चयनय से जीव मे पाँच शिकार रहा है। द्वितीय अधिकार में ११ गाथाय है, वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध पोर घ3 स्पर्श नहीं है, प्रतः इसे सप्ततस्व नवपदार्थ प्रतिपादक द्वितीय महाधिकार कहा जीव प्रमूर्तिक है और व्यवहार नय की अपेक्षा कमों के है। तृतीय अधिकार में २० गायाय है, इसे मोक्ष माग बन्धन के कारण मूर्तिक है। प्रतिपादक नामा तृतीय ग्राघकार कहा है। इन तीनो जोन के चतुर्थ विशेषण 'कत्ता" पर विचार करते प्रधिकारो को श्री ब्रह्मदेव न परेक अन्तराधिकारी में हुए कहा है कि-व्यवहारनय से प्रात्मा, (जीव) पदगल वपिन अन्तराधिकारी का विभाजन कर्म प्रादि का कत्ता है, निश्चय नय से चेतन-कर्म का विषय-विभाजन को दोष्ट महत्वपूर्ण है। न्तु यह कर्ता और शुद्ध नय की अपेक्षा शुद्ध भावों का का है। साकार का होते, प्राचाय नमिचन्द्र कृत नहीं। जीव का पचम विशेषण है - स्वदेह परिमाण । हाव्य संग्रह प्राचार्य नमिचन्द्र न सवप्रयम तदनुसार ब्यवहारनय की अपेक्षा से यह जीव समदधात जीव-जीव द्रव्यों का निर्देश करने वाले भगवान् जिनन्द्र व राहत प्रवस्था मे सकोच तथा विस्तार रूप अपने बोलेको को नमस्कार किया है। शरीर के परिमाण में रहता है और निश्चय नय से असंख्य पुनः जीव का लक्षण करत हुए लिखा कि १. जो प्रदेशों को धारण करने वाला है। योगमय है.३. अतिक, ४. पाता है, जीव का षष् विशेषण है -भोकमा। तदनसार माता ससार म विद्यमान व्यवहारनय में यात्मा (जीव) मुख-दुःख रूप पुद्गल कर्म हैन सिद्ध है. स्वभावम ऊर्ध्वगमन करने वाला है फलो । गाना है और निश्चय नय को अपेक्षा प्रपने प्रर्थात जिसमें उपर्युक्त नो विशानाय पाई जय व जाव चेतन भाव का भोक्ता है। है। जीव के प्रथम विशेषण-- “जो जीता है" को ध्यान जीव , सप्तम विशेषण है-ससार में विद्यमानता। में रख कर व्यवहार और निश्चयनय का अपेक्षा सजाव तदनुसार अन्य कार ने संभागे जीवो का विवेचन करते हए के दो पृथक्-पृथक् लक्षण करते हुए कहा है कि -जो भून, लिया लिया है कि --पृथ्वी, जल तेज, वायु और वनस्पति के भविष्य एवं वर्तमानकाल में इन्द्रिय, वन, प्रायु और । भेद म एकन्द्रिय के घार के स्थावर जीवो के अनेक भेद है श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणो को धारण करता है व तया शव प्रदिही द्वन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पोर व्यवहारनय से जीव है तथा निश्चयनय स जसक चतना। पचेन्द्रिय स जीव है। पचन्द्रिय के दो भेद हैं तथा शख है वह जीव है। प्रादिदीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय प्रौर पचेन्द्रिय प्रस जीवके लक्षण जिस उपयोग को चर्चा की गई जीव है। पचन्द्रिय के दो भेद है- सज्ञी और संजी। है वह उपयोग दो प्रकार का है - दर्शनोग्योग और शेष द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय मन रहित ज्ञानोपयोग । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है - चक्षुदर्शन, प्रसज्ञी है। एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रचक्षदर्शन, अधिदर्शन और केवल दर्शन । ज्ञानोपयोग प्रकार के है-इस प्रकार उपर्युक्त कुल सात प्रकार के पाठ प्रकार का है --कुमति, कुथुन, कुपवधि, मति, श्रुत, जीवो के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार अवधि, मनःपर्यय तथा केवल । मे से कुप्रधि, प्रवधि, है। अतः ये जीव समास (सक्षप मे) चौदह प्रकार के हैं। मनः पर्यय मोर केवल ये चार प्रत्यक्ष है तथा शेष चार इनमे ससारी जीव अशुद्धनय की दृष्टि से चौदह मार्गणा अप्रत्यक्ष । उपर्युक्त पाठ प्रकार के ज्ञानोपयोग और चार तथा चोदह गुणस्थानो के भेद से चौदह-चौदह प्रकार के प्रकार के दर्शनोपयोग को धारण करने वाला सामान्य रूप होते है । पोर प्रशुदनय से सभी ससारी जीव शुद्ध है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचार्य नेमिनार का यह जीव का अष्टम विशेषण है-सिद्ध, तदनुसार सिद्ध हैं। क्योंकि ये विद्यमान (अस्ति) हैं और शरीर के परमेष्ठी ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों से रहित मोर समान बहुप्रवेशी हैं । अत: इनका पस्तिकाय नाम सम्यक्त्वादि पाठ गुणों से युक्त तथा प्रतिम शरीर के सार्थक है। जीव, घमं मोर अधर्म इन तीन द्रव्यों में परिमाण से किचित् न्यून पाकार वाले होते हैं। पसंख्यात प्रवेश हैं। पाकाण मे अनन्त प्रदेश है। जीव का नबम विशेषण है-उर्ध्वगमन स्वभावः पुद्गल तीनों (संख्यात, असंख्यात भोर अनन्त) प्रकार तदनुसार सिद्ध (जीव) उध्वंगमन स्वभाव के कारण लोक के प्रदेशों वाले है। काल का एक ही प्रदेश है, प्रतः के अग्र भाग में स्थित हैं नित्य है और उत्पाद व्यय से काल को काय नहीं कहा गया है। एक प्रदेशी परमाणु युक्त है। भी अनेक व स्काष रूप बहुप्रदेशी हो सकता है, प्रतः इस प्रकार जीव द्रव्य का विवेचन करने के पश्चात् पुद्गल परमाणु को भी उपचार से काय कहा है । जितना प्रारम्भिक प्रतिज्ञानुसार जीव के प्रतिपक्षी मजीव द्रव्य का प्राकाश प्रविभागी पुद्गलाणु से रोका जाता है वह सब विवेचन करते हए कहा है कि मजीव द्रब्य -पुदगल, धर्म, परमाणु को स्थान देने में समर्थ प्रदेश है। मधर्म, प्राकाश पौर काल के भेद से पांच प्रकार का है। इस प्रकार छहाव्यों के प्रदेशों की चर्चा करने के इनमे रूप, रस, गन्ध मोर स्पर्श का धारक पुद्गल द्रव्य पश्चात् बतलाया है कि पूर्वोक्त जीव भोर अजीव द्रव्य मूर्तिमान् है और शेष चारों द्रव्य प्रमूर्तिक । पुदगल द्रव्य- कथंचित् परिणामी है, प्रतः जीव मोर पुदगल की सयोग बाब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत परिणति से बने पर्याय रूप पासव, बन्ध, संवर, निर्जरा, पोर प्रातप इन पर्यायो वाला है। धर्मद्रव्य गमन में मोक्ष, पुण्य और पाप ये सब नव पवार्य है। मानव के परिणत पुदगल और जीवों को गमन मे सरकारी है। दो भेद हैं-भावानव मौर व्रव्याखव। मात्मा के जिस जैसे मछलियों के गमन मे जल सहकारी है। गमन न करते परिणाम से कर्म का प्रास्रव होता है वह भावानव है और हुए पुद्मलो प्रथवा जीवों को धर्मद्रव्य गमन नही कराता जो ज्ञानावरणादि रूप कर्मों का पात्र है वह द्रव्यानव है । अधर्मद्रव्य ठहरते हए पुदगल अथवा जीवों को ठहराने है। भावास्रव के मिथ्यात्व, मविरति, प्रमाद, योग पौर में सहकारी है। ठीक इसी प्रकार जैसे छाया यात्रियो को क्रोधादि कषाय रूप पांच भेद हैं, जिनके क्रमशः पाच, ठहरने मे सहकारी है। गमन करते हुए पुदगल अपवा पांच पन्द्रह, तीन और चार भेद है। द्रव्यास्रव भनेक भेदों जीवों को प्रधर्मद्रव्य नही ठहता है। प्राकाशवध्य-जीव वाला है। बम्ध दो प्रकार का है-भावबन्ध पौर द्रध्य मादि शेष द्रव्यों को अवकाश देने वाला है। यह बन्ध । जिस चेतनाभाव से कम बन्यता है वह भावबन्ध दो प्रकार का है । जितने प्राकाश मे जीव, पुदल, है और कर्म तथा पात्म-प्रदेशों का परस्पर मिलना दम्य धर्म, अधर्म और काल ये शेष पाँच द्रव्य पाये बन्ध है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग पौर प्रवेश के भेदों जाते है वह लोकाकाश है और लोकाकाश के बाहर से बन्ध चार प्रकार का है। योगों से प्रकृति और प्रदेश मलोकाकाश है। कालद्रव्य दो प्रकार का है-व्यवहार बम्ब होते है तथा कषायों से स्थिति और अनुभाग काल प्रोर निश्चयकाल । जो द्रव्यों के परिवर्तन में बन्ध । संवर दो प्रकार का है-द्रव्य संवर और भावसहायक, परिणामादि लक्षण वाला है वह व्यवहार काल है सवर । मात्मा का जो परिणाम कर्म के मानव को रोकने पौर जो वर्तना लक्षण वाला है वह निश्चय काल है। में कारण है वह भाव संवर है और द्रव्य-मानव का रुकना निश्चयकाल लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नराशि द्रव्य संबर है। पांच व्रत पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश की तरह परस्पर भिन्न होकर स्थित है। वे कालाण धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषह मोर भनेक भेदों वाला मसंख्यात द्रव्य हैं। चारित्र ये सब भाव संबर के भेद हैं। निर्जरा के दो भेद उपयुक्त जिन जीवादि द्रव्यों की चर्चा की गई है, हैं-भावनिर्जरा पौर द्रव्यनिर्जरा।मात्मा के जिस उनमें काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य मस्तिकाय परिणाम से उदयकाल में अथवा तप द्वारा फल देकर को Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, बर्ष ३४, कि.१ का नाश होता है वह भाव निर्जरा है और कर्म-पुद्गलों मोल-मार्ग का वर्णन करने के पश्चात् प्राचार्य का झड़ना द्रव्य निर्जरा है। मोक्ष दो प्रकार का है-- नेमिचन्द्र ने उस निश्चय पोर व्यवहार रूप मोक्ष-मार्ग के भामोक्ष प्रो. द्रा मोः । सम्पूर्ण कमी के नाश का साधक रूप ध्यान अभ्यास की प्रेरणा देते हुए लिखा है कारण तो प्रात्मा है वह भाव मोक्ष है और कर्मों का कि ध्यान करने से मुनि नियम से निश्चय और व्यवहार या से सर्वथा पृशक होना द्रव्य मोक्ष है। शुभ पोर रूप मोम-मार्ग को पाता है, इसलिए चित्त को एकाग्र कर अशुभ भावो से युक्त जीव क्रमशः पुण्य भोर पाप रूप ध्यान का अभ्यास करे। वह ध्यान अनेक प्रकार का है, हाता है । साता वेदनीय, शुभ-प्रायु, शुभ नाम और उच्च इसकी सिद्धि के लिए एकाग्र चित्त प्रावश्यक है और गोत्र (शुभ गोत्र) ये पूण्य प्रतियां है, शेष पाप एकाग्रचित्त के लिए इष्ट पोर अनिष्ट रूप जो राग द्वेष एवं मोह रूप इन्द्रियो के विषय है उनका त्याग प्रकृतियों है। प्रावश्यक है। इस प्रकार नौ पदार्थों के विवेचन प्रसंग में मोक्ष की अनेक प्रकार के ध्यानो के प्रसग में पदस्थ ध्यान की चा करने के पश्चात उस मोक्ष प्राप्ति का कारण अथवा चर्चा करते हुए मनि नमिचन्द्र ने पच परमेष्ठियो के वाचक मार्ग क्या है ? इस बात को ध्यान में रख कर प्राचार्य पंतीस सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षर रूप नेमिनन्द्र ने लिखा है कि -सम्यगग्दर्शन, सम्यग्यान पोर मंत्रो के जाप का निर्देश दिया है। उन पच परमेष्ठियो में चार घातिया कर्मों के नष्ट करने बाल तथा अनन्त सम्याचारित्र इन तीनों का समुदाय व्यवहार नय से मोक्ष दर्शन, सुख, ज्ञान और बोयं के धारक, शुभ देह म स्थित, कारण है तथा निश्चय नय से उपर्युक्त सम्यग् दर्शन, शुद्ध यात्म-स्वरूप प्ररहन्त भगवान् हैं। प्रष्ट कर्म रूप सम्यमज्ञान और सम्यकचरित्रमयी अपनी प्रात्मा ही मोक्ष शरीर को नष्ट करने वाली, लोकाकाश भोर मलाकाकाश का कारण है। क्योकि आत्मद्रव्य को छोड़ कर अन्य को ज्ञाता-दृष्टा, पुरुषाकार, लोक के अग्रभाग में स्थित किसी द्रव्य में रत्नत्रय विद्यमान नही रहता है, इसलिए प्रात्मा सिद्ध परमेष्ठी है । दर्शनाचार और ज्ञानाचार को रत्नपघारी प्रात्मा ही निश्चय नय से मोक्ष का कारण मख्यता को लेकर वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार है। जीवादि सप्त तत्त्वो अथवा नो पदार्थों पर श्रद्धान इन पाचो प्राचारो मे जा स्वयं तत्पर है तथा अन्य को करना सम्यकत्व है। वह सम्यक्त्व प्रात्मा का स्वरूप है भी लगाते हैं वे मनि प्राचार्य है। जो रत्नत्रय से युक्त मोर उसके होने पर दुभिनिवे# (संशय, विपर्यय मोर प्रतिदिन धर्मोपदेश में रत है तथा मुनियों में प्रधान है वह पनघवसाय) से रहित सम्यग्ग्यान होता है। प्रात्मा मौर प्रात्म। उपाध्याय है। दर्शन पोर ज्ञान से परिपूर्ण, मोक्षउससे भिन्न पर पदार्थों का संशय, विमोह तथा विभ्रम मार्ग स्वरूप सदा शुद्ध चारित्र का जो पालन करते है वे रहित शान होना सम्यग्ज्ञान है, वह साकार मोर भनेक साधु परमेष्ठी है। भेदो वाला होता है । पदार्थों (भावों) मे भेद न करके, इसी प्रसंग मे साधु के निश्चय और परम ध्यान प्राप्ति विका न करके पवापों का जो सामान्य ग्रहण है वह का उल्लेख करते हुए कहा है कि-एकाग्रता को प्राप्त दर्शन है। छद्मस्थ संसारी जोवो के दर्शनपूर्वक ज्ञान सनपूर्वक शान कर जिस किसी वस्तु का चिन्तन करते हुए जब साधु होता है, दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते। किन्तु केवलो निरीह वत्ति (हच्छा रहित) होता है तब उसके निश्चय भगवान के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग युगपद होते ध्यान होता है और जब मन, वचन काय की क्रिया से है। प्रशुभ कार्य से निवृत्ति और शुभ कार्य में प्रवृत्ति रहित होकर अपनी प्रास्मा मे ही तल्लीन होता है तब व्यवहार चरित्र है, जो व्रत समिति मोर गुप्ति रूप है। उसके परम ध्यान है। क्योकि तप, श्रुत और व्रत का संसार के कारणो का नाश करने के लिए ज्ञानी जीव की धारक प्रात्मा ध्यान रूपी रथ की धुरी को धारण करने जो बाह्य और प्राभ्यन्तर क्रियामो का निरोध है वह मे समर्थ होता है, पत: ध्यान की प्राप्ति के लिए उपयुक्त उत्कृष्ट सम्यक चारित्र है। तीनों को माराधनाकरें। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य नेमिन और उनका व्य संग्रह सबसे पन्त मे मुनि नेमिचन्द्र ने अपनी लघुता प्रकट है इसका उल्लेख किया है। उन्होंने निश्चय, व्यवहार करते हुए दोष विहीन एवं ज्ञान सपन्न मुनीश्वरो से द्रव्य शुद्ध भोर पशुद्ध इन चार नयों के माध्यम से जीव संग्रह ग्रंथ के सशोधन का निवेदन किया है। और मजीव इन द्रव्यों का विवेचन किया है। गाथा बृहद्रव्य संग्रह के निरूपण को विशेषता : २६ में पुदगल परमाणु के प्रस्तिकायत्व के प्रसंग में १. प्राचार्य नमिचन्द्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ को द्वितीय गाथा "उवयारा" शब्द का प्रयोग है। प्रतः जिस प्रकार में जीव का लक्षण उपस्थित करते हुए उसके नौ विशेषण प्रत्येक नय-विवक्षा से ज्ञेय पदार्थ म भेद पैदा हो जाता है, दिये है। ये नो विशेषण अपने प्राप मे महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार उक्त गाथा मे नय का स्थानापन्न शब्द क्योंकि इन नौ विशेषणो के माध्यम से प्राचार्य नेमिचन्द्र "उवयारा" अन्य किसी ज्ञेयान्तर की पोर इंगित करता ने तत्कालीन विभिन्न दार्शनिको द्वारा मान्य सिद्धांतों का है। वह ज्ञेयान्तर क्या है ? यह एक विचारणीय विषय खण्डन किया है। मामान्यतया चार्वाक सिद्धांत में मात्मा है साथ ही पूर्व में व्यवहार-नय का प्रयोग किया गया है, का अस्तित्व स्वीकार नही किया गया है। प्रतःप्रथम मतः "उवयारा' शब्द व्यवहार-नय का प्रपरनाम प्रतीत विशेषण-जीता है, यह चार्वाक सिद्धांत का खण्डन करता होता है। अन्यथा व्यवहार के अतिरिक्त "उपचार" की है। नयायिक गुण पोर गुणी (ज्ञान प्रौर मात्मा) इन कल्पना का अन्य उद्देश्य क्या हो सकता है ? दोनों में एकान्त रूप से भेद मानते हैं, अत: जीव का ३. प्राचार्य नेमिचन्द्र ने जीव और मजीव इन दो द्वितीय विशेषण - "उपयोगमय" नैयायिकों के सिद्धांत का द्रव्यों के विवेचन प्रसंग में निश्चय पोर व्यवहार-मादि खण्डन करता है। इसी प्रकार भट्ट भोर चार्वाक के नयों की शैली को अपनाकर विवेचन किया है, किन्तु शेष सिद्धांत का खण्डन करने के लिए "जीव के अमूर्तपने की प्रास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा भोर मोक्ष इन पांच तत्वों के स्थापना", सांख्यो के खण्डन हेतु "मात्मा के कर्मों के कर्ता विवेचन प्रसंग में उपर्युक्त अभिप्रेत निश्चय व्यवहारपरक रूप की स्थापना", नैयायिक, मीमामक और सांख्यों के नय-शैली का समन्तात् परित्याग कर द्रव्य-भाव शैली का खण्डन हेतु "मात्मा का भोक्तृत्व रूप", सदाशिव के अनुसरण किया है । अर्थात् शेष पाँच द्रव्यो को द्रण्यासवखण्डन हेतु "प्रात्मा का ससारस्थ" कथन, भट्ट भोर भावानव प्रादि के माध्यम से निर्दिष्ट किया है। यहाँ चार्वाक के खण्डन हेतु 'प्रात्मा का सिद्धत्व स्वरूप" और प्रश्न उपस्थित होता है कि प्राचार्य नेमिचन्द्र ने पर्व भाण्डलीक मन का अनुसरण करने वालो के विण्डन हेतु अभिप्रेत निश्चय-व्यवहार परक नय-शैली का अन्त तक मात्मा (जीव) के स्वाभाविक ऊध्वंगमन का विवेचन निर्वाह क्यों नहीं किया? क्या ऐसा करना संभव नही किया गया है। था? पथवा हमके मूल मे प्राचार्य नेमिचन्द्र का कोई २. जिम नयवाद सिद्धात को नीव पर जैन-दार्शनिको प्रम्य अभिप्राय है ? विद्वज्जन स्पष्ट करें! का परमत खण्डन और स्वमत मण्डन रूप प्रासाद खड़ा ४. नयों एवं द्रव्य-भाव पक्षों के प्रयोग से पूर्व लेखक हमा है, वही नयवाद मिद्धात प्राज जैन-विद्वानी में पसर ने उन्हें परिभावित नहीं किया, जिससे पाठकों को इन विवाद उपस्थित कर रहा है। इसका मूल कारण है- शब्दों के पर्यों को समझने हेतु प्रन्य ग्रन्थों का सहारा नय सिद्धांत का मम्यग मर्थ न समझना। विभिन्न प्राचार्यों लेना पड़ता है। कही-कही नयादिकों को स्पष्ट घोषणा ने नय के भनेक भेद किये हैं, जिन प निश्चय पोर व्यवहार किये बिना भी विवेचन दृष्टिगत होता है। ऐसी स्थिति ये दो प्रमुख है। प्राचार्य ने मिचन्द्र ने द्रव्य-संग्रह मे नय- में नय-विवक्षा भी पाठकों के हस्तगत हो जाती है। प्रतः विवक्षा को प्रायः स्पष्ट रूप में ही प्रस्तुत किया है। उपयुक्त महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को दृष्टि से प्रोझल किये बिना मर्थात उन्हे कौन सा कथन किस नय-विवक्षा से प्रभोष्ट एक तर्कसंगत समाधान की खोज सतत बनी रहती है। १. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा २६ बदेसो "उवयारा" तेण य कामो भणंति सम्वण्ह ।। एयपदेसो वि मण जाणाखषप्पदेसदो होदि। २. द्रष्टव्य-बहद्व्य संग्रह, गाथा १७, १८, १९,२५॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, बर्ष १४,किरण सम्म ग्रन्थ : पुरातन जैनवाक्य सूची गोम्मटसार, कर्मकाण्ड सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर"। अनुवादक-पण्डित मनोहरलाल । प्रकाशक-वीर सेवा मदिर, सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र ईस्वी सन् १९५० । माश्रम, प्रगास ईस्वी सन् १९७१ । बहद्रव्य संग्रह (ब्रह्मदेवकृत सस्कृत टीका सहित) गोम्मटसार, जीवकाण्ड अनुवादक - अनुल्लिखित । मनुवादक-पण्डित खूबचन्द्र जैन । प्रकाशक--श्री शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान प्रकाशक-श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र श्री शांतिवीरनगर, श्री महावीर जी प्रकाशन वर्ष पाश्रम, भगास ईस्वी सन् १९७२। अनुल्लिखित । जैनेन्द्र सिद्धांतकोश, भाग ३ मूलाचार (वसुनन्दि टीका सहित), प्रथम भाग लेखक-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी। सम्पादक-पण्डित पन्नालाल सोनी।। प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-१ सन् १९७२। प्रकाशक -माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, तीर्थंकर महावीर पोर उनकी प्राचार्य परपरा हीराबाग, गिरगाव बम्बई वीर निर्वाण संवत् २४४७ लेखक-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य । युगवीर निबन्धावली, द्वितीय खण्ड प्रकाशक-श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्, लेखक-जगल किशोर मुख्तार "युगवीर"। (म०प्र०) नवम्बर, १९७४ । प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट २१, दरियागज, दिल्ली द्रव्यसंगह (देश भाषा वनिका सहित) दिसम्बर, १६६७ । सम्पादक-डा० दरबारी लाल कोठिया। लघुद्रष्य सग्रह प्रकाशक-श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन प्रन्यमाला द्रष्टव्य-बृहद्रव्यसंग्रह, पृष्ठ २०६ म २१३०/वाराणसी-५ अगस्त, १९६६। -जैन विश्वभारती, लाइन 00 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली प्रकाशन-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री मोमप्रकाश जैन, पता--२३, दरियागज दिल्ली-२ प्रकाशन प्रवषि-मासिक राष्ट्रिकता-भारतीय सष्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन राष्ट्रिकता-भारतीय पता-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ __ मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। --प्रोमप्रकाश जैन, प्रकाशक पाय Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्मा सर्वथा असंख्यात प्रदेशी है LD पं० पप्रचन्द शास्त्री, नई दिल्ली द्रव्यों को पहिचान के लिए प्रागम मे पृथक-पृथक रूप को ज्ञाता नहीं हो सकती- - इसलिए नयाश्रित ज्ञान रूप से द्रव्यो के गुणों को गिनाया गया है, सभी द्रव्यो छमस्थ के अधीन होने से वस्तु के एक देश को जान के अपने-अपने गुण-धर्म नियत है। कुछ साधारण हे और सकता है । वह अंश को जाने-कहे, यहां तक तो ठीक है। कुछ विशेष । जहां साधारण गुण वस्तु के अस्तित्वादि पर, यदि वह वस्तु को पूर्ण वेसी पोर उतनी हो मान को इंगित करते है वहां विशेष गुण एक द्रव्य की बैठे तो मिथ्या है। यतः वस्तु, ज्ञान के अनुसार नही मन्य द्रव्यो से पृयकता बतलाते है। अस्तित्व, वस्तुत्व, होती पपितु वस्तु के अनुसार ज्ञान होता है । प्रतः जिसने द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व ये अपनी शक्ति अनुमार जितना जाना वह उसकी शक्ति से जीव द्रव्य के माधारण गुण है और ज्ञान' दर्शन, सुख, (सम्यग्नयानुसार) उतने रूप में ठीक है। पूर्ण रूप तो वीर्य, चेतनत्व प्रौर ममतत्व ये विशेष गुण है । कहा भी केवलज्ञानगम्य है. जैसा है वैमा है। नय ज्ञान उसे नही जान सकता है । फलतः"लक्षणानि कानि" मस्तित्वं, वस्तत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं, प्रात्मा के स्वभाव रूप असरूपात प्रदेशित्व को किसी प्रगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं, चेतनत्वं, अचेतनत्व, मूर्तत्वं प्रमूर्तस्व भी अवस्था में नकारा नही जा सकता। स्वभावत:पात्मा द्रव्याणां वश सामान्य गुणाः। प्रत्येकमष्टावष्टो सर्वेषाम्" निश्चय-नय से तो प्रसंख्यात प्रदेशी है हो, व्यवहार नय ज्ञानवर्शतसुखवीर्याणि स्पर्शरसगंषवर्णाः गति हेतुत्वं, से भी जिसे शरीर प्रमाण कहा गया है वह भी मसख्यात स्थितिहेतुत्व प्रवगाहनहेतुत्वं वर्तनाहेतुत्वं चेतनमचेतनत्वं प्रदेशी ही है। यतः दोनों नयों को द्रव्य के मल स्वभाव मूर्तममूर्तत्वं द्रव्याणां षोडशविशेषगुणाः । का नाश इष्ट नहीं। असंख्य प्रदेशित्व प्रात्मा का सर्वकाल प्रत्येक जीवपुद्गलयोर्षट् ।"- (प्रालापपद्धति गणाधिकार) रहनेवाला गुण-धर्म है, जो नयोंसे कभी गौण और कभी मख्य जीव मे निर्धारित गुणो को जीव कभी भी किसी भी कहा या जाना जाता है। ऐसे में प्रात्मा को अनेकान्त दष्टि अवस्था मे नही छोड़ता इतना अवश्य है कि कभी कोई गुण में प्रप्रदेशी मान लेने की बात ही नही ठहरती। क्योंकि मुख्य कर लिया जाता है और दूसरे गोणकर लिये जाते है। "मने कातवाद" (छपस्थों को) पदार्थ के सत्स्वरूप मे उसके यह पनेकान्त द्रष्टि को अपनी विशेष शैली है तव्य मे गौण प्रश को जानने की कुंजी है, गौण किए गए अंशों को नष्ट किए गए गुण-धर्मों का द्रव्य मे सर्वथा प्रभाव नहीं हो करने या द्रव्य के स्वाभाविक पूर्ण रूप को जानने की कजी जाता-द्रव्य का स्वरूप पपने मे पूर्ण रहता है। यदि नही। यदि इस दृष्टि में वस्तु का मर्वथा एक अंश-रूप ही गौण रूप का सर्वथा प्रभाव माना जाय तो वस्तु-स्वरूप मान्य होगा तो "अनेकान्त सिद्धान्त" का व्यापात होगा। एकांत-मिथ्या हो जाय और ऐसे में अनेकान्त दृष्टि का भी व्याघात हो जाय। अनेकान्त तभी कार्यकारी है जब यदि प्रात्मा में असख्य प्रदेशित्व या प्रप्रदेशित्व की वस्तु अनेक धर्मा हो--"प्रतन्तधर्मणस्तत्त्व", "सकलद्रव्य सिद्धि करनी हो तो हमें जीव की उक्त शक्ति को लक्ष्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ता।" कर 'प्रदेश' के मूल लक्षण को देखना पड़ेगा। उसके भनेकान्त दृष्टि प्रमाण नयों पर प्राधारित है और पाधार पर ही यह संभव होगा। प्रत: यहा सिद्धांत ग्रन्थों एक देश भाग को ज्ञाता होने से नय दृष्टि वस्तु के पूर्ण से "प्रदेश" के लक्षण उद्धृत किए जा रहे हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४वर्ष ३४, किरण अनेकान्त १. "स: (परमाण) मावतिमेचे व्यवतिष्ठते स प्रवेश.।" १०. "प्रवेशस्य भावः प्रवेशत्वं प्रविनागिपुगल. --परमाणु (पुदगल का सर्वसूक्षम भाग-जिसका परमाणुनावष्टषम् ।" पुनः खंड न हो सके) जितने क्षेत्र (प्राकाश) मे रहता है, ---मालाप पद्धति उस क्षेत्र को प्रदेश कहते है। मागमों के उक्त प्रकाश में स्पष्ट है कि "प्रदेश" पोर २. "प्रवेशोनामापेमिकः सर्वसूक्ष्मस्त परमाणोरखगाहः।" प्रप्रदेश शब्द मागमिक मोर पारिभाषिक है पौर -त. भा० ५.७ माकाशभाग (क्षेत्र) परिमाण में प्रयुक्त होते है। प्रागम -प्रदेश नाम प्रापेक्षिक है वह सर्वसूक्ष्म परमाणु का के अनुसार प्राकाश के जितने भाग को जो द्रव्य जितना अवगाह (क्षेत्र) है। जितना व्याप्त करता है वह द्रव्य प्राकाश के परिमाण ३. हिमाकाशावीना क्षेत्राविविभागः प्रविश्ते ।" के अनुसार उतने ही प्रदेशों बाला कहा जाता है। -त० वा० २, ३८, शंका-यदि "शब्दानामनेकार्थः" के अनुसार ---प्रदेशों के द्वारा प्राकाशादि (द्रव्यो के) क्षेत्र "प्रदेश" का "खंड" और "प्रप्रदेश" का "प्रखण्ड" अर्थ प्रादि का विभाग इंगित किया जाता है। मानें तो क्या हानि है ? समाधान-शब्दों के अनेक अर्थ होते हए भी उनका ४. "जातिय पायासं प्रविभागीपुग्गलाणुवट्टयं । प्रासंगिक पर्थ ही ग्रहण करने का विधान है . जैसे सेन्धव संखुपदेसं जाणे सवाणुद्वाणवाणरिहं।" का अर्थ घोडा है और नमक भी। पर, भोजन प्रसंग में -जितना प्राकाश (भाग) पबिभागी पुद्गल प्रणु इस शब्द से "नमक" और यात्रा प्रसंग में घोड़ा" प्रहण घेरता है, उस प्राकाश भाग को प्रदेश कहा जाता है। किया जाता है। इसी प्रकार द्रव्य के गुण-स्वभाव मे ५. "जेत्तियमेत खेत्तं प्रणणावं।" "प्रदेश" "मप्रदेश" को प्रागमिक परिभाषा के भाव मे -ध्यस्व० नयच० १४० लिया जायगा । अन्यथा शुद्धोपयोगी प्रात्मा के संबंध मे--प्रण जितने (ग्राकाश) क्षेत्र को व्याप्न करता "अप्रदेश" का अर्थ "एक प्रदेश" करने पर शुद्धात्मासिद्ध है उतना क्षेत्र प्रदेश कहलाता है । भगवान में एक प्रदेशी होने की मापत्ति होगी जब कि ६. "परमाणुध्याप्तक्षेत्र प्रवेशः।" उन्हे "अपदेश" न मान कर सपदेश - असख्यात प्रदेशो -प्र० सा० जयचद ३० वाला स्वाभाविक रूप से माना गया है। उनकी स्थिति --- परमाण जितने क्षेत्र को व्याप्त करता है, उतना "किंचिद्रणाचरमदेहदोसिद्धा: के रूप में है। प्रदेश का परिक्षेत्र प्रदेश कहा जाता है। माणमाकाशक्षेत्रावगाह से माना गया है। प्रात्मा को प्रखण्ड ७. "शुपुद्गलपरमाणुगहीतमभस्थलमेव प्रवेशः।" भानने में कोई बाधा नही--मात्मा प्रसंस्थान प्रदेशी भोर -शुद्ध पुद्गल परमाणु से व्याप्त नभस्थल ही प्रदेश कहलाता है। मागम में एक से अधिक प्रदेश वाले द्रव्य को ८. "निविभाग प्राकाशावयवः प्रदेशः।" "मस्तिकाय और मात्र एक प्रदेशी द्रव्य को "स्तिकाय' -निविभाग माकाशावयव प्रदेश होता है। से बाहर रखा गया है। कालाणु पौर अविभाज्य ६."प्रविश्यन्त इति प्रवेशाः ॥शा प्रविश्यन्ते प्रतिपाद्यत पुदगल परमाणु के सिवाय सभी द्रव्यों (मात्मा को भी) इति प्रदेशाः । कथं प्रविश्यम्ते ? परमाण्यवस्थान को प्रस्तिकाय कहा है। कही मात्मा की प्रस्तिकाय से परिच्छेदात् ॥४॥ वक्ष्यमाणलक्षणो द्रव्यपरमाण स: बाहर (एक प्रदेशो) द्रव्यों में गिनाया हो ऐसा पढ़ने और यावति क्षेत्र व्यवतिष्ठते स प्रवेश इति ब्यबहियते। देखने में नहीं पाया ।। ते पौषमकजीवा यासंख्येयप्रदेशा।" पास्मा को प्रप्रदेशी कहने को इसलिए भी मावश्यकता -तस्वा० राव० ५/८/३ नहीं कि "प्रदेशित्व" "मप्रदेशित्व" का घाघार पाकाश की . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मा सर्वच प्रसंस्थात प्रवेशी है अवगाहना का क्षेत्र माना गया है-परमपारिणामिक भाव प्रसंख्यप्रदेशो घोषित करते हैं, वे हो भाचार्य प्रात्मा को नही । यदि इन का मापदण्ड भावों से किया गया होता तो कयमपि किसी भी प्रसग मे भप्रदेशो नही कह सकते । प्राचार्य पाहतों और सिद्धों को भी "प्रप्रदेशो" घोषित "जीवापोग्गलकाया पम्माषम्मा पुणो यामागासं। करते, जबकि उन्होने ऐसा घोषित नही किया । सपवेसेहि प्रसंसा गरिय पदेससि कालस्स ॥ ___उक्त विषय में अन्य प्राचार्यों के वचन ऊपर प्रस्तुत -कुन्दकुन्द, प्रवचनसार ४३ किए गए। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सबगित विषय को जिम "प्रस्ति च संवर्तविस्तारयोरपि लोकाकाशरूप में प्रस्तुत किया है उसे भी देखना प्रावश्यक है। तुल्पाऽसंस्पेय-प्रदेशापरित्यागात् जीवस्य ।" क्योंकि "समयसार" उन्ही की रचना है । "समयसार" के -वही, अमृतचन्द्राचार्य-तत्वदीपिका सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार मे कहा गया है : "तस्य तावत संसारावस्थायां विस्तारोपसंहारयोरपि "अप्पा निच्चो संलिम्जपवेसो वेसिमो उसमयम्हि। प्रबोपवत् प्रवेशाना हानिवृद्धयोरभावात् व्यवहारे बेहविसो सबकई तत्तो होणो हिमो यका ॥" मात्रोऽपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमिताऽसंख्येय प्रदेशस्वम।" -समयसार ३४२ -वही, जयसेनाचार्य, तात्पर्यवृत्ति "जीवो हि व्यरूपेण तावग्नित्यो, असंख्येयप्रवेशो जीव के असंख्यात प्रदेशित्व को किसी भी प्रपेक्षा से लोकपरिमाणश्च ।" उपचार या व्यवहार का कथन नही माना जा सकता। -टोका, अमृनचन्द्राचार्य (धात्मख्याति) प्रदेश व्यवस्था द्रव्यों के स्वाधीन है और वह उनका "मात्मा द्रव्यापिकनयेन नित्यस्तथा चाऽसल्यातप्रवेशो स्वभाव हो है पोर स्वभाव मे उपचार नहीं होता । तत्वार्थ देशित: समये परमागमे तस्यात्मनः शबचतन्यान्वयलक्षण राजवातिक (५/८/१३) का कथन है कि-- दव्यत्वं तयेवाऽसंख्यातप्रदेशत्वं च पूर्वमेव तिष्ठति ।" हेत्वपेक्षाभावात् ॥३॥ पुद्गलेष प्रसिड हेतु-टीका जयसेनाचार्य, (तात्पर्यवृत्ति) मवक्ष्य षर्माविषु प्रवेशोपचार:न क्रियते तेवामपि स्वाधीन उक्त सन्दर्भ को स्पष्ट करने की प्रावश्यकता नही है। प्रवेशत्वात् । तस्मादुपचार कल्पना न युक्ता।" नाममयात म स्वर्गीय, न्यायाचार्य प. महेन्द्रकुमार जी का यह "द्रव्यरूपेण", पोर तात्पर्यवत्ति में "दन्याथिकनयेन", ये क्थन विशेष दृष्टव्य है :तीनों विशेष-निर्देश द्रव्याथिक (निश्चय ) नय के कथन को शुद्ध नय वृष्टि से प्रखण्ड उपयोग स्वभावको इगित करते है। एतावतः इम प्रसग म प्रात्मा के मसख्यात विवक्षा से मात्मा में प्रवेश भेद न होने पर भी ससारी प्रदेशित्व का कथन निश्चय नय को दृष्टि से ही किया जीव मनाविकम-बन्धनबद्ध होने से सावयव ही है।" गया है, व्यवहार नय की दृष्टि स नही। -त० वा. (जानपीठ) पृ. ६६६ पागम मे व्यवहार मोर निश्चय इन दोनो नयों के एक बात पौर। अपेक्षाश्रित होने से नय-दृष्टि मे वस्तु यथेच्छ रीति से प्रयोग करने की हमे छुट नही दी गई। का पूर्ण कालिकशुद्धस्वभाव गम्य नहीं होता। पूर्ण ग्रहण इनके प्रयोग की अपनी मर्यादा है। निश्चय नय के कथन तो सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान द्वारा होता है। इसीलिए में वस्तु की स्वभाव शक्ति एव गुण धर्म को मख्यता रहती प्राचार्य पदार्थज्ञान को नय-दष्टि से प्रतीत घोषित करते है पोर व्यवहार नय मे उपचार की। इसके अनुसार है। वे कहते है :प्रात्मा का बहुप्रदेशित्व निश्चय नय का कथन है, व्यवहार "णयपरतातिरकतो भणवि जो सो समयसारी।" नय का नहीं। "सम्बणयपसरहिवो भणियो जो सो समयसारो।" इसका फलितार्थ यह भी निकलता है कि जो -समयसार, १४२, १४४ कुन्दकुन्दाचार्य प्रात्मा के स्वभावरूप-परम पारिणामिक मूतं ब्रम्य मे तो परमाण की प्रदेश संज्ञा मानी जा भाव-रूप-सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार में मात्मा को नित्य एवं सकती है, पर प्रवेश की शास्त्रीय परिभाषा की वहां को Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष ३४, कि.१ उपेक्षा नही की जा सकती। पुद्गल द्रव्य के सिवाय सभी ही अनेकान्त की प्रवृत्ति है, अनेकाम्त की अवहेलना नहीं प्रमूतं द्रव्यों में प्रदेश का भाव प्राकाश क्षेत्र से ही होगा की गई -'मनेकान्तऽप्यनेकान्त'। प्रसंग मे भी इसी उपयोग के अनुसार नही। पाघार परमात्मा के प्रसंरूपातप्रदेशत्व का विधान किया मत पुर्वगलाव्ये संख्यातासंख्यातानंताणना पिण्डा गया है । तथाहिस्कंधास्त एव विविधा प्रवेशा भण्यं ते न च क्षेत्रप्रवेशाः।- अनेकान्त को दो कोटियां है। एक ऐसी कोटि जिसमें (शेषाणां क्षेत्राऽपेक्षेति फलितम्) प्रपेक्षादष्टि मे अंशो को क्रमशः जाना जाय और दूसरी -३० द्रव्य स० टीका गाए २५ कोटि वह जिसमे सकल को युगपत् प्रत्यक्ष जाना जाय । सिद्धत्वपर्याय में उस पर्याय के उपादान कारणभूत प्रथम कोटि मे रूपी पदार्थों को जानने वाले चार ज्ञानधारी शुद्वात्मद्रव्य के क्षेत्र का परिमाण-चरमदेह से किचित् तक के सभी छयस्थ प्राते है। इन सभी के ज्ञान परम्यून है जो कि तत्पर्याय (अंतिम शरीर) परिमाण ही है, सहायापेक्षी पाशिक और क्रमिक होते है। प्रत्यक्ष होने एक प्रदेश परिमाण नही। पर भी वे 'देश-प्रत्यक्ष' हो कहलाते है। दूसरे शब्दों मे __ किंचिदूणचरमशरीरप्रमाणस्य सिद्धत्वपर्यायस्यो. इन सभी को एक समय में एक प्रदेशमाही भी माना जा पाबानकारणभूतशद्वात्मतव्य तत्पर्यायप्रमाणमेव ।' सकता है यानी ये एक प्रदेश (ऊर्ध्वप्रचय) के ज्ञाता होते --वही है। दूसरी कोटि मे केवली भगवान को लिया जायगा यत. द्रव्यसग्रह में शका उठाई गई है कि सिद्ध-प्रास्मा को ये एक और एकाधिक प्रनंत प्रदेश (तियंकप्रचय-बहप्रदेशी स्वदेहपरिमाण पयो कहा ? वहाँ स्पष्ट किया हैकि-- द्रव्य) के युगपत् ज्ञाता है। प्राचार्यों ने इसी को ध्यान मे ___'स्वदेहमितिस्थापनं यायिकमीमांसासांख्ययं लेकर ऊर्ध्व प्रचय को 'कमाउनकान्त' पोर तियंक प्रचय को प्रति ।' -वही गाथा २ टीका 'प्रक्रमाऽनेकान्त' नाम दिए है--- __ स्मरण रहे कि कोई प्रात्मा को प्रणुमात्र (प्रप्रदेशी) तिर्यप्रचय: तिर्यक सामान्यपिति विस्तारसामान्यकहते है और कोई व्यापक। उनकी मान्यता समीचीन मिति 'प्रकमाउनेकान्त' इति च भण्यते ।.."ऊर्ध्व प्रचय नहीं, यहां यह स्पष्ट किया है। इत्यूर्वसामान्यमित्यायतसामाश्यमिति 'क्रमाऽनेकान्त' इति पंचास्तिकाय में प्रात्मा के प्रदेशो के संबंध में लिखा है- च भण्यते।' निश्चयेन लोकमात्रोऽपि। विशिष्टावगाहपरिणाम -प्रव० सार (त० ००) १४११२००६ शक्तियुक्तत्वात नामकर्म नितमणुमहत्तशरीरमषितिष्ठन् 'वस्तु का गुण समूह प्रक्रमाऽनकान्त है क्योकि गुणो व्यवहारेण बेहमानो।' -(त. हो०) को वस्तु म युगपदवृत्ति है पोर पर्यायो का समूह कमा"निश्चयेन लोकाकाशप्रतिमाऽसंख्येयप्रदेशप्रमितोऽपि उनकान है, क्योकि पयायों को बस्तु में कम से वृत्ति व्यवहारेण शरीरनामकर्मोदय जनिताणमहन्छरीर है'प्रमाणत्वात् स्वदेहमात्रो भवति। -(तात्पर्य व०) २७, -जैनेन्द्र सि. कोष पृ० १०८ यदि उपयोगावस्था मे पात्मा प्रप्रदेशी माना जाता है स्पष्ट है कि क्रमाऽनेकान्त मे वस्तु का स्वाभाविक तो मात्मा के प्रखंड होने से यह भी मानना पड़ेगा कि पूर्णरूप प्रकट नही होता, स्वाभाविक पूर्णरूप तो प्रक्रमामात्म प्रदेश बृहत् शरीर मे सिकुड़ कर प्रदेशमात्र-प्रवगाह ऽनेकान्त में ही प्रकट होता है और बहुप्रदेशित्व का युगमें हो जाते हैं और शेष पूरा शरीर भाग प्रात्महीन (शून्य) पद्माही ज्ञान केवलज्ञान ही है। प्रतः केवलज्ञानगम्यरहता है-जैसा कि पढ़ने सुनने में नहीं पाया। प्रदेशसम्बन्धी वही रूप प्रमाण है, जो सिद्ध भगवान का छपस्थ का ज्ञान प्रमाण पोर नयगभित है पोर रूप हैकेवली भगवान का ज्ञान प्रमाणरूप है। नय का भाव किचिदूणा चरम देहहो सिताः। पतिअंशमाही मोर प्रमाण का भाव सर्वग्राही है। दोनो में -प्रसंख्यात प्रदेशी। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मा सर्वथा संस्थात प्रदेशी है मागम में द्रव्य का मूल स्वाभाविक लक्षण उसके गुणों घोर पर्यायो को बतलाया गया है और ये दोनो ही सदा कालद्रव्य में विद्यमान है। द्रव्य के गुण द्रव्यार्थिक नय और पर्याय पर्यायार्थिक नय के विषय है जब हम कहते हैं कि 'भ्रात्मा श्रखड है' तो यह कथन द्रव्यार्थिकनय का विषय होता है और जब कहते है कि 'धारमा प्रसंख्यात प्रदेशी है' तो यह कथन पर्यायायिकनय का विषय होता है दोनो ही नय निश्चय में प्राते है । जिसे हम व्यवहार नय कहते है वह द्रव्य को पर-सयोग अवस्थारूप मे ग्रहण करता है। चूंकि प्रात्मा का असख्य प्रदेशत्व स्वाभाविक है अतः वह इस दृष्टि से व्यवहार का विषय नहीं निश्चय का ही विषय है। द्रव्यायविपर्यायादिक दोनों में एक की मुख्यता में दूसरा गौण हो जाता है - द्रव्यस्वभाव में न्यूनाधिकता नहीं होती । श्रतः स्वभावतः किसी भी अवस्था में श्रात्मा प्रदेशी नहीं है। वह त्रिकाल सम्पतिप्रदेशी तथा प्रखण्ड है । धारमा को सर्वदा प्रदेश मानने पर भयं क्रियाकारित्व का प्रभाव भी नहीं होगा यनः अयंक्रिया कारित्व का प्रभाव वहा होता है जहा द्रव्य के अन्य धर्मों की सर्वथा उपेक्षा कर उसे एक धर्मरूप में ही स्वीकार किया जाता है । यहा तो हमे धारमा के अन्य सभी घमं स्वीकृत है केवल प्रदेशत्वधर्म के सम्बन्ध में ही उसके निर्धारण का प्रश्न है यहा अन्य धर्मों के रहन से स्वभावशून्यता भी नही होगी और ना ही द्रव्यरूपता का प्रभाव यदि एक धर्म के ही घासरे (धन्य धर्मों के [रते हुए) क्रियाकारिख की हानि होती हो तब तो एकप्रदेशी होने से कालाणु, पुद्गलाणु म और प्रसंख्यात प्रदेशी होने से सिद्धों मे भी पर्थक्रियाकारित्व का बचाव हो जायगा- - पर ऐसा होता नहीं । राजवार्तिक में मात्मा के प्रदेशपने का भी कथन है पर बहू घारमा के प्रसवतप्रदेशस्य के निषेध में न होकर शुद्धदृष्टि को लक्ष्य मे रखकर ही किया गया है पर्या आत्मा यद्यपि परमार्थ से प्रसंख्यात प्रवेशी अवश्य है तथापि बुद्धदृष्टि की विवक्षा मे बहुप्रदेशीपने को गौण कर प्रखण्डरूप से ग्रहण करने के लिए अभिप्रायवश उसे प्रदेशरूप कहा गया है। प्रदेश की शास्त्रीय परिभाषा को लक्ष्य कर नहीं । प्रकृत में उपसंहाररूप इतना विशेष जानना चाहिए कि जहां तक मोक्षमार्ग का प्रसंग है, उसमें निश्चय का अर्थ करते समय, उसमें यथार्थता होने पर भी प्रभेद पौर धनुवचार की मुख्यता रखी गई है। इस दृष्टि को साथ कर जब प्रदेशी का अर्थ किया जाता है, तब प्रदेश का अर्थ भेद या भाग करने पर भ्रप्रदेश का प्रथं प्रखण्ड हो जाता है। इसलिए परमार्थ से जीव के स्व-स्वरूपशक्ति से प्रदेश होने पर भी दृष्टि की अपेक्षा उसे प्रखण्डरूप से अनुभव करना प्रागम सम्मत है । प्रदेश की शास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि से भ्रात्मा संख्यातप्रदेशी और लण्ड है हो धौर एक प्रदेशावगाही होकर भी उसके सस्यप्रदेशी हो सकने में कोई बाधा नहीं इसका निष्कर्ष है कि धारमा प्रदेशी तथा प्रखण्ड नहीं, अपितु सख्यात प्रदेशी तथा प्रखण्ड है । 000 ― वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह प्रावश्यक नहीं कि सम्पादन महल लेखक के सभी विचारों से सहमत हो । - सम्पादक - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रानन्द कहां है? 0 श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली प्रात्मा की तीन प्रवस्थाए होती है-बहिरात्मा, है, मैं इन रूप नहीं, मैं अपने निज चैतन्य रूप हूं पथवा अन्तरात्मा और परमात्मा । यह अभी बहिरात्मा है यानी मैं तो 'ब्रह्मोस्मि' हूं यह जाने । अपने को इनसे अलग देखे इसकी दृष्टि, इसका सर्वस्व बाहर मे है, पर मे है, धन- तो दुखी-सुखी होने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहे। जैसे दौलत में है, परिवार मे है, शरीर म है, अपने प्रापम यानी किसी नाटक मे कोई प्रादमी पार्ट कर रहा है, उसको चैतन्य में नही है। इसलिए यह मानता है कि मैं मनुष्य धनिक का पार्ट दिया तो वह कर देता है, भिखारी का हं. मैं धनिक हं, मैं गरीब हूँ, मैं रोगी हूँ, सुखी हूं, दुखी हू दिया है, तो वह कर देता है, भिखारी का पार्ट करते हुए परन्तु कभी यह नही देखता कि मैं सच्चिदानन्द है। अपने को भिखारी मानकर दुखी नही होता है और राजा भरीरादि धन-वैभव तो माथ मे लाया नही, साथ मे का पार्ट कर राजा मानकर महकार नहीं करता। क्योकि जायगा नही, जो जन्म से पहले था मरने के बाद रहेगा वह जानता है कि यह तो मात्र कुछ देर का पार्ट मात्र नहीं, यह तो संयोग वस्तु है। कुछ समय मात्र के लिए है। मैं इस रूप नही, मै तो अपने रूप ही है। इसी प्रकार संयोग हमा है। किसी होटल में ठहरते है उस कमरे को यह प्रात्मा कमजनित अनेक प्रकार के पार्ट कर रहा है। प्रपना कमरा भी कहते है, उस कमरे में अनेक प्रकार का कभी धनिक का, कभी भिखारी का, कभी स्त्री का, कभी सामान भी होता है, उसको काम में भी लेते है परन्तु पुरुष का पुरुष का, कभी पशु का। अगर यह प्रपन यह जानते है कि इसमें हमारा कुछ नही है, कुछ समय क मापको यानी पार्ट करने वाले को जान पहचाने, जो ___ सचिदानन्द चतन्य है तो उसे कम जनित अवस्था म नही इसलिए उनमे प्रहबुद्धि भी नही होती पोर मासक्ति दुख सुख नही हो, यही अन्तरात्मपना है याने अपने का भी नही होती और उसके बिगड़ने-सुधरने स दु.ख-सुख जान लिया, अब उसके लिए वह पार्ट हो गया, अब तक भी नहीं होता। उसी प्रकार यह चैतन्य पात्मा १००-५० उस प्रसली मान रखा था, जहा अपने का पहचाना उसका वों के लिए इस शरीर रूपी होटल में पाकर ठहरा है। प्रसलीपना खत्म हो गया। अब वह पार्ट उसे सुखी-दुखा इसमे इसका अपना अपने चाय के अलावा कुछ नहीं है नही बना सकता। नरक का पार्ट हो-चार घण्ट यहां तक कि शरीर भी यही रह जाता है, इसका अपना है। यह १००.५. वर्ष का नही है परन्तु पार्ट तो पार्ट ही होता तो इसके साथ जाना चाहिए था। बात तो ऐसो है चाहे वह कितने समय का ही क्यो न हो। ही है परन्तु यह भ्रम से इसे प्राना मानता है, इसे अपना धन वैभव का याना-जाना तो पुण्य-पाप के प्रधान रूप मानता है और जब इसे अपना मानना है तो इसम है परन्तु यह तत्व-ज्ञान प्राप्त करना अपने अधीन है। सम्बन्धित परिवारादि है 4 भी उसा अपन हो जाते है इसलिए हे चैतन्य नझे प्रानन्द को प्राप्त करना है तो और जो अन्य संयोग है उम भी पपना मान लेता है, तब प्रपो को जानने का पूरा करना चाहिए । जंस तून सपने उममे अहम् बद्धि पैदा होन म ह भाव बनना है-- को मान रखा है। वमा तू नही, तू तो उन अवस्थाम्रो ____मैं सुनी-दुपी, मैं र..राव, मेरो घन ग्रह गोधन को जानने वाला चैतन्य है। यह जानकर जो अपना नही प्रभाव मरे सुत लिय, मैं मबलदीन, बे रूप सुभग मुख- उममे हटे और जो अपना है उसमें लीन हो जाए ता प्रवीन'। इन सयोगों के अनुकूल होन पर ग्रह कार करता कम का सम्बन्ध दूर हो जाए। क्योकि जब कम-जनित है और विपरीत होने पर गम है. यही इनका बहिरात्म- प्रवस्थानों को अपना जानकर दुखी-सुखी होता था तब पना है। इसी से यह दुखी है वह कैसे दूर हो यह प्रश्न है ? नया कर्म का बन्ध होता था। जब अपने को कर्मकृत अगर यह अपने को पहचान ले कि मैं एक अकेला प्रवस्था से अलग जान लिया तो कम क कार्य के हर्षचैतन्य हूं बाकी सब कर्म के नाम महाने वाले सयोग [शेष पृ० २३ पर] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति में दसवीं-बारहवीं सदी की नारी D डा. श्रीमती रमा अन जैन संस्कृति में भारतीय नारी का गोरगपूर्ण स्थान ही था। वे अपनी इच्छा अनुसार दान धर्म मे पिता को सदा से सुरक्षित रहा है प्रादि पुराण में प्राचार्य जिनसेन ने सम्पत्ति का उपयोग कर सकती थी। कुमारी सुलोचना नारी के जिस रूप का चित्रण किया है, उसमे प्रतीत होता ने पिता की अनुमति से बहुत-सी रत्नमयी प्रतिमानो का है कि प्राज से लगभग १११० वर्ष पूर्व नारी की स्थिति निर्माण कराया था, और उन प्रतिमानो को प्रतिष्ठा. प्राज से कही प्रच्छी और सम्मानपूर्ण थी। उस ममय पूजन में भी पर्याप्त धनराशि खर्च की थी। पत्री, माता-पिता के लिये अभिशाप नही मानी जाती था। जैन सस्कृति मे स्वावलम्बी नारी जीवन की कल्पना वह कुटम्ब के लिए मंगल रूप और प्रानन्द प्रदान करने पुराणो और शिलालेखो मे सर्वत्र मिलती है। जैन परम्परा वाली समझी जाती थी। में भगवान महावीर से पूर्व, अन्य २३ तीर्थंकरों में भी ____ कन्यानों का लालन-पालन पोर उनकी शिक्षा-दीक्षा लेने में नारीको दीक्षित र पासमान, पुत्री के समान होती थी। भगवान ऋषभदेव ने अपनी कामगिरी का पूर्ण अधिकार दिया था। यही कारण है कि जैन नारी ब्राह्मी और सुन्दरी दोनो पुत्रियों को शिक्षा प्राप्त करने के धर्म, कर्म एव व्रतानुष्ठानादि मे कभी पीछे नही रहीं। लिये प्रेरित करते हुए कहा था कि गुणवती, विदुषी नारी संसार में विद्वानों के बीच सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करती जैन शामन के चतुर्विध संघ के साधु के समान साध्वी है। अपने अनवरत अध्ययन के द्वारा ब्राह्मी और सन्दरी का एवं श्रावक के समान श्राविका को भी सम्मानपणं ने पूर्णतः पतित्य भी प्राप्त किया था। स्थान प्राप्त है। वह अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास एव उस समय ममान म कन्या का विवाहित हो जाना प्रात्मकल्याण हेतु पुरुष के समान हो कठिन तपस्या, व्रत, पावश्यक नही था। ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध है कि उअवाम कशल च प्रादि धार्मिक प्राचरण कर सकती है। कन्याएं प्राजीवन अविवाहित रह कर समाज की मेवा स्वाध्याय मे अपना बौद्धिक विकास कर प्रात्मानुष्ठान द्वारा करती हुई अपना प्रात्मकल्याण करती थी। पिता पुत्री से मन पोर इन्द्रियो को वश कर, पागत उपमा परीषहों उसके विवाह के अवसर पर ता सम्मति लेता ही था, को सहन कर धर्म साधिका बन सकती है। चन्दना सती प्राजीविका पर्जन के साधनो पर भी पुत्री से सम्मति लेता ने अपनी योग्यता प्रौर प्रखर बुद्धिमना से ही प्रापिका के ही था। बदन्त चक्रवर्ती ने अपनी कन्या श्री सर्वमती कठोर व्रतों का प्राचरण कर महावीर स्वामी के तीर्थ मे को बुलाकर उसे नाना प्रकार से समझाते हए कलामो के छत्तीस हजार माथिकानो में गणिनी का पद प्राप्त सम्बन्ध में चर्चा की है। प्राजीविका उपार्जन के लिये किया था। उन्हें मूर्तिकला, चित्रकला के साथ ऐसी कलामो को भी ईसा की दसवीं शताब्दी में कवि चक्रवर्ती रस्न ने शिक्षा दी जाती थी, जिससे वे अपने भरण-पोषण कर मल्लपय की पुत्री एवं सेनापति नागदेव की पत्नी प्रतिमश्वे सकती थी। पैतृक सम्पत्ति में तो उनका अधिकार रहता की जिन भक्ति तथा उनके प्रलौकिक धर्मानुराग की भरि२ १. पितरोतां प्रपश्यन्त नितरां प्रीतिमापतुः, २. विद्यावान पुरुषो लोके सम्मति यादि कोविदः । कलामिव सुघासूते. जनतानन्द कारिणीम् । ३. प्रादि पुगण, पर्व ७, लोक । (पादिपुराण, पर्व ६, श्लोक ८३) ४. प्रादि पुराण पर्व ४३, श्लोक । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसा की है। महाकवि पोत्रकृत शान्तिपुराण की दुर्दशा जिनेन्द्र के नाम से प्रसिद्ध है शान्तला देवी संगीतज्ञा, प्रतिमन्चे ने 'शान्तिपूगण' को एक हजार प्रतियाँ पतिव्रता, धर्मपरायणा और दान शोला महिला थी। जंन तयार करा कर कर्णाटक मे सर्वत्र वितरित की थी। महिलाप्रो के इतिहास में इनका नाम चिरकाल तक अतिम केवल जैन धर्म को श्रद्धालु श्राविका ही अविस्मरणीय रहेगा । अन्तिम समय म शान्तल देवो भोगो नहीवी उन्धकोटि को बान शीला भी थी। उन्होन मे विरक्त होकर महीनो तक अनशन, ऊनीदर का पालन कोपल मेंहदराबाद) चांदी सोने को हजारो जिन करती सल्लेखनापूर्वक परलोक सिधारी थी। प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कराई थी और लाखों रुपयों का दान पुराणों मे ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमे स्त्री किया था। फलस्वरूप इन्हे दानचिन्तामणि की उपाधि ने पति को पेवा करत हए उसके कार्यो में और जो पास वान चिन्तामणि की महिमा शिलालेखों में सरक्षण मे तथा अवसर प्राने पर युद्ध में सहायता कर दुश्मन के दात खट्ट किये है । विशेष प से अंकित है। गंग नरेश कसमर्माण की पत्नी सावियम्वे अपने पति साकीसवीं, ग्यारहवीं पोर बारहवी शनाम्दी मे सेवस राणपराने की वीर बालिकाप्रो ने त्याग, दान के माथ युद्ध करने 'बागेयूर' गई थी और वहाँ पराक्रम पूर्वक शत्रु से लडते हुए बीर गति को प्राप्त हुई थी। पौर धर्म निष्ठा का पादशं उपस्थित किया था, अपित शिलालख मे इम सुन्दरी को धर्मनिष्ठ, जिनन्द्र भक्ति में साधारण महिलापों ने भी अपने त्याग और सेवामो के तत्पर, रेवती, सीता पोर अरुन्वती के सदृश बतलाया है। परितोष उदाहरण प्रस्तुत किये है। बारहवी शताब्दी तक मथग भी जैन धर्म का एक बापिकमम्वे शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या थो। महान केन्द्र रहा है एक लम्बे समय तक जन कला यहां उन्होंने इशलता से राज्य शासन का परिचालन करते हए अनेक रूपो में विकसित होती रही यहा पर जैन धर्म में विशाल जिन प्रतिमा की स्थापना कराई थी। य राज्य सबंधित कई हजार वर्ष के प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए है। कार्य में निपुण, जिनेन्द्र शासन के प्रति प्राज्ञाकारिण। पोर इन अवशेषो में से बहुत से ऐसे है जिनमे सस्कृत प्राकृत लावण्यवती थी। भाषा के अभिनख मिले है। अभिलखो में दो प्रकार की इसी प्रकार मोनी गुरु को शिष्पा नामवती, पेरुमाल स्त्रियो के उल्लेख है एक ता भिक्षणियो के जिनक लिय गुरु की शिष्या प्रभावती, अध्यापिका दामिमता, प्रायिका प्रार्या शब्द का प्रयोग है। दूसरी गहस्थ स्त्रिया है जिन्हे साम्दो, शशिमति प्रादि नारियो के उल्लेख मिलते है, धाविका नाम से जाना गया है। प्रायिकाये श्राविकामो जिन्होंने व्रत शीलादि का सम्यक प्राचरण कर जन धर्म को धर्म, दान, ज्ञान का प्रभावपूर्ण उपदेश देती थी। के प्रचार एवं प्रसार मे पामरण तत्पर रह कर जीवन का उनक उपदश म गृहस्थ नारियां विभिन्न धार्मिक कार्यों में सफल बनाया पोर जैन नारी के समक्ष महत्वपूर्ण पादर्श प्रवत हाती थी। लबण शाभिका नामक गणिका की पुत्री उपस्थित किया।" बसु ने महंत पूजा के लिये एक देवकुल, प्रायोगसभा, विष्णुवर्धन की महारानी शान्तल देवी ने सन् ११२३ कुण्ड तथा शिलापट्ट का निर्माण कगया जिसकी स्मति णबेलगोल में जिनेन्द्र भगवान की विशालकाय उमने एक सुन्दर पायोग पट्ट पर छोडो है।" प्रतिमा की स्थापना कराई थी।" यह प्रतिमा 'शान्ति [शेष पृ. २३ पर ५. अधिवनाथ पुराण, प्राश्वास १२ । १०. श्रवण बेलगोन के शक स० ६२२ क शिलालख । ६. शान्तिपुराण की प्रस्तावना । ११. श्रवण बेलगोल के शिला लेख नं. ५६ । ७. पवितपुराण माश्वास १२ । १२. चन्द्रगिरी पर्वत के शिला लेख नं०६१ । ८.बबईकर्णाटक शासन सग्रह, भाग १.५२ नम्बर बामा लेख। १३. प्राचीन मथुरा को जैन कला में स्त्रियो का भाग६. श्रवणबेलगोल शिला लेख न. ४८६ (४.०)। लेखक-कृष्णदत्त बाजपेयो। मे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण को जैन पंडित परंपरा पं० मलिलनाथ जैन शास्त्री, मद्रास तमिल, कर्नाटक, प्राध्र और मलयांक नामक चार रचनायें हो साहित्य क्षेत्र में या भाषा के क्षेत्र में मेर प्रान्तो से जो समाविष्ट है, उसे दक्षिण भारत कहते है। शिखर के समाज महनीय गरिमा से मोत-प्रोत हैं। उनका मगर इसमें विचार करने की बात यह है कि तमिल और विवरण प्रागे दिया जा रहा है। कर्नाटक प्रान्तो मे ही प्राज भी जैन धर्म प्रवशिष्ट है और तमिल में उपलब्ध ग्रन्थ राजो में पता लगता है कि जैन विद्वानों से रचे गये अमूल्य जैन ग्रन्थ उपलब्ध होत उनके निर्मातागण ज्ञान सिन्धु के प्रमूल्य रत्न थे। ऐसे हैं। लेकिन प्रान और मलयालं में, न तो स्थानीय जनी ज्ञान पारावार के कुछ प्रभुत रत्नो का परिचय कराना लोग रहते है और न जैन ग्रन्थो की उपलब्धियाँ पायी प्रत्यन्त प्रावश्यक समझता हू। विद्वद्रत्न पंडितो ने जाती है । इसका मतलब यह नही है कि पुराने जमाने में प्राश्चर्य मय रचनायें तो की है, मगर नाम पोर यश को भी वहाँ जनी लोग न थे । परन्तु भरमार जैनी लोग रहत नगण्य समझने वाले वे महापुरुष कई ग्रन्थराजो के अन्दर थे पोर जैन धर्म भी उन्नत दशा पर था। लेकिन काल अपने नाम तक नही दिये है। ऐसे उदारमना सत्पुरुषो के के प्रभाव से कहिये या मत-मतान्तरो के विद्वेष से कहिये, बारे में क्या कहा जाय ? जिन-जिन के नाम मिलते हैं, वहाँ जैन धर्म जैन समाज एव जैन साहित्य इन सब का उन्हें नाम से जानें जिनके नाम नही मिलते उन्हें उनके लोप-सा हो गया। फलत प्रब इन दोनो प्रान्तो में केवल ग्रन्थो से परिचय कर लें। प्रतः काल पौर प्रन्यो के नाम जैन मन्दिरो के खण्डहर तथा जैनाचार्यों के निवास स्थान देने के साथ जिन महान प्राचार्यों परितो के नाम मिलते के रूप गुफाये, शिलालेख प्रादि काफी मिलते है। उनकी है यहाँ सिर्फ उन्हे सूचित करूंगा। सुरक्षा सरकार में किसी तरह नही की जाती। उन महान प्राचार्य पण्डितो का काल, नाम पोर ग्रम्प तमिल और कर्नाटक प्रान्तो ता जैनी लोग काफी सारणी मे दिये गये है। इनसे पता चलता है कि इन्होने सख्या में रहते है और जैन माहित्य एव जैन कला प्रादि मभी प्रकार के विषयों पर ग्रन्थ लिखे है। ये प्रस्थ ईसापूर्व को भी उपलब्धियां पाया जाती है। तमिल प्रान्त को सदियों से प्राज तक लिख पाये जाते है। अपेक्षा कनाटक में प्रभाव कुछ ज्यादा है। उसका बहुत सारणीतामिल में जैन पंडित परंपरा का विवरण बड़ा कारण वहा क कि जगप्रसिद्ध विगिरो कमाल काल पंडितो के नाम साहित्य प्रम्प अधिनायक भगवान गोमटेश्वर है। (अ) प्रमुख प्रन्थ तमिल प्रान्त के निवासी होन के नाते मैं इस प्रान्त ६० पूर्व ३०० वर्ष प्रगत्तियर पेरगत्तिय के जन विद्रनो की रचना एवं सेवा प्रादि को बता कर ,, , तोल कापियर तोलकाप्पियं माप सज्जनों को चकित कराने का प्रयत्न करूंगा वास्तव , , २०० वर्ष - तामोल संघ के ग्रन्थ मे, तमिल भाषा के अन्दर जैन पण्डितो की जो रचनाये , , १०० वर्ष देवर तिरुक्कुरल , उन सबको तमिल भाषा से अलग कर दिया ई० दूसरी शताब्दी इलंगोवडिगल शिलप्पधिकार जाये, तो तमिल भाषा एकदम फोकी रहेगी। इसका चौथी .. तिहत्तरेवर जीवक चितामणि मतलब यह है कि जैन पाडत कहिय या जैनाचार्य कहिय .. य काहय , , , तिरत्तक्करेवर नरिविरुत्तम पषवा विम्मम्डली कहिय कुछ भी हो, उनको परंपरागत , पांचवी, तोलामालिदेवर खुलामणि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, बर्वे १४, किरण देण्पा पट्टियल (द) नोति ग्रन्थ रचनायें चौथी सदो जैन साधुगण मन्दुरयनार कणमेदेयार मनप्पाडियार बारहवी. नालडियार पलमालिनानर प्राचारको सिरुपंच मुलं एलादि प्ररनेरिच्चार तिर्णमालनूरैवदु तिरिकडकं इन्ननादु इनियर्वनापंदु नान्मणिकाडि जीव सबोधन कोंगुमण्डल शतक नेमिनाथ शतकं नेरहवी (य) तकंग्रन्थ रचनायें ११वीं सदी ई. ५वीं शताब्दी कोंगुवेलिर (राजा) पेरंगरै " , वलयापति वलयापति ममय दिवाकर , दसवा " वामन मनिदर मेरु मन्दिर पुगण नारदरचरित , ,, जेयं कोण्डार कलिगत्तुपरणि , ग्यारहवी, शान्तिपुराण उदयणकुमार काविय इन्दिर कावियं नक्कोर अडिनल नंदत्तं तक्काणियं यशोधर कावियं नागकुमार कावियं , चौदहवीं , किलिविरुत्तं एलिविरुन मल्लिनाथ पुराण (ब) कोश रचनायें पंडितों के नाम कोश प्रम्प ई० चौथी , दिवाकर दिवाकरं " , , पिंगलर (दिवाकर के पुत्र) पिंगलर , नौवीं, मण्डलपुरूडर शामणि निगण्ड (स) व्याकरण रचनायें ई० दसवीं सदी मामि सागरर याप्पेरुङ्गल याप्पेरुङ्गालक्कारिक , बारहवो ,, भवदि मनि । नम्नूल नेमिनाथ , , विनायनार मविनय इन्दिरकाणियं मणि इयल वाप्पिय मोलिवारि कडियनन्नियं कास्कपाध्य नोलके शि पिगल के शि मंजन के शि तत्व दर्शन (र) सगीत प्रथ रचनायें बसवी सदी पेरु कुरुगु पेरु नार सेयिरियं भरत सेनापतिय सयन्त इसनुणक सिडिस पेरिस (ल) नाटक ग्रंथ रचनायें दसबों सदो गुणनूल प्रगत्तियं कूत्तनूलसन्द (ब) ज्योतिष ग्रंथ रचनायें बारहवी सदी जिनेन्द्र कवि सब याप्पु जिनेन्द्र माल उल्ल्मयान Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श) गणित गन्थ रचनायें दसवी सदी " ,, "" "1 " 13 " "1 13 ( स ) प्रबन्ध ग्रन्थ रचनायें (स्तोत्र ) इसवी सदी "3 " 11 " दक्षिण गेम पंडित परम्परा १४वीं केट्टिएण वडि करावकधिकार महिललमकवाटपाड सिरुकुलि कोनवाय इसक पेस्वकनवापाडडु निरुक्कल बक तिरुदादि निवार्य निरुप्पामाल प्यानादर उ तिरुप्पुकल 31 तिरुमेट्यिन्यादि धर्मदेवि मन्दादि तिरुनादरकुंद्रपदिकं तोत्तिरत्तिरट्टु "1 इनके अलावा और भी कई प्रम्यो और विषयों के नाम मिलते है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि तमिल भाषा के प्रवीण प्राचार्य पडितो के प्रबल ग्रन्थराज कितने है मोर कितने रहे होंगे ? ये सब के सब जैन प्राचार्य पंडितो की कृतियां है। इनमे कुछ तो प्राप्य है. कुछ प्रप्राप्य भी है इन महान पंडितों की विद्वत्ता एवं विचारशीलता पर कोटिशः प्रणाम । 500 १५वीं "} "" [पृष्ठ १८ का शेषांश ] विवाद करने को कुछ नहीं इसलिए नए कर्म का बन्ध हुधा नही और प्रपने धापमे स्थिर हो गया । इसलिए जिन कर्मों का सम्बन्ध था वे नष्ट हो गए। इस प्रकार राग-द्वेष का प्रभाव होने से परमात्मा हो गया प्रथवा ब्रह्ममय हो गया। राग-द्वेष रूप विकारों का प्रभाव हो गया । धात्मा के ज्ञान दर्शनादि गुणों का पूर्ण विकास हा गया, यही परमात्म अवस्था है । मगर भाप और हम चाहें तो इस उपाय से भाज भी [पृष्ठ २० इस प्रकार महिनायो द्वारा बनवाये हुए पायामपट्ट तोरण विविध स्तंभ, प्रतिमानों की चरण चौकियों, मूर्तियाँ यह सिद्ध करती है कि शादियों पूर्व जैन नारी इन सब कलाकृतियों के निर्माण कार्य मे पुरुष को अपेक्षा अधिक रुचि लेती थीं। ये कलाकृतिया हमारी बहुमूल्य धरोहर हैं। इन उदार चेता प्राचीन नारी के प्राध्यात्मिक कला प्रेम एवं धार्मिक अभिरुचि की झांकी देखने को मिलती है । ये सब अवशेष इस समय मथुरा और लखन के संग्रहालयों मे सुरक्षित हैं। अनेक विदुषी नारियों ने केवल अपना ही उत्थान नहीं किया अपने पति को भी जैन धर्म की शरण मे लाने का उत्कट प्रयत्न किया। राजा श्रेणिक भारतीय इतिहास की प्रविच्छिन्न कड़ी है श्रेणिक मगध में जैन धर्म का पहला राजा था, जिसके ऐतिहासिक + १४. भारतीय इतिहास की रूप रेखा लेखक-विद्याकार। " २३ प्रादिनायर पिल्लेतमिल ", अपने को सुखी बना सकते हैं। यह पुरुषार्थ तो हम करते नहीं, परन्तु यह मान रखा है कि धन वैभव से सुखी हो जायेंगे, इसलिए उनकी चेष्टा करते है, उनका प्राप्त होना भी पुष्यादि के प्रधीन है और प्राप्त होने पर भी प्राकृता ही धाकुलता रहती है, धानन्द प्राप्त होता नहीं, फिर भी प्रात्म-कल्याण का उपाय करते नहीं, यही प्रज्ञानता है । इस प्रज्ञानता को जाने और भाव पुरुषार्थ करके मेटना चाहें तो यह मिट सकती है और यह अपने असली मानन्द को प्राप्त कर सकता है । GO का शेषांश ] उमेश जैन ग्रन्थों में पर्याप्त मात्रा मे मिलते है।" इतिहास साक्षी है कि राजा श्रेणिक भगवान महावीर के उपदेशो का प्रथम श्रोता था इन्होंने भगवान से साठ हजार प्रश्न पूछे थे जिनका भगवान के व्यापक उत्तर देकर उन्हे सन्तुष्ट किया था। किन्तु हमे यह न भूलना चाहिये कि राजा श्रेणिक को जैन धर्मानुयायी बनाने का उनकी पहली गती पेलना की है। व रानी ला जैसी धर्मविवासु माँ के दोनो पुत्र अभयकुमार व वारिषेण, भी विद्वान सयमी घोर श्रात्ममाधना के पथ के पथिक बने। इन दोनों ने सांसारिक सुख एवं वैभव का परित्याग कर प्रात्मकल्याण हेतु कठोर तपश्चर्या को स्वीकार किया। प्राध्यापिका महाराजा कालेज, छतरपुर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूनानी दर्शन और जैन दर्शन 1 यूनान पश्चिमों दर्शन का जन्म स्थान समझा जाता है। यहाँ बेस ६२४-५५५ ई० पू० ) का नाम दार्शनिको की श्रेणी में प्रथम गिना जाता है वह सर्वसम्मति से यूनानी दर्शन का पिता माना जाता है। थेल्स ने जल की सारे प्राकृत जगत् का प्रादि धौर प्रन्त कहा. जो कुछ विद्यमान है वह जल का विकास है और अन्त में फिर जल मे ही विलीन हो जायगा एक्विमनोज (६११-५४७ ई० १०) न जल के स्थान मे वायु को जगत का आदि और धन कहा उसके अनुसार सारा दृष्टजन्तु वायु के सूक्ष्म मोर सधन होने का परिणाम है पाइथागोरस (छठी शनी ई० पू०) ने संख्या को विश्व का मूल तत्व कहा। उसके अनुसार हम ऐसे जगत् का चिन्तन कर सकते है, जिसमे रंग, रूप न हो, परन्तु हम किसी ऐसे जगत् का चिन्तन नही कर सकते, जिसमे सख्या का प्रभाव हो । जंन दर्शन के अनुसार जगत् धनादि, अनन्त है जब बल जीव, पुद्गल, धर्म, धर्म, प्राकाश और काल इन छह द्रव्यों का समुदाय जगत् है । जल तथा वायुगौलिक परमाणु रूपों में परिवर्तित होते रहते है। इनमें यद्यपि निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, किन्तु ये अपने पौद्गलिक स्वभाव को नहीं छोड़ते है। छहो द्रव्य नत्वाद, व्यय और प्रोव्य स्वभाव से युक्त है और अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते है । ने इलिया के सम्प्रदाय (जिसमे पार्मेनाइडस और जीनोफेनी के नाम प्रमुख है) वालो का कहना था कि दृष्ट जगत् त् है, बाभास मात्र है। भाव धौर प्रभाव, सत् भोर सत् मे कोई मेल का बिन्दु नही । सत् प्रसत् से उत्पन्न नही हो सकता, न सत् असत् बन सकता है। * प्राधार ग्रन्थ १. यद्यसत्सर्वथा कर्यं तन्माजनि पुष्पवत् । मोप्रादाननियामोऽभून्माश्वासः कार्यजन्मनि ॥ समन्तभद्रः प्राप्तमीमांसा ४२ D To रमेशचन्द जैन 1 जगत् का प्रवाह जो हमे दिखाई देता है, माया है, इसमें सत्या भाव का कोई पक्ष नहीं जैन दर्शन के अनुसार दृष्ट जगत् सर्वथा प्रसत् श्रथवा प्राभास मात्र नहीं है । यदि कार्य को सर्वथा प्रमत् कहा जाय तो वह प्राकाश के पुष्प समान न होने रूप ही है। यदि प्रसत् का भी उत्पाद माना जाय तो फिर उपादान कारण का कोई निगम नहीं रहता पोरन कार्य की उत्पत्ति का कोई विश्वास ही बना रहता है। गेहू बोकर उपादान कारण के नियमानुसार हम यह आशा नही रख सकते कि उससे गेहूं ही पैदा होगे। प्रसदुत्पाद के कारण उससे चने जोया मटरादिक भी पैदा हो सकते हैं और इसलिए हम किसी भी उत्पादन कार्य के विषय में निश्चित नहीं रह सकते, सारा ही लोक व्यवहार बिगड जाता है भोर यह सब प्रत्यक्षादिक के विरुद्ध है। भाव और प्रभाव, और श्रमत् में काई मेल का बिन्दु न हो ऐसा नही है। भाव और अभाव, मत् और असत् एक ही वस्तु मे श्रविरोध रूप से विद्यमान है । द्रव्य स्वरूप, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की प्रपेक्षा कथन किया जान पर धस्ति है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव स कथन किया जाने पर नास्ति है। जैसे- भारत स्वदेश भी है और विदेश भी है। देवदत्त अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र भी है। मत् पाव शती ई० पूर्व) का कहना था कि सत् नित्य और अविभाज्य है। इसमे कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, क्योकि परिवर्तन तो श्रमत् का लक्षण है । जंनाचार्यों ने द्रव्य का लक्षण सत् मानते हुए भी उसे २] देवावरतोष भाय्य (प जुगलकिशोर मुख्तार ) -४२ ३. त्रयस्वक्षेत्र, स्वाभादिष्टमस्ति द्रव्यं पद्मक्षेत्रकालभावंराद्रिष्ट नास्ति Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनानी दर्शन पौरन वर्शन उत्पाद व्यय और प्रौव्यमुक्त माना है। एक जाति का स्वसिद्धान्त विरोध दोष होता है, क्योंकि प्रायः सभी बारी पविरोध जो क्रमभावों भावों का प्रवाह उसमे पूर्व भाव का प्रत्यक्ष पदार्थों को स्वीकार करते ही है।' विनाश सो व्यय है, उत्तरभाव का प्रादुर्भाव उत्पाद है। हिरक्लिटस (५३५.४७५ ई०पू०) का कहना था पौर पूर्व उत्तर भावो के व्यय उत्पाद होने पर भी कि अग्नि विश्व का मलत्वा मूल अग्नि अपने पाप को स्वजाति का प्रत्याग घ्रोग्य है। ये उत्पाद, व्यय भार वाय में परिवर्तित करती है. वायू जल बनती है भोर जल ध्रौव्य सामान्य कथन से द्रव्य से अभिन्न है और विशेष . पृथ्वी का रूप ग्रहण करता है। यह नीचे की भोर का मादेश से भिन्न है, युगपद वर्तते है और स्वभावभत है।' । मार्ग है, इसके विपरीत ऊपर को प्रोर का मार्ग है। इसमें इस प्रकार वस्तु को उत्पाद, व्यय ध्रौव्ययुक्त मान लेने पर पृथिवी जल में, वायु जल में, वायु अग्नि मे बदलते है। परिवर्तन रहित नित्यवस्तु का अस्तित्व सिद्ध नही होता जैन दर्शन अग्नि प्रादि के परमाणु को वायु भादि के है। प्राचार्य समन्तभद्र ने कार्य कारणादि के एकत्व परमाणपों के रूप में बदलना तो मानता है। किन्तु (अविभाज्यता) का भी विरोध किया है। उनका कहना , उनका मूल पोद्गलिक परमाणु ही है। पुद्गल विश्व के कार्यकारणादि का सर्वथा एकत्व माना जाय तो निर्माणकर्ता छः द्रव्यों मे एक है । हिरैक्लिटस के अनुसार कारण तथा कार्य मे से किसी एक का प्रभाव हो जायगा संसार मे स्थिरता का पता नही चलता, अस्थिरता ही और एक के प्रभाव से दूसरे का भी प्रभाव होगा; क्योंकि विद्यमान है । जो कुछ है, क्षणिक है । हिरैक्लिटस के इस उनका परस्पर में प्रविनाभाव है। तात्पर्य यह कि कारण क्षणभंगवाद की तुलना बौद्धो के क्षणभङ्गवाद से की जाती कायं की अपेक्षा रखता है। सर्वथा कार्य का प्रभाव होने है। क्षणभनषाद का जन प्राचार्यों ने अनेक स्थानो पर पर कारणत्व बन नही मकता और इस तरह सर्व क खण्डन किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है.-"यदि वस्तु पभाव का प्रसङ्ग उपस्थित होता है। का स्वभाव क्षणभङ्गर ही माना जाय तो पूर्वकृत कर्मों का जीनोफेनीज (४६५ ई०पू०) ने यह बताने का फन बिना भोगे ही कृश हो जायगा। स्वयं नही किए हुए प्रयत्न किया कि गति का कोई अस्तित्व नहीं। जनदर्शन कमो का फल भी भोगना पड़ेगा तथा ससार का, मोक्ष मे जीव भोर पुदगलों की गति मे नियामक द्रव्य धर्म को का पौर स्मरणशक्ति का नाश हो जायगा। तात्पर्य यह स्वीकार किया गया है। इसके लिए यहाँ पागम मोर कि प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी मानने पर प्रात्मा कोई पृथक अनुमान प्रमाण उपस्थित किए गए है। अनुमान प्रमाण पदार्थ नही बन सकता तथा भात्मा के न मानने पर संसार उपस्थित करते हुए कहा गया है कि जैसे अकेले मिट्टी के नही बनता; क्योकि क्षणिकवादियों के मत में पूर्व मौर पिण्ड से घड़ा उत्पन्न नहीं होता, उसके लिए कुम्हार, चक्र, अपर क्षणो में कोई सम्बन्ध न होने से पूर्वजन्म के को चीवर प्रादि अनेक बाह्य उपकरण अपेक्षित होते है, उसी का जन्मान्तर मे फल नही मिल सकता। यदि कहो कि तरह पक्षी प्रादिकी गति और स्थितिभी अनेक बाह्य कारणो सन्तान का एक क्षण दूसरे क्षण से सम्बद्ध होता है । मरण की अपेक्षा कराती है। इनमे सबको गति पोर स्थिति के के ममय रहने वाला ज्ञानक्षण भी दूसरे विचार से सम्बद्ध लिए साधारण कारण क्रमशः धर्म भोर अधर्म होते है। होता है । इसलिए मसार की परम्परा सिद्ध होती है। यह यदि यह नियम बनाया जाय कि 'जो जो पदार्थ प्रत्यक्ष से ठीक नही; क्योकि सन्तान क्षणो का परस्पर सम्बन्ध करने उपलब्ध न हों, उनका प्रभाव है तो सभी वादियो को वाला कोई पदार्थ नही है। जिससे दोनों क्षणो का परस्पर ४. द्रव्य सल्लक्षणियं उप्पादस्वयधुवत्तसंजुत्तं । ७. तस्वार्थवातिक ११७३२.३५ । पंचास्तिकाय-१० ८. कृत प्रणाशाऽकृत कर्मभोगभव, ५. वही अमृतचन्द्र चन्द्राचार्य कृत टीका पृ० २७ । प्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् । ६. एकस्वेऽव्यतराभावः शेषाऽभावोऽविनाभवः ।। उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन्न हो, देवागमस्तोत्र-६६ महासाहसिकः परस्ते ॥१८॥ स्यावाद मंजरी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, बर्ष ३४ कि.१ अनेकान्त सम्बन्ध हो सके। मात्मा के न मानने पर मोक्ष भी सिद्ध में भी उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यपना पाया जाता है प्रतः नही होता; क्योंकि संपारी पारमा का प्रभाव होने से वह नित्यानित्य अथवा कथंचित् नित्य और कथंचित मोक्ष किसको मिलेगा क्षणभङ्गवाद में स्मृति ज्ञान भी नही अनित्य है, सर्वथा नित्य नहीं है । पुद्गल का सबसे सूक्ष्म बन सकता, क्योंकि एक बद्धि से अनुभव किए हुए पदार्थों प्रविभागी ग्रंश होने के कारण परमाणनों में मात्रा और का दूसरी बुद्धि मे स्मरण नही हो सकता। स्मृति के प्राकृति का भेद नही होता। यह भेद उसके स्कन्ध बनन स्थान में संतान को एक अलग पदार्थ मान कर एक पर होता है। जीव पोर पुद्गलो को गति में सहायक सन्तान का दुसरी सम्तान के साथ कार्य कारण भाव धर्मद्रव्य है।" क्रिया काल द्रव्य का उपकार है।" प्रवगाह मानने पर भी सन्तानक्षणो की परस्पर भिन्नता नही मिट देना प्रकाश का उपकार है। यह आकाश दो प्रकार का सकती; क्योंकि क्षणभङ्गवाद मे सम्पूर्ण क्षण परस्पर है-१. लोकाकाश और २. प्रलोकाकाश । जितने प्राकाश भिन्न हैं। __ में लोक है, वह लोकाकाश है शेष लोकाकाकाश है। ___ ल्युसिप्पम (३८० ई० पू०) ने मूलतत्व परमाणु लोकाकाज में छहों द्रव्य पाए जाते है और अलोकाकाश माना । हम इसे देख नही सकते; इसका विभाजन नही में केवल प्राकाशद्रव्य पाया जाता है। हो सकता; यह ठोस है। यह नित्य है। परमाणुमो के एनसे गोरस (५००.४३८ ई० पू०) का कथन है कि योग से सारे पदार्थ बनते है। इन परमाणुप्रो मै मात्रा जगत का मूल कारण असख्य प्रकार के परमाणपो की और प्राकृति का भेद है। इस भेद के कारण उनको गति असीम मात्रा है। यह सामग्री प्रारम्भ में पूर्णतया भी एक समान नही होती। मारी क्रिया इस गति का फल व्यवस्था विहीन थी। अब मोने, चादी. मिट्टी, जल प्रादि है। गति के लिए अवकाश की प्रावश्यकता है। ल्यूसिप्पस के परमाण एक प्रकार के है, प्रारम्भ में ये सारे एक-दूसर ने परमाणों के साथ शुन्य प्रकाश का भी मूलतत्त्व से मिले थे। उस समय न सोना था न मिट्टी थी। स्वीकार किया। पदार्थों में और अवकाश मे भेद यह है अव्यवस्थित दशा से व्यवस्था कैसे पैदा हई ? स्वय कि पदार्थ प्रकाश का मरा हुमा भाग है। इस भेद को परमाणु प्रो मे तो ऐमो समझ की क्रिया को योग्यता न थी, दष्टि मे रखते हुए विश्व प्रशन्य और शून्य में विभक्त यह क्रिया चेतन सत्ता की अध्यक्षता में हुई। इस चेतन किया गया। ल्युमिप्पस न प्राकृत जगत के समाबान के सत्ता को एनेक्से गोमस ने बुद्धि का नाम दिया। लिए किसी अप्राकृत तत्त्व या शक्ति का सहारा नही ऊपर कहा जा चका है कि जनदर्शन मे लोक छहो लिया। उसके मत में जो कुछ होता है, प्राकृत नियम के द्रव्यों से बना हुमा निरूपित है, केवल परमाणुप्रो से अनुसार होता है, यह किसी प्रयोजन का पता नही निर्मित नही है । परमाणपों का मिलना, बिछुडना मनादि चलता। काल से अपने पाप होता पाया है। ऐसा नहीं है कि जैनदर्शन में पुद्गल के दो भेद कहे गए है - १. प्रण प्रारम्भ मे परमाणु अव्यवस्थित थे तथा प्रब चेतन के द्वारा २. स्कन्ध । जिसका प्रादि, मध्य और अन्त एक है और व्यवस्थित हो गए है। अणु को उत्पत्ति भेद से हो होती जिसे इन्द्रिया ग्रहण नही कर सकती ऐसा जो विभागरहित है।" न संघात से होती है भोर न भेद और सघात इन द्रव्य है, वह परमाणु है। विश्व का मूलतत्त्व केवल दोनो से ही होती है । भेद और संघात से चाक्षुष स्कन्ध परमाणुरूप पुद्गल द्रव्य न होकर छह द्रव्य है। परमाण बनता है।" ६. अत्तादि प्रत्तमझ प्रत्तंतं वइदिये गेज्म। ११. वर्तमानपरिणामक्रिया: परचापरत्वे च कालस्य । ज दब्व प्रभिागी त परमाणु विप्रणाहि ॥ वही ५।२३ सर्वार्थसिद्धि पृ० २२१ १२. प्राकाशस्यावगाहः। वही ५१८ १०.धतिस्थिति त्युपग्रही धर्माधर्मपोरकार: ॥ तस्वार्थ १३. भेदादणः ॥ वही ५२२६ सूत्र ५११७ १४. भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ।। वही ५।२८ तक है और न स के भेद ' Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घुमानी मीर नपर्शन २७ प्रोटे गोरस (४२०.४११ ई० पू०) ने इन्द्रियजन्य ज्ञान इन्द्रियजम्य ज्ञान है और यह ज्ञान किसी विशेष ज्ञान के अतिरिक्त अन्य प्रकार के ज्ञान को नहीं माना। पदार्थ का बोध है। जिस घोड़े को मैंने देखा है, उसके न प्रोटेगोरस का यह कथन चार्वाक दर्शन से मिलता-जलता विद्यमान होने पर भी उमका चित्र मेरी मानसिक दृष्टि है; क्योंकि चार्वाक ने भी प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य मे मा जाता है। किसी विशेष घोडे को देखने या उसका किसी प्रकार का प्रमाण नहीं माना । इसके खण्डन स्वरूप मानसिक चित्र बनाने के अतिरिक्त मेरे लिए यह भी जैनदार्शनिकों ने धर्मकीति के उस कथन को प्रायः उद्धृत सम्भव है कि मैं घोड़े का चिन्तन करूं। ऐसे चिन्तन में किया है। जो उन्होंने अनुमान प्रमाण की सिद्धि के प्रसङ्ग मैं किसी विशेष रंग का ध्यान नहीं करता, क्योकि यह में कहा है तदनुसार किसी ज्ञान मे प्रमाणता और किसी रग सभी घोड़ों का रंग नहीं। मैं ऐसे विशेषणों का ज्ञान से अप्रमाणता को व्यवस्था होने से, दूसरे (शिष्यादि) ध्यान करता हूं जो सभी घोड़ों में पाए जाते है और सबके मे बद्धि का प्रवगम करने से और किसी पदार्थ का निषेध सब किसी अन्य पशु जाति में नहीं मिलते। ऐस चिन्तन करने में प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमान प्रमाण का सद्भाब का उद्देश्य घोड़े का प्रत्यय निश्चित करना है। ऐसे प्रत्यय सिद्ध होता है। प्रमाणता-प्रप्रमाणता का निर्णय स्वभाव. को शब्द मे व्यक्त करना घोड़े का लक्षण करना है। हेतु जनित एनुमान से, कार्य से कारण का ज्ञान कार्य हेतु जनदर्शन में पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य विशेष रूप जनित अनुमान से पोर प्रभाव का ज्ञान अनुपलब्धि हेतु माने गए है, उनमें सामान्य और विशेष की प्रतीति कराने जनित अनुमान से किया जाता है। इस प्रकार प्रोटेगोरस के लिए पदार्थान्तर मानने की प्रावश्यकता नही।" प्रात्मा का केवल इन्द्रियजन्य ज्ञान को ही स्वीकार करना सिद्ध पुद्गलादि पदार्थ अपने स्वरूप से ही अर्थात् सामान्य पौर नहीं होता है। विशेष नामक पृथक पदार्थों की बिना सहायता के ही जा यस (४२७ ई० पू०) ने निम्न तीन धाराम्रो सामान्य विशेष रूप होते है। एकाएक और एक नाम से को सिद्ध करने का यत्न किया-- कहीं जाने वाली प्रतीति को अनुवति अथवा सामान्य १ किसी वस्तु की भी सत्ता नही । कहते है। सजातीय और विजातीय पदार्थों से सबंधा २. यदि किसी वस्तु का अस्तित्व है तो उसका ज्ञान अलग रहने वाली प्रतीति को व्यावत्ति प्रथवा विशेष हमारी पहुच के बाहर है। कहते है । इसी सामान्य तथा बिशेष की व्याख्या सुक रात ३ यदि ऐसे ज्ञान की सम्भावना है तो कोई मनुष्य ने उदाहरण देकर की है। अपने ज्ञान को किसी दूसरे तक पहुचा नही सकता। प्लेटो (४२७-३४७ ई० पू०) के मतानुसार प्रत्ययों जैन दर्शन के अनुसार सत्ता सब पदार्थों में है। वस्तु का जगत अमानवीय जगत है; इसकी अपनी वस्तुगत कोसत्ता को प्रत्यक्ष मोर परोक्ष ज्ञान के द्वारा जाना जाता सत्ता है। दृष्ट पदार्थ इमको नकल है। कोई त्रिकोण है कोई भी मनुष्य अपने ज्ञान को किसी दूसरे तक पहुंचाने जिमकी हम रचना करते है, त्रिकोण के प्रत्यय को पूर्ण मे निमित्त हो सकता है। नकल नही। हर एक विशेष पदार्थ में कोई न कोई पश्चिम मे सुकरात (४६६-३६६ ई०पू०) लक्षण मर्णता होती ही है। इमी अपूर्णता का भेद विशेष पदार्थों और प्रागमन दोनों का जन्मदाता है, इसलिए उसका को एक दूसरे से भिन्न करता है। मारे घोड़े घोड़े के प्रत्यय स्थान चोटी के दार्शनिको मे है। उसके अनुसार ज्ञान के की प्रपूर्ण नकलें है। सारे मनुष्य मनुष्य के प्रत्यय की कई स्तर है। मैं धोड़े को देखता हूँ.-सका कद विशेष प्रघगे नकलें है कोई प्रत्यय पदाथों पर आधारित नही. कद है। उसका रंग विशेष रग है। उसकी विशेषतामो प्रत्यय तो उनकी रचना का प्राधार है। प्रत्यय और के कारण मैं उसे अन्य घोड़ों से अलग करता है। मेरा उसको नकलो का भेद सामान्य प्रौर विशेष के रूप में १५. स्वतोऽनुबत्तिव्यतिवृत्तिभाजो भावान भावान्तर नेपरूपाः । परात्मतत्त्वादशात्मतत्वाद् द्वय वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥ प्राचार्य हेमचन्द्रः प्रन्ययोगव्यवच्छेदनानिशिका-४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० वर्ष ३४,किरण । अनेकान पीछे प्रसिद्ध हुमा । प्रत्यय और पादर्श एक ही है। कहलाने के योग्य हैं। नदर्शन उपर्युक्त प्रत्ययों एवं उसकी नकलों को जनदर्शन में प्रत्यक्ष के दो भेद माने गए हैंमाग्यता को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार दृष्ट १. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष । इन्द्रिय पदार्थ किसी प्रत्यय की नकल नही, वास्तविक है। ज्ञान और मन को सहायता से जो ज्ञान हो, वह माव्यावहारिक में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थों को जानता है। ज्ञान में प्रत्यक्ष है। यह यथार्थ रूप में परोक्ष ज्ञान हो है। क्योकि झलकने के कारण हो पदार्थ ज्ञय नाम को पाते हैं। इसमे इन्द्रिय और मन के अवलम्बन को प्रावश्यकता होती सामान्य से रहित विशेष और विशेष से रहित सामान्य है। इन्द्रिय और मन के द्वारा जो जानकारी होती है, वह की उपलब्धि किसी को नहीं होती। यदि दोनो को पूरी तरह से यथार्थ हो, ऐसा नहीं है। काच, कामला निरपेक्ष स्थिति मान ली जाय तो दोनों का हो प्रभाव हो प्रादि रोग के कारण किसी को रंग के विषय मे भ्रान्ति जायगा । कहा भी है हो जाय तो इसका अर्थ यह नहीं है कि सारे ऐन्द्रियक "विशेष रहित सामान्य खरविषाण की तरह है भोर ज्ञान भ्रान्त है। यदि सारे ऐन्द्रियिक ज्ञान को भ्रान्त सामान्यरहित होने से विशेष भी वैसा ही है।" माना जाय तो लोक व्यवहार का हो लोप हो जायगा वस्तु का लक्षण प्रक्रियाकारित्व है और यह लक्षण प्लेटो के ज्ञान के प्रथम दो स्तरो का समावेश साव्यव. अनेकान्तवाद मे ही ठीक-ठीक घटित हो सकता है। गो हारिक प्रत्यक्ष मे हो जाता है। जैनदर्शन मे इसे के कहने पर जिस प्रकार खुर, ककुत, सास्ना, पूंछ, सीग ज्ञान की श्रेणी में रखा गया है। तत्त्वज्ञान इस ज्ञान से मादि अवयवो वाले गो पदार्थ का स्वरूप सभी गो व्यक्तियों ऊँचा अवश्य है, क्योकि इसमें युगपत् अथवा प्रयुगपत में पाया जाता है, उसी प्रकार भैस प्रादि की व्यावत्ति भी सारे पदार्थों का ज्ञान होता है। केवल केवली भगवान हो प्रतीत होती है।" प्रतएव एकान्त सामान्य को न मान युगपत् सारे पदार्थों को जानते है, अन्य ससारी प्राणियों कर पदार्थों को सामान्य विशेष रूप हो मानना चाहिए। मे से जिन्हें तत्त्वज्ञान होता है वे प्रयुगपत् ही पदार्थों प्लेटो ने ज्ञान के तीन स्तर स्वीकार किए। सबसे निचले को जानते है। तत्त्वज्ञानी जैसा सत् को देखता है, उसो स्तर पर विशेष पदार्थों का इन्द्रियजन्य ज्ञान है। ऐसे ज्ञान प्रकार असत् को भी देखता है। क्योकि वस्तु केवल भाव. में सामान्यता का प्रश नही होता जो पदार्थ मझे हरा रूप नही, अभावरूप भी है। दिखाई देता है और तीसरे को रगविहीन दिखाई देता है। प्लेटो के विचार में सृष्टि रचना एक स्रष्टा को क्रिया पदार्यों के रूप, उनके परिमाण प्रादि के विषय मे ऐसा ही है। स्रष्टा प्रकृति को प्रत्यपों का रूप देता है। जैन भेद होता है। प्लेटो के अनुसार एसा बोध ज्ञान कहलाने सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयसिद्ध है। कोई सर्वदष्टा सदा मे कर्मों से प्रछता नही हो सकता, क्योंकि बिना का पात्र ही नहीं; इसका पद व्यक्ति को सम्मति का है। उपाय के उसका सिद्ध होना किसी तरह नहीं बनता।" इससे ऊपर के स्तर का ज्ञान रेखागणित में दिखाई देता प्लेटो का प्रत्यय विशेष पदार्थों के बाहर था। प्रारस्तू है। हम एक त्रिकोण की हालत में सिद्ध करते हैं कि (३८४-३२२ ई०पू०) का तत्त्व प्रत्येक पदार्थ के अन्दर उसको कोई दो भुजायें तीसरी से बड़ी है और कहते है। है। सभी घोड़े घोड़ा श्रेणी में हैं; क्योंकि उन सब में कि यह सभी त्रिकोणों के विषय में सत्य है। गणित के अपनी-अपनी विशेषतानों के साथ सामान्य प्रश भी प्रमाणित सत्यों से भी ऊँचा स्तर तत्त्वज्ञान का है जिसमे विमान है। यह सामान्य प्रश भी उस सामान्य अंश से सत् को साक्षात् देखते हैं, तत्त्वज्ञान ही वास्तव मे ज्ञान भिन्न है, जो मारे गदहों में पाया जाता है पोर उम्हे १६ निविशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । १८. नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वहश्वास्ति कश्चन । सामान्य रहित त्वेन विशेषास्तवदेव हि ।। तस्यानुपायसिदस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ।।६।। मीमांसा इलोकवातिक प्राप्तपरीक्षा १७. मल्लिषेण : स्यावादमंजरो पृ० १२४ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनानी वर्शनोरन वर्णन गदहा बनाता है। अरस्तू ने भी प्लेटो के त को कायम देवी देवता का शरीर पौदगलिक है, उनके पोवगलिक रखा। परन्तु दोनो अंशो के अन्तर को दूर कर दिया, शरीर में एक क्षेत्रावगाहो पात्मा है। ये पारमायें भिन्नपदार्थों का तत्व में बदलने वाला प्रश, उनसे पृथक, उनके भिन्न शरीर मे भिन्न-भिन्न: । जोगत्मा परमाणुमों का बाहर नही; उनके अन्दर है। परस्तु के सामान्य विशेष संघात न होकर उपयोग लक्षण वाला ममूतं द्रव्य है। मृत्य की यह प्रवधारणा जैनसिद्धान्त से मिलती-जलती है। होने पर स्थूल शरीर का ही त्याग हो जाता है। तंजस परस्तू मूल प्रकृति को प्राकार विहीन मानता था। तथा कार्मण शरीर मृत्यु के बाद भी जीव का साथ नहीं जनदर्शन किसी एक द्रव्य को मूल प्रकृति नही मानता! छोड़ते हैं। जीव का मस्तित्व अनादि काल से है और उसके अनुसार पुद्गल द्रव्य हो केवल मूर्ति है, शेष द्रव्य अनन्तकाल तक रहेगा; वह केवल इसी जीवन के लिए प्रमूर्तिक है। अरस्तू के विवरण मे चार प्रकार के कारणों नही है। नरकों का अस्तित्व है, उनके दण्डों के विषय में का वर्णन है कहना मोर सोचना व्यर्थ नही है।। १. उपादान कारण । एपिक्युरस का यह मत जनदर्शन से मिलता है कि २. निमित्त कारण । ससार मे जो कुछ हो रहा है। प्राकृत नियम के अधीन हो रहा है। इसमे किसी चेतन सत्ता का प्रयोजन विखाई नही ३. प्राकारात्मक कारण ! ४. लक्ष्यात्मक कारण । देता। मनुष्य स्वाधीनता के उचित प्रयोग से अपने पापको जैनदर्शन में केवल दो कारण माने गए हैं १. उपादान सुखी बना सकता है। एपिक्युरस ने भारम्भ मे क्षणिक कारण २. लक्ष्यात्मक कारण । तृप्ति को भले ही महत्त्व दिया हो, तो भी पीछे उसने एविक्युरस (३४२-२७० ई० पू०) ने लोगों को मृत्यु दुःख की निवृत्ति को ही मादर्श समझा। किसी प्रकार की और परलोक के भय से मुक्त करने का निश्चय किया, स्थिति मे विचलित न होना, हर हालत में सन्तुलन बनाए इसके लिए उसने डिमाक्राइटस के सिद्धान्त का प्राश्रय रखमा भले पुरुष का चिह्न है। दार्शनिक का काम ऐसा लिया। उसने कहा कि दृष्ट जगत् परमाणुमो से बना है; स्वभाव बनाना और दूसरो को ऐसा स्वभाव बनाने मे इसके बनाने में किसी चेतन शक्ति का हाथ नही। देवी सहायता देना है। जनदर्शन मे भी धर्म उसे ही कहा गया देवता तो पाप परमाणों से बने है; यद्यपि उसको है, जो प्राणियों को संसार के दुःख से छुड़ा कर उत्तम बनावट के परमाणु अग्नि के सूक्ष्म परमाणु है । जीवात्मा सुख मे पहुचा दे। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने मोह मोर मोम से रहित प्रात्मा के साम्यपरिणाम पयवा चारित्र को धर्म भी ऐसे परमाणुप्रो का संघात है। मृत्यु होने पर स्थूल कहा है।" एपिक्युरस का विचार था कि अपनी परमाणु वातावरण में जा मिलते है। इस जीवन के बाद मावश्यकतामों को कम करो, इससे मन को शान्ति प्राप्त कुछ रहता नही; नरक के दण्डों को बाबत कहना और होगी। जनदर्शन का प्राररिग्रहवाद भी यही है । एपिक्युरस सोचना व्यर्थ है। सुखी जीवन के लिए सादगी, बद्धिमत्ता और न्याय के जनदर्शन भी लोगों को मृत्यु और परलोक के भय मा मित्रता को पावश्यक समझता था। प्राणिमात्र के से मुक्त होने का मार्ग बतलाता है, किन्तु उसके अनुसार प्रति मंत्री भाव रखना जनों का भी मम मात्र है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की एकता मोक्ष एपिक्युरस ने कहा था कि कोई घटना अपने पापमें का मार्ग है।" जगत् छ: द्रव्यों की निर्मित है। इसके मच्छी या बुरी नही। हमारी सम्मति उन्हें अच्छा, बरा बनाने में किसी (मकेलो) चेतनशक्ति का हाथ नहीं है। (शेष पृष्ठ भावरण ३ पर) १६. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः। तत्त्वार्थसूत्र ११ २१. चारित्रे खल धम्मो जो सो समोतिणिछिटो। २०. देशयामि समीचीन धर्मम् कर्म निबर्हणम् । मोहाखोहविहीणो परिणामो पप्पणो इसमो॥ संसारदुःखतः सवत्त्वान् यो घरव्युत्तमे सुखे ॥ प्रवचनसार रलकर श्रावकाचार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी साहित्य में नेमी-राजुल डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर हिन्दी के जैन कवियों के अपने काव्यो को विषय. शृंगार रस से प्रोत-प्रोत होता है और वह पाठक के वस्तु प्रमुख रूप से महापुराण, पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण हृदय को खिला देता है और जब वैराग्य धारण करने का के प्रमख पात्रों का जीवन रही है। इनमे ६३ शलाका प्रकरण चलता है तो सारा काव्य शान्त रस प्रधान होकर महापुरुषों के अतिरिक्त १६६ पुण्य पुरुषों के जीवन चरित हृदय को द्रवीभूत कर देता है। प्रस्तुत शोधपत्र में हम भी जैन काव्यों की विषय-वस्तु के प्रमुख स्रोत रहे है। ऐसे ही काव्यो का उल्लेग्व कर रहे है जो काव्य के विविध राजुल, मैना सुन्दरी, सीता, अजना, पवन जय, श्रीपाल, रूपो मे लिखे हुए है तथा जिनको कथावस्तु नमिराजल भविष्यदत्त, प्रद्युम्न, जिनदत्त, सुदर्शन सेठ प्रादि सभी का जीवन है। पुण्य पुरुष है जिनके जीवन चरित के श्रवण एव पठन मात्र सुमतिगणिनेमिनाथ राम सभयतः हिन्दी म नमि से हो अपार पुण्य की प्राप्ति होती है और वही पुरुष राजुल सबधित प्रथम रचना है जिसका रचना काल संवत् भविष्य में निर्वाण पथ के पथिक बनने में सहायक होता १२७० है और जिसको एक मात्र पाण्डुलिपि जैसलमेर के है। हिन्दी के ये काव्य केवल प्रबन्ध काव्य अथवा खण्ड बृहद ज्ञान भण्डार में उपलब्ध होती है। इस रास में काव्य रूप में ही नही मिलते है लेकिन रास, बलि, पुराण, तोरणद्वार की घटना का प्रमुखता वर्णन किया गया है। छन्द, चौपाई, चरित, ब्याहलो, गीत, धमाल, हिण्डोलना, १६वी शताब्दी के कवि बुचराज द्वारा नेमि-राजुल सतसई, बारहमासा, संवाद, जखडी, पच्चीसो, बत्तीमी, के जीवन पर दो रचनाये निबद्ध करना उस समय जनसवय्या प्रादि पचासों रूपों मे ये का लिखे गये है जो सामान्य मे राजुलन मि के जीवन की लोकप्रियता को प्राज अनुसंधान के महत्त्वपूर्ण विषय बने हुए है। प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त है। बुचराज की एक कृति लेकिन शलाका पुरुषों एव पुण्य पुरुषो के जीवन का नाम बारहमासा है जिसमें सावन मास में अषाढ मास सम्बन्धी कृतियों में राजलनेमि के जीवन से सम्बन्धित तक के बारह महीनो के एक एक पद्य में राजल की विरह कृतियों को सबसे अधिक संख्या है। बाईसवें तीर्थंकर वेदना एव नेमिनाथ के तपम्वी जीवन पर राजल का नेमिनाथ के जीवन के तोरणद्वार से लौट कर वैराग्य प्राक्रोश व्यक्त किया गया। बाद में जल धारण करने को एक मात्र घटना में सारा हिन्दी जैन मनोगत मावो को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि साहित्य प्रभावित है। उसो घटना को जैन कवियो ने वह पाठकों को प्रभावित किये बिना नही रहते। कवि के विविध रूपों में निबद्ध किया है। नेमिनाथ के साथ राजुल प्रत्येक रास मे व्यथा छिपी हुई है और जब वह परिणय भी चलती है क्योकि राजुल के परित्याग की घटना को को पाशा लगाये नव यौवन राजुल के विरह पर मजीव जैन कवियों ने बहुत उछाला है और अपने पाठको के चित्र उपस्थित करता है तो हृदय फूट-फूट कर रोने लगता लिये शृंगार, विरह एवं वैराग्य प्रधान सामग्री के रूप में है। राजुल को प्रत्येक महीने मे भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। एक मोर जहाँ बारहमासा काव्यो की विरह वेदना सताती है और वह उस वेदना को सहन सर्जना करके पाठकों को विरह वेदना मे डुबोया है वहाँ करने में अपने प्रापको प्रसमर्थ पाती है। जैन कवियों ने दूसरी भोर तोरणद्वार तक जाने के पूर्व का वृत्तान्त बारहमासा के माध्यम से इस विरह का बहुत सुन्दर एव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी साहित्य में नेमी-राबुल सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है । समूचे हिन्दी साहित्य मे काको पठउ द्वारिका, कोई ना सुनाये। इस तरह का बेजोड वर्णन प्रत्यन्त कम मिलता है। बारह- काकण भुजते टारि देऊ, इतनो कहि पार्व॥६॥ मासा के प्रमुख कवियो में निम्न कवियों के नाम किसी किसी कवि ने तो राजल और नेमिनाथ के उल्लेखनीय हैं : बीच उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में बारहमासा लिखा है। १. विनोदी लाल २. गग कवि ३. चिमन बारह महीने तक बहुन कुछ समझाने पर भी जब नेमि ४. जीवंवर ५ रवि ६. प्रानंद को नहीं पिघला सकी तो राजन ने आयिका के व्रत ७. पाडे जीवन ८. गोपाल दामह लधि वर्धन धारण कर लिये । पाण्डे जीवन का बारहमासा इस दष्टि उक्त सभी कवियो ने राजलनेमि को लेकर बारह से उल्लेखनीय है । राजुल ने मि से कहती है -- मासा लिखे है जो अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सभी प्रमाढ़ मास सुहावनों, कुछ बरसे कुछ नहि। कवियो ने अपने बारहमासा वो सावन मास से प्रारम्भ नेम पिया घर माइये, यं तुम लोग हसाहि ॥ किया है । कवि लब्धि वर्धन का सावन मास का एक पद्य प्रायो ज मास प्रसाद प्रीतम पहलो व्रत तुम नहि लियो। देखिए जिसमे राजुल सावन मास मे उत्पन्न बिरह पीडा छपन कोडिज भये जनेती, दुष्ट जन कंपो हियो। को व्यक्त कर रही है बलभद्र और मुरारि संग ले, बहुत सब सरभर करे। प्रकटा विकटा निकटा निरजे मरने, गिरनार गढ़ से चलो नेम जी, राजमति चितवनकर।।५।। धनघोर घटा घन को। नेमि द्वारा उत्तरसुजरि पजुरी विजुरी चमके, पायो मास असाढ़ हो, मन नही उलसहि । अधियारि निसा प्रति सावन की ।। मुकति रमण हित कारणे, छाड़े सब घर तोहि ॥६॥ पोउ पीउ कहे पिपीया ज बहह, जीवन तो निस सुपन जानौं, कहा बड़ाई कीजिये । कोउ पीर लहे परके मन की। ए बंधु भगनो मात पिता ही, सरब स्वारथ लीजिये। ऐसे नेमी पियाही मिलाइ वियाइ, यहि बात हम सब त्याग रीनो, मोक्ष मारग पगषरो। बलि जाक सखि जगिया जन की ॥१॥ कह ने मनाथ सुनो राजुल, चित्त अब तुम बस करो। कविवर गोपाल ताम ने तो सावन महीने के विरह का नेमि राजल पर बारहमासा साहित्य के प्रतिइतना विस्तृत वर्णन किया है कि पाठक के मन में राजल रिक्त सबसे अधिक संख्या में रास काव्य मिलते है के प्रति सहज स्नेह उत्पन्न हो जाता है। एक उदाहरण जिनके रचयिता भट्टारक रत्नकीति, कुमुदचन्द्र, देखिये अ. रायमल्ल, विद्याभूषण, अभय चन्द्र, मादि के नाम फेर ल्यायो नेमि कुमार को, कहै राजल राणी। उल्लेखनीय है। इन रास काव्यों मे नेमिनाथ का पूरा हाथ का बैऊ मुंबडा पर कंडल कानी ॥१॥ जीवन चित्रित किया गया है। इनमें भी तोरणद्वार से क्यों पाये क्यों फिर गये क्यों ध्याहन कोना। लोटकर वैराग्य धारण करने की घटना का और राजल क्यों छोड़ी मग लोचनी गजा को धोया ॥२॥ के मूछिन होने की घटनामों का वर्णन होता है लेकिन कांकण बांध्या कर रह्या, रही चवरी छाह। उनमे राजुल का एक पक्षीय वर्णन नही होता । रासों की मेरा जिनबर रोझा मगति सो मै अब सुष पाइ। समाप्ति नेमिनाथ के निर्वाण एव राजल के स्वर्ग गमन के मेरी परंगडीया जल लाईया, भादों की नाई। साथ होती है। रास काव्यों मे नेमिनाथ के साथ दूसरे तोमन संभार मुझको जिया पुझ मोड महापुरुषों का भी वर्णन पाता है। बावल मेरे क्या कोया, वर देख न दीया। रास काव्यों के समान ही नेमि राजमति बेलि-परक बहरागी जनम का, या परणी प्रिया ॥ रचनायें भी जन कवियो ने खूब लिखी है। ऐसी रचनामों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३४ र १ में कविवर ठाकुरसी एवं सिवदास की नेमि राजमति बेलि, के नाम उल्लेखनीय है। कविवर ठाकुरसी ने अपनी बेलि मे नेमिनाथ घोर राजुल के विवाह प्रसंग से लेकर वैराग्य धारण करने घोर प्रश्त में निर्वाण प्राप्त करने तक की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया है। इसमें मेमकुमार का पौरुष, विवाह के लिये प्रस्थान पशुधों की पुकार, राजुल का सौन्दर्य वर्णन, राजुल का विलाप आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसी प्रसन मे राजुल द्वारा दूसरे राजकुमार से विवाह करने के प्रस्ताव का दृढ़ता साथ विशेष किया गया। कवि के शब्दों में उसे देखिए जंप रखमतीय प्रणेश निविवर बंधन मेरा के बरच नेमिवर भारी, सलि के तपु लेउ कुमारी । दिगंबर को स्वर से सर नर को पैसे तिमि भवन को राई, किम प्रवस्तु बरो बस भाई ।। हिन्दी जैन कवियों में पद साहित्य मे भी नेमि राजुल के सम्बन्ध में घनेक पद लिखे हैं । ये पद श्रृंगार, विरह एवं भक्ति सभी तरह के हैं। सबसे अधिक विरहात्मक पद म० नीति एवं कुमुद्र ने लिखे हैं। इन दोनों कवियों के पदों से ऐसा मालूम देता है मानो इन्होंने राजुल के हृदय हृदय को अच्छी तरह पढ़ लिया हो और उनके पदों से उसको घन्तरात्मा की प्रावाज हो सुनाई देती है। रस्मकीर्ति राजुल की तड़पन से बहुत परिचित थे। राजुल किसी भी बहाने नेमि के दर्शन करना तो चाहती है। लेकिन वह यह भी चाहती थी कि उसकी मोले नेमि के प्रागमन को प्रतीक्षा न करें, लेकिन वे लाख मना करने पर भीम के आगमन की बाट जोहना नहीं छोड़ते रस्नकीति कहते है बण्यो न माने नम निठोर । सुमिरि सुमिरि गुन भये सजल घन । उमंगी चलं मति चंचल चपल रहत न मानत 4 निहोर ॥ मिल उठि चाहत गिरि को मारव फोर ॥ १ ॥ नहीं रोके प्रकान्स । ही चिि बिधि चन्द्र चकोर || वरश्यो० ॥ तन मन धन योवन नही भावत । रजनी न भावत भोर ।। थियो। रस्मकीर्ति प्रभु वेगो तुम मेरे मन के चोर || वरज्यो० ॥ एक अन्य पद में राजुल कहती है कि नेमि ने पशुओं की पुकार तो सुन सी लेकिन उसकी पुकार क्यों नहीं सुनी। दूसरों के दर्द को इसलिये यह कहा जा सकता है कि वे जानते ही नहीं है सखी री नेमि न जानी पीर ॥ 1 बहोत दिवाने प्राये मेरे घरि संग लेई हलबर वीर ॥१॥ नेमि मुख निरको हरखी मनसूं अबतो होइ मनधीर । ताये पसूय पुकार सुनी करी गयो गिरिवर के वीर ||२|| चंदवदनो पोकारतो डारती, मंडनहार उर चोर । रतनकीरति प्रभू भये विरागो, राजुल चित कियो घोर ॥ ३॥ इसी तरह एक अन्य पद में राजुल अपनी सखियों से नेमि के लिवाने की प्रार्थना करती है। वह कहती है कि नेमि के बिना योवन, चंदन, चन्द्रमा ये सभी फीके लगते है माता, पिता, सनियाँ एवं रात्रि सभी उत्पन्न करने वाली है । इन्ही भावो को रत्नकीर्ति के एक पद मे देखिये---]] सखि को मिलावे नेम नारिदा । ता बिन तन मन योवन रजत है, चारु चंदन पर चंदा ॥ १ ॥ कामन भुवन मेरे जीवा लागल, सह मन को फंदा । तात मात घर सजनी रजनी, वे प्रति दुख को कंदा ॥ २॥ तुम तो शंकर सुख के दाता, करम प्रति काए मंदा । रतनकीरति प्रभु परम दयालु, सेवत प्रमर नरिया || ३ || लेकिन कवि अथ राजुल को सुन्दरता का वर्णन करने लगता है तो वह उसमें भी किसी से पीछे नही रहना चाहता । । चनो मृगलोचनो, मोचनी वंजन मीन । बास जीरो मेणि श्रेणिय मधुकर दोन युगल गल बाये शशि, उपमा नाशा कीर । अपर विक्रम सम उपना, दंतम निर्मल नीर । चिबुक कमल पर घटपद, धानश्व करे सुधापान । प्रोमा सुम्दर सोभली बूरूपोतने मान ।।१२॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारककुमुद ने भी जलनेमि पर पर जिसे है एक पद में उन्होंने नेमिनाथ के प्रति राजुल की समी पुकार लिखी है। नेमि के बिना राजुल को न प्यास लगती है और न भूख सताती है। नीद नहीं घाटी मोर बार-बार उठ कर वह घर का मांगन देखती और नेमि के विरह मे विलाप करने लगती है। इसी पद की दोपक्तिया देखिये सी से सब तो रह्यो नहि जात प्राणनाथ को प्रोत न विसरत, क्षण क्षण छोजत गात ||१|| मोहन भूख मह िलागत, परहिं धरहि मुरझात मन तो डरो रह्यो मोहन से सेवन हो सुरभात ॥२॥ नेमिराजुल से सम्बस्थित नेमिनाथ के दशभव, नेमिनाथ के बारहभव, नेमिजी को मंगल ( जगत भूषण), नेमिनाथ छन्द (शुभचन्द्र), नेमिनाथ फाग ( पुण्य रतन ), नेमिनाथ मंगल ( लालचन्द), नेमि व्याहलो, नेमि राजमति चोमासिया, नेमिराजमति की घोड़ी, नेमि राजुल सज्झाय, नेमिराजमति शतक, आादि कवियों की काव्य रचनायें राजस्थान के विभिन्न चैन ग्रंथागारों में संरक्षित है। बनाती है। क्या किसी पुरुष ने मेरा अपमान किया है ? यह तो मेरे समझने की बात है। यदि मैं समझ कि अपमान हुआ है तो हुआ है, यदि समभूं कि नही हुआ तो नहीं हुआ मेरी घड़ी किसी ने उठा ली है। बया इससे मेरी हानि हुई है ? यह भी समझने का प्रश्न है | यदि मैं समझ लूं कि मुझे षड़ी की आवश्यकता ही नहीं तो जो कुछ मैंने खोया है, उसकी कोई कीमत ही नहीं हानि कहाँ हुई है? तुम स्वाधीन हो अपनी स्वाधीनता का उचित प्रयोग करके विश्वास करो कि तुम्हारे लिए कोई घटना प्रभद्र नहीं हो सकती एपिक्यूरस जैसी ही भावना जैनधर्म मे प्राप्त होती है । कविवर बनारसीदास जी ने कहा स्वास्थ के साँचे परमारथ के साँचे चित । सचि सांचे वेन कहें साँचे मेनमती हैं ॥ इस प्रकार, नेमि राजुल का जीवन जैन कवियों के लिये आकर्षण का विषय रहा है। यद्यपि अधिकांश जैन साहित्य निवृत्ति प्रधान साहित्य है जिसमें शांत रस की प्रमुखता है लेकिन नेमि राजुल के माध्यम से वे अपनी रचनाओं को शृंगार प्रधान, विरह परक एव भक्ति परक भी बना सके हैं। एक बात पर भी है कि हमारे हिन्दी कवि भ० रतनकीति एवं भ० कुमुदचन्द्र ऐसे समय में हुए ये जब चारों मोर भक्ति एवं श्रृंगार का वातावरण था । इसलिये इन्होंने भी राजुल को अपना आधार बना कर छोटी छोटी रचनायें निबद्ध करके हिन्दी जैन साहित्य के क्षेत्र को घोर भी विस्तृत बनाया। नेमि राजुल सम्बन्धित हिन्दी काव्यों पर पो होना प्रावश्यक है । प्राशा है कि शोधार्थी इस घोर ध्यान देंगे । 000 (१० २९ का शेषांश) काह के विषय नाहि परमापबुद्धि नाहिं । प्रातम] गवेवो न गृहस्थ हैं न जती हैं । ऋद्धि सिद्धि वृद्धि बोसे घर में प्रकट सदा । अन्तर की लच्छो साथी लडती हैं ।। बास भगवन्त के उदास रहें जगत सों। सुलिया सबंब ऐसे जीव समकित है ॥ नाटक समयसार उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि यूनान के दार्शनिकों की जो समस्यायें और धायें थीं, उनका समुचित समाधान जनदर्शन मे प्राप्त होता है; क्योंकि जैनदर्शन का प्राभार सर्वज्ञ की वाणी है। उसका प्रनेकान्यवाद प्रत्येक ऐकान्तिक पहलू के सामने पाने वाली कठिनाई को दूर करने में समर्थ है। इस प्रकार प्रत्येक वायनिक के परिप्रेक्ष्य में जनदर्शन का प्रध्ययन अत्यन्त उपयोगी है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B.N. 10691/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुगतन नवाश्य-सूची: प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पचानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि अन्यों में उदधृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पच-वाक्यों की सूची। मंगादक: मुख्तार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदाम नाग, एम. ए., डी. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोमी, बड़ा साइज, सजिल्द। २... स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुबाद पोर श्री जुगल किशोर मुस्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से मलंकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित । पपत्यमुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की प्रसाधारण कृति, जिसका प्रभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिद । ... २.५. समीचीन धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक पत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और मवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द ।। नवग्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित प्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नवग्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन। प्रायकारों के ऐतिहासिक पंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५-०. समाषितम्बौर टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित भावणबेलगोल और दक्षिण के प्रश्य न तो : श्री राजकृष्ण जन .. पाय-बीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रोग.दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। १.... ग साहित्य और इतिहास पर विशार प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाइडसुत्त: मूल ग्रन्थ की रचना पाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुगधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज मोर कपड़े की पक्की जिल्द । २५-.. जैन निबम्ब-रत्नावली: श्री मिलापश्चन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित):संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२.०० भाषक धर्म संहिता:बी बरयापसिंह सोषिया न लक्षणावली (तीन भागों में):सं.पं.बालपाद सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... Jain Monoments : टी. एन. रामचन्द्रन Reality : मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिडिका अंग्रेजी में मनुवाद । बमाकार के ३०.प., परको जिल्द Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pasca 2500) (Under print) प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए कुमार बादल प्रिटिंग प्रेस के-१२, नवीन शाहदरा दिल्ली-३२ से मुद्रित। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३४: कि० २-३ अप्रैल-सितम्बर १९८१ त्रैमासिक शोध-पत्रिका अनकान्त इस अंक में क० विषय १. अनेकान्त महिमा २. सम्यक्त्व कौमुदी नामक रचनायें-डा. ज्योतिप्रसाद जैन ३. पर्युषण मोर दशलक्षण धर्म-श्री पाचन्द शास्त्री, नई दिल्ली ४. जैन साहित्य में विध्य प्रचल--डा. विद्याधर जोहरापुरकर ५. जैनधर्म के पांच प्रणवत-श्री विनोदकुमार तिवारी ६. बन्देलखण्ड का जैन इतिहास (माध्यमिक काल)-प्रस्तर हुसन निजामी ७. क्षमावणी-श्री पद्मवन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली ८. जैन पोर बौद्ध प्रथमानुयोग - डा. विद्याधर जोहरापुरकर ६. प्रवाहावायधारणाः-डा. नन्दलाल जैन १०. णमोकार मंत्र-श्री बाबुलाल जैन, नई दिल्ली ११. मध्वदर्शन मोर जैनदर्शन-डा. रमेशचन्द जैन १२, श्रावक और रत्नत्रय-श्री पद्मवन्द्र शास्त्री १३. कर्म सिद्धान्त की जीवन में उपयोगिता-श्रीमती पुखराज जैन प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रेमियों से: अनेकान्त पत्र का जन्म वी० नि० सं० २४५६ के मार्गशीर्ष मास में हुआ और इसने पाठकों को शोध-सम्बन्धी विविध सामग्री दी और आचार एवं व्यवहार सम्बन्धी अनेकों आयामों को प्रस्तुत किया। स्वामी समन्तभद्र जैसे उद्भट अनेको आचार्यों के साहित्य के मर्म को उजागर किया। फलतः यह सभी का स्नेहपात्र बना रहा। यद्यपि बीच के काल में इसे अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा-कभी आर्थिक संकट और कभी. लेखकों को उदासीनता । तथापि इसने समाज को जैन साहित्य और तत्त्व-ज्ञान से परिचित कराने एवं जनता के आचार को ऊँचा उठाने के उद्देश्य के ख्याल से, अपने कार्य क्षेत्र को नहीं छोड़ा। इस सहयोग में जिन सम्पादकों, लेखको और पाठकों आदि ने जो रुचि दिखाई उसके लिए हम उनके चिर-ऋणी रहेंगे। 'अनेकान्त' पत्र के उद्देश्यों में मुख्य है-'जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक, अनुसंधानात्मक लेखों का प्रकाशन व जनता के आचार-विचार को ऊँचा उठाने का सुदृढ़ प्रयत्न करना।' 'अनेकान्त' की नीति में सर्वथा एकान्तवाद को-निरपेक्षनयवाद को अथवा किसी सम्प्रदाय विशेष के अनुचित पक्षपात को स्थान नही होगा। इसकी नीति सदा उदार और भाषा-शिष्ट,' सौम्य तथा गम्भीर रहेगी।' हमारा निवेदन है कि उदार लेखक अपने लेखों, पाठक अपनी अनेकान्त-पठन रुचि और उदारमना-दाता द्रव्य द्वारा पत्र की संभाल करते रहें-पत्र सभी का स्वागत करेगा। वर्तमान में ग्राहक संख्या नगण्य है। यदि ग्राहक संख्या में वृद्धि हो जाय, और १०१) देकर पर्याप्त संख्या में आजीवन सदस्य बन जाये तो इसेको चिन्ता सहज ही दूर हो जाय। इस महर्घता के समय में भी पत्र शल्क केवल ६) वार्षिक ही है। आशा है लेखकगण अपने लेख और ग्राहक व दाता अपने द्रव्य द्वारा सहायता करने में उद्यमी होंगे। धन्यवाद ! सुभाष जैन महासचिव वीर सेवा मन्दिर - विज्ञान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह प्रावश्यक नहीं कि सम्पावन मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोम पहम 3ীকাল परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्षसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ३४ किरण २-३ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण मवत् २५०७, वि० सं० २०३७ अप्रैल-सितम्बर १९८१ अनेकान्त-महिमा अनंत धर्मरणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयीमूतिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ जेरग विरणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा रण रिणव्वडइ । तस्स भुवनेक्कगुरुणो रगमो अणेगंतवायस्स ॥' परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्ध-सिन्धुरभिधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥' भदंमिच्छादंसरण समूह महियस्स अमयसारस्स। जिरावयणस्स भगवरो संविग्गसुहाहिगमस्स ॥' परमागम का बीज जो, जैनागम का प्राण । 'अनेकान्त' सत्सर्य सो, करो जगत कल्याण ॥ _ 'अनेकान्त' रवि किरण से, तम प्रज्ञान विनाश । मिट मिथ्यात्व-कुरीति सब, हो सद्धर्म-प्रकाश ॥ अनन्त-धर्मा-तत्त्वों अथवा चैतन्य-परम-आत्मा को पृथक-भिन्न-रूप दर्शाने वाली, अनेकान्तमयी मूर्ति-जिनवाणी, नित्य-त्रिकाल ही प्रकाश करती रहे-हमारी अन्तर्योति को जागृत करती रहे। जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा हो नहीं बन सकता, उस भुवन के गुरु-असाधारणगुरु, अनेकान्तवाद को नमस्कार हो। जन्मान्ध पुरुषों के हस्तिविधान रूप एकांत को दूर करने बाले, समस्त नयों से प्रकाशित, वस्तुस्वभावों के विरोधो का मन्थन करने वाले उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त के जीवनभूत, एक पक्ष रहित अनेकान्तस्याद्वाद को नमस्कार करता हूँ। मिथ्यादर्शन समूह का विनाश करने वाले, अमृतसार रूप; सुखपूर्वक समझ में आने वाले; भगवान जिन के (अनेकान्त गभित) बचन के भद्र (कल्याण) हों। DDO Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व कौमुदी नामक रचनाएं D डा. ज्योतिप्रसाद जैन, जैन परम्परा के मध्यकालीन धर्म कया साहित्य में सम्यक व गुण की प्राप्ति हो अथवा इसे सुनकर भव्यजनों 'सम्यक्त्व कौमुदी' एक पर्याप्त लोकप्रिय रचना रही है। का सम्यक्त्व दृढतर हो, इस उद्देश्य से इस सम्क्त्व कोममी हमारे अपने संग्रह में इम नाम की एक पुस्तक है जो हिन्दी अथवा सम्यक्त्व कौमुदी कथा का प्रणयन किया था । यतः जनसाहित्य प्रसारक कार्यालय बबई द्वरा वी०नि० स० यह सम्यक् वपोषक कथा शारदीय कौमुदी महोत्सव वाली २४४१ अर्थात् २० अगस्त १९१५ ई० मे प्रकाशित हुई रात्रि मे घटित घटनापो का वर्णन करती है, इसलिए भी थी, पुस्तक के मम्पादक थे ५० उदयलाल काशलीवाल और इसका सम्यक्त्व कोमदी कथा नाम स य क है। रचना में हिन्दी अनुवाद के कर्ता थे पं० तुलसीराम काव्यतीर्थ, जो कही कोई प्राद्य या अन्त्य प्रशस्ति, पुस्तिका अथवा सन्धिसंभवतया वही वाणीभषण प० तुलसीगम थे जो धाद मे वाक्य भी नही है और लेखक अपने नाम, स्थान, समय, दि० जैन हाईस्कूल बडौत मे घर्माध्यापक रहे थे । पुस्तक परम्परा ग्रादि की कही भी कोई सकेत सूचना नही करता मे सम्पादक का कोई वक्तव्य नही है और हानुवादक की है। वह यह भी कोई सकेत नही करना कि यह रचना जो डेढ पृष्ठीय प्रस्तावना है उसमे भी ग्रथ प्रतियों, कर्ता किसी पूर्ववर्ती रचना पर आधारित या उससे प्ररित है। के नाम-स्थान-समयादि का कही कोई सकेत नही है। पूरी रचना को पढ़ जाने से यही प्रतीत होता है कि पह पुस्तक के प्रारम्भ के १४८ पृष्ठो मे सरल चालू भाषा मे इस नाम की प्रथम रचना है, और लेखक की मौलिक प्रवाह पूर्ण अनुवाद है। तदनन्तर ११० पृष्ठो मे मूल कृति है। लेखक अध्ययनशील, विचार रसिक, चयनपट, धर्म संस्कृत रचना प्रकाशित है। इसी पुस्तक का पुन: प्रकाशन मर्मज्ञ एव उदाराशय कवि व साहित्यकार है। किसी प० नायगाम प्रेमी ने अपने जैन ग्रथ लाकर कार्यालय प्रकार के साम्प्रदायिक व्यामोह, पक्ष, प्राक्षेर प्रादि से भी बम्बई से मन १६२८ मे किया था।' इम मूल संस्कृत वह दूर है, तथापि पूरी रचना से और विशेषकर मंगला. 'सम्यक्त्व कोम दो' में प्रानमा तीन मगन इलोको को चरण एवं ग्रन्थ को उत्थानिका की पारम्परिक शैली से यह छोड़कर प्रार शेष सम्पूर्ण भाग प्रति मा सुबोध गद्य में सर्वथा स्पष्ट है कि वह दिगम्बर प्राम्नाय का अनुयायी रचित है । विन्तु पग-पग पर उक्तं च, तथाच तथाचोक्तं, था। रथा प्रादि कहकर पूर्ववती जैन,जैन विचित्र साहित्य से सर्वप्रथम लेखक मिनदेव जगत्प्रभु श्री बद्धमान को, प्रसंगोषयुक्त सुभाषित नीतिय नय, सूकि या आदि उद्धृत गौतम गणेश को, सर्वज्ञ के मुख से निकली मा भारती की गई है, जिनकी सख्या लगभग २७० है मोर जो रचना (सरस्वती या जिनवाणी) को प्रोर गुरुपों को, अर्थात् देव. का कुछ कम प्रायः प्राधा भाग घर है। इस प्रकार यह शास्त्र-गुरु को नमस्कार करके मनुष्यों को सम्यक्त्व गुण रचना पंचतंत्र, हितोपदेश आदि को शो की एक उत्तम लाभ हो इस हेतु से प्रस्तुत कौमुदी का प्रणयन करने की रोचक एव शिक्षाप्रद नीतिकथा बन गई है। प्रतिज्ञा करता है। तदनन्तर राजगृह नगर के विपुलाचल प्रथम मगल श्लोक के हितीय चरण 'वक्ष्येह कौमुदी पर्वत पर अन्तिम तीर्थंकर भगवान श्री वर्द्धमान स्वामी के नणां सम्यक् गुण हेतवे' और ग्रन्थात में प्रयुक्त वाक्य 'इमा सम सरण के प्रागमन की सूचना बनमाली से प्राप्त कर सम्यक्त्वको मुदीकथा पुण्या भो भव्या: दृढतर सम्यक्त्व महामण्डलेश्वर श्रेणिक परिजन-पुरजन सहित वहां जाता घार्यताम्' से स्पष्ट है कि विद्वान लेखक ने मनुष्यों को है, पूजा-स्तुति मादि करता है और अबसर पाकर गौतम, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्स्य कौमुदी नामक रचनाएँ स्वामी से सम्यक्त्वकोमदी कथा सुनाने की प्रार्थना करता बैठ गया और राजा एवं मंत्री ने एक अन्य खिड़की के है । भगवान गौतम कहते हैं -मथ रा नगर मे उदितोदय बाहर प्रासन जमाया। उमा समय भीतर अपने संस्मरण नाम का राजा राज्य करता या : उम के मंत्री का नाम सुनाने का निश्चय हुप्रा । नर्वयम सेठ ने ही आप बीती सुबद्धि था। राज्यश्रेष्ठी ग्रहंदत्त बडा धमिक था और अपनी सुई। उम कहानी के मखपात्र वर्तमान सेठ का पिता पाठ पत्नियों के साथ सुख में रहता था। इसी नगर में जिन दास, राजा का पिता पदमोदय, मत्री का पिता सं भिन्न अंजनगुटिकामिद्ध चोर सुवर्णखर भी रहता था। प्रति वर्ष और चोर का पिता रूपखुर थे। वह सब घटना उन चारों कानिकी पूर्णिमा के दिन राजा कोमदी महोत्सव का प्रायो. को भी देवी-जानी थी। रोठ के पश्चात उसकी सात जन करता था, जिसमे नगर की समस्त स्त्रिया वन क्रीड़ा पत्नियों ने भी अपने-अपने अनुभवों की कहानियां क्रमशः के लिए जाया करती थी और प्रा दिन व रात्रि वही सुनाई। प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी कहानी के अन्त में कहा, व्यतीत करती थी, तन्तु पुरुषो को वहा जाने की प्राज्ञा यह घटना मेरे प्रत्यक्ष अनुभव की है, इमने मुझे प्रत्यन्त नही थी-उन्हें नगर के भीतर ही रहना होता था। प्रभावित किया है और फलस्वरूप मेरी धर्म में रुचि-प्रतीति मयोग से यही दिन कातिको अष्टान्हि का पर्व का अन्तिम एवं श्रद्धा हई है, मेरा सम्यक्त्व दृढ हुन है। सब ही दिन था और उस वर्ष सेठ ने सपत्नीक अठ ई व्रत किया भीतरी और बाहरी श्रोताओं ने जमकी प्रशंसा व अनुमो. पा। उसने राजा से विशेषाज्ञा लेकर अपनी पतियों दना की किन्तु सबसे छोटी से ठ-पत्नी कुन्दलता ने प्रत्येक को वनयात्रा से रोक लिया। दिन भर सबने नगर के बार यही कहा 'यह सब झूठ है, मैं इम पर विश्वास नही जिनालयों में दर्शन पूजन किया और अन्त मे अपने गृह- करती, अतः इसी के कारण मेरी धर्म में रुचि या प्रतीति चैत्यालय मे रात्रि जागरण किया। पारात्रिक पूजन-भजन भी नही होती है। उसके ऐसे उत्तरों की उमके पति तथा कीर्तन प्रादि मे प्राधी रात बीत गई तो सेठ-पत्नियों ने सपत्नियो पर तो विशेष प्रतिक्रिया नहीं होती थी, किन्तु प्रस्ताव किया कि क्यो न हममे से प्रत्येक उसे जिस घटना तीनों बाहरी श्रोता, राजा मंत्री व चोर उसे उद्दण्ड एव या अनुभव के कारण धर्म मे श्रद्धा दृढ हुई है, वह मुनाए। दुष्टा समझते और उस पर कुपित होते। प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुा । और सर्वप्रथम सेठ इतने में सबेरा हो जाता है। सेठ का परिवार मे ही अपना अनुभव बताने के लिए अनुरोध किया गया। निविघ्न-सानन्द पर्वोत्सव के समापन से हपित है कि राजा इसी बीच स्वयं राजा का चित्त अकेले मे उचाट हो व मत्री पधारते है। अन्य अनेक व्यक्ति सेठ को बधाई रहा था और स्वयं अपनी निषेधाज्ञा का उलंघन करके भी देने पाते हैं। भीड हो जाती है और उसमें वह चोर भी वह अपनी रानी के पास उद्यान में जाने के लिए पातुर हो है। राजा ने रात्रि में कही गई कहानियों की चर्चा की उठा । इस पर मंत्री ने उसे समझाया और उस अनुचित और कुन्दलता की अजीब प्रतिक्रिया पर पाश्चर्य व्यक्त विकल्प से विरत रखने का प्रयत्न किया। उसने राजा को किया तथा उसे दण्डित किए जाने का प्रस्ताव किया। यमदंड कोतवाल की कहानी सुनाई जिसमें सात रोचक सेठ ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि स्वयं अभियुक्ता एवं शिक्षाप्रद अन्त कथाए कही । अन्ततः राजा ने अपना से ही उसकी वैसी प्रतिक्रिया का कारण पूछा जाय । विचार छोड़ दिया और यह प्रस्ताव रखा कि नगर का कुन्दलता बलाई गई और उससे उसके उक्त प्रनोखे व्यवही भ्रमण किया जाय और देखा जाय कि अन्य लोम क्या हार का कारण पूछा गया । उस तेजस्वी नारी ने ससंभ्रम कर रहे हैं। प्रतः राजा और मत्री चल दिए । प्रायः उसी कहा 'राजन्, वह दुष्टा मैं ही हूं । इन सबने जो कुछ कहा समय सुवर्णखर चोर भी अपने चोरकम के लिए निकला है और जिनधर्म एवं उसके व्रतादि पर जो इनका निश्चय था। संयोग से तीनो ही सेठ के चैत्यालय के पास पहुच है उस पर मैं वास्तव मे न तो श्रद्धान ही करती हूं, न उसे गए जहां से भक्तिपूर्ण मधुर गीत-वाद्य नुत्यादि की स्वर- चाहती हैं और न उसमे मेरी कोई रुचि है।' राजा ने लहरी गंज रही थी। चोर एक खिड़की के बाहर छुपकर साश्चर्य पूछा कि इसका क्या कारण है तो कुन्दलता ने Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ३४,किरण २-३ कहा, 'राजन, ये सब तो जैनकुल में उत्पन्न हुए हैं, जिन- गच्छी गुणलाभ महोपाध्याय ने अपने पढ़ने के लिए मार्ग को छोडकर अन्य कोई मार्ग इन्होने जाना ही नहीं लिखाया था।' स्वयं जयपुर के शास्त्र भंडारों मे १४ है । मैं तो न स्वयं जैन हैं और न जैनकुल में उत्पन्न हुई प्रतियां है जिनमे से एक तो (न. १३२०) गोपाचलदगं हं । तो भी जिनधर्म के व्रतों का प्रभाव सुनकर हृदय मे अर्थात् ग्वालियर में राजा वीरमदेव तोमर के शासनकाल भारी वैराग्य उत्पन्न हो गया है और मैंने दृढ निश्चय कर में मुनि धर्मचन्द्र के पठनार्थ वि० स० १४६० (सन् १४०३ लिया है कि मैं प्राज सवेरे ही जिनदीक्षा अवश्य ग्रहण कर ई.) की लिग्वित है। अन्यत्र भंडारों में भी इस ग्रंथ की लूंगी। मुझे तो यही माश्चर्य है कि इन सबने जिनधर्म के प्रतियां पाए जाने की पूरी सम्भावना है । उपरोक्त समस्त व्रतों का माहात्म्य स्वयं देखा है और सना है, फिर भी ये प्रतियों के सम्बन्ध मे ग्रंथ की भाषा संस्कृत सूचित की सब मूर्ख ही रहे। उपवासादि द्वारा शरीर को कृष तो है, प्राकार-प्रकार प्रायः सबका समान है, योर रचयिता करते हैं किन्तु संसार के विषय-भोगों के प्रति अपनी लम्प- प्रज्ञात सूचित किया गया है। इन्ही सूचियो में सम्यक्त्वटता तनिक भी नहीं छोड़ते। मेरा तो सिद्धान्त है कि कौमदी नाम की अन्य रचनायो की प्रतियों का भी उल्लेख मनुष्य को गुणों को सम्पादन करने में सदैव प्रयत्नशील है जिनमे उनके रचयितामों का नाम भी मूचित है, तथा रहना चाहिए। मिथ्या प्राडम्बर पोर दिखावे से क्या जो संस्कृत हिन्दी या हिन्दी पद्य प्रादि मे रचित हैं। प्रत. होना-जाना है। जो गाय दूध नही देती वह क्या गले मे एव इसमें संदेह नहीं है कि जिस अज्ञात वर्तक संस्कृत घंटा बांध देने से बिक जाएगी ?' सम्यक्त्व कोमदी की प्रतियो का उल्लेख किया गया है वे कुन्दलता के इस प्रोजस्वी उद्बोधन को सुनकर सब उसी ग्रंथ की है जिसका वर्णन लेख के प्रारम्भ मे सबकी आंखें खुल गयीं, सभी ने उसकी स्तुति-प्रशंसा- किया गया है और जो १६१५ ई० में बबई से प्रकाशित बन्दना की, इतना ही नहीं, सेठ, राजा, मत्री और चोर हुया था। डा. राजकुमार माहित्याचार्य ने जिस सम्यक्त्वने तथा अन्य अनेक उपस्थित व्यक्तियो ने अपने अपने कौमुदी की मदन पराजय नामक सस्कृत रूपक से तुलना पुत्रादि को गृहस्थ का भार सौपकर कुन्दलता के साथ की है, वह भी वही प्रज्ञात कतंक रचना है, इसमे कोई जिन दिक्षा ले ली। उसकी सपत्नियां, रानी, मत्री की पत्नी संदेह नहीं है ।' उनके कथनानुसार प्रो० एल्ब्रेस्ट बेबर ने पादि अनेक नारियां प्रायिका बन गई। प्रतेक स्त्री-पुरुषों इसी सम्यक्त्वकौमुदो को सन् १४३३ ई० की एक प्रति ने श्रावकों के व्रत ग्रहण किए, अन्य कितने ही कम से कम का उल्लेख किया है। इतना ही नही, उन्होंने तो मदनभद्रपरिणामी ही बने । प्रस्तु, इस सम्यक्त्वकौमुदी कथा पराजय का रचनाकाल भी सम्यक्त्वकौमुदी की बेबर वाली का सार तत्व यही है कि धर्म व्रतानुष्ठानादि क्रियाकांडों प्रति के माघार से ही निश्चित किया है। में निहित नही है, वरन् स्वयं अपने जीवन में उतारने की 'जैन ग्रन्थकर्ता और उनके अन्य' नाम से हमारे द्वारा वस्तु है, धर्म करना नही, होना है। संकलित पुरानी हस्तलिखित सूची के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थका-इस सम्यक्त्वकौमुदी या सम्यक्त्वकौमदी. सम्यक्त्वकौमुदी के कर्ता जिनदेव नामक दिगम्बर विद्वान कथा की अनेक प्रतियां उत्तर भारत के जैन शास्त्र भडारों हैं जो १४वी शती ई० मे हुए है। और जिनकी मयणमें सुरक्षित हैं । केवल राजस्थान के प्रामेर भंडार मे १३ पराजय (मदन पराजय) तथा उपासकाध्ययन नामक दो प्रतियां हैं, जिनमें से ५ सम्यक्त्व कोमदी नाम से और अन्य संस्कृत कृतियाँ ज्ञात हैं । डा० राजकुमार जी द्वारा सम्यक्त्वकौमुदीकथा नाम से दर्ज है, और वि० स०११७६ सपादित मदन पराजय की पूर्वोक्त प्रस्तावना से, जो पुस्तक से १८३८ के मध्य को लिखी हुई है। इसी भंडार के के प्रथम सस्करण के समय १९४८ ई० में लिखी गई थीं, प्रशस्ति संग्रह में तीन अन्य प्रतियों का उल्लेख प्रतीत अब इस विषय में कोई संदेह नही है कि उक्त मदन पराहोता है जिनमें से एक वि० स०१५६. की, दूसरी १५८२ जय के कर्ता जिनदेव अपरनाम नागदेव हो, जो वैद्यराज की पौर तीसरी १६२५ की है जिसे कुंभलमेरु में खरतर. मल्लुगी के पुत्र थे तथा किन्हीं ठवकर माइन्द द्वारा स्तुत Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व कोमुखी नामक रचनाएं एवं प्रशंसित थे, प्रस्तुत सम्यक्त्वकौमुदी के कर्ता है। ई. के लगभग की प्रतीत होती है। लगता है कि मदनसम्यक्त्व कौमुदी में लेखक ने अपना कोई परिचय नही पराजय शायद प्रारम्भ की रचना है और सम्यक वकौमुदी दिया सिवाय इसके लिए प्रथम मंगल श्लोक की प्रथम लेखक के अन्तिम वर्षों की है । उपासकाध्ययन नाम की पंक्ति 'श्री वर्द्धमानमानम्य जिनदेव जगत्प्रभम्' में प्रयुक्त श्रावकाचार विषयक कृति यदि है तो शायद किसी भंडार "जिनदेव' शब्द से उनके नाम का भी सूचन हो। में दबी पड़ी हो, उस में भी नीति-सूक्तों के उद्धरणों का किन्तु मदनपराजय मे उन्होने अपना जो वश परिचय बाहुल्य होगा। जिनदेव को सम्यक्त्वकोमदो दिगम्बर दिया है, उससे विदित होता है कि वह सोमवश मे उत्पन्न परम्परा में तो स्वभावत: प्रचलित रही है, किन्तु श्वेताम्बर हुए थे । उनके पूर्वज चङ्गदेव एक यशस्वी दानी थे, जिनके परम्परा मे भी लोकप्रिय रही प्रतीत होती है, जैसा कि पांच पुत्र थे-इनमे से तीसरे पुत्र कविवर हरिदेव थे जो उसकी सं० १५६० व स. १६२५ की पूर्वोक्त प्रतियों से अपभ्रश मयणपराजय चरिउ के रचयिता थे । हरिदेव के प्रगट है। उसकी लोकप्रियता का एक साक्ष्य यह भी है पुत्र वैद्यराज नागदेव थे, जिनके दोनो पुत्र हेम और राम कि इस नाम की अनेक रचनायें परवर्तीकाल मे विभिन्न भी प्रसिद्ध वैद्य थे । राम के पुत्र दानी प्रियंकर थे, जिनके भाषामो मे लिपी गई जिनमे से कई श्वेताम्बर विद्वानों वंद्य राज मल्लुगि थे। इन मल्लुगि के पुत्र संस्कृत मदन- द्वारा भी रचित है । पराजय के कर्ता नागदेव थे। वहत सभव है कि अपने एक निकट पूर्वज का नाम भी नागदेव रहा होने से ग्रन्थकार अन्यकतक सम्यक्त्वकौमुदी कथाएं ने अपना प्रपर नाम या उपनाग 'जिनदेव' अपना लिया दिगम्बर :-संस्कृत, मुनिधर्मकीर्तीकृत, प्राप्त लिपि हो-मदनपराजय की प्राद्य प्रशस्ति में तो नागदेव नाम १५४६ ई० को है। संभवतया यह वही मुनि धर्मकीर्ति है किन्तु पांचो परिच्छेदो के पुष्पिका वाक्यो मे जिनदेव (१४४२.६६ ई०) है जो सागवाड़ा बड़साजनपट्ट के नाम दिया है । प्राप्त सूचनामो से विदित है कि कवि एक सकल काति के शिष्य तथा विमलेन्द्रकीति के गुरु थे और सदगहस्थ था और एक सम्पन्न बार्मिक वैद्य व्यवसायी तत्वरत्नप्रदीप नामक ग्रंथ के रचयिता थे। एव विद्या रसिक वश मे उत्पन्न हुअा था, जो मूलतः सोम २. सस्कृत, मंगरस या मंगिरस, प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्य(चन्द्र) वंशी राजपूतों का था। लेखक के स्थान की कोई कार.सं. को० की रचना तिथि एक १४३०-१५०८ई. सूचना नहीं है किन्तु लगता है कि वह उत्तर भारतीय था ३. संस्कृत, खेता पडित, लगभग १७०० ई० और मध्य भारत विशेषकर ग्वालियर के प्रासपास के ४. कन्नड़, पायण्ण वर्णी, १६०० ई० किसी स्थान का निवासी था। सम्यक्त्वकौमदी की प्राचीन ५. प्रमभ्रश, महाक वि रइधू (१४२३-५८ ई.) तम उपलब्ध प्रति (१४०३ ई० को ग्वालियर मे ही लिखी गई थी और कुछ ही दशक पश्चात ग्वालियर ही अप ६. हिन्द -गुज • रत्नमति प्रायिका (ल, १५५० ई.) भ्रश भाषा के महाकवि रईघ ने उसका अपभ्रश भाषा मे जो सूरत के भट्टारक ज्ञान भूषण की शिष्या यो। रचना रूपान्तर किया था। यत: सम्यक्त्वमुदी मे उद्धत वा नाम 'समवितरसस' (८ कथाये) दिया है। सूक्तियां प्रादि जिन लेखको की है, उनमे प० प्राशाधर ७. हिन्दीपद्य, कवि कासिदास एव जगतराय, १६६५ ई० (ल. १२००.५० ई०) प्राय: सबसे पीछे के है और यदि अलग-अलग थी उल्लेख है, किन्तु संभवतया संयुक्त जिस सूक्तिमुक्तावली के भी उद्धरण है वह श्रुतमुनि रचना है। (ल० १३०० ई०) कृत ही हों तो सम्यक्त्वकौमुदी के ८. हिन्दी पद्य, जोधराज गोदीका, १६६७ रचनाकाल की पूर्वावषि १३०० ई० और उत्तरावधि ६. हिन्दी पद्य, कवि विनोदीलाल, १६६२ ई. १४००ई० निश्चित होती है । अतएव जिनदेव अपर नाम १०. हिन्दी पथ, लालचन्द्र सांगानेरो, १७६१-८५ ई० नागदेव ने इस संस्कृत सम्यक्त्वकौमुदी की रचना १३५० ११.हिन्दी, लालचन्द्र विनोदीलाल, १८२२ ई० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, वर्ष ३३, कि० २.३ अनेकान्त श्वेताम्बर-१. संस्कृत, अचलगच्छी जयशे वर सूरि, ४. संस्कृत, सोमदेव सूरि, १५१६ ६० । रचनाकाल 'हयेषुलोक संख्येन्दे' शब्दों मे सूचित है जिसका प्रथं स. १४५७ किया गया है, लिपि स० १५६५ की इस प्रकार कुन १८ रचनायें हमें ज्ञात हो सकी हैं, है। यदि रचनाकाल का उपरोक्त प्रर्थ ठीक है तो यह जिनमें से ८ सस्कृत १ कन्नड़, १ प्रप्रभ्रंश भोर ६ हिन्दी रचना १४००ई० की है। में रचित है। इनमे से १२ दिगम्बर विद्वानों द्वारा तया ४ श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा रचित है। चारों जात श्वे. २. सस्कृत, जयचन्द्र मूरि के शिध, रवन काल सं० रचनायें संस्कृत में है। संभव है अन्य भी कई रचनायें हों १४६२.१४०५ ई०, प्रतिलिपि सवत नहीं है, किन्तु अन्त ___ जो हमारी जानकारी में प्रभो नहीं आई है। इस सबसे में लिखा है-इति धर्म को मुनि विरचिता सम्यक्त्व. जिनदेव (नागदेव) की सम्यक्त्वकौमुदीकथा की लोककोमदी कथा सम्पूर्ण ।" उल्लख से सदेह होता है कि प्रियता एवं महत्व स्पष्ट हैं। उनके विशद समीक्षात्मक मद्रण प्रादि मे नामो की गड़बड़ तो नहीं हुई है ? यदि एवं तुलनात्मक अध्ययन की प्रावश्यकता है जिससे उस पर उल्लिखित जयचन्द्र सूरि वही है जो सोमसुन्दर के शिष्य पूर्ववर्ती साहित्यकारों का प्रभाव तथा स्वयं उसका अपने थे और जिन्होने १४४६ ई० मे अपना प्रत्यख्यान विरमण परवर्ती साहित्यकारों पर प्रभाव प्रकाश मे पा सके। रचा था तो उनके शिष्य द्वारा उपरोक्त पथ का रचना. उपरोक्त श्वे० रचनामों को हमने देखा नही है अतएव काल १४०५ ई० नही हो सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होने जिनदेव की ३. संस्कृत, गुणाकर सूरि, रचनाकाल १४०७ ई०।२ रचना से ही प्रेरणा ली है अथवा उसे हो अपना आधार प्रतिलिपि १४६० ई० की है। प्रामेर भंडार मे भी इस बनाया या कि उनका प्राधार एवं प्रेरणास्रोत उससे सर्वथा ग्रंथ की प्रतियां हैं। स्वतन्त्र या भिन्न है। सन्दर्भ१.देखिए ज्योतिप्रसाद जैन, प्रकाशित जैन साहित्य (जन स० की १५वी शती के बजाय १४वी शती लिख गए मित्र मण्डल दिल्ली १९५८), पृ० २३६ । २. भामेर शास्त्र भंडार जयपुर को ग्रन्थ सूची (जयपुर ८. वही, पृ० ५७। १६४८ ई०), पृ. १३२-१३३ । ६. वही, पाद्य प्रशस्ति, पृ० १.२; तथा डा० हीरालाल ३. डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, प्रशस्ति सग्रह (जयपुर जैन, मयणपराजयचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ १९६२, १६५.), प० ६३-६४ । प्रस्तावना प० ६०-६२, जबकि राजकुमार जी ने -स० १५८० को प्रति भी एक श्वेताम्बर मुनि के । 'रामकुल' पाठ दिया है, डा० हीरालालजी ने 'सोम. लिए लिखी गई है। कूल' पाठ दिया है, उसका प्रोचित्य भो सिद्ध किया है-वही ठोक प्रतीत होता है। ४. राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों को अन्य सूची, १०. देखिए, मुनि पुण्यविजय जी के संग्रह की ग्रन्थ सूची द्वितीय भाग, १० २४१-२४२ । (प्रहमदाबाद १६६३),भाग १,१० १३१, न० २५५७ ५. मदनपराजय, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली द्वि० स० १० ११. वही, पृ० १३१-१३२, न० २५५६ । १९६४, प्रस्तावना पृ० १७-१८. ४२, ५७-५८1 १ २. वही, पृ० १३१, न० २५५४; तथा भाग २, पृ. ६. वही, पृ०१८, तथा बेबर-ए हिस्टरी माफ इण्डियन २२३-२२४, न० ३८३३ । कल्चर, भा॰ २, पृ० ५५१ फुटनोट । -ज्योति निकुंज ७. वही, पृ० ५८, किन्तु ऐसा लगता है कि भूल से वि० चारबाग, लखनऊ-१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण और दशलक्षण धर्म जिनों के सभी सम्प्रदायों में पर्युषण पर्व की विशेष महत्ता है। इस पर्व को सभी अपने-अपने ढंग से सोत्साह मनाते हैं। व्यवहारतः दिगम्बर धावकों में यह दश दिन श्रीर श्वेताम्बरों में म्राठ दिन मनाया जाता है। क्षमा आदि दश मंत्रों में धर्म का वर्णन करने से दिगम्बर इसे 'दशलक्षण धर्म' घोर श्वेताम्बर आठ दिन का मनाने से अष्टाहिका (मठाई) कहते हैं । "परीति सर्वत क्रोधादिभावेश्य उपशम्यते यस्यां वा पर्युपशमना" अथवा "परि: सर्वथा एवक्षेत्रे जघन्यतः सप्त दिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् ( ? ) वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा" अथवा परिसामस्त्येन उपणा । "प्रमि० रा० भा० ५ पृ० २३५-२३६ । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्परायें ऐसा मानती पर्युषण के अर्थ का विशेष खुलासा करते हुए अभि है कि उत्कृष्ट पर्यूषण चार मास का होता है। इसी हेतु धान राजेन्द्र कोष में कहा हैइसे चतुर्मास नाम से कहा जाता है। दोनो ही सम्प्रदाय के साधु चार मास एक स्थान पर ही वास करते हुए तपस्वाओं को करते है यतः उन दिनों (वर्षा ऋतु में जीवोत्पत्ति विशेष होती है । और हिंसादि दोष होने की अधिक सम्भावना रहती है और साधु को हिसादि पाप सर्वथा वज्यं है । उसे महात्रतो कहा गया है । - जिसमें कोचादि भावों को सर्वतः उपशमन किया जाता है अथवा जिसमें जघन्य रूप से ७० दिन और उत्कृष्ट रूप से छह मास (?) एक क्षेत्र मे किया जाता है, उसे पण कहा जाता है। प्रथवा पूर्ण रूप से वास करने का नाम पयूषण है। "वसवणा कप्पा वर्णन दोनों सम्प्रदायों मे है। दिगम्बरों के भगवती मारापना (मूताराधना) में लिखा है: पज्योषण, परिवसणा, पजुसणा, वासावासो य (नि० चू० १०) ये सवशब्द एकार्थवाची हैं । पर्युषण (पर्युपशमन) के व्यत्तिपरक दो एवं निक लते है - (१) जिसमे क्रोधादि भावो का सर्वतः उपशमन किया जाय अथवा (२) जिसमे जघन्य रूप मे ७० दिन "प्रौर उत्कृष्ट रूप में चार मास पर्यन्त एक स्थान मे वास किया जाय। ( ऊपर के उद्धरण में जो छह मास का उल्लेख है वह विचारणीय है ।) श्री पद्मचन्द्र शास्त्री " चाहिए । यदि कोई श्रावक चार मास को लम्बी अवधि तक एकत्र वास कर धर्म साधन करना चाहे तो उसके लिए भी रोक नहीं पर उसे चतुर्मास अनिवार्य नहीं है | अनिवार्यतः का प्रभाव होने के कारण ही श्रावकों में दिगम्बर दम सौर श्वेताम्बर आठ दिन की मर्यादित अवधि तक इसे मानते है और ऐसी ही परम्परा है। प्रथम अर्थ का सबध प्रभेदरूप से मुनि, श्रावक सभी पर लागू होता है । कोई भी कभी भी कोवादि के उपशमन (पर्युषण) को कर सकता है। पर, द्वितीय अर्थ मे साधु की अपेक्षा हो मुख्य है, उसे चतुर्मास करना ही दोसमा नाम दशमः वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एस्त्रावस्थानं भ्रमण त्यागः । एकावस्थानमित्यय मुर्ग: कारणःपेक्षया तु होनाधिक वाऽवस्थानम् । पज्जोसवण नामक दसवा कल्प है । वर्षाकाल के चार मामो मे एकत्र ठहरना अन्यत्र भ्रमण का त्याग करना, एक सौ बीस दिन एक स्थान पर ठहरना उत्सर्ग मार्ग है। कारण विशेष होने पर फोन वा अधिक दिन भी हो सकते है । भगवती श्रारा० ( मूला रा० ) प्राश्वास ४ पृ० ६१६ । श्वेताम्मे 'पपणा करुप' के प्रसंग मे जीतकल्प सूत्र मे लिया है- 'चा उम्मासुक्कोसे, सत्तरि राइदिया जोणं । ठितद्वितमतरे, कारणं वच्चासितऽणयरे ॥ - जीत क० २०६५ पू० १७६ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ वर्ष ३३, किरण २-३ अनेकान्त विवरण-'उत्कर्षतः पर्यषणाकल्पश्चतुर्मासं यावद्- --वर्ष के चतुर्मास के सर्व पों में और जीवन में भी भवति, प्राषाढ़ पूणिमाया: कार्तिकणिमा यावदित्यर्थः। यथा शक्ति स्व-स्त्र धार्मिक कृत्य करने चाहिए। (यह जघन्यत: पुन: सप्ततिरात्रिदिनानि, भाद्रपदशुक्लपवम्याः विशेषतः गृहस्थ धर्म है)। इसी श्लोक की व्याख्या में कातिकपूर्णिमां यावदित्यर्थः-शिवादो कारण समत्पन्ने पर्वो के सबंध में कहा गया है किएकतरस्मिन् मासकल्पे पर्युषणाकल्पे वा व्यत्यासितं विपर्य- "तत्र पर्वाणि चंवमुचःस्तमपि कुयुः। 'प्रदम्मि च उद्दसि पुणिमा य तहा मावसा हवद पव्वं -अभि० रा. भाग०.५ १.० २५४ मासंमि पव्व छक्कं, तिन्नि अपवाई पक्खंमि ॥' पर्युषण कल्प के समय को उत्कृष्ट मर्यादा चतुर्मास 'चाउद्दसमुद्दट्ठ पुण्णमासी ति सूत्रपामाण्यात्, १२० दिन रात्रि) है । जघन्य मर्यादा भाद्रपदशुक्ला पंचमी महानिशीथेतु ज्ञान पंचम्यपि पर्वत्वेन विश्रुता । 'प्रटमी से प्रारम्भ कर कार्तिक पूणिमा तक (सत्तर दिन) की च उद्दमीसं नाण पंचमीसु उववासं न करेइ पचि उत्तमित्याहै। कारण विशेष होने पर विपर्यास भी हो सकता है दिवचनात् ।-एष पर्वसु कृत्यानि यथा-पौषधकरणं प्रति ऐसा उक्त कथन का भाव है। पर्व तत्करणाशक्ती तु अष्टम्यादिषु नियमेन । यदागमः, इस प्रकार जनों के सभी सम्प्रदायों में पर्व के विषय 'सव्वेसु कालपव्वे पु, पसत्यो जिणमए हवइ जोगो। में अर्थ भेद नहीं है और ना ही समय की उत्कृष्ट मर्यादा प्रदमि च उद्दसीसु प्र नियमेण हवइ पोसहियो ।' मे ही भेद है । यदि भेद है तो इतना ही है कि '(१) --धर्म स० (व्याख्या) ६६ दिगम्बर श्रावक इस पर्व को धर्मपरक १० भेदों (उत्तम --पर्व इस प्रकार कहे गये है- अष्टमी, चतुर्दशी, क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत् संयम-तपस्त्याग, त्याग किचन्य पूणिमा तथा अमावस्या, ये मास के ६ पर्व है और पक्ष के ब्रह्मचर्याणि धर्म ) को अपेक्षा मनाते है और प्रत्येक दिन ३ पर्व है । इसमे 'च उद्दसट्टमट्टिपुणिमासु' यह सूत्र प्रमाण एक धर्म का व्याख्यान करते है। जबकि श्वेताम्बर सम्प्र है । महानिर्शाथ मे ज्ञान पचमी को भी पर्व प्रसिद्ध किया दाय के श्रावक इसे आठ दिन मनाते है । वहां इन दिनों है। अष्टमी, चतुर्दशी और ज्ञान पंचमी को उपवास न मे कही कल्पसूत्र की वाचना होती है और कही अन्तः कृत करने पर प्रायश्चित का विधान है। इन पदों के कृत्यों सूत्रकृतांग की वाचना होती है। और पर्व को दिन की मे प्रोषध करना चाहिए । यदि प्रति पर्व मे उपवास की गणना पाठ होने से 'अष्ट'- प्रान्हिक (अष्टान्हिक-अठाई) शक्ति न हो तो अष्टमी, चतुर्दशी को नियम से करना कहते है । साधुनों का पयूषण तो चार मास हो है। चाहिए। प्रागम मे भी कहा है-'जिनमत मे सर्व निश्चित दिगम्बरो मे उक्त पर्व भाद्रपद शुक्ला पचमो से पों में योग को प्रशस्त कहा है और अष्टमी, चतुर्दशी के प्रारम्भ होता है और श्वेताम्बरो में पंचमी को पूर्ण होता प्रोषध को नियमत: करना बतलाया है। है । दोनो सम्प्रदायो मे दिनो का इतना अन्तर क्यो ? ये उक्त प्रसंग के अनुसार जब हम दिगम्बरो में देखते शोध का विषय है। और यह प्रश्न कई बार उठा भी है। समझ वाले लोगों ने पारस्परिक सौहार्द वृद्धि हेतु ऐसे है तब ज्ञान होता है कि उनके पर्व पचमी से प्रारम्भ होकर प्रयत्न भी किए है कि पर्युषण मनाने की तिथियां दोनो मे (रत्नत्रय सहित) मासान्त तक चलते है, और उनमे एक ही हों। पर, वे असफल रहे है । प्रागमविहित उक्त सवं (पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी और पयंषण के प्रसग मे और सामान्यतः भी, जब हम तप पूर्णिमा) पर्व प्रा जाते है ।, जब कि श्वेताम्बरों में प्रच. प्रोषष प्रादि के लिए विशिष्ट रूप से निश्चित तिथियो लित पर्व दिनों में प्रष्ट मो का दिन छट जाता है-उसकी निमिलता है कि पूर्ति होनी चाहिए। बिना पूर्ति हुए पागम की प्राज्ञा "एव पर्वसु सर्वेसु चतुर्मास्या च हायने । निय मेण हवा पोसहियो' का उल्लंघन ही होता है। वैसे जन्मन्यपि यथाशक्ति स्व-स्व सत्कर्मणा कृति ॥" भी इसमे किसी को आपत्ति नही होनी चाहिए कि षषण -धर्म सं०६६ पु०२३८ काल में अधिक से अधिक प्रोषष की तिथियों का समावेश Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण प्रौर दशलक्षण धर्म रहे। यह समावेश और जैनियो के विभिन्न पदों की स्पष्ट होता है कि पंचमीए' का अर्थ 'पंचमी से' होना पूर्व तिथियों मे एक रूपता भी, तभी सभव हो सकती है चाहिए। इस अर्थ की स्वीकृति से प्रष्टमी के प्रोषध के जब पर्व भाद्रपद शुक्ला पचमी से ही प्रारम्भ माने जाय। नियम की पूति भी हो जाती है। क्योकि पर्व में अष्टमी कल्पसूत्र के पर्युषण समाचारी मे लिखा है-'समण के दिन का समावेश इसी रीति में शक्य है । 'अनन्तर' से भगव महावीरे वासाणं सवोस इराए मासे व इकते वासा- तो सन्देह को स्थान ही नही रह जाता कि पचमी से वासं पज्जोसे वइ ।' इस 'पज्जोसेवई' पद का अर्थ अभि- पर्यषण शुरू होता है और पर्यषण के जघन्यकाल ७० दिन धान राजेन्द्र प० २३६ भा० ५ मे 'पर्युषणामाकार्षीत्' की पूर्ति भी इसी भांति होती है। किया है । अर्थात् 'पर्यषग' करते थे। और दूसरी पोर दिगम्बर जैनो मे कार्तिक फाल्गुन और प्राषाढ़ मे कल्पसूत्र नवम क्षण में श्री विजयगणि ने इस पद की टीका अन्त के प्राठ दिनों में (प्रष्ट मो से पूणिमा) अष्टाह्निका करते हुए इसकी पुष्टि को है (देखे पृष्ठ २६८)- पर्व माने है ऐसी मान्यता है कि देवगण नन्दोश्वर द्वीप में 'तेनार्थेन तेन वारणेन है शिष्या: ? एवमुच्यते, वर्षाणा इन दिनों प्रकृत्रिम जिन मन्दिरो विम्बों के दर्शन-पूजन विशति रात्रियुक्त मासे प्रतिप्रान्ते पर्युषणमकार्षीत् ।' को जाते है। देवों के नन्दीश्वर द्वार जाने को मान्यता दूसरी पोर पर्यपणा कल्प चणि मे 'अन्नया पज्जोसवणा- श्वेताम्बरो मे भी है । वेताम्बरो की अष्टातिका की पर्व दिवसे प्राग अउन कालगण सालिवाहण भणि मो भद्द- तिथियां चैत्र सुदी ८ से १५ तक तथा प्रासोज सुदी ८ बजुण्हप वमोर पनोसवां' -(पज्जोस विजन इ) उल्लेख १५ तक है। तीसरी तिथि जो (संभवतः) भाद्र वदी १३ -अभि० पृ० २३८ से सुदो ५ तक प्रचलित है, होगी। यह तीसरी तिथि उक्त उद्धरणो मे स्पष्ट है कि भ. महावीर पर्व पग सुदी ८ में प्रारम्भ क्यो नही ? यह विचारणीय ही हैकरते थे और वह दिन भाद्रपद शुकमा वनी था। इन जब कि दो बार की तिथिया अष्टमी से शुरू है। प्रकार पचमी का दिन निश्चित होने पर भी 'पंव नीर' हो सकता है-तीर्थंकर महावीर के द्वारा वर्षा ऋतु पद की विभकिस ने सन्देह की गजाइश रह जाती है कि के ५० दिन बाद पर्यषण मनाने से ही यह तिथि परिवर्तन पर्यषणा पंचमी में होनी थी. अथवा पंचमी से होती थी। हुप्रा हो। पर यदि ५० दिन के भीतर किसी भी दिन क्योकि व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'पनमीए' रूप तीसरी शुरू करने की बात है तब इस प्रण्टाह्निका को पंचमी के पंचमी और मातवी तीनो हो विभक्ति का हो मकना है। पूर्व से शुरू न कर पचमी से ही शुरू करना युक्ति सगत यदि ऐसा माना जाय कि केवन पंचमो मे ही पर्युषण है। ऐसा करने से 'सबीसराए मासे व इक्कते (बोतने पर) है तो पर्यषण को ७-८ या कम-अधिक दिन मनान का की बात भी रह जाती है और 'मतरिराइदिया जहणणं' कोई प्रथं ही नही रह जाता, और ना ही अष्टमी के की बात भी रह जाती है। साथ ही पर्व की तिथियां प्रोषध की अनिवार्यता सिद्ध होती है जबकि अष्टमी को (पचमी, अष्टमी, चतुर्दशी) भी अष्टाह्निका में समाविष्ट नियम से प्रपर होना चाहिए । हां, पंचमी से पर्युषण हो रह जाती है जो कि प्रोषध के लिए अनिवार्य है। तो प्रागे के दिगो में प्राठ या दस दिनों को गणना को एक बात और स्मरण रखनी चाहिए कि जनो में पूरा किया जा सकता है और प्रष्टमी को प्रोषध भी, पर्व सम्बन्धी तिथि काल का निश्चय सूर्योदय काल से ही किया जा सकता है। स भवतः इसोलिए कोपकार ने करना पागम सम्मत है। जो लोग इसके विपरीत अन्य 'भाद्रपद शुक्ल पनम्या अनतर' पृ० २५३ और 'भाद्रपद कोई प्रक्रिया अपनाते हो उन्हे भी पागम के वाक्यों पर शुक्ल पंचम्या कातिक पूणिमा यावदित्यर्थः'-पृ० २५४ ध्यान देना चाहिएमें लिख दिया है। यहाँ पचमी विभक्ति की स्वीकृति में (शेष पृष्ठ १० पर) १. मुनियो का वर्षावास चतुर्मास लगन स लकर ५० दिन बीतने तक कभी भी प्रारम्भ हो सकता है अर्थात् पाषाढ़ शुक्ला १४ से लेकर भाद्रपद शुक्ल ५ तक किसी भी दिन शुरू हो सकता है।'-जैन-प्राचार (मेहता) पृ० १८७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में विन्ध्य अंचल D डा० विद्याधर जोहरापुरकर जैन साहित्य मे विन्ध्य क्षेत्र के वर्णनो को तीन प्रकारो ९६२ मे रचित बहत कथाकोष की कथा १०६ में बताया मे विभाजित किया जा सकता है--१ तीर्थभूमि के रूप में गया है कि नन्दगोप की जो कन्या कृष्ण के स्थान पर कंस २. कथाभूमि के रूप मे ३. उपमान के रूप मे । इनका को बतायी गई थी वह भाग चलकर तपस्या करती हुई विवरण इस प्रकार है : विन्ध्य क्षेत्र मे रही और वहां के वस्यु उसकी पूजा करने तीर्थभमि के रूप में लगे। प्राचार्य श्रीचन्द्र द्वारा सन् १०६६ के लगभग रचित पांचवी या छठी शताबी में प्राचार्य पूज्यपाद दारा कथाकोष में भी उपयुक्त कथा है और उपयुक्त देवी की रचित निर्वाण भक्ति मे पुण्यपुरुषों के निवास या निर्वाण उपासना विन्ध्यवासिनी दुर्गा के नाम से होने का कथन के कारण पवित्र हुए स्थानों की नामावली है जिसमे है। विन्यवासिनी देवी का मन्दिर वर्तमान समय में भी विध्य का भी समावेश है।'यद्यपि विघय क्षेत्र का कौन- प्रसिद्ध तीर्थ है। कथाकोपो से पूर्व हरिवशपुराण और विशिष्ट स्थान उनकी दृष्टि मे था यह स्पष्ट नही है। उत्तरपुराण में भी यही कथा मिलती है। बारहवी या तेरहवी शताब्दी में प्राचार्य मदनकीति जिनप्रभसूरि द्वारा सन् १३३२ मे रचित विविध द्वारा रचित शासनचतस्विशिका में भी तीर्थभमि के रूप तीर्थकल्प मे श्रेयास पोर मुनिसुव्रत तीर्थकरो के मन्दिर में विन्ध्य की प्रशंसा मे एक श्लोक मिलता है। इसमे भी विन्ध्यक्षेत्र में होने का कथन मिलता है परन्त स्थान नाम किसी विशिष्ट स्थान का संकेत नही है।। नही वताये है। विन्ध्य क्षेत्र में विशिष्ट स्थान का सर्वप्रथम वर्णन कथाभमि के रूप में प्राचार्य जिनसेन द्वाग नौवी शताब्दी के मध्य मे भाचार्य रविषण द्वारा मन् ६७७ मे रचित पद्मचरित मे रचित महापुराण मे भरत चक्रवर्ती के दिग्विजय वर्णन मे मिलता है। इसमे कथन मे' कि इन्द्रजीत के साथ मेघनाथ तपस्या करते हुए विन्ध्य अरण्य मे जहा रहे वह स्थान (पृ० ६ का शेषाश) मेघरव तीर्थ कहलाया। 'चाउम्मास प्रवरिम, पविख प्रपचमीटू मोसु नायव्वा । निर्वाणकाण्ड मे कुम्भकर्ण और इन्द्र जीत का निर्वाण तापो तिहीनो जासि, उदेइ मूरो न मण्णाउ ॥१॥ स्थान बडवानी के समीप चलगिरि बताया है जो विन्ध्य पूमा पच्चकवाण पडिकमण तइय निमम गहणं च । क्षेत्र में ही है। निर्वाण काण्ड की कुछ प्रतियो मे रविषण जीए उदेइ सुगे तोइ तिहीए उ कायव ॥२।।' धर्म स० पृ० २३६ के वर्णन का अनुवाद करने वाली एक गाथा मिलती है।' सत्रहवी शताब्दी मे रचित निर्वाण काण्ड के हिन्दी अनुवाद वर्ष के चतुर्मास मे चतुदं शो पचमो पोर प्रष्टमी को में इस गाथा का समावेश नही है परन्तु उसी समय के उन्ही दिनो मे जानना चाहिए जिनमे सूर्योदय हो, अन्य प्रकार नही। पूजा प्रत्यारूपान, प्रतिक्रमण और नियम मराठी अनुवाद मे उसका समावेश है। 'बडवानी के विषय निर्धारण उसी तिथि मे करना चाहिए जिस तिथि में मेंहम एक लेख अनेकान्त मे लिख चुके है प्रतः यहां उससे सूर्योदय हो। कृपया विद्वान विचार दें। सम्बन्धित मन्य उल्लेखों की चर्चा नही की गई है। -वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, विन्ध्य क्षत्र के दूसरे विशिष्ट स्थान का उल्लेख कृष्ण नई दिल्ली-२ कथा से सम्बन्ध रखता है। प्राचार्य हरिषेण द्वारा सन् 0.0 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में विन्ध्य चंचल तीस इलोकों में विन्ध्य क्षेत्र का वर्णन मिलता है।" उपमान के रुप में प्राचार्य कहते हैं कि यह पर्वतराज ऊंचा है, इसके वंश सन् १०१३ मे प्राचार्य अमित गति द्वारा रचित धर्म(-बांस) विस्तीर्ण है और इसे लाधना कठिन है । इसके परीक्षा मे कथन है कि तिलोतमा के विलास विभ्रम देख शिखरों से बहते हुए झग्ने विमानों को पताकामो जैसे कर ब्रह्माजी का हृदय उसो प्रकार विदीर्ण हन्ना जैसे नर्मदा दिखते है । यह पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक फना है। से विन्ध्याचल विदीर्ण हमा है। १५ अनेक नदिई इसको वयें है। बांस और हाथियों के सन् १०२५ मे प्राचार्य वादिगज द्वारा रचित पावं. मस्तको से निकले मोती इसमें बिखरते है। अनेक रगों को चरित में कथन है कि सूर्य के समान अन्धकार के विस्तार ध तय यहा मिलती हैं। जब दावानल भडकता है तो इसके को दूर करने वाला प्रभु का उपदेश शिस चित्त में स्थान शिखर मानो सुवर्णवेष्टित दिखते है। इसमें बड़े-बड़े हाथी नही पाता वह बन्ध और मोह से युक्त चित्त विन्ध्य पर्वत और भुजंग रहते है। किरात लोग उपहार के रूप मे की गुहा के समान ही कानेपन को नहीं छोडता। गजदन राजा को अर्पित करते है। इसके बीचोबीच नर्मदा सन् १०७७ मे प्राचार्य पद्मकीर्ति द्वारा रचित पासनदी भमिरूपी महिला की वेणी के समान दिखती है। णाहचारिउ में पार्श्वनाथ पौर यननराज के युद्ध के वर्णन नौवी शताब्दी मे ही प्राचार्य शीलांक द्वारा रचित मे दो योद्धानों के द्वन्द्व का वर्णन इन शब्दो में है.-वे च उपन्न महापूरिसचरिय में मेघकुमार के पूर्व भव वर्णन में प्रभिमानी महारथ ऐसे भिडे जमे प्रसुरेन्द्र और सरेन्द्र हों बताया गया है कि विकट शिखरो से भरे, ऊचे वृक्षों से या उत्तर और दक्षिण दिशामो के गजेन्द्र हों या सह्य पीर व्याप्त, हजारो श्वापदो से परिपूर्ण विन्ध्य अरण्य मे वह विन्ध्य पर्वतराज भिड़े हों।" पांच सौ हाथियो के झंड का स्वामी था।" सन् १३४८ में राजशेखर सूरि द्वारा रचित प्रबन्धकछ सन्वों में विध्य का नाममात्र उल्लिखित है- कोष में बप्पभट्रि मूरि प्रबन्ध में कथन है कि जब बप्पट्टि वर्णन नही है । सन् ७८३ मे पुन्नाटसघीय प्राचार्य जिन. राजा प्राम के राज्य को छोड़कर धर्मपाल के राज्य में चले सेन द्वारा रचित हरिबंशपुगण मे कथन है कि विन्ध्यक्षेत्र गये तो दुखी होकर माम राजा ने उनके पास यह सन्देश मे राजा अभिचन्द्र ने चेदिराष्ट्र मे शुक्तिमती नगर को भेजा-विन्ध्य पर्वत के बिना भी राजामो के महलो मे बड़े स्थापना की।" बृहत्कथाकोष (जिसका एक सन्दर्भ ऊपर हाथी होते है और बहुत से हाथी चले गये तो भी विन्ध्यमा चुका है) की कथा ११८ मे कथन है कि श्री कृष्ण पर्वत वन्ध्य नही होता। तात्पर्य यह है कि राजा और को मत्यु का कारण मैं बनगा यह सुनकर जरत कुमार ने विद्वान एक दूसरे के बिना नही रह सकते ऐसा नहीं है । द्वारावती छोड़कर विन्ध्यपर्वत क्षेत्र में विध्यपुर में रहना परन्तु जैसे सरोवर राजहंस की पोर गजहंस सरोवर की शुरू किया। प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण में राजा शोभा बढाने में सहयोगी है उसी प्रकार राजा विद्वान् की श्रेणिक के पूर्व भव वर्णन मे बताया है कि वह विन्ध्यक्षेत्र और विद्वान राजा की प्रतिष्ठा बढ़ाने में सहयोगी होते मे एक वनचर था।" सन्दर्भ१. निर्वाण भक्ति श्लोक २६ द्रोणीमति प्रबलकुण्डलमेढ़के दिग्वाससा शासनम् ।। च भारपर्वततले वरसिद्धकूटे । ऋष्यद्रिके च विपु. ३. पद्मचरित सर्ग ८० श्लोक १३६ विन्ध्यारण्य महास्थ. लाद्रिबलाहके च विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ।। ल्यां सामिन्द्रजिता यतः । मेवनाद: स्थितस्तेन तीर्थ २. शासन चतुस्त्रिशिका श्लोक ३२ यस्मिन् भूरि विधातु- मेघरव स्मृतम् ॥ रेकमनसो भक्ति नरस्याधुना तत्काल जगतां त्रयेऽपि ४. निर्वाण काण्ड गाथा १२ वडवाणीवरणयरे दक्षिणविदिता जनेन्द्रबिम्बालया: । प्रत्यक्षा इव भान्ति निर्मल- भायम्मि चूलगिरिसिहरे । इंदजियकुंभयण्णा णिवाणदशो देवेश्वराभ्यचिता: विन्ध्ये मरुहि भासुरेऽतिमहिते गया णमो तेसि ॥ (शेष पृष्ठ १४ पर) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के संदर्भ में एक समीक्षा जैनधर्म के पांच अणुव्रत 0 श्री विनोदकुमार तिवारी जैन धर्म की शिक्षाओं एवं नियमों के लिए स्वयं जैनधर्म के सिद्धान्तो के अनुमार हिंसा तीन तरह की महावीर स्वामी के जीवन चरित्र से बढ़कर और कुछ भी हो सकती है-मानसिक, शारीरिक और मौखिक । लोग नहीं है। उनका जीवन स्वयं ही प्राज के जैन बन्धनों के प्रायः कहते है कि ऐसा कोई भी कार्य नही है जिसमे हिंसा लिए एक शिक्षा है, जिस पर विवेक और विचार को न हो, अर्थात् खाने-पीने, चलने-फिरने मोर सास लेने मे पावश्यकता है। जैन धर्म में मुख्य पांच व्रत हैं- भी जीवहिंसा होती है। यह कथन सत्य भी है, पर इसका अहिंसा, अमृषा, प्रस्तेय, अपरिग्रह पौर प्रमथन, अर्थात यह तात्पर्य नही कि अहिंसा अव्यवहार्य है। जैन मत के हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, चीरी मत करो, परिग्रह अनुसार यदि सावधानी रखते हुए किसी से कोई मर मत रखो और व्यभिचार मत करो। इन सबो पर अलग- जाता है अथवा दुखी हो जाता है, तो यह हिंसा नही होती मलग विचार की पावश्यकता है, पर उपरोक्त व्रों से यह ससार में हर जगह विशाल प्रोर सूक्ष्म जीव है और वे तो स्पष्ट होता ही है कि इनके द्वारा मनुष्य की उन वत्तियो अपने निमित्त मरते भी है, पर इस जीव घात को हिसा का नियन्त्रण करने का प्रयत्न किया गया है जो समाज में नहीं कहा जा सकता। वास्तव में हिंसा रूप परिणाम ही मुख्य रूप से बैर-बिरोध की जनक हा करती है। व्यक्ति हिंसा है। अगर एक शिकारी बन्दूक लेकर बैठा हो और मूलत: अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर ही सारी क्रियाए सारे दिन वह एक भी शिकार न दर पाये, तो भी वह करता है और जब तक उसे अच्छी और बरी क्रियानो का पापी ही कहा जायेगा, क्योकि उसका मन जीवहत्या में रम मापदण्ड नही मिलता, वह अपने प्राप पर अकुश नही रहा है । पर वही दूसरी तरफ एक किसान अपने खेत में लगा सकता। हिंसा, चोरी, दुराचार, झूठ और परिग्रह हल चला रहा हो और उसके परिणामस्वरूप असख्य जीवो ये पाचो बरे कार्य है, सामाजिक पाप है पोर जितने हो का घात हो रहा हो, तो भी वह किसान सकल्पी हिंसक अंश मे व्यक्ति इनका परित्याग करेगा, उतना ही वह सौम्य नही कहा जा सकता, क्योकि उसकी इच्छा और अभिलाषा पौर समाज हितषी माना जायेगा और अगर इन पाचो खेत जोतकर अनाज पैदा करने में है, जीवो को मारने में पापों को न करने का व्रत ले लिया जाए, तो समाज और नहीं। प्रत। यद्यपि प्रत्येक क्रिया मन, वचन, और शरीर देश विवेकशील, तिक, शुद्ध और प्रगतिशील बन सकता से होती है. पर वचन मोर शरीर से होने वाली क्रिया का है। भोर प्रात्मा की शुद्धि भी हो सकती है इसलिए प्रत्येक मूल भी मन ही है, अत: मन को सावधान रखने का व्रत का स्वरूप अलग-अलग जान लेना आवश्यक है। प्रयत्न करना चाहिए। मन की चंचलता व्यक्ति को कहाँ प्रमाद के योग से प्राणियो के प्राणों का घात करना से कहां ले जाती है और इस दौरान व्यक्ति अपना लक्ष्य हिसा है और उनकी रक्षा करना महिसा है। महिंसा पाच भूल जाता है । फलस्वरूप वह धूत, प्राखेट, मद्यपान और व्रतों का केन्द्र बिन्दु है पौर शेष व्रत इसके सहायक हैं, मांसाहार का शिकार हो जाता है । एक महिसाव्रती को माधार हैं, ठीक वैसे ही जैसे अन्न के खेत की रक्षा और इन चीजो से सावधान रहना चाहिए पोर तभी वह सामारखवाली के लिए उसके चारों तरफ चारदीवारी बना दी जिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय दुख के क रणों पर विचार जाती है। इन नैतिकतामों को पूरी तरह मानने वाले को कर सकता है तथा इनका समाधान कर सकता है। 'महाव्रती' मोर अंशतः मानने वाले को 'प्रणवती' कहा जाता सत्याणुव्रत पालक को सदा हित मौर मित बोलना चाहिए, किसी बात को घटा-बढ़ाकर नहीं रखना चाहिए Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म पांच अणुव्रत उसे दूसरों की बुराई नहीं करनी चाहिए और असभ्य इस सिद्धान्त के अनुसार वाह्य मोर अभ्यन्तर वस्तुओं वचन नहीं बोलना चाहिए । के प्रति लालसा रखना ही परिग्रह है । वाह्य परिग्रहो में वचन के चार प्रकार होते है-कुछ वचन तो प्रसत्य खेत, घान्य, धन, बरतन, प्रासन, शय्या, दास दासी, पशु होते हुए भी सत्य माने जाते है-जैसे 'वस्त्र बनता है। और वस्त्र प्राते है, जबकि अन्तरंग परिग्रह चौदह हैयहां पर वस्त्र बनना यद्यपि असत्य है, किन्तु लोक व्यव- मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषबेद, नपुमकवेद, हास्य, रति, परति हार में प्रचलित होने से उसे सत्य माना जाता है । कुछ शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ । अगर वचन सत्य होते हुए भी असत्य होते है-जैम कोई व्यक्ति प्र.न्तरिक परिग्रह से छुटकारा पाना हो, तो वाह्य सपति दस दिनो पर किसी वस्तु को देने का वादा करके भी को अपने से अलग हटाना ही होगा। परिग्रह से ही हिसा समय पर नहीं देता, वरन पन्द्रह दिनो बाद देता है । कुछ बढती है, प्रतः बुद्धिमान गृहस्थ को इससे अपना मन वचन सत्य सत्य कहे जाते है-जैसे जिस वस्तु को जैसा हटाना चाहिए, तभी वह परिग्रह परिमाणवन का पालन देखा गया है, वैसा ही कहना सत्य-सत्य है। चौया वचन कर सकता है । जब अपने साथ जन्म लेने वाला शरीर ही असत्यासत्य है, जिसे सफेद झूठ की सज्ञा दी जा सकती है। बिछुड जाता है, तब धन सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की चिन्ता उपरोक्त अनुदेशो का शत् प्रतिशत पालन तो कोई करने से क्या लाभ होगा! मनिही कर सकता है, अत: इसे मानने वाले को सत्य वर्तमान परिस्थितियो मे अपरिग्रह का सिद्धान्त हमारे महाव्रती कहा जाता है । पर गृहस्थ और सामान्य जीवन लिये इसलिये भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि इसो के के क्रम में कोई व्यक्ति इन निर्देशो का अक्षरश: पालन नही द्वारा समाज और देश से प्रायिक असम नता को दूर किया कर सकता, अतः वसे सत्य को सत्य अणुव्रत कहा जा जा सकता है और हर व्यक्ति अपनी जरूरत को प्रावश्यक सकता है। अगर किसी वचन से किसी भी तरह की सत्य वस्तु पा सकता है। प्राज धन-सम्पत्ति, भूमि और प्रतिष्ठा हिसा होती है, तो वैसा नही बोलना चाहिए । अन्ततः के पीछे व्यक्ति पागल हो रहा है, जिससे व्यक्ति-व्यक्ति सत्य तथा प्रसत्य को अहिंसा और हिंसा की तुलना की के तथा राष्ट्र, राष्ट्र के बीच तनाव बढ़ रहा है। प्रपरिजा सकती है और सत्य वचन से ही अहिंसा संभव भी है। ग्रह पूजीवाद भोर कम्युनिज्मवाद के बीच की चीज है, अस्तेय जैनधर्म का तीसरा व्रत है और इसका साधा. जिस पर चलकर वास्तविक समाजवाद की प्राप्ति की जा रणत: अर्थ होता है 'पराई वस्तु को ग्रहण न करना।' जो सकती है। मनुष्य निर्मल प्रचौर्य ब्रत का पालन करते है, वे किसी भी जैन धर्म का अन्तिम प्रोर महत्वपूर्ण व्रत है ब्रह्मचर्य । वस्तू को लेने के अधिकारी नहीं होते, जब तक कि वह जो व्यक्ति अपने पापको काम विकार से पूर्णत: मुक्त कर वस्तु उन्हें सौप न दी जाए । दूसरी तरफ अस्ते याणवत लेता है, वह ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करता है । प्रादर्श पालन करने वाले व्यक्ति आम तौर से प्राकृतिक वस्तुप्रा गहस्थ को ऐसी वार्ता नहीं करनी चाहिए, जो कामोका उपयोग-उपभोग कर सकते है, जैसे पानी, घास, टीपक हो. ऐसे रसो का सेवन नही करना च मिट्री वगैरह । किसी के द्वारा छुट गई या भूली हुई वस्तु काम-विकार की वृद्धि हो और न ऐसी पुस्तकें ही पढ़नी को स्वय लेना या दूसरे को सौप देना इस नियम के प्रति- चाहिए । परायी स्त्री के साथ रमण करना, अप्राकृतिक कल है । जिस धन का कोई मालिक नही होता, वह राज्य व्यभिचार करना, दूसरो के विवाह कराने में प्रानन्द का होता है तथा उसे स्वयं रख लेना उचित नहीं कहा लेना-ये सारी बाते ब्रह्मचर्यव्रत की घातक है और इनसे जा सकता । चुराने के विचार से किसी वस्तु को उठाना प्रपने प्रापको अलग रखना सच्चे अर्थो मे इस नियम का चोरी के उपाय बतलाना, चोरी का सामान खरीदना, पालन करना है। कम या अधिक तोलना और गलत तरीके से धन कमाना भगवान महावीर द्वारा इस प्रणवत को विशेष महत्व ये सभी जन सिद्धान्त के विरुद्ध है। देने के पीछे भी एक कारण था। छठी शताब्दी ई० पू० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ३४ कि० २-३ का महावीर कालीन धर्म और समाज पूरी तरह व्यभिचार जातिवाद, हिंसा र भ्रष्टाचार के शिकंजे में जकड़ा पड़ा था । तत्कालीन हिन्दू धर्म के ठेकेदारों ने मन्दिरो प्रौर मठों में देशवासियों के रहने की प्रथा का प्रचलन कर दिया था, जिससे धार्मिक अनुष्ठानों पर चोट तो पहुंचती ही थी, धर्म के नाम पर विलासिता भी बढ़ती जा रही थी। दूसरी तरफ समाज मे स्त्रियों की दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही थी और वे मात्र भोग-विलास की वस्तु वनकर रह गयी थी। आगे चलकर कई स्त्रियो का वर्णन भाता है, जो न सिर्फ अपने समाज श्रौर वर्ण, वरन् राष्ट्रीय समस्याओं पर भी अपना विचार देने की क्षमता रखने लगीं और समाज में उनका स्थान प्रतिष्ठा एवं गौरव का हो गया । ऐसे समय में भ० महावीर ने पुनः इन व्रतो की (पृष्ठ ११ का शेषाश ) ५. विभाचलम्मि रण्णे मेघणादो इंदजियसहिय । मेघवरणाम तित्यं णिव्वाणगया णमो तेसि ॥ ६. महाशैल विन्ध्याचल दृष्टि पाहा तथा मस्तकी तीर्थं श्राहेति माहा । तेथे मेघनाद मुनि इद्रजया । मेघवर्ष तीर्थं झाली मुक्ति श्रिया ॥ ( तीर्थ नन्दन संग्रह में चिमणा पडित को तीर्थं वन्दना मे) ७. बृहत्कथाकोष कथा १०६ श्लोक २५७ स्थापयित्वा यतो दुर्गे विन्ध्ये भक्तिपरायणः । दस्युभिः पूजिता सा चनता पुष्पकदम्बकः ॥ ८. कथाकोष संधि ४२ कडवक २१ सहु सघेण खवती कलिमल गय विहरति सा विभाचलु । दुग्ग विन.भिल्लेहि पवत्तिय दुग्ग विझवासिणि ते वुसिय || ६. विविधतीर्थंकल्प प्रकरण ४५ विन्ध्याद्रो मलयगिरी च श्री श्रेयांसः । प्रतिष्ठानपुरे प्रयोध्यायाँ दिन्ध्याचले माणिक्यदण्डके मुनिसुव्रतः । प्रति व्याख्या कर धर्म को स्थिर रखा । जैनधर्म के उपरोक्त पाँचो व्रतों और नैतिक नियमों पर ध्यान देने से पता चलता है कि उनका सम्बन्ध मात्र जैनधर्म से न होकर परिवार, समाज और राष्ट्रीय नीतियों एव सिद्धान्तों से है । इनके पीछे जहाँ प्राध्यात्मिक भावना है, वही यह विश्व की प्रगति, शान्ति पोर सहृदयता में सहायक हो सकती है । बाज विश्व में हिसा, व्यभिचार और कटुता बढ़ती जा रही है। क्या हम जंनधर्म के पचअणुव्रत के माध्यम से इन्हे समाप्त करने में समर्थ नही हो सकते ? श्रवश्य ही ! १०. महापुराण पर्व ३० श्लोक ६५ से ६४ भूभूता पतिमुत्तुगं पृथुवश धृतायतिम् । परंरलंध्यमद्राक्षीद् विन्ध्याद्रिस्वमिव प्रभुः || इत्यादि 1 ११. चउपन्न महापुरिसचरिय पृ० ३०९ वियडगिरिकडयकूडनिविडम्मि उद्धद्वाइय तुंगत रुस कडिल्ल मि 'बहुसाव यसस्ससकुलम्मि विझाडइरण्णगहणम्मि पंचसयजूहा - व्याख्याता इतिहास विभाग. यू० प्रार० कालेज, रोसड़ा ( समस्तीपुर ) दिवई प्रासि करिराया । १२. हरिवंशपुराण सर्ग १७ श्लो० ३६ विन्ध्य पृष्ठेऽभिचन्द्रेण चेदिराष्ट्रमधिष्ठितम् । १३. बृहत्कथाकोष कथा ११८ ततो जरत्कुमारोऽपि हित्वा द्वारावतपुरीम् । कृत्वा विन्ध्यपुरं तस्थो विन्ध्यपर्वतमस्तके || १४. उत्तरपुराण पर्व ७४ इलो० ३८६ । १५. धर्मपरीक्षा परिच्छेद ११ इलो० ४० । १६. पार्श्वचरित सर्ग १२ इलो० ५५ यत्रास्पदं न लभते जिन शासन ते तेजो रवेरिव तमः प्रसरापहारि । सा बन्मोहनमयी जिन चित्तवृत्तिः न श्यामिका त्यजति विध्य गिरेर्गुहेव ॥ १७. पासणाहचरिउ संधि ११ कडवक १० ते भिडिय महारहसावले व श्रवरुप्परु असुरसुरिन्द जेव । णं उत्तर दाहिण गयवरिद णं सझ विझ इह महिहरिद ॥ १८. प्रबन्धकोष प्रकरण ६ विक्रेण विणा वि गया नरिदभवणेसु होति गारविया विभो न होई वंझो गएहि बहुएहि वि गएहिं ॥ माणस रहिएहि सुहाई जह न लब्भंति रायहसे हि । तह तस्स वि तेहि विणा तीरु तंगा न सोहति । - महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड का जैन इतिहास' ( माध्यमिक काल ) बुन्देलखण्ड के माध्यमिक इतिहास के तीन युग है । पहला राजपूत काल, जिसमे कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्यान्तर्गत चन्देलों के राज्य में यमुना नदी के दक्षिण महोबा, कालजर तथा खजुराहो के केन्द्र थे और खजुराहो के दसवी - ग्यारहवी शताब्दी ईसवी के जैन मंदिर आज जगत विख्यात है। दिल्ली की तुर्की सत्ता ने जब ग्वालियर पर अधिकार करके चन्देलो पर सेनाएँ भेजी तो चन्देल, महोबा - कालजर से हट कर प्राजमगढ़ चले गये । जैनियो के केन्द्र एरछ, देवगढ, बानपुर प्रहार, पपोरा बराबर पनपते रहे, क्योकि वैश्य व्यापारी का हित इसमे होता है कि नई सत्ता को सहयोग देकर उसका सरक्षण प्राप्त किया जाय । अख्तर हुसैन निजामो मान्डवगढ के गोरी - खिलजी नरेशों के राज्य में परमार राजपूतों की प्रशासनिक परम्परा पर पुनः वृहद मालवा अस्तित्व में आया और चन्देरी श्रम मालवा की उपराज धानी बन गई और चन्देरी से बुन्देलखण्ड के उस भूभाग का शासन होता रहा जो मालवा साम्राज्य मे सम्मिलित था । शेष बुन्देलखण्ड पर यमुना नदी के नीचे पश्चिम से पूर्व केन नदी तक कालवी के मालिकजादा तुर्क शासन करते थे। दिल्ली-माण्डव काल अर्थात् चौदहवी - पन्द्रहवी शताब्दी में अनेको शिलालेख संस्कृत तथा देशी बोली अथवा मिश्रित भाषा में भोर इसी प्रकार ग्रन्थ- प्रशस्तिया एब लिपि प्रशस्तियाँ भी पाई गई है जो दिगम्बर जैन ग्रन्थो मे से निकाल कर प्राधुनिक विद्वानो ने उनका संग्रह कर दिया है। यही शिलालेख और प्रशस्तियाँ ही हमारी जानकारी के आधार है । बटिहाडिम में गढ़ का निर्माण होने से उसका नामकरण बटिहागढ हो गया । यह बटिहागढ़ दमोह जिले की उत्तरी तहसील हटा में स्थित है पोर सन १३०५ ईस्वी की खिलजी विजय के पश्चात् तुगलुक राज्यवंश के सुलतान गयासुद्दीन तथा मुहम्मद बिन तुगलुरु के समय चन्देरी के मालिक जुलची तथा बटिहा के जलालउद्दीन खोजा का शासन ऐसा रहा है कि उसमें जैन प्रभाव की झलक स्पष्ट है। जुलचीपुर का गाँव, जिसे श्राज कल 'दुलचीपुर' कहते है, मालिक जुलची का बसाया हुम्रा माना जाता है श्रोर सागर जिले में स्थित है। जुलची ने सन १३२४-२५ ई० मे एक बावली का निर्माण किया था । तथा बटिहागढ का श्रेय भी उसी को है। इसी हिगढ़ में उपराज्यपाल जलाल ने एक 'गोमट' स्थापित किया जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । साथ ही उसने भी एक बावली खुदवाई और एक बाग लगवाया जो १६८० में पठित । पश्चिमी बुन्देलखण्ड मे चन्देरी राज्यान्तर्गत भेलसा ( विदिशा) व्यापार का केन्द्र था जिसे तेरहवी शताब्दी के अन्त में कड़ा के उपराज्यपाल ने लूटा था। इस समय की ग्रंथ प्रशस्तियों तथा शिलालेखो पर अनुसंधान की प्रावश्यकता है। दूसरा युग, इस समय के बुन्देलखण्ड इतिहास का, तब भाया जब अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा, जलालुद्दीन खिलजी को कडा तथा मानिकपुर के बीच, बहने वाली गंगा नदी की मंझधार पर मारकर दिल्ली सल्तनत का भार संभाला और ऐनुल मुल्क मुलतानी को भेज कर मालवा के साथ चन्देरी को भी हस्तगत कर वहां एक राज्यपाल की नियुक्ति कर दी। जैनियों के सांस्कृतिक केन्द्र, चन्देरी के राज्यपाल ही के अधिकार मे थे और यह समय चौदहवी शताब्दी ईस्वी का प्रारम्भ है जब कि 'चन्देरी देश' मे बटिहाडिम के स्थान पर एक उपराजधानी स्थापित की गई । माध्यमिक बुन्देलखण्ड का तीसरा युग वह है जब कि १. प्रवषेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय, रीवा को जैन विद्या गोष्ठी, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष ३४, कि० २-३ अनेकान्त जल्लाल बाग के नाम से अब भी जाना जाता है। किन्तु था-उसकी उपाधियों में भी पाजम-मुअज्जम विद्यमान पशुषों के लिएविश्राम गृह बनवाना, यह तो जैन परम्परा है जो बाद के उत्तराधिकारी बराबर प्रयोग में लाते रहे । का सूचक है। मान्डव के सुलतान और चन्देरी के राज्यपाल, गैरभट्टारकीय पृष्ठभूमि मुस्लिम जनता का हृदय मोहने के लिए, मन्दिर बनवाने ईसा की पन्द्रहवी शताब्दी में गोरी-खिलची सुलतानो और मूर्तियो गढवाने पर कोई रोक-टोक न करते थे और के तत्वावधान मे बुन्देलखण्ड क्षेत्र में दिगम्बर जैनियो को जैन व्यापारियों को उच्च पद तथा सम्मान प्रदान करते गतिविधियां बढ़ गई थी। एक तो होशंगशाह गोरी तथा थे। सुदृढ़ शासन ही व्यवसाय वर्धक होता है और राजमहमूद शाह खिलची जैसे महान एव महत्वाकाक्षी सुल- भक्ति एवं स्वामी भक्ति की नींव डालता है। तभी तो तानों ने प्रथम स्वतंत्र शासक दिनावर की उदार एव सुलतान गवासुद्दीन खिलजी के समय में (१४६६-१५००)। जैन-पक्षीय नीति को पागे बढाया। दूसरे यह कि परिहारो फारसी के माथ सस्कृत शिलालेखों का बाहुल्य पाया जाता के चन्देरी राज्य का महत्व, जो दिल्ली के खिलजी-तुगलुक है और जैन ग्रन्थ-प्रशस्तियो में बड़ी संख्या में उसका सुलतानों ने चन्देरी में राज्यपाल और बटिहागढ मे उप- उल्लेख मिलता है और ये शिलालेख ग्रन्थ-प्रशस्तियो में राज्यपाल रख कर, पिछ नी एक शताब्दी मे कायम रख दूरवर्ती क्षेत्रो में पाई गई है। देवगढ क्षेत्र के शिलालेख में था-उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया और अबू चन्देरी, होशंगशाह को 'पालम शाह' कहा गया है (१४२४ ई.)। मालवा की उपराजधानी हो जाने के कारण उसकी वही यह देवगढ, खजुराहो पतन के पश्चात् चन्देरी देश का मान्यता रही जो पहले थी। हाँ मुनतान महमूद खिलजी तत्कालीन सबसे बड़ा जैन सास्कृतिक केन्द्र बन गया था के समय, उपराज्यपाल का कार्यालय बटिहा से उठ कर जहाँ जैनियो ने मन्दिरो मतियो की स्थापना की योजना 'दमोव' (दमोह) प्रा गया और दमाह से समूचे दक्षिणी चाल की थी। मूति-लेख में सुलतान का नामोल्लेख, तुर्की बन्देलखण्ड पर-वर्तमान सागर जिले से जबलपुर जिले शासको को धार्मिक सहनशीलता का द्योतक है। इन के बिलहरी (मुडवारा तहसोल, कटपी) तक का शासन सूलमानों की राजधानी माण्डवगढ़ तो प्रोसवाल-श्रीमाल सचारु रूप से होने लगा। इस समूचे चन्देरी क्षेत्र में, जाति के श्वेताम्बरों का गढ़ बनी हुई थी पौर सौ वर्षों जिसको शिलालेखो मे 'चन्देरी देश' कहा गया तक वे लोग न केवल दरबार में छाये रहे प्रपितु सस्कृत है-दमोह को जो महत्व प्राप्त हुपा उसके कारण उसका भाषा में धार्मिक ग्रन्थो की रचना करते रहे और कल्पसूत्र उल्लेख 'दमांचा देश' के नाम से होने लगा और घब कालकाचार्य कथा के ग्रन्थो में उच्च शैली के चित्र बनबटिहा छोड़ कर जैनी महाजन और सेठ भी दमोह तथा वाते रहे और अनेको ग्रथो की लिपिया कराते रहे। बिलहरी तक फैल गये और उनको बस्तियो में प्राचार्य प्राधुनिक विद्वानों ने मूर्ति लेखो, पट्टावलियो और ग्रथभट्रारक मनि तथा सतो का आवागमन हुप्रा ।मन्दिरों- प्रशस्तियो के आधार पर भट्टारकीय दिगम्बर संघो के पट्टों मतियों का निर्माण तथा ग्रन्थो की रचना साथ-साथ का उल्ले व किया है और पट्टाधीशो को नामावली बनाई चली। इस नवीन प्रगति को समझने के लिए भट्टारकीय है जिससे यह स्पष्ट हमा है कि एन्द्रहवी शताब्दी ईस्वी माम्दोलन का उल्लेख करना अावश्यक है । ग्रंथ प्रशस्तियो में भट्रारक गुरुपो से प्रेरणा लेकर जन गृहस्थों ने बड़ी में प्राय: इस युग में ग्रन्थ तथा ग्रन्थकर्ता के साथ 'महाखान स्फति से मूर्तियों, मन्दिरों, चैत्यालयो एव उपासरामो का भोजखान' का उल्लेख किया जाता था। यह विरूद निर्माण कराया। नरवर तथा सोनागिर के अतिरिक्त उस फारसी के 'प्राजम मु प्रजनम' का अनुवाद (प्राजम-महा) समय उदयगिरि, एर छ, प्राहार एव पपोरा के लघु-केन्द्रो भी है और अपभ्रंश (मप्रजनमभोज) भी। दिलावर का में सांस्कृतिक गतिविधियाँ चलती थी।। ज्येष्ठ पुत्र होशंश तो मान्डव की गद्दी पर बैठा पोर इसी समय मूल सघ-सरस्वती-गच्छ-नन्दी लहरा बेटा का खान, जो चन्देरी का प्रथम राज्यपाल माम्नाय के भट्रारक देवेन्द्रकीति द्वारा बन्देरी में एक पद्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्बेलखगका बम तिहास अथवा गही स्थापित हुई। उसको पट्रावली के तीन शुभनाम राज्यपालों का प्रचलित विरुद 'महाखान भोजखान' मात्र तत्कालोम बुन्देलखण्ड के जैन इतिहास की त्रिमूति' है-प्रथम ही उल्लिखित है। सुलतान ग्यास शाह का तत्कालीन देवेन्द्र कौति गुजरात के निवासी भोर भट्टारक पद्मनन्दि, राज्यपाल, सुप्रसिद्ध मल्लखान का पुत्र मल्लखान ही हो के शिष्य थे और सर्वप्रथम वे ही चन्देरी के मंडलाचार्य सकता है। चन्देरी पट के भट्रारकों को विशेषता यह थी बनाए गए थे। ये ही देवेन्द्र कीति सन् १४३६ ई० के कि वे बन्देलखण्ड के सुविख्यात दिगम्बर जैन परवार पूर्व किसी समय चन्देरी पट्ट के स्थापक हुए, जैसा कि जाति के प्रतिनिधि ये पोर परवार जाति प्राज भी बुन्देल पडित फलचन्द शास्त्री प्रमाणों के प्राचार पर अनुमान खण्ड के जैनियों मे बहसंख्यक पौर प्रभावशाली है। करते है। इसी समय खिलजी कूल के महमूद खां ने गोरी कुल के मुहम्मद शाह से राज-सत्ता छीन कर चन्देरी विद्रोह श्रुतकीति के सिबाय, प्राधुनिक दतिया जिले में स्थित का दमन किया था पौर कई जैन परिवारों के लोग सोनागिर के भट्टारक थे जिनका संघ काष्ठा, गच्छ माथुर महम्मद शाह गोरी का पक्ष लेने के कारण बन्दी बनाए पौर गण पुरुकर था और समकालीन गुरु कमलकीति थे. गए थे । उपरोक्त देवगढ़ वाल मूर्ति लेख में सुलतान होशंग जो इस गद्दी का पहला नाम है, और इनके उत्तराधिकारी शाह के समय, देवेन्द्र कीति का नाम पाया है। देवेन्द्र पट्टाधीश शुभचन्द्र थे । प्रथम गुरु कमलकोतिदेव के कीति के शिष्य चन्देरी देश के निवासी पर वार जातंय शिलालेख सन ईस्वी १४४६, १४५३ पौर १४७३ के पाए विद्यानन्दी हा जो सन् १४६८ ई० के पूर्व किसी समय गए है। सोनागिर, ग्वालियर की शाखा पीठ था और विभवनकीनि के नाम से चन्देरी के मण्डलाचाय हए और तोमर राजपूतो की राजधानी ग्वालियर का यह जैन केन्द्र जब गुरु का देहान्त हुप्रा तो पट्टाधीश हो गए । इन त्रिभु सबसे बड़ा एव सम्पन्न था । ऐसी धारणा है कि सोनागिर वनकाति के शिष्य सुप्रसिद्ध श्रुतकीति थे जो अपनी विद्वता का नाम, श्रमणागिरि का विकृत रूप है और इसका नामके लिए जाने जाते है। अपभ्रश की परम्परा इस समय करण श्रमण सेन मुनि (विक्रमी सम्बत १३३९) से हुमा चल रही थी और श्रतगति प्ररभ्रश के प्रच्छे लेखक थे। माना जाता है। इन्होने गयास शाह खिलजी (१४६६.१५००) तथा नसीर शाह (१५००-११) के समय प्राय: चन्देरी देश के 'जेर हाट' जिन तारण तरण स्वामी नगर के नेमिनाथ चैत्यालय में बैठकर ग्राप रचना की ईस्वी सम्वत् की पन्द्रहवी शताब्दी अनेकों विशेषहै। यह जगहाट नामो दान कौन सा है इसका निर्णय ताये रखती हैं। हिन्दू-मुस्लिम समन्वय की पर्याप्त प्रगति अभी तक नही हो पाया है। रायबहादुर हीरालाल सागर चिन्ती सम्प्रदाय के सूफी मुस्लिम संतो द्वारा हुई थी जिले में जे हाट (जेठ) ग्राम का पता देते है किन्तु वह जिसकी ध्वनि प्रमस्लिम वैष्णव एवं जैन-समाज के तरकाकिसी जैन मन्दिर का अवशेष भी नही है । लीन साहित्य में विद्यमान है । जैन श्रावकों को जो सूची ग्रन्थ प्रशस्तियों मे मिलती है उसमें उनके नाम उस समय पण्डिन परमानन्द जैन शास्त्री ने श्रुतकीति के चार के मुस्लिम संतों के प्रथवा उनकी समाधियों के नाम पर प्रन्यो का उल्लेख किया है. : प्राधारित हैं। प्रान्तीय राज्यों में खुशहाली का दौर-दौरा था और व्यापार उन्नति पर था। एक मोर सूफियों ने (१) हरिवंशपुराण (२) धर्म परीक्षा (३) परमेष्ठी ग्रामीण बोलियों में रचना शुरू की तो दूसरी तरफ प्रकाश सार और (४) योगसार । इन प्रथों की जो पाण्डः कायस्थों, खत्रियों और कश्मीरी पण्डितों ने फारसी राजलिपियां प्राप्त हुई है । उन सत्र में सम्बत् समान रूप से कीय भाषा सीख कर बड़ी संख्या में सुलतानों के कार्यालय एक ही प्रकित हुमा है : मर्यात १५५२ विक्रमी-१४६५ को संभाला । विशेर रूप से माण्डव के दरबार में जैनियों ईस्वी मोर प्रशस्तियो मे परम्परागत, चन्देरी के शासक का पल्ला भारी था। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वर्ष ३४, कि० २-३ मनकामी जौनपुर की शी सल्तनत के मन्तगंत सत कबीर, अनुशाशन को त्याग कर पालस्य तथा भोग-विलास की जुलाहा जाति के प्रतिनिधि, गोरखपंथी विचारो को लेकर जीवन व्यतीत करन लगे थे । यद्यपि जैन सस्कृति के प्रति चले और गोरखनाथी विचारधारा स्वयं जैन धर्म से प्रभा. उनकी सेवाएं ऐसी है जिनकी बदौलत न केवल मति वित थी । कबीर के निर्गण प्रेम मार्ग में इस्लाम का शुद्ध गढ़न, मन्दिर निर्माण एव प्रथ लिपि-करण को बड़ा एकेश्वरवाद एव जैन धर्म के उच्च सिद्धान्तों का पुट प्रोत्साहन मिला किन्तु द्रव्य-सकलन और उनके ठाठमौजूद है। कबीर ही के समकालीन गुजरात (अहमदाबाद) माडंबर के कारण वे मठाधीश बन कर रह गए थे। के श्वेताम्बर जैन समाज मे संत लोकाशाह की उत्पत्ति परस्पर विचरते रहने के विपरीत, भट्टारकों ने चंत्यालयो हुई जिन्होंने कबीर के समान ही मूर्ति पूजा का खण्डन और उपास रामों मे तत्र-मत्र तथा प्रायुर्वेद ज्योतिष का किया और यतियो को ललकार कर कहा कि प्रतिमा-पूजा अभ्यास चलाया। भट्टारकों में जो विद्वान थे, उनके का मौचित्य क्या है ?-मागम साहित्य मे कोई इसका विचार संकीर्ण भोर प्रतिक्रियावादी थे और शद्रो तथा प्रमाण हो तो लामो।" विदित रहे कि लोकाशाह के स्त्रियों की मोक्ष प्राप्ति को स्वीकार नही करते थे। प्रमुख दो शिष्यों में लखमसी पारिख, मालवा की राज. तारण-तरण के विचार भट्रारको से अलग थे और सर्व. धानी माण्डव के निवासी थे प्रतः यह अनुमान किया जा जातीय अपनी मडली महिन तारण से मल खेडी, सूखा सकता है कि वाराणसी तथा माण्डवगन के मध्य स्थित (दमोह जिला) तथा राख (पब मल्हारगढ़) के निकटचन्देरी देश (बन्देलखण्ड) मे इन नवीन विचागे ने दोनों वर्ती जगलो मे तपस्या करते रहे। ममल मान शिष्यो मे दिशामों से प्रवेश किया होगा। लोकाशाह का जन्म लुकमान साह की कुटिया निसई क्षेत्र के होते के बाहर सम्बत् १४७५ विक्रमी १४१८ ईस्वी है जबकि उनसे एक विद्यमान है। दूसरे शिष्य रूइयारमन भी मसलमान पीढी पश्चात तारण-तरण स्वामी ने बन्देलखण्ड के बिल. पिजारे कहे जाते है। हरी नगर (कटनी तहसील-जबलपुर जिला) मे सम्वत १५०५=१४४८ ई० में जन्म लिया। लोकाशाह का तारण-तरण की एक दर्जन रचनामो का संग्रह पाज ढुंढिया पंथ सं० १५०८-१४५१ ई. से स्थापित हुप्रा तो उपलब्ध है जिसमें जन धम क विशेष सिदातो-अनेकान्त छग्रस्त बाणो के लेखानुसार तारण स्वामी ने अट्ठावन वर्ष तथा स्याद्वाद -का पग-पग पर दिग्दर्शन होता है । यद्यपि की अवस्था में अपने मत का प्रचार किया जिसका सम्बत तारण सामी के क्रियाकाड मे मूर्तिपूजा के लिए कोई १५६३ ईस्वी १५०६ बैठता है। स्थान न था तथापि दिगम्बर श्रावको और उनके गुरुप्रो की मूर्ति पूजा पर सीधा प्राघात उन्होने नही किया जैसा तारण-नरण स्वयं विद्वान् न थे। एक भक्त के लिए कि लोकामाह ने श्वेताम्बरों पोर कवीर ने वैष्णवो के विद्वान होना अनिवार्य भी नही है। भट्रारकों के रूढिवादी बीच किया था। तारण की रचनाप्रो की भाषा विचित्र प्राचार विचार और उनके शिथिलाचार का यह युग था। और अटपटी है उसमें सस्कन, प्राकृत, अपभ्रश और देशी तारण परवार जातीय गढा माह के यहाँ उत्पन्न हए और शब्दावली का सम्मिश्रण है। सिरोज नगर (जिला विदिशा) के पास से मल खेड़ी मे अपने मामा के घर जाकर रहे। जब होश सभाला तो सारण स्वामी ने सडसठ वष की प्रवस्था मे शरीर मूलसंघीय चन्देरी पट्टाधीश, विद्वान लेखक श्रुतकीति का त्याग दिया। उनकी समाधि निसई जी के नाम से जमाना था। स्वयं तारण-तरण सत्य की खोज मे यथा. तारणपंथी समाज का मुख्य केन्द्र है जहा से दिगम्बर कथित भट्टारकों से दूर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए परवार जाति के इस सर्वोच्च महान प्रात्मा की विचार. विभिन्न स्थानों में तप करते रहे। भट्रारक तो प्राचीन बारा का प्रकाश चारों दिशामो मे फैलता रहा है। किन्त मनियों के पादर्श से नीचे गिर चुके थे और उनके कठोर कबीर तथा लोका जसे ऊँचे भक्तो की टक्कर का यह Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देललगका जन इतिहास महापुरुष ऐसा है जिसके जीवन का वृत्तान्त बहुत ही कम तारणपंथी प्रल्प संख्या में रहे और पाज भी हैं। जैन जत है। तारण पंथ के सगठन कार्य को हाथ में लेने गहस्थ, अपने मट्टारक गुरुषों के अनुसरण में, मूर्ति निर्माण वाला कोई योग्य विद्वान भी तारण समाज ने पंदा नहीं तथा स्थापना में एक-दूसरे के साथ प्रतियोगिता करते किया। प्राज भी तारण वाणी पर जो कुछ कार्य हुप्रा है रहे। ऐमे श्रावकों में, जिवराज पापडीवाल ने मूर्ति अथवा हो रहा है उसके लिए समाज ऐसे विद्वानों का निर्माण में विशेष ख्याति प्राप्त की है। अकेले ही उसने ऋणी है जो या तो मजैन हैं या तारणपथी भी नहीं हैं। एक लाख जन प्रतिमाएं गढ़वा कर समस्त उत्तरी भारत के जैन मन्दिरो में भेज दी और शायद ही कोई जैन उपरोक्त वर्णन का यह प्रथं नही है कि बुन्देलखण्ड मन्दिर ऐसा हो जहाँ जिवराज पापड़ीवाल लेखांकित में जैन समाज के भीतर प्रतिमा पूजा का, तारणपंथी विक्रम सम्बत १५४८=१४६१ ईस्वी को कोई न कोई पाग्दोलन द्वारा अंत कर दिया गया। कदापि नहीं। मूर्ति न पाई जाती हो। सीतामऊ फोटोस्टाट) : श्री लोंकासाह (गुजराती) (रत्न मुनि स्मृति प्रथ) : लुका के बोल (स्वाध्याय, वड़ोदरा II, १) : हिन्दी अनुवाद के लिए देखिये सम्यग्दर्शन, सैलाना (म०प्र०) संदर्भ ग्रंथ सूचो हीरालाल-दमोह दीपक खान बहादुर इमदाद अली : गजेटियर पाव दमोह डि. दलसुख मालवणिया : दमोह डि० गजे०(१९०५) : दमोह डि० गजे० (१९७४) हरिहरनिवास द्विवेदी : ग्वालियर रा० के अभिलेख हरिहरनिवास द्विवेदी : ग्वालियर के तोमर : ग्वालियर स्टेट गजेटियर : गाइड टु चन्देरी : एपिग्राफिया इण्डिका उपेन्द्रनाथ दे : ई० प्राय० (पशियन ऐन्ड अरेबिक सप०) : इन्डियन एपिग्राफी (वार्षिक रिपोर्टस) : ग्वालियर राज्य के पुरातत्व पर वार्षिक रिपोर्टस राय ब.हीरालाल : सी.पी तथा बरार के शिला- फुलचन्द्र जैन शास्त्री लेखों की विवरणात्मक सूची परमानन्द जैन शास्त्री बन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह : अनेकान्त त्रैमासिक, दिल्ली नाथूराम प्रेमी शिक्षाब हकीम : ममासिर-ए महमूद शाही : मेडीवल मालवा : उर्दू (पत्रिका) पाकिस्तान : इन्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली (मासिक) : जैन ऐन्टीक्वेरी, मारा : जनरल मध्यप्रदेश इतिहास परिषद : ज्ञान समुच्चय सार को भूमिका एवं भुल्लक चिदानन्द स्मृति ग्रंथ मोर अन्य लेख :जैन हितैषी (पत्रिका) रीवा (म.प्र.) 00 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमावणी (प्राध्यात्मिक) मैं हूँ चेतन निज-स्वभाव में, मुझमें लघु-गुरु-भाव नहीं। क्षमा दान-प्रादान पराश्रित, लेन-देन का चाव नहीं। कितने जीवों ने एकाकी, मिश्रित मम अपमान किए। मैंने उनको जाना-पर, अनजाने जैसे मान लिए। क्षमा धरम मेरा है अपना मुझसे छुट नहीं सकता। कैसे लू-दूं इसे प्रात्मवर ! सूझ नहीं मुझको पड़ता। क्षमा-दान व्यापार बना अब इसमें है कुछ सार नहीं। क्यों करे, क्षमा-का दान कोई, जब, क्षमा किसी को भार नहीं।। पर्यषण में अनुभव पाया, स्वाश्रित-समरस पीने का। भाव जगा है मन में मेरे, सिद्ध-शिला पर जीने का ॥ ___मैं अपने में जीता हूं, जगती जन अपने में जीवें। अध्यात्म-पर्व का लाभ उठा, सब प्राणी समरस को पीवें।। जैसे होवें भाव प्रापके मुझको भी लखते रहना। क्षमा-रत्न अनमोल निधि ये, कभी किसी को क्या देना। प्रात्म-भाव में प्राप सदा रस स्वातम का चखते रहना। दे ले क्षमा यदि कोई तो, मौन-रूप लखते रहना ॥ जब क्षमा किसीको दान न की तबक्षमा हमारे साथ रही। क्षमा-शील होने से जगती, 'पद्म' बनेगी सौख्य मही॥ (व्यावहारिक) 'खंमामि सम्धजीवारणं, सम्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वैरं मझ रण केरण वि ॥" 0 श्री पप्रचन्द शास्त्री Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध प्रथमानुयोग 0 डा० विद्याधर जोहरापुरकर व्यक्ति के जीवन में स्वप्नों का जो स्थान है वही होगी ऐसी भी धारणा थी। दिव्यावदान के मंत्रयावदान समाजजीवन में पुराण कथानों का है। स्वप्न में जिम के अनुमार जब मैत्रेय बद्ध होंगे तो मनुष्याय प्रस्पी हजार प्रकार कुछ यथार्थ, कुछ कल्पना पौर कुछ अाशा-माशंका वर्ष होगी। जैन धारणा में ये सख्यायें काफी अधिक है। का मिश्रण होता है उसी प्रकार पुराण कथामो मे भी प्रयम तीर्थङ्कर वृषभदेव को प्रायु चौरासी लक्ष पूर्व' पोर पाया जाता है। स्वप्नों से व्यक्ति की अन्तनिहित प्रवृत्तियों अठारहवें तीथंकर भरनाय की प्रायु चौरासी हजार वर्ष का संकेत मिलता है उसी प्रकार पुराण कथाम्रो से समाज कही गई है. इसी प्रकार भविष्यकाल के तीर्थङ्करों की तानाहत प्रवृत्तिया का सकैत मिलता है । बोद्ध व मायु क्रम से बढ़ती हुई बताई गई है। जैन परपरा मे प्रारभिक युग मे प्रागम एव त्रिपिटक मे महावीर और बुद्ध के जीवन मोर पूर्वभवो की कथायें 1 ३. तीर्थङ्करत्व या बुद्धत्व र प्रकीर्ण रूप मे है। बाद मे एक साहित्य प्रकार के रूप मे दोनी परंपरामो की धारणा है कि वर्तमान के समान जैन परंपरा मे पुराण कथामो को प्रथमानुयोग यह नाम भूतकाल पोर भतकाल और भविष्यकाल में बहुत से तीर्थ दूर या बद्ध मिला । विमल का पउमचरिय, सघदास-धर्मसेन को वसु- हुए पार हे चरिय. मघटाम-मन को वहए और होगे। जैन परपरा में तीनो कालो में देवहिण्डी पोर शीलाक का च उपन्न महापरिसचरिउ ये चौबीस तीथंकरों का कथन है। पवदानों में बद्धों की प्राकृत में प्रथमानुयोग के मुख्य प्रथ है। संस्कृत में रविषेण संख्या बहुत अधिक है । बुद्ध या स्तूप की पूजा या उनको का पनवरित, जिनसेन का हरिवंशपुराण भौर जिनसेन दिये गये दान से विशुद्धचित्त होकर कोई प्राणी मैं बुद्ध (द्वितीय) तथा गुणभद्र का महापुराण ये प्रथमानुयोग के बनूं इस प्रकार चित्तोत्पाद करता है यह अवदानों में मुख्य ग्रंथ हैं । इनके अतिरिक्त हरिषेण, श्रीचन्द्र प्रादि के बुद्धत्व प्राप्ति की प्रक्रिया के प्रारभ का प्रकार है। जैन कथाकोश भी महत्त्वपूर्ण है । बौद्ध परपरा मे प्रथमानुयोग पुराणों में तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध के लिए ऐसी कोई जैसा शब्द तो नही है परन्तु विस्तृत कथासाहित्य प्रवश्य विशिष्ट घटना को निमित्त नही बताया गया है -सामान्य है। पालि में जातक और सस्कृत में प्रवदानशतक, दिव्या. रूप से तपस्या से या दर्शनविशुद्धि मादि सोलह भावनामों वदान, ललितविस्तर प्रादि बौद्ध कथा साहित्य के मुख्य से तीर्थङ्करत्व की प्रक्रिया का प्रारंभ बताया गया है।' अन्य हैं । इस लेख में हम इन दो धारापो में प्राप्त कुछ ४. बकृपा सामान्य धारणामो के साम्य-वैषम्य पर विचार करेंगे। तीर्थङ्कर पोर बुद्ध महान् लोकोपकारक है, इस विषय २. बोर्घ प्राय मे दोनों परसरामो की धारणा समान है । परन्तु प्रवदानों मानवों की प्रायु प्राचीन समय में बहुत अधिक हुमा मे दुःखित भक्तो को पुकार सुन कर बुद्ध स्वयं या इन्द्र करती थी यह दोनों परपरामों की धारणा है । दिव्याव- को पादेश देकर भकों को दुःखमुक्त करते बताये गये हैं।' दान के सघरक्षितावदान के अनुसार काश्यप बुद्ध के समय जैन पुराणो मे इस प्रकार तीर्थङ्करों की प्रत्यक्ष सहायता लोगों की प्रायु बीस हजार वर्ष थी,' चन्द्रप्रभबोधिसत्वा- का वर्णन नहीं है-उनके उपदेश या भक्ति से प्राप्त पुण्य वान के अनुसार उस बोधिसत्त्व के समय की मनुष्यायु से दुखमुक्ति बताई गई है। पपवाद रूप मे जिनप्रभ के वालीस हजार वर्ष थी। भविष्यकाल में दीर्घ मायु विविध तीर्थकल्प मे प्रश्वावबोध तीर्थकरूप में बताया गया Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, पर्ष ३४, कि० २.३ अनेकान्त है कि भरुकच्छ के राजा के घोडको जब अश्वमेघ में ७. स्त्रियों को हीनतर स्थिति बलि दिया जा रहा था तब उसके उद्धार के लिए मनि- यद्यपि दोनों परपरामों में समता का बड़ा सम्मान है सुब्रत तीर्थङ्कर प्रतिष्ठान नगर से एक रात्रि में माट योजन तथापि स्त्रियों के विषय में दोनों को धारणा अनुदार है। चलकर भरुकच्छ पहुंचे और उस प्रश्व को पूर्व जन्म कथा बौद्ध ग्रंथ सद्धर्म पुण्डरीक में कहा गया है कि ब्रह्मपद, शक सुनाकर प्रतिबोधित किया। पद, महाराजपद, चक्रवतिपद और बुद्धपद स्त्री पर्याय में प्राप्त नही होते ।" जैन परपरा का भी इस विषय में तियंच प्रतियोष प्रायः यही मत है । अपवाद रूप में श्वेतांबर परंपरा में प्रश्वावबोध के समान अन्य अनेक जैन कथानों मे। महिल तोयंकर को अवश्य स्त्री बताया गया है।" जैसाकि पशु-पक्षी नमस्कार मात्र या उपदेश श्रवण से प्रतिबोधित सुविदित है-स्त्रियों की मुक्ति प्राप्ति श्वेतांवर पोर होते बताये हैं। पाश्र्वनाथ कथा में नाग-नागिनी मरणा दिगबर संप्रदागों में विवाद का विषय रहा है। सन्न स्थिति में राजकुमार पावं का उपदेश सुनकर देवपद प्राप्त करते है।" जीवन्धर कथा मे एक कुत्ता जीवघर ८. देवस्थिति से नमस्कार मंत्र सूनकर यक्षपद प्राप्त करता है।" इसो जैन कथानों में तीर्थंकरों के और बौद्ध कथानों में प्रकार बौद्ध कथानों में भी पशु-पक्षियो के उद्धार के प्रसग बद्धों के दर्शन-पूजन के लिए देवों के प्रागमन का वर्णन प्रायः वणित हैं। दिव्यावदान के शुकपोत कावदान मे दो तोतों मिलता है। अन्तर यह है कि अवदानो में बुद्ध के प्रादेश का वर्णन है जो बिल्ली द्वारा पकड़ जाने पर नमो बुद्धाय से देवराज वर्षा कर भक्तों को दुःखमुक्त करते है या धन कहते हुए प्राण त्याग कर देवपद पाते है।" इसी अन्य के देकर किसी बैल को बचाते हैं। तीर्थंकरों की कथानों में प्रशोकवर्णावदान के अनुसार वैशाली में मारा जा रहा देबों को ऐसे कोई कार्य करने को नहीं कहा गया है। एक बल बुद्ध की कृपा से मुक्त होता है और प्रगले जन्म दिव्यावदान के मांधातावदान में त्रास्त्रिश देवों की मायु में प्रत्येक बुद्ध होता है। मनुप्यों की गणना से ३६०००० वर्ष बताई है।" स्पष्ट ___ है कि जन कल्पना इस विषय में काफी बढ़ी-चढ़ी है जिसमें ६. निदान देवों की न्यूनतम प्रायु दस हजार वर्ष पोर अधिकतम जैन कथानों में तपस्वी अपने तप का प्रमक फल तीस सागर बताई गई है।५ मांधातावदन में देवलोक प्राप्त हो ऐमी इच्छा करे उसे निदान कहा गया है। सुभोम समेह पर्वत के ऊपर बताया गया है ।" जैन कल्पना भी चक्रवर्ती की कथा," त्रिपृष्ठ नारायण की कथा," कस वही है। परन्तु इस वदान में राजा माघाता देवलोक की कथा" मादि में इसके उदाहरण बताये गये हैं । बौद्ध में जाकर इन्द्र के अर्धासन पर बैठने का सम्मान प्राप्त कथानों में ऐसे सकल्प को मिथ्या प्रणिधान व हा गया है। करता है ।२८ ऐसी बात जैन कथानों में संभव नही है । दिव्यावदान के कोटि कर्णावदान के अनुसार एक उपाप्तिका दिव्यावदान के नगरावलबम्किावदान मादि में वर्णन मिलता का पुण्य इतना अधिक था कि वह त्रास्त्रिश देवो में है कि देवों का ज्ञानदर्शन अपने स्थान से नीचे प्रवृत्त हो उत्पन्न होती परन्तु मिथ्या प्रणिधान के कारण वह प्रेत- सकता है-ऊपर नही।" जैन कथामों में भी इसी प्राशय महधिका बनी।" बौद्ध कथामों में प्रणिधान शुभ रूप में का वर्णन मिलता है।" जैन कथामों में देव अपनी नियत भी वणित है। जैसाकि कार बताया है-मैं बुद्ध बनें ऐसे प्राय पूर्ण होने के बाद नियत गति में जन्म लेते बताये गये चित्त के उत्पाद से बुद्धत्व की प्रतिक्रिया प्रारम्भ होती है। हैं। देवगति में वे उत्तरकालीन गति में परिवर्तन नहीं कर दिव्यावदान के मैत्रेयावदान में शख चक्रवर्ती का प्रसंग है सकते ।" इसके विपरीत दिव्यावदान के सूकरिकावदान में जिसने पूर्व जन्म में मैं चक्रवर्ती बनं ऐसा संकल्प किया कथन है कि एक देव जो सूकर योनि में उत्पन्न होने वाला था।"-इसमें अशुभत्व का कपन नहीं है। (शेष पृष्ठ २७ पर) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान प्राप्ति के उपाय: अवग्रहहावायधारणाः डा० नंदलाल जैन सामान्य जनता में धार्मिक वत्ति को जगाये रखने के पावश्यकता नहीं पड़ती। संसारी जीव ही क्रमिक विकास लिये अनेक पुरातन प्राचार्यों ने समय-समय पर उपयोगी करते हए योगी होता है, फलतः उसका ज्ञान-विकास भी धर्म ग्रन्थों को रचना की है। इनका मुख्य विषय 'सम्यक- बाह्य-साधन-प्रमुख विधि से भागे चल कर अन्तर्मुखी हो दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' ही होता है। वस्तुतः जाता है, ऐसा मानना चाहिये। सामान्य जन को ज्ञानमोक्ष और उसका मार्ग साधु-जन सुलभ होता है, सामान्य । प्राप्ति के लौकिक साधनो के रूप में इन्द्रिया और मन जन के लिये तो गृहस्थ मार्ग ही प्रमुख है। जिन गृहस्थो सुज्ञात है। इनकी सहायता से पाप्त ज्ञान को मतिज्ञान के ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी पौर अन्य कर्मों का जितना कहते है। इस प्रकार, सामान्य जन मति और श्रुन-दो प्रल्प बंध या उदय होता है, वे उतना ही मोक्षमाग को ज्ञानो से ही मागे बढ़ता है। श्रुतज्ञान स्वय या दूसरों के प्रोर प्रवृत्त होते हैं। यद्यपि 'निर्वाणकांड' मे मक्तों को मतिज्ञान का रिकार्ड है। मतिज्ञान स्वय का प्रपना प्रयोग प्रपरमेय संख्यायें निरूपित की गई है, फिर भी पिछले और दर्शन-जन्य ज्ञान है । एक वैज्ञानिक भी इन्हीं दो पच्चीस-सौ वर्षों में कितने मोक्षगामी हुए है, इसका कोई ज्ञानो से वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रारंभ, विकास पौर विवरण उपलब्ध नही है। फिर भी, मक्ति में एक मनो- पुननिर्माण करता है। श्रुतसागर सूरि ने बताया है कि वैज्ञानिक प्राकर्षण है, शुभत्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा यह ज्ञानमार्ग ही हमारे लिये सरल, परिचित पौर है। यह मार्ग निसर्गज भी बताया गया है और अधिगमज अनुभवगम्य है।' भी।' निसर्गज मार्ग विरल हो दष्टिगोचर हपा है। मतिज्ञान के नामइसलिये इसके अधिगम के विषय मे शास्त्रो मे पर्याप्त में सर्वप्रथम अपने द्वारा प्राप्त ज्ञान-मतिज्ञान की बात वर्णन पाया है। इसके एक लघु अंश पर ही यहा विचार करू । उमास्वामी ने इसके अनेक नाम बताये हैं-स्मृति, किया जा रहा है। सज्ञा चिन्ता और प्रभिनिबोध प्रादि पागम ग्रन्थों मे मति अधिगम के लिये विषय वस्तु के रूप में सात तत्व के बदले अभिनिबोध का ही नाम पाता है, कुन्दकुन्द ने पौर नव पदार्थों का निरूपण किया गया है। इनका सर्वप्रथम मतिज्ञान के नाम से इसका निरूपण किया। मधिगम प्रमाण पौर नयो से किया जाता है। इनका उमास्वामी ने इसके अनेक रूपो को वणित किया। इसके विवरण अनुयोग द्वार में विशेष रूप से दिया जाता है। अंतर्गत अनेक मनोप्रधान या बुद्धिप्रधान प्रवृत्तियां भी मति पदार्थों का अध्ययन सामान्य या विशेष अपेक्षानों से छह मे ही समाहित होती है। यह वर्तमान को ग्रहण करता है, या पाठ अनुयोग द्वारो' के रूप में किया जाता है । यह इस प्राधार पर स्मृति प्रादि को मतिज्ञान नही माना मध्ययन ही ज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान सामान्य जन को जाना चाहिये था। क्योंकि इनमे प्रतीत का भी सबंध इन्द्रिय, मन पोर भुज की सहायता से होता है । योगिजन रहता है। फिर भी प्रकलंक' ने इन्हे मनोमति मान कर प्रथवा महास्मामों को यह ज्ञान प्रात्मानुभति के माध्यम सामन्य मतिज्ञान के रूप में ही बताया है। वस्तुतः इस से भी प्राप्त हो सकता है जहां उन्हें बाह्य माधनो की माघार पर स्मृति, मना (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क, * जैन विद्या सगोष्ठी, उज्जैन, १९८० मे पठित निबंध का परिवषित रूप । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ३४० २-३ कार्यकारण भाव), प्रोर अभिनिबोध ( अनुमान व्याप्तिज्ञान) को जिन दार्शनिकों ने पृथक् प्रमाण माना है, उनका निरसन कर जनों ने इस सभी को मतिज्ञान में समाहित कर लिया। भट्टाचार्य ने चिन्ता और अभिनिबोध को वर्तमान प्रागमन और निगमन तर्क शास्त्र के समरूप बताकर पाश्चात्य तर्कशास्त्र की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया है । उमास्वामी के मतिज्ञान के अनन्तरों के दिग्दर्शक सूत्र की टीकामों में धनयतरस्य (पर्यायवाची) पद पर नेक प्रकार के प्रश्नोत्तर किये गये है। इनमे इसी सूत्र में वर्णित 'इति' शब्द को इत्यादि वाचक, प्रकार वाचक या ( अभिधेयार्थवाचक) के रूप में माना है । जब 'इति' को इत्यादि वाचक मानते है, तब मतिज्ञान के कुछ अन्य पर्यायवाची भी बताये जाते हैं इनमे प्रतिभा, बुद्धि मेघा, प्रज्ञा समाहित होते हैं ।' इन सभी पर्यायवाचियों के विशेष लक्षण पूज्यपाद ने तो नही दिये है पर अकलक मोर श्रुतसागर ने दिये है। इनके अनुसार, मतिज्ञान के इन विभिन्न नामरूपों से उसकी व्यापकता तथा क्षेत्रीय विविधता का स्पष्ट सामात होता है क्योंकि प्रत्येक नाम एक विशिष्ट प्रर्थ और वृत्ति को प्रकट करता है। मतिज्ञान की प्राप्ति के चरण · सामान्य जन को मतिज्ञान कैसे उपलब्ध होता है ? इस विषय पर ध्यान जाते ही उमास्वामी के दूसरी सदी के 'तत्वार्थ सूत्र' का 'प्रवप्रहेहावायधारणा: ' (१,१५ ) स्मरण हो आता है । यद्यपि श्रागम ग्रन्थो मे भी इनका उल्लेख पाया जाता है,' ( इससे इनकी पर्याप्त प्राचीनता सिद्ध होती है) पर साधारण जन के लिये तो 'तत्वार्थ सूत्र' ही भागम रहा है । सचमुच मे, संद्धान्तिक प्राधार पर यह सूत्र एवं इसकी मान्यता सर्वाधिक वैज्ञानिक है । इस मान्यता मे ज्ञान प्राप्ति के लिये वे ही चरण बताय गये है जो भाज के वैज्ञानिक चौदहवी सदी में अपने पर अनुभब से बता सके । काश, इन्हें हमारे प्रागन मोर तत्वार्थ सूत्र मिले होते ? बा इस सूत्र के अनुसार, मतिज्ञान प्राप्ति के पांच चरण होते हैं- प्रथम इन्द्रिय मोर पदार्थों के प्रत्यक्ष या परोक्ष सपर्क से निराकार दर्शन, फिर साकार सामान्य ज्ञानात्मक वह फिर किंचित् मम का उपयोग कर विचारपरीक्षण करने से वस्तु विशेष का अनुमान ईहा, इन्द्रियसवद्ध वस्तु विशेष का उपलब्ध तथ्यों और विचारों के प्राधार पर निर्णय-वाय या अपाय, मौर तब उसे भावी उपयोग के लिये ध्यान, स्मरण मे रखना - धारणा । ये क्रमिक चरण है, पूर्वोत्तरवर्ती है। इन्ही चरणों को वैज्ञानिक जगत अपनी स्वय की पारिभाषिक शब्दावली" मे निम्न प्रकार व्यक्त करता है : १. प्रयोग और निरीक्षण २. वर्गीकरण ३. परिणाम निष्कर्ष उपपत्ति प्रवाय ४. नियम सिद्धान्त धारणा इनमें से प्रथम चरण को छोड़ अन्य चरणों मे मन और बुद्धि की प्रमुखता बढती जाती है । तुलनात्मक दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे यहाँ धारणा शब्द का अर्थ कुछ सीमित यों में किया गया है। वस्तुतः यह शब्द अनेकार्थक है और इसे केवल स्मरण मात्र नही मानना चाहिये | इसे उपरोक्त चार चरणों से प्राप्त इन्द्रिय और मन के उपयोग से निष्कषित ज्ञान के व्यापकीकरण या सैद्धान्तिक निरूपण के समकक्ष एव श्रुत के आधार के रूप में मानना चाहिए । यही परिभाषा इसे नियम या सिद्धान्त के समकक्ष ला देती है। इस प्रकार ज्ञानप्राप्ति की वर्तमान चतुश्चरणी वैज्ञानिक पद्धति 'मवग्रहेावायचारणा' का नवीन संस्करण ही है। इस पर प्राधारित धर्म या दर्शन को वैज्ञानिकता प्राप्त हो, इसमें प्राश्चर्य नही करना चाहिये । मतिज्ञान के भेव और सीमायें - दर्शन घोर प्रवग्रह ईहा शास्त्र में ग्रहादि को मतिज्ञान के भेद के रूप में माना गया है। इसमें ग्रह का विशेष वर्णन है क्योंकि यह हमारे ज्ञान का प्रथन और मूलभूत चरण है। यह श्रुत निःसृत भोर प्रश्रुत प्रनिःसृत के रूप में दो प्रकार से उत्पन्न हो सकता है ।" यह व्यक्त रूप से धौर प्रव्यक्त रूप से भी उत्पन्न हो सकता है। प्रव्यक्त प्रवग्रह चक्षु मोर मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों के कारण ही होता है अव्यक्त भवग्रह दर्शन की समतुल्यता प्राप्त कर सकता है, ऐसा भी कहा गया है । भवग्रह के विपर्यास में, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवाहावापवारणाः ईहादिक चरण व्यक्त रूप में ही होते है। मतिज्ञान से श्रत ज्ञान को परिभाषा शास्त्रों में अनेक प्रकार से की पदार्थों की जिन विशेषतापो का अध्ययन किया जाता गई है। कुछ लोग श्रवणेन्द्रिय प्रधानता के प्राधार पर है, उनकी संख्या १२ बताई गई है : श्रुत को मतिज्ञान मानना चाहते है, पर यह सही नही है। १.२ बहु पोर पल्प संख्या तथा परिणाम (भार) प्रकलंक" ने साहचर्य, एकत्रावस्थान, एकनिमित्तता, द्योतक विषय साधारणता तथा कारण-कार्य सदशता के प्राधार पर ३.४ बहुविध और एकविध पदार्थों के विविध जातीय रूपो मति-श्रुत की एकता का खंडन करते हुए बताया है कि की संख्या तथा परिमाण श्रुतज्ञान मनोप्रधान है, इन्द्रियप्रधान नही। वह त्रिकाल५.६ क्षिप्र पोर प्रक्षिप्र वेग शील मौर मन्द पदार्थ का वर्ती तथा पपूर्व विषयों का भी ज्ञान कराता है। उसमें बोधक बुद्धिप्रयोग के कारण पदार्थो की विशेषतामों, समानताओं ७.८ प्रनिःमृत पौर नि.सृत प्रप्रकट या ईषत प्रकट और एव विषमता ग्रो के अपूर्व ज्ञान की भी क्षमता है। यह प्रकट पदार्थ बोवक सही है कि श्रुतज्ञान का माघार मतिज्ञान ही है, लेकिन यह देखा गया है कि श्रतज्ञान भी मतिज्ञान की सीमायें बोधक बढाने में सहायक होता है। शास्त्री" ने श्रुतज्ञान से. ११-१२ ध्रव और प्रध्रुव पदार्थ की एकरूपता व श्रतज्ञान को भी प्रोपचारिक उत्पत्ति मानी है। इसीलिये परिवर्तनीयता का द्योतक जो सुना जाय, जिस साधन से सुना जाय या श्रवण क्रिया इन विशेषतामों के देखने से पता चलता है कि मात्र को पूज्यपाद पोर श्रुतसागर ने श्रुत कहा है। मतिज्ञान से पदार्थ के केवल स्थूल गुणो का ही ज्ञान होता प्रकलंक ने इस परिभाषा में एक पद पोर रखा -- श्रूयते है, पातरिक संघटन या अन्य नैमित्तिक गुणों का नही। स्मेति, जो सुना गया हो, वह भी श्रुत है।" इससे हमे प्राचीन मतिज्ञान की सीमा का भी भान होता यह श्रुतज्ञान दो प्रकार का होता है--प्रक्षरात्मक है। यही नही, उपरोक्त बारह विशेषतानो मे अनेक में पोर मनक्षरात्मक । साधारणत: श्रुत को प्रक्षरात्मक एव पुनरुक्ति प्रतीत होती है। जिनका सतोषजनक समाधान भाषा रूप माना जाता है। प्रारंभ में यह कण्ठगत ही शास्त्रीय भाषा से नहीं मिलता।" फिर भी, मतिज्ञान के विकसित हुप्रा पर यह समय-समय पर लिखित और १२४४४६ (५ इन्द्रिय+१ मन)=२८८ भोर मुद्रित रूप में प्रकट होता रहा है। वस्तुत: प्राज की भाषा व्य जनावग्रह के १२४४ (चार इद्रिय)-४८=३३६ भेद में यक्षरात्मक श्रुत विभिन्न प्रकार के मतिज्ञानों से उत्पन्न शास्त्रों में किये गये हैं। इसस सीमित मतिज्ञान की धारणामो का रिकार्ड है जिससे मानव के ज्ञान के पर्याप्त प्रसीमता का पता चलता है। इसकी तुलना मे, क्षितिजो के विकास में सहायता मिले । वर्तमान विज्ञान यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्मतर निरीक्षण क्षमता के में ज्ञानार्जन के साथ उसके संप्रसारण का भी लक्ष्य रहता इस उपकरण प्रधान युग मे मतिज्ञान की सीमा मे काफी है। विज्ञान की मान्यता है कि ज्ञान का विकास पूर्वज्ञात वृद्धि हो चुकी है। अब इससे बहिरग के प्रवग्रहादिक के ज्ञान के प्राधार पर ही हो सकता है। इसलिये मति से साथ अंतरंग के प्रवग्रहादिक भी सम्भव हो गये हैं। प्राप्त ज्ञान को श्रुत के रूप में निबद्ध किया जाता है। मति ज्ञान के क्षेत्र में पिछले दो सौ वर्षों के विकास ने विज्ञान का यह सप्रसारण चरण ही पक्षरात्मक श्रुत हमारे पदार्थ विषयक शास्त्रीय विवरणों को काफी पीछे मानना चाहिये। इसकी प्रामाणिकता इसके कर्ताओं पर कर दिया है। निर्भर करती है : उनकी निरीक्षण-परीक्षण पद्धति से ज्ञान के क्षितिजों एवं सीमामों का विकास प्राप्त निष्कर्षों की यथार्थता पर निर्भर करती है। यह बताया जा चुका है कि सामान्य जन की ज्ञान- प्रकलंक" ने श्रत की प्रामाणिकता के लिये अविसवादकता प्राप्ति दो प्रकार के ज्ञानों से होती है-मति ज्ञान भोर तथा प्रवंचकता के गुण माने हैं। इस माघार पर उन्होंने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, ३४, कि० २.३ अनेकान्त 'पाप्त' की बड़ी ही व्यापक परिभाषा दी है और प्राचार्यो ज्ञान की उत्पत्ति र ज्ञप्ति की दशाम्रो के प्रामाण्य के के रचित ग्रन्थों और उसके पर्थबोधो को भी प्रामाणिकता स्वतःपरत: के सबंध में पर्याप्त चर्चा पाई जाती है । की कोटि में ला दिया है। यही नही, यो यत्र प्रविसंवादकः हिरोशिमा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए० यूनो इम विषय स तत्र प्राप्तः। ततः परोऽनाप्तः । तत्वप्रतिपदनमवि- पर विशेष अनुसंधान कर रहे है । यह स्पष्ट है कि सवाद:, तदर्थज्ञानात ११' के अनुसार वर्तमान वैज्ञानिकों सर्वज्ञ और स्वानुभति के ज्ञान को छोड़ कर ज्ञान का द्वारा लिखित श्रुतों को भी प्रामाणिकता प्राप्त होती है। प्रामाण्य परत: ही माना जाता है। इस प्रकार हमारा फलतः नवीन श्रुत में नये अवाप्त ज्ञान क्षितिजो का श्रुत निबद्ध ज्ञान वर्तमान सदी की विश्लेषणात्मक धारा के समाहरण किया जाना चाहिये । यह प्राज के युग की एक निकष पर कसा जा सकता है। यह प्रसन्नता की बात है अनिवार्य मावश्यकता है। वर्तमान प्राचीन श्रत की कि जैन दर्शन की अनेक पुरातन मान्यताये, विशेषतः प्रामाणिकता पर अकलंक के मत का विशेष प्रभाव नही पदार्थ की परिभाषा, परमाणुवाद को मान्यतायें, ऊर्जा पड़ता। उनके प्रणेताओं ने परपराप्राप्त ज्ञान को स्मरण, और द्रव्य की एकरूपता पादि-इस निवप पर से जाने मनन और निदिध्यासन के प्राधार पर लिखा है। यही पर पर्याप्त मात्रा में खरी उतरी है यही कारण है कि नही, उन्होंने विभिन्न युगों में उत्पान सैद्धान्तिक एव प्राज भनेक विद्वान जैन दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन की ताकिक समस्यापों के लिये परिवचित एवं योगशील मोर प्रेरित हो रहे है और जन विद्या के अनेक प्रज्ञात व्याख्यायें दी हैं जो उनके मनन और अनुभति के परिणाम पक्षो को उद्घारित कर रहे है । हैं । इनसे अनेक म्रान्तियां भी दूर हुई है। विशेषावश्यक भाष्य और लघीयस्त्रय में इन्द्रिय ज्ञान को लौकिक प्रत्यक्ष श्रुतज्ञान का अनक्षरात्मक रूप भी हमारे ज्ञानार्जन के रूप में स्वीकृति, वीरसेन द्वारा स्पर्शनादि इन्द्रियो की में सहायक है। इसके प्रसंख्यात भेद होते है ।" संकेत प्राप्यकारिता-प्रप्राप्यकारिता को मान्यता, मष्ट मूल गुणों दर्शन, मानसिक चिन्तन तथा ऐसे ही अन्य प्रक्रमो से जो के दो प्रकार, प्रमाण के लक्षण का क्रमिक विकास, काल ज्ञान होता है वह अनक्षर श्रुतात्मक होता है प्राज जो श्रतविद्यमान है, उसके विविध रूपो का विवरण की द्रव्यता प्रादि तथ्य वस्तुतत्व निर्णय में जनाचार्यों द्वारा गोम्मटसार, सर्वार्थसिद्धि आदि में दिया गया है। वस्तुतः एरीक्षण प्रौर चिन्तन की प्रवत्ति की प्रधानता के प्रतीक विभिन्न श्रुत श्रुतज्ञान के साधन है। ज्ञान के रूप में हैं । इसीलिये प्राचार्य समंतभद्र को परीक्षा प्रधानी' कहा श्रतज्ञान मतिज्ञान की सीमा का विस्तार करता है, उसमें जाता है। स प्रक्रिया में इन्द्रिय और बुद्धि का क्रमशः बौद्धिक नवीनता लाता है। मधिकाकि उपयोग किया जाता है इस प्रकार हमारे विद्यमान श्रृत परीक्षण प्रधान है, वैज्ञानिक है। इस प्रकार सामान्य जन का वर्तमान ज्ञान प्रवग्रहहावैज्ञानिक ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया की एक और वायघारणाः" की प्रक्रिया पर आधारित है। यह प्रक्रिया विशेषता होती है । यद्यपि यह पूर्वज्ञात ज्ञान या श्रुत से जितनी ही सूक्ष्म, तीक्ष्ण पोर यथार्थ होगी, हमारा ज्ञान विकसित होती है, पर यह पूर्वज्ञात ज्ञान की वैधता उतना ही प्रमाण होगा। प्राज उपकरणों ने प्रवग्रह की का परीक्षण भी करती है। उसकी वैधता का पुनर्मूल्याकन प्रक्रिया में अपार सूक्ष्मता तथा विस्तार ला दिया है। करती है। सामान्यतः वैज्ञानिक ज्ञान का प्रामाण्य परतः लेकिन दर्भाग्य से हमारे यहाँ प्राचार्य नहीं है जो इस ही पधिक समीचीन माना जाता है। हमारे शास्त्रों में क्षमता का उपयोगकर नये श्रत का उद्घाटन कर सके। सन्दर्भ १. उमास्वामि पाचार्य; (तत्वार्थसूत्र, १.३, वर्णी २. उमास्वामि, पाचार्य ; पूर्वोक्त, १.६ । प्रन्थमाला, काशी, २६५० । ३. उमास्वामि, प्राचार्य; पूर्वोक्त, १-७, ८ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवाहेहाबायपारणाः ४. श्रुतसागर यूरि; (तत्वार्थवृत्ति) १.६, भारतीय ज्ञानपीठ पागरा, १६३६ । ज्ञानपीठ, दिल्ली १६४६ । ११. प्रकलकदेव ; (तत्वार्थ राजवातिक, १.१६, भारतीय ५. फूलचंद्र सिद्धान्तशास्त्री (वि० क.); (तत्वार्थसूत्र) ज्ञानपीठ, दिल्ली, १६४४ । १.१३, वर्णी ग्रन्थमाला, १९५० ।। १४. प्रकलंकदेव ; पूर्वोक्त, १.६ ६. प्रकलंक देव ; (लघीयस्त्रय), श्लोक ६६.६७ । १५. फुलचंद शास्त्री (वि० क६); सन्दर्भ ४, सूत्र १-२० । ७. भट्टाचार्य, हरिसत्य ; जैन विज्ञान, (अनेकान्त), य, हारसत्य, जन विज्ञान, (अनेकान्त), १३. प्रकलंक देव; पूवोंक्त१-६ । ८. शास्त्री, ९० शान्ति राज (स.); (तत्वार्थसूत्र) १७. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य; (जैन दर्शन), पृष्ठ ३५३, (१-१३), (भास्करनं दि टोवा), ममूर विश्ववि० वर्णी ग्रन्थ माला, काशी, १९६६ । १९३४। ६. - (भगवतीसूत्र (८८,२,३१७) १८. ए. यूनो; (जन प्रामाण्यवाद पर एक टिप्पणी) १०. पोमेन्टल, जार्ज (मायन एक प्रयोगात्मक विज्ञान) (कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनदन ग्रन्य) पृष्ठ ५४८, १-१० म० हिन्दी ग्रन्य प्रकादमी, भोपाल, १९७३ । १९८०। ११. दलसु व माल वणिया; (प्रागमयुग का जैन दशन), १६. नेमचद सिद्धान्त चक्रवर्ती; गोमटसार जीवकांड, तथा पु. १२६-३५, मन्मनि । गाथा ३१६, परमश्रुत प्रभाव कमडल, प्रगास, १९७२। १२. उ मास्वामि ग्राचार्य; (तत्वार्थ सूत्र) १.१५ १६ गल्र्स कालेज, रोवा ( पृष्ठ २२ का शेषाश ) था-शक के उपदेश से बुद्ध की शरण में पहुचा जिससे उसकी गति में सुधार होकर वह तुषित देननिकाय में उत्पन्न हुप्रा । सन्दर्भ १. दिव्यावदान (दर भगा संस्करण) पृ० २१५ । १६. वही पृ० ३६ । २. वही प. १६६। २०. सद्धर्मपुण्डरीक (दरभंगा संस्करण) पृ० १६१ । ३. वही प० ३६ । २१. च उपन्न महापुरिस चरिय (प्रकृत ग्रन्थ परिषद) ४. हरिवश पुगा (भारतीय ज्ञानपीठ मंचरण) पृ० १६६। प० २१४ । २२. दिव्यावदान पृ० ४८ उत्तरपुराण १०३ प्रादि । ५. उत्तर पुगण (भारतीय जनपोट सम्करण) १०२१६ २३. दिव्यावदान १०८५, प्रवदानशतक(दरभगा सस्करण) ६. वही १० ५६१ । प० ३४ । ७. दिव्यावदान प० ४० प्रादि । २४. दिव्यावदान पृ० १३६ । ८. उत्तरपुराण १० २.१८ प्रादि । २५. पासणाहचरिउ (प्राकृत ग्रंय परिषद) प० १४१-२ ६. दिव्यावदान प• ५६, ८५ प्रादि । २६. दिव्यावदान प. १२६ । १०. विविधतीथल। (सिंधी ग्रथमाला सस्करण) १०२० २७. हरिवंशपुराण पु० १२३ । ११. उत्तरपुराण प.० ४३६। २८. दिव्यावदान पृ. १३७ । १२ वही प० ५०। २६. वही पृ० ५२। १३. दिव्यावदान पृ० १२४ । ३०. हरिव पुराण १० १२६ । १४. व ही प० ८६ । ३१. इसका स्पष्ट कथन तो कथाग्रंथों में नहीं मिला परंतु १५. उत्तरपुराण १०२२२ । देव मरण के बाद मनुष्य या तियंच गति में ही जम्म १६. वही १०८५। लेते बताये गये हैं। १७. वही प० ३६२ । १२. दिव्यावदान पु० १२० । १८. दिव्यावदान पु०६। 000 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंत्र 0 श्री बाबूलाल जैन महान मंत्र है णमोकार । इस मंत्र में किसी व्यक्ति का, रहा, उनको नमस्कार किया गया है। साथ मे यह भी किसी तीर्थकर का नाम नही लिया। नाम लेने से पक्षपात मिश्रित है कि जब उन्होने नाश किया तो मैं भी नाश कर खड़ा हो जाता है। कोई कहता यह पूजनीय है, कोई सकता है। कहता यह पूजनीय नही है। इसलिए व्यक्ति का ख्याल (२) णमो सिद्धाणम् यानी सिद्धों को नमस्कार है। छोडकर मात्र वस्तू स्वरूप का ही ख्याल रखा गया। सिद्ध यानी जिन्होंने पा लिया है अपनी स्वस्थता को, इसीलिये यह मंत्र प्रनादि अनिधन है। पात्मिक स्वस्थता को। अरहन जिन्होने छोडा है, सिद्ध (१) पहले णमो परहंताणम् कहा अथवा जो प्ररहत जिन्होने पा लिया है, जिनको उपलब्धि हो गयी है। यहाँ हो गये हैं उनको नमस्कार है। परहंत प्रवस्था को प्राप्त पर भी किसी का नाम नही है, किसी व्यक्ति विशेष की यानी जिनके सात्मिक त्र नष्ट हो गये है उनको बात नही है। यहा पर बात है कि जिसने भात्मिक गुणों नमस्कार है, वह कोई भी हो, उन का कुछ भी नाम हो, को प्राप्त कर लिया है, जो शुद्धता को प्राप्त हो गये है, इससे मतलब नहीं, हमे तो मतलब है केवल उन प्रात्मानों जिन्होंने स्वस्थता का नाश करके शुद्धता को, स्वस्थता से जिनके पात्मिक शत्रु नष्ट हो गये है। यहां पर नास्ति को पा लिया है, वे नमस्कार करने योग्य है । वे कैसे गुणों रूप से करन है। नगटिव रूप से कथन है कि जिनके को प्राप्त हुए है? जो ज्ञान की पूर्ण शुद्ध विकसित मात्मिक शत्रु नष्ट हो गये है वह हमारे नमस्कार करने अवस्था-केवल ज्ञान को प्राप्त हो गये है। जो दर्शन योग्य है। पात्मिक शत्रु कोन है ? तो बताया कि क्रोध- यानी दष्टि के पुर्ण शद्ध विकास को केवलदर्शन को प्राप्त मान-माया लोभ अथवा रागद्वेष अथवा मोह, ये प्राध्यात्मिक हुए है। जो पूर्ण प्रात्मिक प्रानन्द को, स्वाघोन प्रानन्द पात्र है । यह कोई बाहरी चीज नही जो नष्ट हुमा है, यह को प्राप्त हो गये है, पात्मिक शक्ति जिनकी पूर्ण प्रगट हो तो प्रात्मा का अपना विकार था, रोग था, जो नष्ट हो गया है। जो शरीर से रहित हो गये है, जिनमे प्रब कोई गयी है । वह मेरे नमस्कार करने योग्य क्यो है ? क्योकि सस्कार नही बचा जिममे फिर जन्म लेने का सवाल पंदा मैं भी चाहता हूँ कि मेरे भी प्रात्मिक शत्रु नष्ट हो जायें। हो नहीं सकता। जिन के प्रायु का सम्बन्ध नही रहा, जो मसल मे प्रात्मा को अशुद्धता ये रागादि ही हैं। इनका शरीर को स्थिति का कारण था। जो पुण्य और पाप दोनों प्रभाव होना ही प्रात्मा की शुद्धता है, रामादि ही प्रात्मा से रहित हो गये, जो शरीर के साथ रहने वाली इन्द्रियो का रोग है, अस्वस्थता है, उनका प्रभाव हो स्वस्थता है से भी रहित हो गये, मात्र ज्ञान का प्रखण्ड पिण्ड, प्रनत इसलिए यहाँ पर उनको नमस्कार किया है जिन्होने प्रात्मा गुणो का पिण्ड, जैसा एक प्रकेला प्रात्मा था वैसा सब की अस्वस्थता और प्रशुद्धता को नष्ट कर दिया । क्योकि सयोगों से रहित हो गया है। ऐसा प्रात्म:-सिद्ध प्रात्मामैं भी पात्मिक रूप से रोगी हूं अस्वस्थ हूँ, और मैं भी नमस्कार करने योग्य है। इससे यह भी निश्चित होता है अपनी अस्वस्थता को नष्ट करना चाहता है, इसलिए मेरे कि जैसा परमात्मा का स्वरूप है वैसा ही मेरा निज लिए वही नमस्कार करने योग्य पूज्य हो सकता है जिसने स्वरूप है। वस्तु मे तो फरक नही। मेरी प्रात्मा स्त्रीइन को नष्ट किया है। जिनके पन्तद्वंन्द नही रहा-लोभ पुत्रादि-मकानादि शरीरादि-कर्मादि मौर रागादि के सयोग नही रहा-मान नही रहा-मोह नही रहा-काम नहीं मे पड़ा हुमा है इसलिए मलिनता को प्राप्त है परन्तु ये Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मंत्र सब मात्मा की अपनी चीज नहीं है। अगर प्रात्मा को जो निज में पठन-पाठन करते है और दूसरों को पठनअपनी होती तो नष्ट नहीं होती इसलिए वर्तमान में उनका पाटन कराते हैं । ये अपना प्रात्म साधना मे लगे हैं। निज मेरा साथ संयोग है अब अगर मैं उनमे संयोग न मान कर स्वरूप मे पभी पूर्ण स्थिरता को प्राप्त नही हुए है इसलिए अपनापना मानता हूं तो यह मेरी गलती है, यही चोरी है, बाहर मे शास्त्रादि का अध्ययन निज मे करते है और यह अपराध है दूसरे की चं.ज हमारे पास में रहने से भी प्रौरों को कराते हैं । यह कार्य उस राग की कणी का है जो हमारी नही हो सकती। हमारा अपना तो उतना ही है शेष रह गयो । ऐसे उपाध्याय को मैं नमस्कार करता हूं। जो कुछ सिद्ध मात्मा के पास है। उममे जो कुछ ज्यादा उन लोक के सवं माधुप्रो को नमस्कार करता हूं मेरे पास है। वह कर्मजनित, पर रूप है; मेरा अपना नही जिन्होंने निज प्रात्म-स्वरूप को प्राप्त किया है, पर से हो सकता, उसमे अपनापना नही माना जा सकता । अगर भिन्न निज स्वभाब को अपने रूप से जाना है। अपने ज्ञान मैंने अपनापना माना है तो यह अपराध है प्रोर उस स्वभाव मे ज्ञाता दृष्टापने के वे मालिक है, उसमे वे जागृत अपराध का फल बंधन है -क्योकि वह मात्मा के अपने है। जागति दो तरह से हो सकती हैनिज रूप में नहीं है। इसलिए इनका प्रभाव हो सकता वहिर्मुखी पौर अंत मखी। बहिमखी जागति होगी है। कोयले की कालिमा उसकी अपनी है । बाहर में पाई तो अंतर्मवता अधकार पूर्ण हो जायेगी, वह मूछित हो हुई नही। उसका अपना अस्तित्व हैं। वह दूर नही हो जायेगी। अगर जागति प्रतर्मुखी है तो बाहर की तरफ सवती। परन्तु स्फटिक मे झलकने वाली कालिमा उसकी मूर्छा हो जायेगी। मन्तर्मुखता का प्रगर विकास हा तो अपनी नही, बाहर से भाई हुई हैं । वह दूर को जा सकता तीसरी स्थिति जागति की उपलब्ध होती है, जहाँ अन्तर है। सिद्ध वे है जिन्होने इस कालिमा का नाश किया है। मिट जाता है मात्र प्रकाश रह जाता है। वह पूर्ण जागृत इससे मालम देता है कि यह कालिमा बाहर से प्राई हुई स प्राई हुई स्थिति है । परन्तु बहिर्मुखता मे कोई कभी तीसरी स्थिति है और नाश हो सकती है। जिस प्रकार स उन्हान मे नही पहच सकता। तीसरी स्थिति में पहुंचने को पुरुषार्थ के द्वारा अपनी कालिमा नष्ट की है वसे ही में अवता जरूरी है। बाहर से भीतर पाना है फिर अपने सी पार्थ के द्वारा अपनी कालिमा नष्ट कर सकता हूं। में समा जाना है। मर्जी का प्रथं है हम बाहर है, बाहर (३) तीसरा, (४) चौथा प्रौर (1) पांचवा पद। का अर्थ है हमाग ध्यान अन्य पर है। जहां ध्यान है वही है- णमो पाइरियाणम् -णमो उवज्झायाणम् - णमो पर हमारी भक्ति लगी हुई है और जहां ध्यान नही है वहीं लोए सव्व साहूणम् मूर्खा है। इस अन्तर्मुखता का नाम ही जागरण है। इस इन तीन मत्रों मे साधुग्रो को नमस्कार किया गया है। लि। जो पूरी तरह जग गया वह साधु है। जो सो रहा है, लोक के मर्व साधूनों को नमस्कार किया गया है। उन जो निज स्वभाव मे मूछित है, जो दुनिया में, वम के कार्य साधनो मे तीन कोटि होती है। एक वे जो प्राचाय है मे जाग रहा है वह साधु है । वह जागरण भीतर इतना उनको नमस्कार है। प्राचार्य वे है जो निज मे मात्म- होजाताना हो जाता है उहा न के बल बाहर की पावाज सुनाई देना साधना करते हैं और दूसरो से प्रात्म साधना करवाते है। बन्द होती है परन्तु अपनी श्वास की धड़कन भी सूनाई निन्द्रीने आत्मा को प्राप्त किया है. निज स्वभाव को-प्राप्त पडं, अपनी पाख की पलक का, हिलना भी पता चले. किया है और उसी में लगे हुए है। प्रभी तक निज स्वभाव भीतर के विचार का पता चले और उनके जानने वाले मे पूर्ण रूप से ठहरने मे, रमण करने में, वे समर्थ नही का ज्ञान भी बना रहे। ऐसी साधना ये तीनों प्रकार के हए है इसलिए जो राग का प्रश बचा हुआ है उस राग माधु करते हैं। ऐसे लोक के सर्व साधु नमस्कार करने के प्रश की वजह से दूसरों को प्रात्म साधना की प्ररणा योग्य हैं । उनको नमस्कार हो। करते है । गुरु रूप से उनका उपकार करते है। पं. टोडरमल जी ने भी मनि का स्वरूप निम्न प्रकार इसके बाद उन साधुनों में दूसरा पद है उपाध्याय का से ही लिखा है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० वर्ष ३४, किरण २-३ अनेकास "जो बीतरागी हैं समस्त पर पदार्थ को त्याग कर इसलिए वे बंदना करने योग्य है।" शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म अगीकार करके, प्रतरग मे तो प्ररहता मंगलं-सिद्धामंगलं-साहमगलं-केवलिउस शोपयोग से अपने प्रापको माप अनुभव करते है, पर पण्णतो घम्मोमंगलं । ये चार मगल रूप है। जिनसे द्रव्य मे मह बुद्धि नही रखते, अपने ज्ञान स्वभाव को हो प्रात्मा का हित हो, मात्म-कल्याण हो उन्हे ही अपना मानते हैं, पर भावों में ममत्व नही रखते, पर द्रव्य मंगलं रूप कहा है। प्रात्म हित में साधन प्राहतमोर उनके स्वभाव को जानते है परन्तु इष्ट अनिष्ट मान सिद्ध-साह और बन्तु का स्वरूप जैसा इनके द्वारा कर रागद्वेष नहीं करते। शरीर की अनेक प्रवस्था होती बताया गया है वही मंगल रूप कल्याणकारी हो सकता है, बाहर में अनेक पदार्थों का संयोग होता है परन्तु वहां है। अन्य जिनको हम लोक में मगल रूप मान रहे है वे सख-दख नहीं मानते, अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बने मगल रूप नही है। जहाँ बोतराग विज्ञानता है वहाँ वैसे बनती है, खेंच करके उनको नहीं करते, जसे पानी मे मगलपना है। कोई चीज बाहर की है, वैसे व मं के सम्बन्ध के अनुमार चार ही लोकोतन है, याने ये चार ही लोक मे उत्तम मान-सम्मान प्रादि होते हैं परन्तु किसी चीज की अपेक्षा हैं। धन-वैभव-राज्य-पद प्रादि कोई उत्तम नही क्योकि नहीं रखते, प्रपरे उपयोग को बहुत नही भ्रमाते । उदासीन बाहर से प्राया हमा है। लोक मे उत्तम है तो यह चार रह कर निश्चल वृत्ति को धारण करते है, मदराग के ही हैं। इस पद के द्वारा लोक मे अन्य बाहरी पदार्थों को उदय से कदाचित् शुभोपयोग भी होता है जिससे जो उत्तम मान कर जो पकड कर रम्बा है उनका निषेध किया है। शक्षोपयोग के बाहरी साधन है उनमे अनुराग करते है। प्रपल मे यहाँ पर भी प्ररहतादि रूप जो अपना स्वरूप है परन्तु उस राग भाव को हेय समझ कर दूर करने की चेष्टा उसे ही उत्तम पोर मगलरूप बनाया जा रहा है परन्तु जब करते, तीव्र कषाय का प्रभाव होने से हिसादिरूप शुभो- तक ऐमे स्वरूप की पूर्ण रूप से प्राप्ति नही हो जाती तब पयोग परिणति का जहा अस्तित्व ही नही है इस प्रकार तक व्यवहार में जो एसे स्वरूप को प्रप्त हर है उन्हे की प्रतरग प्रवस्था होते बाहर समस्त परिग्रह राहत मंगल रूप और उत्तम बताया है। इस प्रकार से यहां दिगम्बर सौम्य मुद्रा के धारी है, वन मे रहते है। भठाई१ बाहर से हटा कर, पर से हटा कर अपने निज स्वरूप मे मल गुणो का पालन प्रखंडित करते है. बाईस परिषह का उत्तमपना धारण करने को कहा है। सहन करते है, बारह प्रकार तप को धारण करते है, कभी चत्तारि सरणं पन्वज्जामि-इन चार की शरण लेता ध्यानमुद्रा को धारते है कभी अध्ययनादि बाहरी धर्म है ये ही शरण रूप है, ये ही शरण लेने योग्य है. ऐसा क्रिया में प्रवर्तते है, कदाचित् शरीर की स्थिति के लिए स्वरूप ही प्राप्त करने योग्य है। यहाँ पर भी किसी अन्य योग्य पाहार विहार क्रिया में सावधान होते है। ऐसे साधु व्यक्ति विशेष की शरण लेने को नहीं कहा जा रहा है। हो नमस्कार करने योग्य है । परमार्थ से तो प्राप ही अपने लिये शरणभून है परन्तु जब इन पाचो से पूज्यता का कारण वीतराग विज्ञान भाव तक ऐसे स्वभाव मे पूर्ण रूप स्थिरता नहीं हो जाती है. क्योकि जीवत्व की अपेक्षा तो जीव समान है परन्तु तब तक बाहर मे प्रार किसी का पासरा खोजने की रागादि विकार से तथा ज्ञान की कमी से तो यह जीव दरकार पड़े तो ये ही चार शरणभूत है, अन्य दुनिया के निन्दा योग्य होता है और रागादि की हीनता से पोर पदार्थ, वस्तुएं, धन-वैभव, पुण्यादि का उदय, मान, ज्ञान की विशेषता से स्तुति योग्य होता है। प्ररहन और सम्मान, राजा, महाराजा कोई भी शरण भूत नही है। कोई सिद्ध तो पूर्ण रागादि से रहित हैं और वीतराग विज्ञान- पद शरणभूत नही है, सभी नाशवान हैं, पर कारण से होने मय है और प्राचार्य, उपाध्याय और साधु मे एक देश वाले है. पर रूप है। राग की हीनता और एक देश बीतराग विज्ञान भाव है -सन्मति बिहार, नई दिल्ली २ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्वदर्शन और जनदर्शन D डा. रमेशचन्द जैन, मध्वदर्शन विशुद्ध नवादी दर्शन है । जनदर्शन द्व. यदि हम पदार्थों के मध्य भेद को स्वीकार नहीं करते तो वादी होते हुए भी प्रत्येक जीवात्मा के स्वतन्त्र प्रदय तत्त्व हम विचारो मे परस्पर भेद की व्याख्या भी नही कर सकते। को स्वरूपतः मानता है । मध्व' ज्ञान के तीन साधनो को हमारा ज्ञान हमे बतलाता है कि भेद विद्यमान है। हम स्वीकार करते है-- प्रत्यक्ष, प्रनुमान और शब्द प्रमाण। उन्हे केवल मात्र प्रौपचारिक नही मान सकते, क्योंकि प्रोपजैन दर्शन में प्रमाण के केवल दो भेद किय गए है- चारिकता भेद उत्पन्न नही करतो । जैन दर्शन संसार को १. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष । परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत सर्वया अयथार्थ नही मानता है। पदार्थों के मध्य भेदाभेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तक, प्रागम और अनुमान प्रमाण माते है जिसके माधार पर एक वस्तु दूपरी से मिलती-जुलती है। मध्व दशन मे उपमान प्रमाण का अनुमान की हो है अथवा पृथक् अस्तित्व रखती है । इस प्रकार वस्तु का कोटि वा पाना गया है। जैन दर्शन में उपमान प्रमाण का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक है। अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान प्रमाण में किया गया है । मध्व के मध्व के मत मे पदार्थ दो प्रकार के होते है-स्वतन्त्र अनुमार प्रत्यक्ष और अनुमान स्वय विश्व की समस्या को और परतन्त्र । ईश्वर जो सर्वोपरि पुरुष है, वही एकमात्र हल करने में सहायक नही हो सकते । प्रत्यक्ष की पहुच स्वतन्त्र पदार्थ (यथार्थ सता) है। परतन्त्र प्राणी दो प्रकार उन्ही तथ्यों तक है जो इन्द्रियगोचर है। अनुमान हमे काइ के है --(१) भाववाचक (२) प्रभाववाचक । भाववाच । नवीन तथ्य नही दे सकता । यद्यपि अन्य साधनो द्वारा के दो वर्ग है-एक चेतन प्रात्माएं है पोर दपरे अचेतन प्राप्त हए तयो की परीक्षा करने तथा उन्हे क्रमबद्ध करने पदार्थ, जसे प्रकृति और काल । पचेतन पदार्थ या तो नि-य मे यह सहायता प्रवश्य करता है । जैन दशन के अनुसार है, जैसे कि वेद या नित्य पोर अनित्य जैस-प्रकृति, काल जानकारी के दो ही साधन है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। और देश अथवा अनित्य जैसे प्रकृतिजन्य पदार्थ । जनप्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है (१) साध्यबहारिक प्रत्यक्ष दर्शन प्रत्येक पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता को मानता है, किसी प्रौर (२) परमार्थिक प्रत्यक्ष । इन्द्रिय और मन के निमित्त को सर्वोपरि नही मानता है। उसके अनुसार ससार की मे जो जानकारी होती है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का सारी वस्तुयें भावाभावात्मक और नित्यानित्यात्मक है । विषय है तथा प्रतीन्द्रिय ज्ञान पारमायिक प्रत्यक्ष का विषय मच के अनुमार तीन वस्तुयें प्रनादिकाल से अनन्नहै। अनुमान द्वारा हमे परोक्ष रूप से तथ्यों की जानकारी काल तक रहने वाली है जो मोलिक रूप से एक दूसरे से होती है। मध्ध के मत मे यथार्थ सत्ता के मत्वज्ञान के भिन्न हे प्रर्थात् ईश्वर, प्रात्मा और जगत् । यद्यपि ये सब लिए वेदो का प्राश्रय पावश्यक है। जैन दशन दो को ययार्थ प्रौर नित्य है, फिर भी पिछले दो प्रर्थात् प्रात्मा प्रमाण नही मानता है, उसके अनुसार अपने प्रावरण के तथा जगत् ईश्वर से निम्न श्रेणी के तथा उसके ऊपर क्षयोपशम या क्षय से ही यथार्थ मत्ता की जानकारी होती प्राश्रित हैं । जैन दर्शन जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश है। मध्व के अनुसार ज्ञाता तथा ज्ञात के बिना कोई ज्ञान और काल इन छहो द्रव्यों को प्रनादि मनन्त स्वीकार उत्पन्न नही हो सकता । ज्ञान के कर्ता अथवा ज्ञात प्रमर करता है। नंश्चयिक दृष्टि से ये सभी स्वाश्रित है । इनमें पदार्थ के बिना ज्ञान के विषय मे कुछ कहना निरर्थक है। से कोई भी निम्न प्रथवा उच्च श्रेणी का नहीं है, सभी जैन दर्शन ज्ञान और ज्ञेय का पार्थका मानते हुए भी जीवन मध्व ब्रह्म में सब प्रकार की पूर्णता मानते हैं । ब्रह्म स्वीकार नहीं करता है। ___ तथा विष्णु को एक रूप माना गया है और कहा गया है मध्व के अनुमार यह ससार प्रयथार्थ वस्तु नही है। कि वह अपनी इच्छा से संसार का सचालन करता है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, १४,किरण २.३ अनेकान्त वह संसार को बार-बार रचता तथा उसका सहार करता मध्य तथा जैन दर्शन दोनो मे इस बात में समाना है। उसकी देह प्रति प्राकृतिक है और उसे सब संसार से है कि पात्मा स्वभाव से पालादमय है, यद्यपि यह अपने ऊपर माना गया है तथा वह संसार के अन्तनिहित भी है, पूर्व कर्म के अनुसार भौतिक शरीरों से सम्बद्ध होने के क्योंकि वह सब जीवात्मानो मे अन्तर्यामी है, वह अपने को कारण सुख व दुःख के अधीन है। जब तक यह अपनी नानाविधि भाकृतियों में प्रकट करता है, समय-समय पर मर्यादानों से विरहिन नही होती, यह नाना जन्मो मे अपनी अवतारों के रूप में प्रकट होता है और कहा जाता है कि प्राकृतियाँ बदलती हुई भ्रमण करती रहती हैं। सब पवित्र मतियों के अन्दर गुप्त रूप में उपस्थित रहता है। वस्तूपों के विषय मे यथार्थ ज्ञान अर्थात् भौतिक तथा वह सष्टि को रचता, उसको धारण करता तथा उसका TIERTER सात वर laimERI जज की विनाश करता है। वह ज्ञान का प्रदाता है, अपने को प्रोर ले जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सबसे पूर्व एक नाना प्रकार से व्यक्त करता है, कुछ को दण्ड देता तथा स्वस्थ तथा निर्दोष नैतिक जीवन का होना मावश्यक है। अन्य को मक्त करता है। जैन दर्शन मुक्तावस्था को ही बिना किसी इच्छा अथवा फल प्राप्ति के दावे के नैतिक ब्रह्मोपलब्धि मानता है । मुक्त होने के बाद कोई प्रभीप्सा नियमों का पालन करना तथा कर्तव्य कर्मों का निभाना न रह जाने के कारण संसार के संचालन का प्रश्न ही नहीं मावश्यक है । धार्मिक जीवन हमे सत्य की गहराई में पहुंउठता । सष्टि, स्थिति तथा सहार अथवा उत्पाद, धोव्य चाने में सहायक होता है। पौर व्ययपना प्रत्येक वस्तु मे पाया जाता है। जीव का मध्त्र के अनुसार वेदों के अध्ययन से हम सत्य ज्ञान स्वरूप प्ररूपी है। मुक्तावस्था मे स्वरूप प्रकट होने पर प्राप्त कर सकते है और उसकी प्राप्ति के लिए एक उपपवित्र मूर्तियों के अन्दर उपस्थित रहने का प्रश्न ही नहीं युक्त गुरु को आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति में ब्रह्म के उठना । राग-द्वेष से विहीन होने के कारण मुक्त पुरुष एक विशेष रूप का साक्षात्कार करने की क्षमता रहती है। अथवा कैवल्यप्राप्त पुरुष न तो किसी को दण्ड देता है, न केवल देवतामो तथा तीन उच्च वर्गों के मनुष्यों को ही किसी पर अनुग्रह करता है। प्रत्येक प्रात्मा अपने कर्मों वेदाध्ययन को माज्ञा दी गई है। ध्यान के द्वारा प्रात्मा का क्षय कर मुक्त हो सकता है । देवीय कृपा से अपने मन्तःकरण मे ईश्वर का साक्षात् ज्ञान मध्व ब्रह्म पोर जीव के मध्यगत भेद को यथार्थ प्राप्त कर सकती है । जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण और मानते हैं। उनका मत है कि यह समझना भूल है कि नयों के द्वारा पदार्थों की जानकारी होती है । ज्ञानावरण मोक्ष की अवस्था में जीव और ब्रह्म अभिन्न हो जाते है। कर्म के क्षयोपशम से एक देश ज्ञान तथा क्षय से पूर्णज्ञान पौर ससार में भिन्न है। जैन दशन सभी प्रात्मानो का प्रकट होता है। प्रत्येक प्रात्मा अपना पूर्ण विकास कर चाहे वे मुक्त हों या संसारी स्वतन्त्र, पृथक पृथक अस्तित्व परमात्मा बन सकता है। सम्यग्ज्ञान की प्रारापना का मानता है । मध्व के अनुसार मास्मा स्वतन्त्र कर्ता नही हैं. प्रधिकार सबको है। प्रशस्त ध्यान के द्वारा प्रास्मत्व की क्योंकि वह परिमित शक्ति वाला है और प्रभु उसका माग उपलब्धि होती है, देवीय कृपा का ध्यान के साथ योग दर्शन करता है। जीव को प्राकार मे मण बतलाया है नही है । जीव स्वयं प्रयत्न कर बन्धन से मुक्त होता है, मौर यह उस ब्रह्म से भिन्न है जो सर्वव्यापी है । जनदर्शन इसके लिए ईश्वर कृपा आवश्यक नही है। कोई देवीय के अनुसार प्रात्मा नैश्चयिक दृष्टि से अपने भावो का इच्छा मनुष्य को बन्धन में नहीं डालती, अपितु अपनी कर्ता है और व्यवहारिक दृष्टि से कर्मादि का कर्ता अनादिकालीन कर्म परम्परा से जीव बन्धन मे पड़ा हुआ है। मात्मा स्वरूपतः अपरिमित शक्ति वाली है । ससारी है। सम्यक श्रद्धा, ज्ञान पोर पाचरण ये तीनों मोक्ष के प्रात्मा कैवल्य प्राप्त अथवा मुक्त प्रात्मामों से प्रेरणा ग्रहण लिए मावश्यक हैं। करता है। जीव शरीर प्रमाण पाकार वाला है । मुक्ता. जैन मन्दिर के पास स्मानों से भिन्न किसी सर्वव्यापी ब्रह्म की सत्ता नहीं है। बिजनौर (उ० प्र०) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक और रत्नत्रय 0 श्री पचन्द्र शास्त्री मोक्ष मार्ग को इंगित करने के भाव में 'श्रावक' शब्द किंचित् झनक इस भौति है-प्रतः इसे समझ कर अपने का बहुत बड़ा महत्व है। जैन परम्परा में श्रावक प्रौर में सदा सावधान रहना चाहिए क्योंकि सम्यग्ज्ञान मौर मुनि इन दोनों शब्दों का उल्लेख प्राचीनकाल से मिलता सम्यक्चारित्र इसी सम्यग्दर्शन पर प्राधारित हैंहै। मनि अवस्था मे सर्व पाप और प्रारम्भ का पूर्णतः सम्यग्दर्शन त्याग होता है पौर श्रावक में प्रशतः । 'श्रावक' अवस्था 'शिष्यों के प्रति संबोधन करते हुए जिनवरों-- तीर्थमोक्षमार्ग को प्रथम प्रारंभिक सीढ़ी है: ससार मे डूबे कर परमदेवों तथा अन्य के वलियों ने धर्म को दर्शन मूल प्राणी को पार लगाने में श्रावक पद लकड़ी के दस्ते को कहा है अर्थात धर्म की प्रतिष्ठा प्रासादगापूरवत् भोर भौति सहारे का काम करता है तो मुनिपद नौका को वृक्ष-पातालगत जटावत् सम्यग्दर्शन के प्राधार पर है । ऐसे भांति सहारा देता है। धर्म को स्वकर्गों से सुनकर-अन्तरंग से मनन चिन्तवन संसार समुद्र में मग्न जिस जीव से नौका का दूर का करना व मानना चाहिए और दर्शन से हीन धर्म (धर्मी) फासला हो उसे तरूसे का सहारा लेकर नाव के पास तक की बन्दना (मान्यता) नही करनी चाहिए'। श्री श्रतपहुंचना चाहिए-इसी मे बुद्धिमानी है। सागर सूरि तो यहां तक कहते हैं कि दर्शनहीन अर्थात् तत्त्वार्थ सूत्र में मोक्षमार्ग के प्रसग में एक सूत्र माता मिथ्यादष्टि को (दान की दृष्टि से) दान भी नहीं देना है-'सम्यग्दर्शन-जान चारित्राणि मोक्षमार्गः।' इसका भाव चाहिए। क्योंकिहै सत्यत्रता, सत्य-ज्ञान और सत्य-चारित्र की पूर्णता (एकस्वपना) मोक्ष का मार्ग है । यही भाव प्रशत: 'श्रावक' विपरीत इसके- शास्त्रों में सम्यग्दर्शन की महिमा शब्द के वर्षों से सहज ही निकाला जा सकता है -'या' दिखलाई गई है और यहां तक भी कह दिया गया है कि से श्रद्धा, 'व' से विधेक मोर 'क' से किया। अर्थात् जो 'सम्यग्दर्शन संपन्नमपि मातंग देहजम्' अर्थात् शरीर से श्रद्धा-विवेक और क्रिया (चारित्र) वान् है वह श्रावक है, चाण्डाल भी हो पर यदि सम्यग्दर्शन संपन्न है तो वह देव बही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त है-ऐसा सम• तुल्य (उत्तम) है ! भाव यह है कि सम्यग्दर्शन प्रात्मगुण झना चाहिए। है उसका इस नश्वर शरीर-पुदगलपिण्ड से साक्षात्-परमार्थ ___ श्रद्धा-सम्यग्दर्शन का अपर नाम है । प्राचार्यों ने सम- रूप कोई सबंध नहीं है। यदि कोई जीव देहादिक जड़ झाने की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का दो भांति से वर्णन किया क्रिया प्रथवा देह के माश्रित रूप में सम्यग्दर्शन का महत्व है-निश्चय सम्यग्दर्शन पौर व्यवहार सम्यग्दर्शन । इन मानता है तो वह भ्रम में है। हमे तो ऐसा उपदेश मिला दोनों की पहिचान तो बड़ी कठिन है, पर व्यवहार मे जो है कि-प्रात्मा के अतिरिक्त प्राय पर पदार्थों में इष्टजीव शंका-माकांक्षा प्रादि दोषों से रहित हों-मौर देव- अनिष्ट की मान्यता रखना, बहिरंग की बढ़ोतरी में गवं शास्त्र-गुरु में श्रद्धा रखते हों, जिनके प्रष्टमूल गुण धारण अथवा न्यूनता में हीनता का भाव करना प्रात्मतत्त्व की हों और मद्य-मांस-मघु इन तीन मकारों का त्याग हो वे दृष्टि से हेय है । प्राचार्य ने शरीराश्रित पौर पनाश्रित जीव भी सम्यग्दष्टि की श्रेणी में पाते हैं । उक्त बातों से दोनों ही प्रकार की विभूतियों की बढ़वारी अथवा हीनता हमें व्यवहार सम्यग्दृष्टि का निर्धारण करना चाहिए। में समता भाव का ही उपदेश दिया है। उक्त विवेचन का सम्यग्दर्शन का जैसा विशद् वर्णन पाचार्योने किया है उसको सार हम तो यही समझे हैं कि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वर्ष ३४,कि..1 अनेकान्त 'न सम्यक्त्वसमें किचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । संसारी जीव अपनी प्रज्ञानतावश जिस इन्द्रिय जन्य श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं मान्यत्तनुभृताम् ॥ सुख को सुख समझ रहे है वह सुख नहीं अपितु दुख ही व्यवहार में हम जिन उत्तम क्षमा-मार्दव मार्जव शौच है। क्योंकि उसमें अनाकुलता पौर स्थायित्व नहीं । सुख सस्य, संयम, तप, त्याग प्राचिन्य मौर ब्रह्मचर्य को धर्म परमसुख वह है जिसके प्रादि मध्य अन्त्य तीनों सुखरूप का रूप मानते हैं उन धर्मों की जड़ में भी सम्यग्दर्शन बैठा हों। जिसमें दुख और प्राकुलता का लेश न हो। ऐसा हमा है। प्रतः मिथ्यादृष्टि के उत्तम क्षमादि होना सर्वथा परमसख सर्वकम क्षय लक्षण मोक्ष में है और वह मोक्ष प्रशक्य हैं । यदि कोई कुलिंगी उक्त धर्मों का पासरा लेता सम्पदर्शन रूपी सीढ़ी के बिना नहीं मिल सकता । प्रर्थात है और उनके पासरे मिथ्यात्व सहित अवस्था में धर्म सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की प्रथम सीढ़ी है । इसलिए मानता है तो वह धर्म एव उसके स्वरूप को नहीं जानता दर्शन से भ्रष्ट नही होना चाहिए। क्योंकिसम्यग्दष्टि का धर्म ऐसे किसी प्रपच से सम्बन्ध नही रखता 'नहि सम्यक्त्व समं किचित्रकाल्ये त्रिजगत्यपि । जिसमें संसार-वर्धक क्रिया-कलापों का ससर्ग भी होता हो। योऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभताम् ।' कहा तो यहां तक है कि अर्थात तीनों कालों और तीनों लोकों में शरीरबारियों 'भयाशास्नेहलोभाच्च कुवेवागम लिगिन। को सम्यक्त्व सदृश कोई कल्याणकारी और मिथ्यात्व के प्रणामं विनयं चंद न कुयुः शुटवृष्टयः॥ सदश कोई प्रकल्याणकारी नहीं है। प्रति सम्यग्दृष्टि जीव किन्हीं भी और कैसे भी सांसारिक सुख अर्थात् माध्यात्मिक दृष्टि में तुच्छ कारणों के उपस्थित होने पर कुदेव कुशास्त्र और कुगुरुषों सुख तो भन्य साधनों से भी प्राप्त हो सकते है । पर मोक्ष की मान्यता नहीं करता । मूलरूप मे धर्म भी वही है जहां सुख के लिए सम्यग्दर्शन होना अवश्यम्भावी है। प्राचार्यों शुद्ध प्रात्म-द्रव्य के अतिरिक्त पर पदार्थों में निजत्व की ने जहां पुण्य की महिमा का वर्णन किया है वहां सम्यकल्पना प्रथवा उन पर पदार्थों से ख्याति-पूजादि की चाह ग्दर्शन को ही प्रधानता दी है । यथामादि का पूर्ण प्रभाव होता है और किसी भी लोभ-माशा 'सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा। प्रथवा स्नेह के वश से पर-पदार्थों की प्रशसा नहीं की मोक्खस्स होह हे जइ विणियाण ण सो कुणई ।' जाती है। हाँ, पदार्थ स्वरूप भवगम की दृष्टि से उनके अर्थात् सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से ससार का कारण यापातथ्य स्वरूप पर विचार और वर्णन करने मे दोष नहीं होता । स्वाध्यायो देखेंगे कि उक्त गाथा मे पुण्य के नहीं। सार यह कि धर्म के अस्तित्व में सम्यग्दर्शन की पूर्व सम्यग्दर्शन का उल्लेख किया गया है। यदि मात्र पुण्य उपस्थिति परमावश्यक है । प्रात्म-पुरुषार्थी का प्रयत्न होना से ही मोक्ष मिलता होता तो प्राचार्य इस गाथा में सम्यचाहिये कि उसका एक भी क्षण सम्यग्दर्शन की माराधना ग्दर्शन जैसे महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग पुण्य के पूर्व में न के बिमान जाय । करते । और मण्यत्र मोक्ष विधि में पुण्य प्रकृति के नष्ट सम्यग्दर्शन-महिमा के प्रकरण में प्राचार्य कुन्दकुन्द करने का विधान: करने का विधान भी नहीं करते। यदि कदाचित् सम्यस्वामी कहते हैं ग्दर्शन-हीन पुण्य को ही मोक्ष का कारण मान लिया जाय सण भट्टा भट्टा, बंसण भट्टस्स पत्थि णिवाणं। तो ज्ञान ने कौन सा अपराध किया है जिसे प्रात्म-गुण सिझति चरियभट्टा, सण भट्टा ग सिझंति ॥३॥ होने पर भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव में मोक्ष का कारण न अर्थात् दर्शन से भ्रष्ट जीव भ्रष्ट हैं। उनके सर्वकर्म. माना जाय । विचित्र सी बात होगी कि एक पोर तो क्षयलक्षण मोक्ष नहीं है। चारित्रभ्रष्ट (व्यवहार-चारित्र. प्रास्मा से सर्वथा विपरीत और कर्म प्रकृति-रूप-पुण्य को भ्रष्ट) जीव तो कदाचित् ठिकाने पर मा मात्मोपलब्धि सम्यग्दर्शन की उपेक्षा कर मुक्ति का दाता मान लिया को प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव जाय और दूसरी भोर पास्मा के निज तत्व-ज्ञान गुण को मारमोपलब्धि नहीं पाते । माशय है कि सम्यग्दर्शन के प्रभाव में सभ्यपना भी न दिया जाय । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ate मोर रस्मत्रये इन बातों पर दृष्टिपात करने से ऐसा ही बोध होता है कि उक्त वर्णन में प्राचार्य का तात्पर्य उन जीवों को संबोधन का रहा है जो कदाचित् मात्र पुण्य को ही सब कुछ मान उसे मोक्ष का कारण तक मान बैठे हों । प्राचार्य ने दर्शाया है कि हे भव्य जीवो, केवल पुण्य को ही मोक्ष का कारण न मान सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रयत्न करो । अन्यथा पुण्य तो मिथ्यात्वी के भी होता है । प्राचार्य का भाव ऐसा है कि जब सम्यग्दर्शन होगा, तभी पुण्य शुभ रूप में उपस्थित होगा । यद्यपि पुण्य साक्षात् रूप से तब भी मोक्ष न पहुंचायेगा श्रपितु उस पुण्य को भी नष्ट करना ही होगा । यह तो सम्यग्दर्शन की महिमा होगी कि उससे प्रभावित पुप सामग्री उप जोत्र को निरन्तर उत्त की ओर ले चलेगी। प्रन्यया पुन साधारण तो मिथ्यादृष्टि के भी देखा जाता है । वध कर्म करने वाले बाघक को पुण्य योग मे पान सामग्री व जैसे प्रशुभ कार्य मे प्रयुक्त होती देखी हो जाती है । स्पष्ट यह है कि पुन शुभ है और पाप अशुभ है । शास्त्रों में प्रशुभ से निवृत्ति कर शुभ में प्रवृत्ति और शुभ से निवृत्ति कर शुद्र मे प्रवृत्ति का उपदेश है । अशुभ सर्वथा हेय है और शुभ कथचित् उपादेय है । कथचित इसलिए कि शुभ भाव सहित सम्यग्दृष्टि शुद्धि की घोर बढता है । अन्ततोगत्वा मोक्ष विधि में शुभ को सर्वथा छोड़ शुद्धी चारण करना पड़ता है। बहुत से जीव ऐसा विचार कर लेते है कि अशुभ की निवृत्ति से शुभ और शुभ की निवृत्ति से शुद्ध स्वाभाविक ही हो जाता है । इस प्रकार शुन-पुण्य से मोक्ष हो ही जाये। सो उनका ऐसा मानना भी भ्रम है। क्योंकि ऐसा नियम नहीं है । अतः जीव शुभ से निवृत्त हो अशुभ में भी जा सकता है, शुद्ध मे भी जा सकता है। ये सव जीवों के प्रपने परिणामों पर निर्भर करता है और परि णामों के सम्यक् व मिथ्या होने मे जीव के सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन] मुख्य कारण है। इसी बात को पंडित प्रवर टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक में विशेष स्पष्ट करते है, वे कहते हैं ३४ तेसे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग हो है । ऐसे ही कार्य कारणपना होय तो शुभोपयोग का कारण प्रशुभोपयोग ठहरे। प्रथवा द्रयलिंगी के शुभोपयोग तो उत्कृष्ट ही हैशुद्धोपयोग होता ही नही ।' 'कोई ऐसे माने कि शुभोपयोग है सो शुद्धोपयोग को कारण है । सो जैसे प्रशुभोपयोग छूटि शुभोपयोग हो है 'बहुरि जो शुभोपयोग ही को भला जानि ताका सघन किया करें तो शुद्धोपयोग कैसे होय । तातं मिथ्यादृष्टि का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग की कारण है नहीं । सम्यग्दृष्टि के शुभपयोग भये निकट शुद्धोपयोग की प्राप्ति होय, ऐसा मुख्यपना करि कहीं शुभोपयोग की शुद्धोपयोग का कारण भी कहिए है ।' इससे स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग प्रकरण में सर्वत्र सभ्य दर्शन की ही प्रधानता है। किसी कर्म प्रकृति की प्रधाजनता सर्वया ही नहीं अपितु कर्म प्रकृतियों के नष्ट करने का ही विधान है। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं कि पुत्र को सभी दृष्टियों से हेय मान पापरूप प्रवृत्ति को जाय । जब तक जीव की प्रवृत्ति शुद्ध दशा की ओर सर्वथा नहीं, तब तक पुण्यजनक क्रियायें करने का शास्त्रो मे समर्थन है । देव पूजा श्रादि पट्कर्म श्रावक और मुनि के व्रत सभी इसी के अंग है । जहाँ तक व्यवहार है ये सब रहेंगे । पर सर्वथा इनसे ही चिपके रहना और मात्मा की शुद्ध परिणति की सभाल न करना श्रात्म-कल्याण में प्राचार्य को इष्ट नही । निष्कर्ष ये निकला कि बिना सम्यग्दर्शन के शुभक्रियायें भी श्रात्म-साधन मे कार्यकारी नहीं । प्रत: सम्यग्दर्शन की सभाल रखनी चाहिए : सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव सदा ही भ्रष्ट हैं- यह पूर्वार्ध का भाव है । मूल गाथा में जो ऐसा कहा गया है कि 'सिज्झति चरिय भट्टा' इसका प्राशय इतना ही है कि जिन जीवों को सम्यग्दर्शन है और चारित्र नहीं है, उन्हें भविष्य में स्वभाव प्राप्ति की तीव्र लगन होने पर चारित्र सहज भी प्राप्त हो जाता है । शास्त्रों में वर्णन है कि बाह्य चारित्र के प्रभाव में भी 'प्राणं ताण कछु न जाणं' मोर 'तुषमाषं घोषन्तो' रटते हुए अंजन चोर प्रादि धनेकों जीव कदाचित् क्षणमात्र में पार हो गए । प्रर्थात् उन्हें प्रत्मबोध मोर लीनता प्राप्त करते देर न लगी। मोर दर्शनभ्रष्ट मरीचि जैसे जीव को सीझते सोझते भगवान भाविनाथ के काल (शेष पृ० ३६१र ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त की जीवन में उपयोगिता 0 सुश्री श्री पुखराज जैन मुक्ति ! मुक्ति !! मुक्ति !!! सर्वत्र यही चर्चा है। लालायित है, तो उसके लिए कम-सिद्धान्त की रहस्यमय लेकिन मुक्ति मिले कैसे ? जब तक जीव निज-पहचान- सम्यक जानकारी अनिवार्य है। अन्यथा कर्म का स्वरूप, श्रद्धान-रमणता रूप त्रिवेणी में डुबकी लगाकर ज्ञान-ध्यान- प्रास्रव (प्रागमन) के कारण, बन्ध (मात्मा केसाथ) की तप रूपी अग्नि में जीव के अनादिकालीन-कर्म-शत्रुओं का प्रक्रिया, कर्मों की स्थिति और मैं इनसे भिन्न एकमात्र नाश न करे। यदि जीव भवभ्रमण से थकान महसूस करता ज्ञानस्वभावी पात्मा हं- यह सब जाने बिना किस प्रकार है और सच्चे प्रथों मे शाश्वत निराकुल सुख के लिए स्वभाव सन्मुख होकर परम-इष्ट मक्ति का वरण करेगा। - प्रतः कम विज्ञानका यथार्थ ज्ञान प्रपेक्षित है। (पृष्ठ ३५ का शेषांश) साधक के प्रात्म-विकास में जिस कारण से बाधा से प्रारम्भ कर भगवान पाश्र्वनाथ के होने तक के करोड़ों उपस्थित होती है। उसे जनदर्शन में कर्म कहते है । जैनों करोड़ों वर्षों का लंबा काल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मे लग के अतिरिक्त कर्म सिद्धान्त को साख्य योग, नैयायिक, गया । यदि दर्शन शीघ्र भी हो जाय तो भी पाश्चर्य नही वंशेषिक, मीमांसक बौद्धादि मत भी मानते है। लेकिन पर इसका होना जरूरी है क्योंकि इसके बिना ज्ञान और अन्य दर्शनो से भिन्न जैन शासन मे कर्म-सिद्धान्त पर चारित्र दोनों ही सम्यक्ता को प्राप्त नहीं करते । अपेक्षाकृत अधिक गभीर, विशद, वैज्ञानिक चितना की गई इतना ध्यान रखें कि उक्त कथन 'दर्शन' की मुख्यता है। निष्पक्षता व दृढता-पूर्वक इसे जैनागम की मौलिक विधा को लिए हुए है। वैसे जैनधर्म चारित्र प्रधान धर्म है और कहा जा सकता है। कर्म सिद्धान्त के प्रभाव में जैनागम इसमें सभी रूपों में चारित्र की महिमा गाई गई है । साधा का अध्ययन पंगु है। रण जन के लिए मुनिपद तो बड़ी दूर की कल्पना की बात विश्व की विविधता का समाधान कर्म तत्वज्ञान है, इसके श्रावक पद का ही चारित्र इतना ऊँचा भोर द्वारा (अन्य दर्शनो से भिन्न) तर्कानुकुल पद्धति से जैन कठिन है कि जिसे देख स्वर्ग में देव तक भी ईष्या करते शासन में होता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक प्राणी है। वे चारित्र पालन में हेतुभूत मनुष्य भव की चाहना अपना भाग्य-विधाता स्वयं है । वह ईश्वर की किचित भी करते हैं क्योंकि मनुष्य भव के बिना चारित्र नही होता अपेक्षा नही करता न कम करने मे न भोगने में । स्मरणीय भोर चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। भाखिर, यथा है कि विचित्रतामों से पूर्ण विश्व एक स्वभाव वाले ईश्वर ज्यात चारित्र-चारित्र की उच्चतम अवस्था हो का नाम जोममा है। मूल बात ये कि यह यथाव्यात चारित्र भी सम्य कर्म केवल संस्कार मात्र नहीं वस्तुभूत पदार्थ है । जो प्रदर्शन के बल पर ही होता है- मल सम्यग्दर्शन होने पर रागी-देषी जीव की योग-क्रिया मन-वचन काय से कभी न कभी चारित्र होता ही है । अतः प्राचार्य ने दर्शन प्राकष्ट होकर जीव के पास पाता है और मिथ्यात्वको मल कहते हुए उपयुक्त गाथा में उसकी प्रशमा मोर विपरीत मान्यता प्रविरत. प्रमादबकषाय का निमित्त महानता को दर्शाया है। भाव ऐसा जानना चाहिए कि पाकर जीव से बध जाता है। हमें बाह्य चारित्र में रहकर दशन प्राप्त करने में 'उद्यम बंध अवस्था मे जीव व पुद्गल अपने-अपने गुणो से करना चाहिए, चारित्र से विमुख नही होना चाहिए। कुछ च्युत होकर एक नवीन प्रवस्था का निर्माण करते है। (क्रमशः) सामान्यपने से कम एक ही है, उसमे भेद नहीं लेकिन दम्य Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम सिद्धान्त को जीवन में उपयोगिता तथा भाव के भेद से इसके दो प्रकार हैं। जिन भावों के कर्म से संबद्ध कैसे और क्यों कर होता है? दोनों के द्वारा पुद्गल पिण्ड माकर्षित हो यह भावकर्म है तथा समाधान अपेक्षित हैं। मात्मा में विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गल द्रव्यकर्म है। जिस प्रकार तेल तिल का सोना-किट्रिमा का संबद्ध पुद्गल जनित द्रव्य कर्म की संख्या ८ है। ज्ञानावरण प्रनादि से देखा जाता है मामा भोर कम का संबद्ध भी कर्म-ज्ञान पर प्रावरण डालता है। जैसे देवता के मुख प्रनादि से है। सादि सबंध मानने पर अनेक कठिनाइयो पर ढका वस्त्र देवता के विशेष ज्ञान को नही होने देता। उपस्थित होती हैं । जैसे-पहले पात्मा कर्मबंधन से मुक्त दर्शनावरण-जो मात्मा के दर्शन गुण पर प्रावरण था; उस में मनात ज्ञानादि गुण पूर्ण विकसित अवस्था में थे। डाले । इसका स्वभाव दरबारी जैसा है जो राजा के दर्शन ऐसा परिशद्ध मारमा क्यों कर्म बंधन को स्वीकार कर से रोकता है। वेदनीय कर्म-शहद लपेटी छुरी के स्वयं अपनी चिता रचने का प्रयास करेगा ? सवंदा समान है, जिसको चखने पर क्रमशः साता रूप सुख व परिशुद्ध पास्मा प्रत्यम्त अपवित्र पूणित शरीर को धारण प्रसाता रूप दुख होता है। मोहनीय कर्म-मदिरा के करने का स्वप्न में भी विचार न करेगा। समान है। मोह रूपी मदिरा नशे के कारण मात्मा को चूंकि प्रात्मा और कम सबंध प्रनादि है अतः बंध मचेत कर देती है। पौर निज स्वरूप का भान नही होने पर्याय के प्रति एकस्व होने से प्रात्मा कथंचित मूर्तिक है। देती। प्रायु कर्म सांकल के स्वभाव का है जो मात्मा को और अपने ज्ञानादि लक्षणों का परित्याग न करने के कारण शरीर मे स्थित रखती है। प्रायु कर्म जीव को मनुष्यादि कथंचित प्रमूर्तिक है। जैसे रूपादि रहित प्रात्मा रूपी द्रव्यों पर्यायों मे रोके रखता है। नामकर्म रूपी चित्रकार और उनके गुणों को जानता है। वैसे ही प्ररूपी पारमा जीव को सुग्दर-प्रसुन्दर, दुबले मोटे शरीर को रचना रूपी कर्म पुद्गल से वाया जाता है। करता है। गोत्रकर्म ऊंचे-नीचे कुल मे पैदा करता कर्मफल-वैदिक दर्शन को मान्यतानुसार जीव को है -जैसे कुंभकार छोटे-बड़े घड़े बनाता है। करने मे स्वतत्र लेकिन फन भोगने मे परतंत्र है। लेकिन अन्तराय कर्म का स्वभाव भडारी सरीखा है। भंडारी जनदर्शन में जैसे दूध पीने से पुष्टि व मद्यपान से नशा स्वतः जैसे दानादि मे विघ्न डालता है। वैसे ही अन्तराय कम ही पाता है । उसके लिए किसी अन्यकर्ता की भावश्यकता का काम सदैव रंग में भंग डालने का है। उपरोक्त मे नही होती; इसी प्रकार भले बुरे फलदान की शक्ति स्वयं चार ज्ञानावरण, दशनावरण, मोहनीय, अन्त राय जीव के कम मे होती है। कहा हैअनुजीवी गुणों का बात करने के कारण घातिया कम 'स्वय किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। कहलाते हैं। शेष प्रायु नाम गोत्र वेदनीय प्रघातिया कम करे पाप फल देय अन्य, तो स्वय किये निष्फल होते है। है। तत्वार्थसूत्र नाम के ग्रन्थ में कर्मों के प्रानव यह मानना कि ईश्वर विश्व के समस्त चराचर (पागमन के कारण) बंध की प्रक्रिया, उत्कृष्ट जघन्य प्राणियों के समस्त कमो (कार्यो) का लेखा-जोखा रख स्थिति प्रादि का व्यापक विवेचन है। कर्मबन्ध के चार उन्हें दण्ड व पुरस्कार देता है। उस सच्चिदानन्द को भेद बतलाये । प्रकृतिबंध-कर्म परमाण प्रो मे स्वभाव संकट के सिंधु मे डालने सदृश होगा। फिर भगवाम तो का पड़ना। प्रवेशबंध-कर्म परमाणपो मे सख्या का वीतराग-बीतद्वेष होते है वे क्यो कर क्रमशः पुरस्कार पोर नियत होना, स्थितिबंष-कर्म परमाणमों मे काल की दण्ड प्रदाता होगे। मर्यादा का पड़ना कि ये प्रमुक समय तक कर देंगे। इनमें कहा भी हैफल देने की शक्ति का पड़ना अनुभागबंध है। प्रकृति कर्ता जगत का मानता, जो कम या भगवान को। और प्रदेश पम्प का निर्धारक योग है। और स्थिति व बह भूलता है लोक मे, पस्तित्व गुण के ज्ञान को।" प्रमुभाग बंध कषाय से होते हैं। वस्तुतः संसार मे सभी प्राणी अपने कर्मों से बंधे।। प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रतिक मारमा पुद्गल द्रव्य उनकी वृद्धि कर्मानुसारही होती है। शुभ कर्मोपाजित Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, ३४, किरण २-३ बुद्धि सम्मार्ग प्रदर्शाती है। इसके विपरीत प्रशुभ कर्मोदय भूधरदास जी द्वारा रचित भजन की उपरोक्त बंद में प्राणी कुमार्ग मे भटकता है। पंक्तियो से कर्म माहात्म्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विचारणीय है कि किसी कर्म का फल इस जन्म में तत्वार्य सूत्र में कमों की उत्कृष्ट स्थिति का विवेचन सहज मिल जाता है और किसी का जन्मान्तर में । इस प्रकार ही भयाक्रान्त करने वाला है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, कर्मफल भोग में विषमता देखी जाती है। ईश्वरवादियों वेदनीय, मन्तराय कर्म की उस्कृष्ट स्थिति तीस-कोड़ा-कोड़ी की भोर से इसका ईश्वरेच्छा के अतिरिक्त मोर कोई सागर (अपरिमित-काल) और अकेले मोहनीय कर्म को संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता। लेकिन कर्म में ही स्थिति सतर कोड़ा-कोड़ी सागर की है। घातिया को फलदान की शक्ति मानने वाला जैन सिद्धान्त इसका को उत्कृष्ट स्थिति जीव को दीर्घकाल तक भव-भ्रमण तनिकल पद्धति से उत्तर देता है। युक्ति, अनुभव, मागम कराने में सबल निमित्त है। पोर भी उल्लेखनीय है कि से भी यही सिद्ध होता है कि कर्मफल दाता ईश्वर नहीं, कर्म उदय में पाने पर फल अवश्य देते हैं। सती सीता कर्म है। चन्दनबाला, अंजना भोर मैनासुन्दरी को कर्मों ने क्या जब जीव को कम फल का रहस्य ख्याल में पाता है। खेल नहीं खिलाये । कि प्रत्येक व्यक्ति को सकृत कर्मानुसार ही अनुकूलता- भगवान पार्श्वनाथ पर कमठ के जीव का उपसर्ग तो प्रतिकलता सफलता-असफलता मिलती है; तो वह व्यर्थ सर्वप्रसिद्ध है तीन कर्मोदय में प्रायः सुबुद्धि भी चलायमान ही खेद-खिन्न न हो सतोष प्राप्ति को धारण करता है। हो जाती है । 'जनशतक' मे भूधरदास जी असाताकोदय उसके लिए अन्य प्रगतिशील साथी से ईष्या करने का भी माने पर घयं धारण की शिक्षा देते हैंकोई प्रयोजन नही रह जाता क्योंकि उसे उसके अपने 'प्रायौ है अचानक भयानक प्रसाता कर्म। कमानुसार प्राप्त होता है। कैसा कर्म करें, जिससे श्रेष्ठ तः के दूर करिबे को बली कौन मह रे ।। फल मिले" भव्य जीव निरन्तर यही चितवन और श्रेष्ठ जे जे मन भाये, ते कमाये पूर्व पाप माप । प्राचरण करने का प्रयास करता है। कर्म-सिद्धान्त का तेई पब माये, निज उदकाल लहरे ॥ सम्यक् ज्ञान वह प्रौषधि है, जिसका हर रूप में पान एरे मेरे वीर काहै होत है अधीर याम । करने से फन की माकाक्षा नही रहती। गोंकि उसका काहु को न सीर, तू अकेलो प्राप सह रे ॥ पक्का विश्वास है कि मेरे शुभ कर्मों की शुभप्राप्ति मे भये दीलगीर' कछु पोर न विनसि जाय । इन्दनरेन्द्र (संसारी तो क्या जिनेन्द्र (मुक्त) मो फेरफार ताही ते सयाने तू तमासगीर' रह रे ।। करने में समर्थ नही। शुभाशुभ कर्मफर में ज्ञानी समभाव निबंता-कर्म कोई कर प्राततायो नही जो प्रत्यक्ष र विचारता है कि इसमे वर्तमान को अपेक्षा में सन्मख होकर जीव को दुःख देते हों वे तो प्राणी के अम्मान्तर से संचित कर्मों का भी हाथ है। साथ रहने वाले संस्कार प्रयास व मादते हैं जो उसने कर्म बलवान/निबंल-जैन दर्शन की मनेकान्तमय मानसिक पत्तियों वचनालापों व कायिक विकृतियों द्वारा दष्टि कचित् कम को बलवान स्वीकार करती है। अपने में प्रकित कर रखे हैं। ये संस्कार व्यक्ति की इच्छा कर्म महारिपु जोर एक ना कान करे जी। के विरुद्ध नहीं चलते। वरन ये तो स्वयं व्यक्ति के पालेमन माने दुःख देय काहूं सों नाही रे जी॥ पोषे सहायक सायी हैं। जिन्हें वह सदा अपने सीने से कबहुं इतर-निगोद कबहुं नरक दिखावे । लगाये रहता है। इस जन्म में भी और जन्मान्तर में भी। सुर-नर पशु गति मांहि बहु-विध नाच नचावे ॥ यद्यपि कथन में ऐसा माना है कि ज्ञानावरणाविक कर्म मैं तो एक पनाथ ये मिल दुष्ट घनेरे । दुःख के कारण है तथापि द्रव्याधिक नय से कहा जाय तो कियो बहुत-बेहाल सुनियो साहिब मेरे ।' जब यह जीव स्वयं विकार भाव रूप परिणमन करता है १. निराश। २. ज्ञाता-वृष्टा-(मास्मा का स्वभाव जानना देखमा।) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिधातकीपीपनपयोगिता मोर तब निमित रूप में कम उपस्थित रहते हैं। इसीलिए मनुभाग का बढ़ना' व 'घटना' क्रमशः उत्कर्षण । कर्म के मत्थे दुःख का कारण मढ़ दिया जाता है । वस्तुतः अपकर्षण कहलाता है। कर्मबंध के बाद ये दोनों कियाएँ जीव अपनी ही भूल (मोहरागद्वेष) से दु:खी है। जीव को चलती हैं। प्रशुभ कर्मबंध के बाद ये दोनों क्रियाएँ चलती अपनी अनन्त वीर्य शक्ति का ख्याल नही, अन्यथा रत्नत्रय हैं। पशुभ कर्मबष के बाद यदि भावों में कलुषता बढ़ती खड्ग संभाले तो कर्म शत्रुनों का नाश होने में विलम्ब है तो उत्कर्षण होता है और उत्तरोत्तर भावों की शुद्धता नहीं। विश्व रंगमंच पर यह जीव प्राय: सभी रसों के होने पर अपकर्षण होता है । महाराजाणिक को सातवें खेल दिखाता है। यदि भूले-भटके भी यथाजातलिंग हो, नरक की उत्कृष्ट प्रायु ततीस सागर की बंधी थी लेकिन जिनेन्द्र मद्रा को धारण करे और शान्तरस का अभिनय क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रभाव से प्रथम नरक की प्रायू मात्र करे तो कर्म अनन्त निधि का अर्पण करते हए पास्मा के चौरासी हजार वर्ष की रही। सत्ता-कर्म बंधने के तुरन्त पास से विदा हो जायें। बाद अपना फल नहीं देते उसी प्रकार जैसे बीज डालने के तर्क की दृष्टि से भी कम महा निबंल सिद्ध होते हैं। तुरन्त बाद पौधा नही उगता। उबय--कर्म के फल देने जड़ कर्म चेतना-शक्ति सम्पन्न प्रात्मा को सुख-दुख प्रदान को उदय कहते हैं। कर्म के फल देकर नष्ट होने को करने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं। फिर जैन धर्म फलोदय मोर बिना फल दिये नष्ट होने को प्रदेशोदय तो प्रत्येक द्रव्य का ही नही कण-कण को स्वतन्त्रता का कहते है। उदीरणा-अपकर्षण द्वारा कम की स्थिति को उद्घोषक है । वस्तुतः जीव स्वय पुद्गल पुंज को कम- कम किये जाने के कारण कभी-कभी नियत समय से पूर्व योग्य परिणमन के लिए प्रामत्रित करता है। कर्म का विपाक हो जाता है जैसे भाम को पास में दबा कहा भी है-कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई। कर नियत समय से पूर्व पका लिया जाता है। संक्रमण अग्नि सहै धनधात लोह की सगति पायो॥ एक कर्म का दूसरे सजातीय पर्म रूप हो जाना। यह निम्न पक्तियों में कर्म की निर्बलता स्पष्ट झलकती संक्रमण मूल भेदों में नहीं प्रवान्तर भेदों में होता है। संक्रमण का एक सुन्दर उदाहरण सती मैना सुन्दरी के 'जिस समय हो मात्म-दृष्टि कम थर-थर कांपते हैं। जीवन का एक प्रसंग है। सिद्धचक्र विधान करने के दौरान भाव की एकाग्रता लखि छोड़ खुद ही भागते हैं । मैना सुन्दरी के विशुद्ध परिणाम भोर मतिशय पुण्य का पास्मा से है पृथक तन-धन सोय रे मन कर रहा था। बंधना सभव हुमा । परिणाम स्वरूप प्रशुभ कर्म का शुभ लखि प्रवस्था कर्म-जड़ की बोल उनसे डर रहा क्या।' कम में संक्रमण हुमा। उसी समय उसके पति श्रीपाल के यह सत्य है तभी तो जीव और वमं का श.श्वत अशुभ कर्मों की स्थिति समाप्त हुई, मोर को दूर हमा। वियोग मोक्ष सुख कहा। उपशम-कर्म को उदय में पा सकने के अयोग्य करना जैन दर्शन का रहस्यमय कर्म सिद्धान्त गढ़ व भति निषत्ति-कर्म का उदय पौर संक्रमण न होना। निकायनावैज्ञानिक है। इसका जितना गहन अध्ययन किया जाय उसमें उदय संक्रमण अपकर्षण और उत्कर्षणकाम होना। इसकी वैज्ञानिकता उजागर होती है। कर्मों का स्वरूप, इससे सिद्ध होता है कि जीव के भावों में निर्मलता मानव के कारण, बंध की प्रक्रिया कर्म-फल, संवर (कर्म प्रयवा मलिनता को तरतमता के अनुसार कर्मों के बंध भागमन रुकना) मौर निर्जरा (कर्मों का एक देश झड़ना) मादि में होनाविकता हो जाती है। कर्मों को असमय में मादि सभी चरण क्रमबद्ध व प्रति वैज्ञानिकता लिये है। उदय में लाकर, भात्मबल को जागृत कर, कर्मों की राशि भावश्यकता है इसके रहस्य को प्रात्मसात करने की। इसी जो सागरों (अपरिमित काल) काल पर्यन्त अपना फल क्रम में कर्मों की दस प्रवस्थाएं उल्लेखनीय हैं। इन्हें जैन देतो, नष्ट किया जा सकता है। ऐसी व्यवस्था न हो तो शासन में कारण कहते हैं। बंध-कर्म-पुदगल का जीव के मनन्तकाल से समाव पर माच्छादित कम राशि को कैसे साथ सबद्ध होने को बंध कहते हैं। कौ की स्थिति अलग किया जाता। इसे कर्म सिद्धान्त की महती देन ही Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .., ४,कि० २.१ अनेकान्त कहना चाहिये कि भव्य जीव योग्य पुरुषार्थ द्वारा प्रशुभ कर्म को ही प्रास्मा मानने वाले जीव इस तथ्य से प्रमभिज्ञ को शुभ में संक्रमण कर सकता है। अनन्त कर्मों के पुंज हैं कि कौ का नाश कर बोरागता जीव को ही प्रकट कोतव पुरुषार्थ द्वारा (उपशम) उदय के प्रयोग्य बनाया करना है। कर्म को ही प्रात्मा कहने वालों का यह तक जा सकता है। है कि जैसे लकड़ी के पाठ टुकड़ों से भिग्न कोई पलंग नहीं कर्म सिमान्त द्वारा प्राणी मात्र की स्वतन्त्रताको उसी प्रकार कर्म सयोग से भिन्न कोई मात्मा नहीं। यद्यपि बोषणा-जैन धर्मानुसार प्रत्येक प्राणी स्वय प्रपना भाग्य. पाठ टुकड़ों से बना निःसन्देह पलंग ही है तथापि पलग विधाता है।उस्कृष्ट शुभकर्मोपार्जन कर एक जीव नारायण पर सोने वाला पुरुष द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा प्रतिनारायण चक्रवर्ती और यहां तक कि सोलहकारण पलंग से नितान्त भिन्न हैं। इसी प्रकार प्रष्ट कमौके भावनामों के चितवन के फलस्वरूप लोकोत्तर सर्वोत्तम सयोग से भिन्न कर्मावरण में रहने बाला चैतन्य महाप्रभु समवशरणादि वैभव का स्वामी बनता है। प्रत्येक प्राणी पलंग से पुरुषवत् भिन्न है। अकेला कर्मोपार्जन करता है और अकेला ही भोगता है। इस प्रकार भेद-विज्ञान कर उस चैतन्य प्रभ की कविवर पं० दौलतराम जी ने छहढ़ाला में एकत्व भावना क्रमशः पहचान, श्रद्धान, रमणता से प्रष्टकर्म संयोग भी में कहा है छुट जाता है। जब तक कमों से भिन्न ज्ञायक मात्मा की 'शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एक ही ते ते । प्रतीति न होगी, तब तक उसे स्वभाव पर दृष्टि के बल सुत-बारा' होय न सीरी', सब स्वारथ के हैं भीरी।।' से भिन्न करने का उपक्रम भी कैसे किया जायेगा। कर्म सिदान्त द्वारा भव विज्ञान-त्रा, पुन, संपदा, कर्म सिद्धान्त का ज्ञान परंपरा से मोक्ष का कारणमहल व मकानादि तो प्रत्यक्ष ही भिन्न है। मौदारिक जिस प्रकार क्रमवद्धपर्याय का निर्णय करे तो दृष्टि पर्याय शरीर को भी मृत्यु के समय भिन्न होते प्रत्यक्ष देखा जाता के क्रम पर न रह कर पर्याय के पुंज को भेदती हुई है। तैजस पर कार्माण शरीर जिनका प्रात्मा के साथ ज्ञायक-स्वभाव पर केन्द्रित हो जाती है। इसी प्रकार संबद्ध अनादि काल से है (अनादि सबंधे च') उनकी कर्म-सिद्धान्त की सम्यक जानकारी जब ख्याल मे माती भिन्नता का ज्ञान कम सिद्धान्त द्वारा होता है। कर्म चूंकि है तो दृष्टि कर्म माहात्म्य को गौण कर प्रखण्ड ज्ञानपुंज पौगलिक जड़ है पत: स्वाभाविक रूप से वह प्रमूर्तिक सुखकंद प्रास्मा में जम जाती है। मोर स्वभाव-सम्मुख ज्ञानादि गुणों के धारी जीव से नितान्त भिन्न है। चाहे दृष्टि रूपी हंस अन्तर्मुहुर्त मात्र में कर्म और प्रात्मा की चक्रवर्ती का राज्य मिले या तीर्थकर का समवशरणादि नीरक्षीरवत् भिन्न कर देता है । मब जीव पूर्ण विकसित प्रत्यन्त प्राश्चर्यकारी वैभव यह सब कर्म कृत है। अन्तरग लक्ष्मी (अनन्त चतुष्टय) का स्वामी मोर तीन चिदानन्द स्वरूप तो पर से नितान्त भिन्न है। इस प्रकार लोक का नाथ बन जाता है। का विवेक जागृत होने से भेद-विज्ञान होता है। कर्म-विज्ञान को ख्याल मे लेते हुए भव्य जीव पूर्वकृत कर्मानुसार ही नर-नारकादि भव मिलते हैं इसलिए प्रज्ञानी जीव कम को ही मात्मा मानने को भूल विचार करता है । मह ! हो !! मेरे तपाये हुए सोने के कर बैठता है । इस तथ्य से विस्मृत होकर, कि जीव की समान शुद्ध स्वरूप में मनादि से यह किटकालिमा रूप ज्ञानावरणादि प्रष्ट कर्म भोर शीरादि नो-कर्म चिपके भूल के कारण ही पुद्गलपुंज कर्म रूप परिणमन हुमा है । पड़े हैं । अतः वह स्वभाव-सन्मुख हो ज्ञान-ध्यान तप रूपी वे कर्मों पर सुख-दुख कर्ता होने का मिथ्या पारोप लगाते भग्नि का माश्रय लेकर कर्म कालिमा को दूर करने के हैं। स्मरणीय है कि जीव की सत्ता में कम सत्ता का लिए कमर कस लेता है। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त मूल प्रवेश ही नहीं हो सकता तो वे जीव को सुखी दुःखी कसे की भूल से परिचित करा शाश्वत सुख-शांति का मार्गकर सकते हैं ? अर्थात नहीं कर सकते। पौर यदि करने निर्देशन करता है। में समर्थ हों तो अनन्त स्वतन्त्रता के पारी मात्म तत्व को २ (घ) २७ जवाहरनगर, पराधीन कहा जायेगा जो तीन काल मे भी संभव नहीं। जयपुर १. स्त्री २. भागीदार Page #79 --------------------------------------------------------------------------  Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर के वर्तमान पदाधिकारी तथा कार्यकारिणी समिति के सदस्य १. साह श्री अशोककुमार जैन अध्यक्ष २. थो ला० श्यामलाल जैन ठेकेदार उपाध्यक्ष ३. न्यायमूर्ति श्री मांगेलाल जैन । ४. श्री सुभाष जैन महासचिव ५. श्री बाबूलाल जैन सचिव ६. रत्नत्रयधारी जैन श्री नन्हेंमल जैन कोषाध्यक्ष ८. श्री इन्दरसेन जैन सदस्य ६. श्री प्रेमचन्द जैन १०. श्री शीलचन्द्र जौहरी ११. श्री अजितप्रसाद जैन ठेकेदार १२. श्री गोकुलप्रसाद जैन १२. श्री ओमप्रकाश जैन एडवोकेट १४. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन १५. श्री देवकुमार जैन १६. श्री दिग्दर्शन चरण जैन १७. श्री हरीचन्द जैन १८. श्री प्रकाशचन्द जैन १६. श्री शैलेन्द्र जैनी २०. श्री मल्लिनाथ जैन २१. श्रीमती जयवन्ती देवी जैन ६, सरदार पटेल मार्ग, नई दिल्ली ४-६, टोडरमल रोड, " ३०, तुगलक कोसेण्ट, नई दिल्ली १६ दरियागंज " २/१० दरियागंज. " ५, अल्का जनपथ लेन " ७/३५, दरियागंज " ४, अंसारी रोड दरियागंज न. दिल्ली ७/३२, दरियागंज नई दिल्ली ११ दरियागंज " ५-ए/२८ दरियागंज " ३ रामनगर पहाड़गंज" ४७४१/२३ दरियागंज " बी-४५/४७ कनाट प्लेस" एम-७४ ग्रेटर कैलाश ।" ४६६२/२१, दरियाखंज" २/२६ ४ अंसारी रोड दरियागंज नई दिल्ली ११, दरियागंज नई दिल्ली घटा मस्जिद रोड, दरियागंज, नई दिल्ली Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन स्तुतिविद्या: स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद घौर श्री जुगलकिशोर मुक्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत, सुन्दर, जिल्द- सहित । ... बुक्स्यनुशासन : तस्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की प्रसाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द | समीचीन धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगल किशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द 1 प्रशस्ति संग्रह, भाग १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ धप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द 1 नन्दास्त संग्रह भाग २: अपभ्रंश के १२२ प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सह वपन प्रथकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । समातिन्त्र और इष्टोपदेश मध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित आवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ श्री राजकृष्ण जैन : K. N. 10391/62 *** ... 1 ... २-५० १५.०० ५-५० ३.०० ७-०० here after : मा० प्रभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० । १०-०० न] साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४ सजिल्द | कसायात मूल ग्रन्थ की रचना ग्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणबराचार्य ने की, जिस पर भी यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे | सम्पादक हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री | उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द : जैन नियम्य रत्नावली श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया surance (ध्यानस्तव सहित ) : संपादक प० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री भावक धर्म संहिता श्री दरयावसिंह सोधिया जंग लक्षणावली (तीन भागों में) : स० प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री २-५ ४-५० समयसार - कलश टीका: कविवर राजमल्ल जी कृत बूढारी भाषा टीका का आधुनिक सरल भाषा रूपान्तर : सम्पादनकर्ता श्री महेन्द्रसेन नी ग्रन्थ में प्रत्येक कलश के अर्थ का विशदरूप में खुलासा किया गया है। श्राध्यात्मिक रमिको को परमोपयोगी है । ६-०० २५-०० ७-०० १२-०० ५-८० प्रत्येक भाग ४०-०० Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में धनुबाद। बड़े आकार के ३०० पु. पक्की जिल्द Jaia Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500 ) ( Under print ) (प्रेस मे ) १५-०० 5-00 [सम्पादन] परामर्श मण्डल डा० ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द जैन, सम्पादक श्री पद्मचन्द्र शास्त्री प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर के लिए कुमार ब्रादसं प्रिंटिंग प्रेस के १२, नवीन शाहदरा दिल्ली - ३२ से मुद्रित । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३४: कि०४ अक्टूबर-दिसम्बर १९८१ त्रैमासिक शोध-पत्रिका अनेकाना UN ANDARAM सहस्रकूट जिनचैत्यालय (११वी शती ईस्वी) कारोतलाई प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक में 3 . विषय १. अध्यात्म-पद-कवि० दौलतराम जी २. जैन परंपरानुमोदित तपः विज्ञान-डा. ज्योतिप्रसादन ३. हिन्दी साहित्य का भादिकाल, एक मूल्यांकन-डा. देवेनाकुमार जैन ४. जय-स्थाद्वाद-श्री कल्याणकुमार 'शशि' ५. जैन हिन्दी पूजा काव्य मे चौपाई छन्द-डा०मादित्य प्रचंडिया ६. सम्यक्त्व कौमुदी सम्बन्धी अन्य रचनाएं--श्री भगरचन्द नाहटा ७. अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति भावश्यक-डा० दरबारीलाल कोठिया ८. भ्रम-निवारण-डा० रमेशचन्द्र जैन ९. जरा सोचिए-सम्पादक १०. तीन-श्री बाब लाल (कलकत्ता वाले) ११. श्रावक के दैनिक प्राचार- श्रीमती सुषा जैन १२. शंका शल्य-श्री रत्नत्रयघारी जैन १३. जीवन्धर चम्पू में भाकिञ्चम्य-कु. राका जैन एम० ए० 000 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज. नई दिल्ली-२ प्रकाशक--वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जैन, ८ जनपथ लेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मंदिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं रत्नत्रयधारी जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। रत्नत्रयधारी जैन प्रकाशक पानीवन सदस्यता शुल्क : १०१.००० वार्षिक मूल्य : ६) इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे विधान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं। यह मावश्यक नहीं कि सम्पावन मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् प्रह UII/ +MAN IPLEARTHAT - 5.7 T UITMIR परमागप्रस्य बीज निषिद्धजात्यन्यसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निवणि संवत् २५०७, वि० सं० २०३८ अक्टूबर-दिसम्बर १९८१ अध्यात्म-पद वित जितके चिदेश कय, अशेष पर बमूं। दुवापार विधि-दुचार-को चy दम्॥ चित०॥ जि पुण्य-पाप थाप प्राप, आप में रम। कब राग-प्राग शर्म-बाग-नापनो शमं ॥ चित०॥ हग-ज्ञान-भान ते मिश्या प्रज्ञानतम दनं। कब सर्व जोव प्रारिराभूत, सत्व सौं छ । चित०॥ जल-मल्ललिप्त-का सुफज, सुबल्ल परिन। दलके त्रिशल्लमल्ल कब, अटल्लपद बत०॥ कब ध्याय अज-प्रमर को फिर न भव विपिन भमूं। जिन पूर कौल 'दौल' को यह हेतु हौ नमूं ॥ चित०॥ -कविवर दौलतराम कृत, भावार्थ-हे जिन वह कौन-सा क्षण होगा जब मैं संपूर्ण विभावों का वमन करूँगा । और दुखदायी अष्टकर्मो को सेना का दमन करूंगा। पुन्य-पाप को छोड़ कर आत्म में लीन होऊँगा ओर कब सुखरूपी बाग को जला वाली राग-रूपी अग्नि का शमन करूगा । सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूपी सूर्य से मिध्यात्व और अज्ञानरूपी अंधरे का दमन करूँगा और समस्त जीवों से क्षमा-भाव धारण करूँगा । मलीनता से युक्त जड़ शरीर को शुक्ल ध्यान के बल से कब छोडूंगा ओर कब मिथ्या-माया-निदान शल्यों को छोड़ मोक्ष पद पाऊंगा। मैं मोक्ष को पाकर कब भव-बन में नहीं घूमूंगा ? हे जिन, मेरो यह प्रतिज्ञा पूरी हो इसलिए मैं नमन करता हूँ। 00 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परानुमोदित तपः विज्ञान डा० ज्योतिप्रसाद जैन तपतीति तपः', 'तप्यतेतितपः', 'तापयतीति तप:', इच्छाएँ अनगिनत है, उनकी कोई सीमा नहीं है। मौर इत्यादि रूपों में पुरातन जैनाचार्यों ने तप का शब्दार्थ एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती कि उसके स्थान में चार किया, पर्यात तापना या तपाना प्रक्रिया जहाँ होती है, नवीन इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती है। उनका कोई अन्त वह तप है। सामान्यतया ताप का कारण अग्नि होती है नही है। परिणामस्वरूप प्रोसत व्यक्ति इच्छाम्रो का वास पौर उसके दो परिणाम होते है, भस्म हो जाना अथवा होकर रह गया है। इच्छाप्रो की पूर्ति के प्रयत्नो मे ही भस्म कर डालना, शुद्ध कर देना । लोक में तृण काष्ठ उसका संपूर्ण जीवन बीरा जाता है। वह स्वय बीत जाता कड़ा प्रादि त्याज्य, तिरस्कृत, व्यथं या अनुपयोगी वस्तुनों है, परन्तु उसको समस्त इच्छ एँ कभी भी पूर्ण नही होती को पग्नि में भस्म कर दिया जाता है अथवा किसी धातु अनगिनत इच्छाएं प्रतात एवं प्रपूर्ण ही रह जाती है । को विशेषकर, स्वर्णाषाण को प्रग्नि में तपा कर उसके इसके अतिरिक्त. उक्त इच्छानों की ति के प्रयत्नो के किट्रिमादि मल को दूर किया जाता है उसका शोधन प्रसग से वह व्यक्ति अनेक प्रकार की प्राकुलतानो, कष्टों, किया जाता है और फलस्वरूप प्रस्ततः शुद्ध सोटची स्वर्ण चिन्तामों, राग-द्वेष, मद-मत्सर, ईष्र्या-जलन, वर-विशेब, प्राप्त होता है । इन लौकिक प्राधारों पर जैनाचार मे तप दुराचार, कदाचार, भ्रष्टाचार, पापाचार व आराधी का विधान हुआ है - प्रवृत्तियों में बुरी तरह उलझा रहता है। उसे स्वय को विशुद्धयति हताशेन पदोषमपि काञ्चनम् । तो मुख-शक्ति का दर्शन होता ही नही, जो भी अन्य यदत्तव जोकोऽयं तप्यमानस्तपोऽग्निना ।। व्यक्ति, परिवार के, पड़ोस के, समाज, नगर राष्ट्र या इसीलिए जहाँ तपतीति तपः' कहा, वहां स्पष्ट करने कही के भी, उसकी इच्छापूति के प्रयत्नों में बाधक होते के लिए साथ मे उसका प्रयोजन भी बता दिया- या होते लगते है, उन सबको भी वह अशान्न, दुःखी, क्रुद्ध 'विशोषनार्थ' अथवा 'कर्मतापपतीति तपः, 'कम निर्दहना- या क्षब्ध कर देता है। शोषण, अपराधो, द्वन्द्रो और सपः यचाग्निसंचित तृणादि दहति', उसी प्रकार 'देहेन्द्रिय सहारक युद्धो की जननी इच्छा ही है--विरोधी इच्छाम्रो तापाताकमक्षपार्थ तप्यतेतितपः' या 'कर्मक्षयार्थ तप्यन्ते के टकराव मे यह सब होता है। शरीरेन्द्रियाणि तपः', अथवा 'तवरेणामतावयति अनेक इस शाश्वतिक अनुभति से प्रभावित होकर श्रमण भवोपात्तमष्ट प्रकार कर्मेति', 'भव कोडिए संचित कम्म तीथकरों पोर उनके अनुयायो निर्ग्रन्थाचार्यों ने 'इच्छा. तवसा णिज्जदिज्जई', इत्यादि! निरोधस्तप:' सूत्र द्वारा इच्छानिरोष को ही तप बताया। प्रतएव परिभाषा की गई 'इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं जब इच्छापों का ही, भले ही शनैः शनै: उन्मूलन हो गया तपः' अर्थात् प्रात्मोद्बोधनार्थ अपने मन भोर इन्द्रिय के तो उनके कारण होने वाले रागद्वेषादि विकारों का, प्रतः नियमन के लिए किया गया अनुष्ठान हो तप है। समस्त पाप प्रवृत्तियो का उपशमन होता ही चला जायेगा। इस नियमन में सबसे बड़ी बाधा इच्छा है- नाना- फलतः साधक प्रात्मोन्नयन के पथ पर अग्रसर होता हुमा विष इन्द्रिय-विषयों को भोगने की, प्रतः उन्हें प्राप्त करने अपने शुद्ध स्वरूप को, अक्षय सुख-शान्ति की स्थिति अपने की, बटाने की संग्रह करने माविकी इच्छा है। मानवी परम प्राप्तव्य को प्राप्त कर लेगा। इसी से बाध्यात्मा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन परम्परानुमानित विमान दृष्टा कुन्दकुन्दाचार्य ने 'समस्त गगादि परभावेच्छा त्यागेन कारण होते हैं। ये द्रव्यकर्म जब उदय में भाते हैं तो स्वरूपे प्रतपन विजयनं तपः' कहा है। वस्तुतः समस्त अपना-अपना फल दिखाते हैं। उनके बहाव में प्रारमा रागद्वेषादि विपावों की इच्छा का त्याग कर के निज स्वरूप दुःखी, क्लेषित, माकूल, व्याकूल और रागी द्वेषी होता है, या शुद्ध प्रत्मस्वरूप स्वभाव मे देदीप्यमान होना ही क्रोष-मान-माया-लोभ-कम प्रादि नाना कषाय भावों में सच्चा तप या सच्चे तप का प्रतिफल है। दूसरे शब्दों मे, ग्रस्त होता है, तथा परिणामस्वरूप नवीन वर्मबाघ करता विषय-व पायों का निग्रह करके स्वाध्याय व ान मे रहता हैनिरत होते हुए प्रात्म चिनन करने या उसमें लीन होने कषायदहनोद्दीप्तं विषये व्याकुलीकृतम् । का नाम ही तप है । ऐना नप देह एवं इन्द्रियों को तपाता सञ्चिनोतिमनः कम जन्मसम्बन्ध सूचकम् ।। हुमा कर्म को स्वत: नष्ट कर देता है, प्रात्मा की कर्म- कषाय रूपी अग्नि से प्रज्ज्वलित और विषयो से बन्ध से मका कर के परमात्मा बना देता है। एक पाश्चात्य व्याकूल मन समार के बन्धनभत कर्मों का संचय करता विचारक को दिन है कि छविहीन मनुष्य ही ईश्वर रहता है। कम से कम बंध का यह सिलसिला बराबर है -पौर इच्छ। वान ईसर मनुष्य है।' एक शायर के चलता रहता है। जब तक वह समाप्त नहीं होना मात्मा शब्दों में की मुक्ति नहीं होती, वह अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं सपा प्रारजमो ने बन्दा कर दिया मझको। होती। परन्तु - वगरना हम खुदा थे गर दिले बेमुदा होता ।। निर्वेद पदवी प्राप्य तपस्यति यथा यथा । वास्तव में, प्रत्मशोनार्थ बुद्धिपूर्वक किया गया यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा ।। सम्यक तप ही मक्ष पुरुषार्थ है, और उसकी प्रथम शर्त है संयमी प्रात्मा संपार-देह-भोगों से विरक्त होकर निः स्पृहता । इच्छाम्रो का सर्वथा प्रभाव ही परमात्मा है। जैसे-जैसे तपश्व ण में प्रवृत्त होता जाता है वह उक्त दुर्जन 'कषायमक्ति किल मदिरेव'वषाय मक्ति ही सच्ची मक्ति कर्मों का क्षय करता जाता है। है ! विषय लाला व्यक्ति के चित्त मे धाकुर केसे प्रस्तु प्राणी का परम प्राप्तव्य या प्रभीष्ट लक्ष्य सच्चे पनपेगा? सम-नियम-तप से भावित प्रात्मा के हो शाश्वत निराकुल प्रक्षय सुख की स्थिति मोक्ष या सिद्धत्व सामायिक संभव है। तपः साधना द्वारा विषय-कषायों का है। उसे प्राप्त करने के लिए नवीन कमो के माने और दमन ही मच्वी नमस्कृति भी है - बंधने के मिलमिले को रोकना प्रावश्यक है, और इस नहगो प्रजद हो शेरेनर मारा तो क्या मारा। विविध फलप्राप्ति का साधन इच्छानिरोष रूप तपानुष्ठान बढे मूजी को मारा नफसे प्रम्मारा को गर मारा। है। जिन शासन मे तप का फल सवर अर्थात् करिव इसी से साधक अनुभव करता है कि - का निरोध और निर्जरा अर्थात् पूर्व में बंधे हुए कर्मों का वरं मे अप्पा दतो सजमेण तवेण य । क्षय बताया है। यहाँ संक्षेपत: वह तपविज्ञान है जो माह परे हि दम्मतो बघणेहि वहेहिं ।। भौतिकज्ञान, शरीरशस्त्र, मनोविज्ञान एवं प्राध्यात्मिक दूसरों के द्वारा मेरा बघ-बन्धनादि रूपों मे दमन किया विज्ञान से तथा युक्कि, तर्क पोर अनुमान से भी साधित जाये इससे कही अच्छा है कि मैं अपनी प्रात्मा का संयम एव सिद्ध है । एव तप द्वारा दमन कर दूं। यह तपानुष्ठान दो प्रकार का है, बाह्य भौर पभ्यन्तर, उक्त राग द्वेषादि कषाय या विकार भाव ही जैन दर्शन जिनमें से प्रत्येक छः छः भेद हैंमे भावरम कहलाते हैं और वे ही प्रात्मा के ज्ञातावरण- द्वादशं द्विविधं चंब बाह्यान्तर भेदतः । दर्शनावरण प्रादि प्रष्टविध द्रव्य ..मो के बंधन मे जकडे तपं स्वशक्ति प्रमाणेन क्रियते धर्मवेविभिः ।। जाने तथा फलस्वरूप जन्म-मरण रूप मंमार में निरन्तर प्रशन, ऊनोदर (या पवमोदयं), वृतिपरिसंख्यान, संसरण करने एवं प्रकल्पनीय दुःखों का पात्र बने रहने के रसपरित्याग, विवित यासम पौर कायक्लेश नामक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपों में परम्परया या प्रतिपादित बाह्य तप का लक्ष्य मन नी साधना का अनिवार्य अंगहै। बह जन सस्कृति का तथा इन्द्रियों का ऐसा अनुशासन, नियमन एवं नियन्त्रण एक व्यवस्थित विधान है। जनेतर मनीषियो ने भी यह करना है कि जिससे वे साधक की साधना मे बाधक नही, तय मान्य किया है और यह भी कि अतिम तीर्थकर वरन् साधक हों। भगवान महावीर के हाथो ही इस तप मार्ग का पूर्ण एव दूसरे शब्दों में, हम अपनी देह एवं इन्द्रियों के दासन चरम विकास हुपा, वह अपनी पूर्णता एवं प्रोढ़ता को प्राप्त बने रह कर उन्हें ही अपने दास बना लें, उन्हे अपने अधीन हुप्रा। दूसरी शती ई० के जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामि के एवं वश में ऐसा कर लें कि उनकी मार से सवा निश्चित हो जाये। यहां भी शक्तिस्तपीत लगा कर प्राचार्यों प्रात्यबित्तोत्तर लोकतृष्णया, ने यह स्पष्ट कर दिया कि तप के लक्ष्य को ध्यान में रख तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । कर उतना भोर वैसा ही तप किया जाय जितना अपनी भवान् पुनर्जन्म-जराजिहासिया, शारीरिक स्थिति, शक्ति एवं परिवेश अनुमति दें-हठयोग त्रयी प्रवृत्ति समधीरनारुणत् ।। कृच्छ नप या तपातिरेक न करे। बाह्य तपों के विविध हे महावीर भगवान ! कोई संतान के लिए, कोई अनुष्ठानों द्वारा शरीर पोर इन्द्रिपों को पूर्ण या स्पाबीन धन घम्पत्ति के लिए कोई स्वर्गादि सुखों अथवा अन्य किसी बना लेने पर ही अभ्यन्तर या अन्तरंग तप की पाघना की लौकिक तृष्णा की पूर्ति के उद्देश्य से, तप करते है किन्तु जाती है पापली जन्म-जरा की वाधा का परित्याग करने के लक्ष्य न च बातपोदीनमान्तर तपो भवेत् । से इष्टानिष्ट मे मध्यस्थ रह कर अथवा समत्व भाव धारण तंदूलस्प विक्लित्तिनहि बन्ह्यादिकविना ।। करके अपनी मन-वचन-काय रूप त्रयी की प्रवृत्तियो निशेव प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग एवं ध्यान षविध माभ्यन्तर त है। इनमें से प्रथम पांच क्रमशः साधक के चित्त को अहंकार सन्ध, विनयी, निरालस, अस्तु प्रात्मोन्नयन के अभिलापी प्रत्येक व्यक्ति के सेवाभावी, ज्ञानाराषक और स्वारीर के प्रति निर्मोही लिए सम्यक् तप दाभ्यास एव साधना अत्यावश्यक है बना देते हैं जिससे कि उसकी स्वशक्ति इतना विकसित हो एहि लोकिक मुख-शान्ति के लिए भी और पारलौकिक जाती है कि वह प्रात्मध्यान में स्थिर रह सके। वस्तुतः नियम की प्राप्ति के लिए भी। जो मोक्षयार्ग के पथिक 'एकाग्रश्चितानिरोधों ध्यानम् -- स्वरूप वाला वार्यध्यान ही महत्यागी साधु है वे तो निरन्तर तपानुष्ठान मे ही सलग्न शुभ से शुभतर, शुभतम होता इमा शुद्ध प्रात्मध्यान रूप रहते है, उमरे एव निष्ट साधक होते है। ऐसे तपस्वी ही प्रति हैमें हो जाय, वही वा- विकता है। ग्रात्मा की प्रात्मा द्वारा पात्मतल्लीनता पात्मरमण ही वा परम समाधि विपाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । रूप निर्विकल्प ध्यान-ता ही क्मक्षय तथा सात्मशोधन में ज्ञान ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। समर्थ एवं सक्षम है, मुक्ति एव पिद्धि का दाता है। शेष तरः प्रधान सयम का स धक क्षपाही तपस्थी है, समस्त बाह्य एवं पाभ्यन्तर तप तो उसकी सिद्धि मे साधु है--मात्र देसा वेष धारण कर लेने से कोई तपस्वी सहायक एवं साधक शरीर अथवा मन-वचन-काय के या साधु नही हो जाता। ऐसे तपोधन मुनिराज ही स्वपर नियमन की प्रक्रियाएं हैं। पल्याण के सम्पादक होते हैं। उस समत्वसाधक तपस्वियों जैन शास्त्रों में तपनुष्ठान, तपाचार, तपाराधना, से किसी का भी अहिल नही होता, वर-विरोध का तो तपोविधा, तपविनय, इत्यादि अनेक प्रकार से व्याख्या प्रश्न ही क्या। करके तप का महत्व स्थापित किया गया है। वास्तव में किन्तु सामान्य गृहस्थ स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध भी निर्मन्य श्रमण तीर्थंकरों को संस्कृति ही तपः क्ट है। तप स्वक्ति अनुसार प्रांशिक रूप में तप का प्रत्यावधिक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परानुमोदित तपः विज्ञान उपसाधको की बहुलता होगी वह समाज भी सुखशान्ति का अनुभव करेगा, सबत होगा, उसमें घोषण अभ्यास करने से लाभान्वित होते ही है। अनशन ऊनोदर प्रादि बाह्य तपों के प्रयास से शरीर को स्वस्थ, निरालस कष्टसहिष्णु सहज ही बनाया जा सकता है मोर प्रायश्वित, विनय, स्वाध्याय प्रादिभ्यन्तरसपो के पास से अपने मन एवं बुद्धि को निमंत बनाया जा सकता है। अहंकार का प्रभाव, विनय, परमतरता धनुकम्पा, सेवाभाव और निःस्वार्थ दृष्टि की प्राप्ति होती है, न् परीक्षण तथा चित्तवृत्तियों को एकाग्र करने की क्षमता बढती है। गृहस्थों के मार्गदर्शन के लिए रचित 'द्वतीय नीतिकाव्य तिरुक्कुरल की गूहि है कि अपनी पीडा सह लेना और अन्य जीवों को पीड़ा न पहुंचाना, यही तपस्या का स्वरूप है।' अन्यत्र भी कहा गया है कि 'दुख को पी जाना ये तपस्या है।' 'दिन मे दूगर गए उसी साधना के लिए योग्य होते है जब एक श्रेष्ठ हों या घोर अपरा वृद्धि को स्थान नहीं रहेगा। जिस राष्ट्र के नागरिक, प्रशासक तथा राजनेता ऐसे उपानुष्ठान मे प्रास्था रखेंगे धोर उसे अपने अपने आचरण में लाने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे उस राष्ट्र में भान्तरिक सुखशान्ति एव उन्नति तो होगी ही, इतर राष्ट्रो के साथ भी उसके संबंध सहयोग एवं सहमस्तित्व साधक तथा मधुर होंगे। इस संबंध में यह भी ज्ञातव्य है कि सम्यक् तप की साधना दही संभव है जहाँ व्यक्ति एवं समाज कुछ विकसित होते है। निदान्त सभ्य वर प्रज्ञ व्यक्ति प्रथवा व्यक्ति समुदाय तो तपश्चरण के महत्व से अनभिज्ञ और पर शिकन न हो मोर 'न्ति तस्ि - दूसरे के प्रयो महन करने के बराबर कोई नप नहीं है। महा गाधी की भीति है कि धर्म का पहला और बानि कदम है। वास्तव तप की महिमा महान है। तप द्वारा ही मनुष्य अपने प्रभीष्ट पद को प्राप्त करता है और पाप या अपूर्णता को दूर करके अपने चरित्र को उज्ज्वल तथा पवित्र बनाता है। धीर पुरुष नप द्वारा ही बार में उस्मृति के विराजमान होता है। किन्तु व्यक्ति विशेष के जीवन में तप भाव की प्रतिष्ठा हो जाती है तो उसका प्राध्यात्मिक विकास वेग से होने लगता है। निरा गमाज में ऐसे व्यक्ति पर्याप्त संख्या में होते हैं, उसमें जो यह सावना नही करते वे भी उसने प्रभावित रहते ही है और परिणाम स्वरूप उस समाज का विकास उत्तरोत्तर होता ही चला जाता है । प्रतः तत्सबंधित राष्ट्र का भी समुचित विकास होता है। मानव सस्कृति की उत्कृष्टता कामूः। चार तप साधना ही है । पर 2 अब जो व्यक्ति तप के इस निचोड़ को जानतासमभता प्रोर मारता है वह अपने व्यक्तित्व का तो भौतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास करेगा ही, जिनम व्यक्तियों के सम्पर्क में वह प्रायेगा उनके उन्नयन मे भी सहायक होगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह केला नहीं रहता । अतएव जिस परिवार में ऐसी तप साधना चलती है उम्र परिवार के सदस्य सुशाधि प्रनुभव करेंगे ये पता ही नहीं, दूसरों का ध्यान, उनको सुधाकर जिस समाज में ऐ " इस प्रकार तपानुष्ठान न केवल एक धार्मिक, साम्प्रदायिक व प्राध्यात्मिक मूल्य ही है, न केवल वैयकि पारमोन्नयन के लिए परमावश्यक साधन है, वरन् पारिपारिक, गामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय हित-सुख सपादन में भी उनका अपरिमित महत्व है। अपने दुःखटोंको समभाव से पी जाना घोर भ्रम्य किसी को पीड़ा न पहुंचाना, न भरसक पहुंचने देना, यह तप पूत मनोवृति एवं तत प्रेरित तप्रवृत्ति समस्त प्राणियों के हिये-सुख की सफल मध्यादिका है । पीति निकुञ्ज, चारवाण, लखनऊ 00 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल एक मूल्यांकन डा. देवेन्द्रकुमार जैन हिन्दी साहित्य के मादिकाल की अवधि (१०वीं से अपभ्रंश साहित्य को साम्प्रदायिक कह कर उसका उपयोग १४ी तक) निर्विवाद है, परन्तु उसके नाम भाषा मोर नहीं किया। चेतना को लेकर भारी विसंवाद है। काल के प्राधार पर इसके दो नाम है-प्रारंभिक काल, भादिकाल । प्रवृत्ति परम्तु जिस समय (१९२९) में शुक्ल जी ने हिन्दी के माधार पर चार नाम है-वीरगाथा, चारण, साहित्य का इतिहास लिखा उस समय कई बातें प्रस्पष्ट रासो, सिमसामंतकाल । लेकिन इन मेसे एक भी नाम- थी। उस समय विवाद का रूप से बड़ा मुद्द। यह था कि पालोच्यकाल के साहित्य को समन चेतना का प्रतिनिधित्व अपभ्रंश बोलचाल की भाषा है या कृत्रिम । महत्त्वपूर्ण नहीं करता! पोर जब, प्रारम्भिक युग की प्रवृत्तियों का, अपभ्रश साहित्यिक कृतियां मूल रूप में प्रकाशित अवश्य बिन पर हिन्दी साहित्य के इतिहास का भवन खड़ा है, हो चुकी थीं, परन्तु हिन्दी अनुवाद के प्रभाव में ठेठ निर्धारण न हो, तो बाकी इतिहास कथा विश्वसनीय नहीं हिन्दी-विद्वानों का उनमें प्रवेश करना निपट असभव रह जाती। था। अपभ्रंश और हिन्दी के भाषिक रिश्तों की पहचान पभी होना बाकी थी। इसलिए शुक्ल जी सारी अपेक्षाएं प्रवत्तियों के निर्धारित न होने के कई कारण हैं। यदि पूरी नहीं कर सके तो यह उक्त सीमानों के कारण । एक.-पालोग्यकाल के साहित्य की भाषा और हिन्दी के लेकिन डा० द्विवेदी के समय (१९५०.६५) सारी सम्बन्ध का निर्णय भी तक नहीं हो सका । दो-उपलब्ध स्थितियां स्पष्टतर थीं। कुहासा छट चुका था। उन्हें वह साहित्य का अभी तक मूल्यांकन नहीं किया जा सका। लोकदष्टि प्राप्त थी जो पशिक्षित जनता की चित्तवृत्तियों तीन-पालोच्य साहित्य-हिन्दी प्रदेश के किनारों पर का प्रतिबिम्ब बखूबी झांक सकती थी। उनके समय तक लिखा गया। चार-मध्य देश में जो साहित्य लिखा हिंदी अनुवाद सहित, महत्वपूर्ण अपभ्रंश कृतियां प्रकाश गया वह प्रक्षिप्त और प्रमाणिक है। पांच-यह अभी में प्रा चुकी थी, फिर भी उन्होंने पालोच्य युग के मूलभूत भी विचारणीय है कि साहित्य के इतिहास लेखन का सही साहित्य को नहीं छपा। उसका प्रध्ययन-विश्लेषण के वृष्टिकोण क्या हो? यह कह कर टाल गये कि उक्त साहित्य हिन्दीभाषी प्रदेश के किनारों पर लिखा गया है। उक्त प्रश्नों का समाधान खोजे बिना, हिंदी साहित्य का ऐसा इतिहास, लिखा जाना सम्भव है कि जो विवादों मादिकाल में वह अपभ्रंश के मुक्तक काव्य की पर्चा से परे हो। स्व. ह.प्र. द्विवेदी ने प्राचार्य शुक्ल तो करते हैं जो सिद्ध हेम व्याकरण, प्रबंध-चितामणि पादि को इस बात का श्रेय दिया है कि उन्होंने कविवत्त संग्रह में बिखरामा है, लेकिन स्वयंभू पुष्पदंत धनपाल जैसे की पिटारी से निकालकर, हिंदी साहित्य के इतिहास को शीर्षस्थ रससिद्ध अपभ्रंश कवियों के एक शब्द को भी जीवंत प्रवाह से जोड़ा। फिर भी उनकी शुक्ल जी से दो उन्होंने नहीं छपा । पुस्तक में साहित्येतर तथ्यों का शिकायतें है। एक तो यह कि उनकी दृष्टि शिक्षित जनता विस्तार से उल्लेख है, इस बात की भी विशद चर्चा है कि की चित्तवृत्तियों तक सीमित है। दूसरे, उन्होंने बहुत से हिन्दी प्रदेश में अपभ्रंश साहित्य क्यों नहीं लिखा गया, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी साहित्यका यदि लिखा भी गया हो, तो सुरक्षित क्यों नहीं रह सका । यह एक मजीब विरोधाभास है कि जो साहित्य उपलब्ध है उसका विचार नहीं करते हुए जो उपलब्ध नहीं है, उसकी भोर उसके न होने के कारणों की गुहार मबाई जाए ? प्राविकाल एक मूल्यांकन विशेष दिखाने की चेष्टा की है। एक तो यह कि इम युग में, एक तरफ, पलंकृत शैली को चरम सीमा पर पहुंचाने वाले श्री हर्ष जैसे सह कुल कवि थे, और दूसरी तरफ, अपभ्रंश शहाकार थे जिनमे मर्म की बात थोड़े में मोर सरल ढंग से कहने की क्षमता थी। दूसरा प्रतविरोध यह था कि एक ओर दर्शन के दिग्गज प्राचार्य हुए, तो दूसरी ओर, निरक्षर संतों के ज्ञान प्रचार के बीज इसी काल मे बोए गए। मेरी समझ मे इन दोनों बातों में कोई विरोध नही है। एक कान में एक ही भाषा में दोनों प्रवृत्तियां रह सकती हैं, उनमे न तो परस्पर विशेष है पोरन प्राधारगत । कहां संस्कृत जैसी परिनिष्ठित काव्यभाषा और कहां प्रपश भाषा ? श्रीहर्ष की तुलना अपभ्रंश दोहाकारी से करने में कोई भौचित्य नहीं है ? अधिकतर हिन्दी विद्वानों को अपभ्रश साहित्य में पंठ है, अपभ्रंश दोहों तक सीमित है। जहां तक मलकृत शैली का सवाल है प्रपभ्रंश कवि पुष्पदंत भोर स्वयंभू श्रीहर्ष की टक्कर के कवि है। सरस्वती का स्मरण करते हुए पुष्पदंन ने कहा है स. लंकारो छंदेण जंति, बहु सत्य प्रत्थ गारव वहति । मुह-वासिणी सद्दजोणी, णीसेस हेउ सा सोह-खोणी ॥ प्रालोच्यकाल के उत्तर काल में मध्यदेश पर चौहान मोर गाड़वार वंशों का प्राधिपत्य था। गाड़वार उतर-पश्चिम से प्राए थे । वैदिक धर्म के अनुयायी होने के कारण उन्होंने प्रपभ्रंश तथा देश्य भाषाओं को प्रश्रय नहीं दिया। दूसरे इस क्षेत्र में उस वजनशील ब्राह्मणव्यवस्था का बोलबाला रहा, जो संस्कृत को सब कुछ मानती थी । यह तो हुई उत्तरकाल की बात लेकिन पूर्वकाल में ( १० से १२वीं तक ) महीपाल के समय कन्नौज में सभी भाषाओं के कवियों को स्थान प्राप्त था। मध्यदेश के कवि को सर्वभाषा कवि बनना पड़ता था ! राजशेखर के अनुसार हक्क (पंजाब) से लेकर मादानक ( वर्तमान ग्वालियर) तक अपभ्रंश ही काव्य की भाषा थी । उस समय जब दक्षिण के राष्ट्रकूटों, बंगाल के पालों, सांभर के चौहानों, मालव के परमारो और गुजरात के सोलकियो के प्रश्रय ने पभ्रंश कविता लिखी जा रही थी। तब हिन्दी प्रदेश, जो भारत का हृदय देश है, उससे अछूता नहीं रहा होगा । उसकी घड़कनें संस्कृत के बलावा अपभ्रंश में भी मुखरित हुई होगी, लोक की भाषायें मौर भावनाएं मानसूनी हवाओं की तरह ऊपर-ऊपर नहीं उड़ती वे हृदय देश से उठ कर घासपात फैली होंगी, प्रौर प्रास-पास की भाषाम्रों और भावनाओ ने उसका स्पर्श किया होगा । भ्रतः जो नहीं है, उस पर लम्बा-चौड़ा अफ़सोस करने के बजाय, उचित यह था या है कि जो है उसकी गहराई से पड़ताल की जाए ? घटकलबाजी इसी से समाप्त होगी। तथ्य यह है कि प्रालीच्यकाल की साहित्यिक प्रवृत्तियां, वहीं हैं जो दूसरे काल की हैं। यह युग वदतोव्याघात का युग नही है। वदतोव्याघात का अर्थ है - प्रपने कथन का खंडन स्वयं करना । मुझे पूरे युग के साहित्य में ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे उक्त कथन का समर्थन होता हो । यही बात प्रतविरोध के बारे में कही जा सकती है। डा० द्विवेदी ने दो चीजों में मेरी वाणी प्रहंकारों से सजधज कर छंदों में चलती है, अनेक शास्त्रों के प्रयं गौरव को धारण करती है, ब्रह्मा के मुख में निवास करते हुए भी, शब्द जन्मा है। वह श्रेयस् और सौंदर्य की खान है ।" इस प्रकार पुष्पदंत की कविता उस समुद्र की तरह है जिसमें प्रारम सौंदर्य और भौतिक सौंदर्य की अनुभूतियों की जलराशि मरी हुई है, जिसमें एक ओर, वीर रस की उद्दाम गर्जनाएँ हैं, तो दूसरी भोर शृगार की कलगीतियां भी । जिसमें शांत और भक्ति रस की धाराम्रों का संगम है। जहाँ तक दिग्गज मचायो मोर निरक्षर संतों के सह प्रस्तिस्व का प्रश्न है, इसमें भी कोई विशेष नहीं । वास्तव में निरक्षर सन्तों ने इस काल में ज्ञान प्रचार के बीज अचानक नहीं बोए। सभी निरक्षर न तो अज्ञानी होते हैं, पीर न सभी साक्षर, ज्ञानी । प्राध्यात्मिक अनुभव पोर लोक की Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत बर्ष ३४,कि.४ पहनान निरक्षरों को भी हो सकती है। इस काल में भाषा की छोटी-सी रचना यदि मिलमो है तो उसे लोक भाषा में जान प्रचार करने वाले सभी लोग सामर चिनगारी की तरह सहेज कर रखना चाहिए क्योंकि उसमें हीसहीं:पंडित थे, जन अध्यात्म के दोहाकार, मिड और बहन बडे पालोक की सभावना है, उसमें गुण के पूर्ण हठयोमी पंडित थे। यह पश्य है कि उन्होंने लोकमाषा मे मनुष्य को प्रमागिन करने की क्षमता है। अजीब बात है अपनी बात कही। संस्कृत के विरुद्ध लोकप्रचलन वाणी कि जो माहिन्य सूर्यविनकी नराय लोकित है, उसमें मे अपनी बात कहने की परंपरा बुद्ध महावीर के ममय से न पानोक है और न पूर्ण मनु को प्रकाशित करने को बनी पा रही थी। इतिहास एक जीवंत प्रवाह है, हर क्षमता, जो नही है, उसमे सारी मंधावाएं निहित है। प्रवाह का पूर्व स्रोत होता है प्रतः पालोच्यकाल बीज अपन का काल नहीं था, बल्कि बीज के वृक्ष बनने की यह सोचना राही नही है कि ६.१०वा सदी से देशी प्रकिया का काल था। इतना ही नही, परवी हिन्दी भाषामों मे नत्मम शब्दों के बाधिक प्रवेश के कारण काव्य में जिन लियों का विकास हुमा उसके पूर्वका उनका स्वरूप बदल गया। भापा का स्वरूप शब्दो के स्वयंभ और पुष्पदत की रचनायो में पूरी प्रामाणिकता प्रदेश से नहीं रमनागत परिवर्तनों के कारण बनता है। मौजद है। यदि अपभ्रंश कवियो की पडिया-शनी, दोहा जब कोई नई भापा साहित्यिक और भापक अभिक्ति अंबरडाछन्द शेती प्रा मे न माती तो लोग यही की माध्यम बनती है तो उसमे तत्पम परदो का प्रवेश समझने तुलसो की दोहा, चौपाई शैली, कबीर को होगा ही। हिन्दी प्रदेश के एक पर नदादायी गई साखियां और सूर की पद शेनी - ईपनी कविता शंती का है, दूसरे पर विद्यापि, नौनी छोर पर स्वयम और प्रभाव है पुष्पदन, इनके समानर ( छबाद को)ी रचनाएं मालोच्य काल को साहित्यगत प्रवृत्तियों के मूल्याकन भी मिलती है. उनके माता पर कमा सकता है कि में सबसे बड़ा बाषक तत्व है हमारा मधुरा शान । साहित्य जिसे हम वीरगाथा वा प्राधिकालात है, व्ह वस्तुतः के एक अंग (रासो या देश्य भाषा लिखित)को छ कर मा अपग्रंग काल है, जिसमें परवर्ती माहित्य को गिल्पगत तो हम उसे पूरा हामी मान खेते है, या फिः, यह कहते है मोर चेतनागत प्रवृतियो का एवं दया जा सकता है। इस कि हाथी समय की बाग में बह गया है, उसका एकग काल की भाषा को ताह माहिपको समग्र मूलाकन को महत्वपूर्ण पा, उसे खोजना जरूरी है। एक विवान लिखते पावश्यकता ज्यो की-त्यो बनी हुई है। है-इस प्रकार युग को मालोकित करने वाली देशी इन्दौर विश्वविद्यालय, इन्दौर 00 जय-स्याद्वाद 0 श्री कल्याणकुमार 'शशि' तु ऊर्वोन्नत मस्तक विशाल, नव युक्तायुक्त-विचार-सार! जैनत्व तत्त्व का स्फटिक भाल नित अनेकान्त का सिह द्वार, अपहृत मिथ्या भ्रमतिमिर जाल करते आए तेरा प्रसार ! । तू जैनधर्म का शंखनाद ! ___ अतुलित तीर्थकर-पूज्यवाद ! तीर्थकर पद की निधि ललाम ; तू पक्षापक्ष-विरूप-तूप सिद्धान्तवाद का सद्-विराम, नय विनिमय का सर्वाग रूप प्राकृत मंति का अमर धाम जूझे तुझसे पण्डित अनू। तू संस्कृतिका निरुपम प्रसाद ! गौतम गणधर, जैमिनि कणाद ! जय स्यावाद जय स्यावाद ! Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में चौपाई छन्द = डॉ० माविस्य प्रचण्डिया होति' काव्य-काल की दृष्टि से जैन हिन्दी काव्य का स्थान वीरगाथाकालीन महाकवि चन्दवरवायो द्वारा व्यास है। महत्वपूर्ण है। अलकार, छन्द, शब्दशक्ति मादि प्रगो का बीररसात्मक प्रसंगों में रीतिकालीन महाकवि देवदास, इस काव्य में प्रचुर परिमाण से व्यवहार हुपा है। छद, जटमल, गोरेलाल, सूदन तथा गुलाब प्रादि के काव्यों में काग का अनिवार्य तत्त्व है। काव्य मुरूपतया छन्दबद्ध चौपाई छंद का प्रयोग उल्लिवित है। रचना के लिए प्रारम्म से ही प्रषिद्ध है। प्राचार्य विश्वनाथने प्रेमाख्यानक काव्यधारा के प्रमूख कवि जापसी, छन्द को काव्य-सृजन का मन्यतम अंग अंगीकार किया है। उसमान, नूर मोहम्मद तथा कुतुबन द्वारा प्रणीत काव्य छन्द के प्रभाव में गत्यात्मक छन्द विन्यास इस प्रकार की कृतियों में इस छ: का प्रयोग परिलक्षित है। लयात्मक माधुरी से मंडिन नही हो पाता। जिसके द्वारा। भक्तिकालीन हिन्दी काव्यधारा के प्रमुख कवि सूरवास, काव्य का श्रोता अथवा पाठक बरबस विभोर हो झूम नंददास तथा तुलसीदास द्वारा प्रणीत काम्य प्रन्यो में उठता है। इस प्रकार उसमें जीवन को प्रानन्दित करने दोहा चौपाई शंली' मे इस छंद का प्रयोग हमा है। को शाश्वत सम्पदा मखर हो उठी है। जैन-हिन्दी-पूना माधुनिक काल के हिन्दी महाकाव्यों में महाकवि काव्य में चौपाई नामक छंद का का स्थान है ? प्रस्तुन द्वारिका प्रसाद मिश्र ने स्वरचित 'कृष्णायन' नामक महानिबन्ध मे इसी सन्दर्भ मे संक्षिप्त विवेचन करना हमारा काव्य में चौगई छद का व्यवहार किया है। मूलाभिप्रेत है। यह छन्द सामान्यतया वर्णनात्मक है अतः इस द में चौपई मात्रिक सम छद का एक भेद है .. चौपाई सभी रसों का निर्ग सहज रूप में हो जाता है। कषामे सोलह कलाएं होती है। छद के अन्त में जगण (151) स काव्यों में इस छंद की लोकप्रियता का मुख्य कारण पोर तगण (55 ) नही होते है। समकल के अनन्तर विषम कल का प्रयोग वजित है।' जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ५ - यही है। ने चौपाई के सोरह मात्रामों के चरण में न तो चौकलों जैन-हिन्दी-पूजा-काव्यों में इस छंद के दर्शन पठारी का कोईम माना है और न लघ-गुरु का। उसने सम शती से होते हैं। अठारहवीं शती के कविवर मानसराय के पीछे सम भोर विषम के पीछे विषम कल के प्रयोग को ने 'श्री निर्वाणक्षेत्रपूजा' नामक कृति में इस छ। का मच्छा माना है तथा अन्त मे जगण (151) का निषेष व्यवहार सफलता पूर्वक किया है।" किया है। उन्नीसवीं शती में रामचन्द्र," बहसावररत्न, अपभ्रंश में पद्धरिया छंद में चौपाई का प्रादिम रूप कमलनयन" और मल्ल जी विरचित काव्यकृतियों में भी विद्यामान है। मपभ्रंश की काचक शैली जब हिन्दी मे यह छंद व्यवहत है। पवतरित नई तो पदरिया छंद के स्थान पर चौगाई छंद बीसवीं शती के रविमल.५ मत. . गृहीत हुमा है।' मुन्नालाल," हीराचंक," पौर दीपचं" मे अपनी पूजा हिन्दी में चौपाई छंद का प्रयोग भारम्भ से ही हुमा काव्यकृतियों में इस छंद का प्रयोग किया है। है। पीर रसात्मक काम्याभिव्यक्ति के लिए यह छंद जन-हिम्पी पूजा काव्यों में पोपाईमाषिक प्रयोग Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ३४, कि० ४ अठारहवीं शती के कविवर द्याननराय ने शातरस के परिपाक के लिए किया है।" धका प्रारम्भ से ही प्रयोग हुए है। जैन-हिन्दी पूजा के लगभग सभी रवयिताम्रों ने चौराई छन्द का उपयोग किया है । यह छंद जहाँ एक पोर लघुकाधिक है वहाँ इसमें मुख-गुप मोर लयता की सहन धारा प्रवाहन की प्रद्भुत क्षमता है । संदर्भ ग्रंथ सूची उपङ्कित विवेचन के प्राधार पर यह सज में कहा जा सकता है कि जैन-हिन्दी पूजा काव्य में कोई छंद का १. 'छन्दोबद्ध पदं पदम् विश्वनाथ साहित्य दर्पण ६/३२४. चौखम्बा, वाराणसी सस्करण सं० १९७० । २. सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, हिन्दी साहित्यकोश, प्रथम प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटेड बनारस, - भाग, संस्क० सवत् २०१५, पृष्ठ २६० । ३. प्रो० परमानद शास्त्री, श्री पिंगल पीयूष, प्रकाशकमोरियण्टल बुक डिपो, १७०५, नई सड़क दिल्ली, संस्क० १९५३ ४०, पृ० १६२ । ४. जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद: प्रभाकर, प्रकाशिका -- धर्मपत्नी स्व० बाबू जुगल किशोर, जगन्नाथ मिटिंग प्रेस बिलासपुर, सस्क० १२६० ई०, ४१ ५. (क) डा० हीरालाल अपभ्रंश के महाकाव्य, अपभ्रंश भाषा घोर साहित्य लेख प्रकाशित नागरी प्रचारिणी पत्रिका, प्र ३.४ ११२ भक्ति काव्य (ख) डा० प्रेमसागर जंग हिन्दी जंन और कवि, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी-५, पृष्ठ ४३६ । ६. ( ) डा० रामसिंह तोमर, जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य की देन, प्रेमी प्रभिनंदन ग्रंथ प्रकाशरयशपाल जैन, मंत्री प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ समिति, टीकमगढ़ (सी० आई०) संस्क० अक्टूबर १९४६ पृष्ठ ४६० । ( ब ) डा० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, प्रागरा विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत डी०लिट्० का शोध प्रबन्ध सन् १९७५ ६०, पृष्ठ २४१ । ७. प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति', जैन-हिन्दी काव्य में छंदोयोजना, प्रकाशक - जंन शोध प्रकादमी, प्रागरा रोड, अलीगढ़, सन् १९७६ पृष्ठ १४ । ८. वही पृष्ठ १५ । ६. प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति', जंन कवियों द्वारा रचित हिन्दी पूजा काव्य की परम्परा भौर उसका प्रालोचनात्मक अध्ययन, प्रागरा विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत पी-एच० डी० का शोष प्रबन्ध, सन् १६७८ पृष्ठ २८३ । १० नमो ऋषभ कलाम पहार, नेमिनाथ गिरनार बिहार वासुपूज्य चंपापुर बंदो, सम्मति पावापुर प्रमिनदो - द्यानतराय, श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा ११. रामचन्द्र श्री सम्मेद शिखर पूजा । रत्न, १२. बस्तावर रन, श्री कुंथुनाथ जिन पूजा | १३. मल्ल जी श्री क्षमावाणी पूजा । । १४. कमलनयन, श्री पंचस्याणक पूजा पाठ १५ रविमल, श्री तीस चौबीसो पूजा 1 १६. घुसुत, श्री विष्णु कुमार मुनि पूजा । १७. नेम, श्री प्रकृत्रिम चैत्यालय पूजा । १८ मुन्नालाल, श्री खण्ड गिरि क्षेत्र पूजा । १६. होराचंद, श्री विशति तीर्थकर समुच्चय पूजा २०. दीपचंद, श्री बाहुबलि पूजा । २१. डा० प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति', जैन कवियों द्वारा रचित हिन्दी-पूजा काव्यको परम्परा प्रोर उसका घालोचनात्मक अध्ययन, घागरा विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत पी-एच० डी० का शोध प्रबन्ध, सन् १६७८, पृष्ठ २०५ । पीली कोठी, घागरा रोड, लीगढ़-२०२००१ 1 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व कौमुदी सम्बन्धी अन्य रचनाएँ 'अनेकान्त' के पतम्बर १९८१ के पंह में डा०ज्योतिप्रसाद जैन का 'सम्यक कौमुदी नाम शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है उसमें उन्होंने लिया हैसम्यक्त्वकौमुदी और सम्यक्त्वकौमुदीच्या नामक पठार रचनायें ज्ञात हो सकी है जिनमें से संस्कृत १६ हिन्दी मे रचित है। इनमे १२ दिसम्बर विद्वानो द्वारा तथा ४ श्वेताम्बर विद्वानो द्वारा है बाशे ज्ञात वे रचनायें है। सभव है भी रचनायें हों जो हमारी जानकारी में अभी नहीं पाई हमारी जानकारी मे घर भी रचनायें यपानिरनकोष पृष्ठ ४२३४२४ मे सम्यक्त्वकौमुदी की सबसे प्राचीनतम प्रति पंजाब भडार न० २८१५ वाली सम्वत १३४३ की लिखी हुई बनाई है। यदि यह लेखन सम्बत सही हो तो मूल रचना का रचनाकाल ईस्वी १२वी शताब्दी के पीछे का तो हो नहीं सकता । (१) गुणाकरसूरि की रचना संवत १४०० ईस्वी की बतलाई है वह 'जिन रत्नकोष' के अनुसार विक्रम संवत १५०४ की रचना है। उसका परिमाण १४८५ इनोकों का पोर रचयिता त्रगच्छ के ये है (२) शेर के ग्रंथ का परिमाण ६६५ श्लोको का है । (३) जयचंद्र सूरि के शिष्य का नाम डा० ज्योतिप्रसाद जी ने नहीं दिया है लेकिन जिनरत्नकोष मे उनका नाम जिन हर्षव दिया है। प्रोर रचनाकार सवत १४६२ की जगह १८८७ दिया है। (४) जिन एवं गणि की यह रचना टीका सहित प्रकाशित होने का उल्लेख किया है । टीका सम्वत १४६७ में जयचंद गणि के द्वारा रचित बतलाई है (५) सोमदेव सूरि के जिनरत्नकोष मे रचना का परिमाण ३३५२ श्लोकों का और वे प्रागग गच्छ के सिहृदत्त सूरि के शिप्प थे, लिखा है । ० श्री नगरचन्द नाहटा इनके अतिरिक्त नं०४ में रसराज ऋषि रचना नाम है पर वह संस्कृत मे नहीं, राजस्थानी में है। अन्य संस्कृत रचनाओं में महिलभूषण, यशकीनि ममेन कवि वाविभूषण घोर धूनसागर की रचन में है ये दिन होनी संभव है। 1 इसी तरह जैन कवियों और डा० ज्योतिसाद द्वारा मनुनिखित ६ राजस्थानी भाषा की पद्यवद्ध रचनाओ का विवरण प्रकाशित हुआ है जिनमें से तीन सत्रहवी शताब्दी की और तीन उग्नसी शतब्दी की है। १. सम्यकौमुदी राम-१६२४ माघमुदी १५ बुधवार को नागौर के निकट 'छे' ग्राम मे रचित पंचांग १५५० वतनत्रीय २. सम्यकौमुदीरापादयं चद्रमूरि की परम्परा के राज के १६४६ मा सुदी ५ गुहार जगवती (मेमात ) नव खंडों में रचित विवरण देखें, जैन गुर्जर] कवियो भाग १ पृष्ठ २६९ । I ३. सम्यक्त्वकौमुदी चौपाई - चद्रगच्छ के शक्तियों के शिष्य जगल रवित सं० १६५२ दी इस रचना की एक मात्र ३० पन की प्रति हमारे प्रभय जैन ग्रंथालय मे स ० १६२६ की लिखी हुई है । ४. सम्यक्त्वकौमुदी चोपाई खरतरगच्छ के महोजी की परमारा में कवि प्रालमचद महापाध्याय समय सुन्दर रचित स० १९२२ मिक्सर सुदी ४ मक्षुदाबाद शहर मे सामसुम गोत्रीय मेरी मुगाल के पुत्र मूलचंद द्वारा कारित । ५. सम्यको चौपाई डाल ६२ ऋषि रचित सं० १८७६ वैशाख सुदी १३ (पृष्ठ १२ पर) (कु) बालचन्द नागौर मे । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक डा० दरबारी लाल कोठिया, न्यायाचार्य 'श्रमण' मासिक पत्र, वर्ष ३२, अंक ५, मार्च १९८१ विमोचन भी प्राचार्य विद्यासागर महाराज के द्वारा उसी में मेरे "जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन" ग्रन्थ जन १७, १९८० को सागर (मध्यप्रदेश) मे समायोजित की समीक्षा प्रकाशित हुई है। यह ग्रन्थ जून १६८० मे अनेक समारोही के अवसर पर हो चुवा है। उसकी वीर वा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणमी से प्रस्ट पा है । इसका मासिक. माप्ताहिक प्रादि पत्रो' एवं जनलो में' समा. (पृष्ठ १३ का शेषाश) लोचना भी निकल ची है। इन सभी पयो मोर अनेक ६ सम्यक्रव कौमुदी चौपाई-अनपद (२) मनीषियो ने ग्राम की मुक्त .ण्ठ से सराहना की है। किन्तु विनय चन्द रचित पत्र १०७ सं० १८८५ फाल्गुन वदि ७ 'तुलमी प्रज्ञा" और 'श्रमण' ने उसकी समीक्षा मे उसके को रचित । कुछ लेखो को 'दुराग्रहमात्र' कहा है। पर उनके लिए इस तरह पान संस्कृत प्रौर ६ राजस्थानी श्वे. कवियो कोई प्राधार या प्रमाण नही दिया। के रवित का विवरण जिनरलकोष प्रौर जैन गुर्जर कवियो थमण' के सम्पादक ने तो कुछ विस्तृत (५। पृष्ठ मे प्रकाशित हो चुका है। इनमे से जयमल्ल की रचना प्रमाण) समीक्षा करते हुए कुछ ऐसी बाते व ही है जिनका की एक मात्र प्रति हमारे संग्रह मे ही प्राप्त हुई है। अन्य स्पष्टीकरण यावश्यक है। यद्यपि समीक्षक को समीक्षा भण्डारों में विदोष खोज करने पर कुछ अतिरिक्त रचनायें करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है, किन्तु उसे यह भी भी मिल सकती है। अनिवार्य है कि वह पूर्वाग्रह से मुक्त रहकर समीक्ष्य के एक ही कथा सम्बन्धी ऐसे अनेको जैन ग्रंप छोटे और गुण-दोषो का पर्यालोचन करे। यही समीक्षा की बड़े प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश हिन्दी, राजस्थानी, वनड़ मर्यादा है। मादि भाषामों में लिखे मिलते है। उन सबका तुल- ज तव्य है कि समीक्षित ग्रन्थ के शोध-निबन्ध और नात्मक अध्ययन एक शोध प्रबंध में ही किया जा सकता है। अनुसन्धानपूर्ण प्रस्तावनाएं पाज से लगभग ३६ वर्ष पूर्व रचनामो के परिमाण के काफी प्रसर है प्रतः कइयो मे (मन् १६४२ से १९७७ तक) 'प्रनेकान्त', जैनसक्षेप से मोर कइयों में विस्तार से कथा दी गई होगी। गिद्धान-मास्तर' अादि पत्रो तथा न्यायदीपिका, प्राप्त प्रत्येक लेखक अपनी रुचि पौर योग्यता के अनुसार कक्षा परीक्षा प्रादि प्रन्यो में प्रकाशित है। किन्तु विगत वर्षों में मे परिवर्तन प्रौर वर्णन मे अन्तर कर देते है। इससे सब श्रमण' के सम्पादक डा० सागरमल जैन या अन्य किसी प्रयों को देखने पर ही कथा के मूल स्रोत एव समय-समय विद्वान् ने उन पर कोई प्रतिक्रिया प्रकट नही की। अब पर उसने किये गये परिवर्तनों की जानकारी मिल सकती उन्होने उक्त समीक्षा में अन्य के कुछ लेखो के विषयों है। इसके सम्बन्ध मे तुलनात्मक अध्ययन काफी रोचक पर प्रतिक्रिया भक्त की है। परन्तु उसमे अनुमन्धान और मोर ज्ञानवर्धक हो सकता है। सम्यक्त्व कौमदी की गहराई का नितान्त प्रभाव है। हमे प्रसन्नता होती, यदि कथानों का मूल स्रोत क्या और किस प्रकार का रहा है, वे पूर्वाग्रह से मकर होकर शोध प्रौर गम्भीरता के साथ यह अवश्य हो अन्वेषणीय है। उसे प्रस्तुत करते। यहां मैं उनके उठाये प्रश्नो अथवा नाहटों को गवाड़ बीकानेर मद्दों पर विचार करूँगा और उनकी सरणि को नहीं 0 मरनाऊँगा। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसम्मान में पूर्वाहमुक्ति पावश्यक . सम्पादक का प्रथम प्रश्न है कि 'समन्तभद्र की भाप्त- किसी के प्रत्यक्ष है, क्योंकि वे अनुमेय हैं, जैसे मग्नि मीमांसा प्रादि कृतियों मे कुमारिल, धर्मकीर्ति प्रादि की प्रादि।' इस अनुमान से सामान्य सर्वज्ञ की सिद्धि करके मान्यतामों का खण्डन होने से उसके प्राचार पर समन्तभद्र वे विशेष सर्वज्ञ की भी सिद्धि करते हुए (का. ६ व ७ को ही उनका परवर्ती क्यों न माना जाये ?' मे) कहते है कि 'हे वीर जिन ! महंन । वह सर्वज्ञ भाप स्मरण रहे कि हमने 'कुमारिल भौर समन्तभद्र' ही हैं, क्योंकि पाप निदोष हैं और निर्दोष इस कारण हैं, शीर्षक' शोध निबन्ध मे सप्रमाण यह प्रकट किया है कि क्योंकि भापके बचनों (उपदेश) में युक्ति तथा मागम का समन्तभद्र की कृतियो (विशेषतया प्राप्त-मीमांसा) का विरोध नहीं है, जबकि दूसरों (एकान्तवावी प्राप्तों) के खण्डन कुमारिल और धर्मकीति के ग्रन्थों में पाया जाता उपदेशों में युक्ति एवं पागम दोनों का विरोष है, तब वे है। अतएव समन्त नद्र उक्त दोनो ग्रन्थकारों से पूर्ववर्ती सर्वज्ञ कसे कहे जा सकते है। इस प्रकार समन्तभद्र ने है, परवर्ती नही । यहाँ हम पुन: उमी का विचार करेंगे। अनुमान से सामान्य पौर विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है। हम प्रश्न कर्ता से पूछते है कि वे बतायें, कुमारिल और इसलिए अनुमान द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना प्राप्त. पौर धर्मकीर्ति की स्वय को वे कौन सी मान्यताएं है, मीमांमागत समन्तभद्र को मान्यता है। जिनका समन्तभद्र की प्राप्तमीमामा प्रादि कृतियो मे प्राज से एक हजार वर्ष पूर्व (ई. १०२५) के प्रसिद्ध खण्डन है ? इम के समर्थन में प्रश्न कार ने एक भी तर्क ग्रन्थ कार वादिराज सूरि' ने भी उसे (प्रनुमान द्वारा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। इसके विपरीत दोनो ग्रन्थ- सर्वज्ञ सिद्ध करने को) समन्तभद्र के देवागम (माप्तकारो ने ममन्तभद्र को ही प्राप्तमीमांसागत मान्यतामों का मीमांसा) को मान्यता प्रकट की है। पार्श्वनाथ चरित में खण्डन किया है यहाँ हम दोनो ग्रन्थ कारो से कुछ उदाहरण समन्तभद्र के विस्मयावह व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए उपस्थित करते है। उन्होंने उनके देवागम द्वारा सर्वज्ञ के प्रदर्शन का स्पष्ट (१) जैनागमो तथा कुन्दकुन्द के प्रवचनसार प्रादि निर्देश किया है। इसी प्रकार प्रा० शुभचन्द्र ने भी प्रत्यों में सर्वज्ञ का स्वरूप तो दिया गया है परन्तु अनुमान देवागम द्वारा देव (सर्वज्ञ) के प्रागम (सिद्धि) को से सर्वज्ञ की सिद्धि उनमें उपलब्ध नही होती। जैन बतलाया है। दार्शनिकों में ही नहीं, भारतीय दार्शनिकों में भी इन असन्दिग्ध प्रमाणों से स्पष्ट है कि अनुमान से समनभद्र ही ऐसे प्रथम दार्शनिक एव ताकिक है, जिन्होने सर्वज्ञ की सिद्धि करना समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसा की प्राप्तमीमांसा (का० ३, ४, ५, ६, ७.) मे अनुमान से निसन्देह अपनो मान्यता है। और उत्तरवर्ती अनेक सामान्य तथा विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है। ग्रन्यकार उसे शताब्दियों से उनकी ही मान्यता मानते समन्तभद्र ने सर्वप्रथम कहा कि 'सभी तीथं प्रवर्तको चले पा रहे है। (सर्वज्ञों) और उनके समयो (पागमो -- उपदेशों मे) अब कुमारिल की मोर दृष्टिपात करें। कुमारिल" परस्पर विरोध होने से सब सर्वज्ञ नही है, 'कश्चिदेव'- ने सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के सर्वश का कोई ही (एक) गुरु (सर्वज्ञ) होना चाहिए', 'उस एक की निषेध किया है। यह निषेध और किसी का नहीं, सिद्धि की भूमिका बाधते हुए उन्होंने ग्रागे (का० ४ में) समन्तभद्र की माप्तमीमांसा का है। कुमारिल बड़े मावेग कहा कि किसी व्यक्ति मे दोषों और प्रावरणो का निःशेष के साथ प्रथमतः सामाग्यसर्वज्ञ का खण्डन करते हुए कहते प्रभाव (ध्वंस) हो जाता है क्योकि उनकी तरतमता है कि सभी सर्वज्ञ (तीर्थ प्रवर्तक) परस्पर विरोधी अर्थ (न्यूनाघिकता) पायी जाती है, जैसे सुवर्ण मे तापमान, (वस्तुतत्व) के जब उपदेश करने वाले हैं और जिनके कटन प्रादि साधनो से उसके बाह्य (कालिमा) और साधक हेतु समान (एक-से) हैं, तो उन सबों में उस प्राभ्यन्तर (कीट) दोनों प्रकार के मलो का प्रभाव हो एकता निर्धारण कैसे करोगे कि मयुक सर्वज्ञ है पौर जाता है। इसके पश्चात् वे कहते है कि 'सूक्ष्मादि पदार्थ भमक मर्दज्ञ नही है। कुमारिल उस परस्पर-विरोष को Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, १४,कि० ४ प्रमेकाम्त भी दिखाते हुए कहते हैं कि यदि सुगत सर्वज्ञ है, कपिल प्रादि हेतु सर्वज्ञ के निषेधक है, उनसे सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं, तो इसमें क्या प्रमाण है और यदि दोनों सर्वज्ञ है, कैसे की जा सकती है। इसका सबल उत्तर समन्तभद्र की हो उनमें मतभेव कसा।' इसके अलावा वे और कहते हैं प्राप्तमीमांसा के वित्तिकार प्रकलंकदेव ने दिया है। कि 'प्रमेयत्व प्रादि हेतु जिम (सर्वज्ञ) के निषेधक हैं, उन प्रकलंक कहते हैं कि 'प्रमेयत्व मादि तो मनुमेयत्व' हेतु हेतुपों से कौन उम (सर्वज) की कल्पना (सिदि) के पोषक है"-अनुमेयत्व हेतु की तरह प्रमेयत्व प्रादि करेगा।' सर्वज्ञ के सद्भाव के साधक है, तब कौन समझदार उन यहाँ ध्यातव्य है कि समन्तभद्र के परस्पर-विरोधत:' हेतुनों से सर्वज्ञ का निषेध या उसके सद्भाव मे सन्देह पद के स्थान में विरुद्धार्थोपदेशिष', सर्वेषां की जगह कर सकता है।' 'सर्वेषु' और 'कश्चिदेव' के स्थान मे 'को नाम 6.' पदों का यह सारी स्थिति बतलाती है कि कुमारिल ने समन्त. कुमारिल ने प्रयोग किया है और जिस परस्पर विरोध भद्र का दण्डन किया है, ममन्तभद्र ने कुमारिन का नही। की सामान्य सूचना समन्तभद्र ने की थी, उसे कुमारिल ने यदि समन्तभद्र कुमारिल के परवर्ती होत तो कुमारिल के सुगत, कपिल पादि विरोधी तत्वोपदेष्टापो के नाम लेकर खण्डन का उत्तर स्वय समन्तभद्र देते, प्रकलंक को उनका विशेष उल्लेख किया है। समनभद्र ने जो सभी तीर्थ- जवाब देने का अवसर नहीं पाता, तथा समन्तभद्र के प्रवतंकों (सुगत प्रादि) मे परस्पर विरोध होने के कारण 'मन मेयत्व हेतु का समर्थन करने का भी मौका उहे नहीं 'कश्चिदेव भवेद गुरुः' शब्दो द्वारा कोई (एक) को ही मिलता। गुरु-सर्वज्ञ होने का प्रतिपादन किया था, उस पर (२) अनुमान से सवंज-सामाग्य की सिद्धि करने के कुमारिल ने प्रश्न करते हुए कहा कि 'जब सभी सर्वज्ञ हैं उपरान्त समन्तभद्र ने अनुमान से ही सर्वज्ञ-विशेष की पौर विरुद्धार्थोपदेशी है तथा सबके साधक हेतु एक से है, सिद्धि का उपन्याग करके उसे 'मह-त' मे पर्यवसित किया तो उन सबमें से 'को नामेकोऽवधार्यताम्'-किस एक का है। जैसा कि हम ऊपर प्राप्तमीमांसा कारिका ६ मोर अवधारण (निश्चय) करते हो।' कुमारिल का यह प्रश्न ७ के द्वारा देख चुके हैं। कुमारिल ने समन्तभद्र की इस समन्तभद्र के उक्त प्रतिपादन पर ही हपा है। मोर उन्होंने विशेष सर्वज्ञता की सिद्धि का भी खण्डन किया है। उस पनवधारण (सर्वज्ञ के निर्णय के प्रभाव) को 'सुगतो महन्त का नाम लिए बिना वे कहते हैं कि जो लोग जीव यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा' प्रादि कथन द्वारा प्रकट (प्रहन्त) के इन्द्रियादि निरपेक्ष एव सूक्ष्मादि विषयक भी किया है। यह सब पाकस्मिक नही है। केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की कल्पना करते है वह भी युक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने अपने नही है, क्योकि वह पागम के बिना और प्रागम केवलउक्त प्रतिपादन पर किसी के प्रश्न करने के पूर्व ही अपनो ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है और इस तरह मन्योउक्त प्रतिज्ञा (कश्चिद भवेद्गुरु ) को प्राप्तमीमांसा न्याश्रय दोष होने के कारण परहन्तजिन में भी सर्वज्ञता (का०४ पौर ५) मे अनुमान-प्रयोगपूर्वक सिद्ध किया मिद नही होती।' है"। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अनुमान प्रयोग ज्ञातव्य है कि जैन अथवा जनेतर परम्परा मे समस्तमें उन्होंने 'मनुमेयत्व' हेतु दिया है जो सर्वज्ञ सामान्य की भद्र से पूर्व किसी दार्शनिक ने अनुमान से उक्त प्रकार मिद्धि करता है और जो किसी एक का निर्णायक नहीं है। विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की हो ऐसा एक भी उदाहरण इसी से कुमारिल ने 'तुल्य हेतुषु सर्वेषु' कह कर उसे अथवा उपलब्ध नहीं होता। हा, प्रागमों में केवलज्ञान का स्वरूप उस जैसे प्रमेयस्व प्रादि हेतुपों को सर्वज्ञ का अनवधारक प्रवश्य विस्तारपूर्वक मिलता है, जो प्रागमिक है, मानु(प्रनिश्चायक) कहा है। इतना ही नही, उन्होने एक मानिक नही है। समन्तभद्र ही ऐसे दार्शनिक हैं, जिन्होंने अन्य कारिका के द्वारा समन्तभद्र के इस 'नुमेय स्व' हेतु मरहन्त में पनुमान से सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की तीब पालोचना करते हुए कहा कि जो प्रमेयत्व, की है और उसे दोषावरणों से रहित, दियादि निरपेक्ष Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रने सम्मान में पूर्वाग्रहमति प्राश्यक तथा सूक्ष्मादि विषयक बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि (६०वी) कारिका के द्वारा बतलाया है कि जैसे दुग्बनती, कुमारिल ने समन्तभद्र को ही उक्न मान्यता का खण्डन दूध ही ग्रहण करता है, दही नही लेता और दही का व्रत किया है। इसका सबल प्रमाण यह है कि कुमारिल के रखने वाला दही हो लेता है, दूध नहीं लेता है तथा दूध उक्त खण्डन का भी जवाब प्रकलक देव ने दिया है"। और दही दोनों का त्यागी दोनों को ही ग्रहण नहीं करता उन्होंने बड़े सन्तुलित ढंग से कहा है कि 'अनुमान द्वारा पोर इस तरह गोरस उत्पाद, व्यय और ध्रुवता तीनों से सुसिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) भागम के बिना और प्रागम मुक्त है, उसी तरह मखिल विश्व (नत्व) यात्मक है। केवलज्ञान के बिना सिद्ध नहीं होता, यह सत्य है, तथापि कुम रिल ने भी समन्तभद्र को लौकिक उदाहरण वाली दोनों में प्रन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योकि पुरुपातिशय कारिका (५६) के प्राधार पर प्रानी नयी ढाई कारि(केवलज्ञान) प्रतीतिवश से माना गया है। इन (के वल- कार्य रची है और समन्तभद्र की ही तरह उनके द्वारा ज्ञान और प्रागम) दोनों मे बोज और अकुर की तरह वस्तु को यात्मक सिद्ध किया है"। उनको इन कारिमनादि प्रबन्ध (प्रवाह-सन्तान) है'। कामो में समन्तभद्र की कारिका ५६ का केवल बिम्बपालक के इस उत्तर से विल्कुल स्पष्ट है कि प्रतिविम्वभाब ही नहीं है, अपितु उनको शनावली, शैली समन्तभद्र ने जो अनुमान से परहन्त के केवलज्ञान (म. प्रौर विच, रसरणि भी उनपे समाहित है। समन्तभद्र ने ज्ञता) को सिद्धि की थी, उसी का खउन कुमारिल ने जिस बात को प्रतिसक्ष मे एक कारिका (५६) मे कहा किया है और जिमका सयुक्तिक उत्तर प्रकलंक ने उक्त है, उसी को कुमारिल ने ढाई कारिकामों में प्रतिपादन प्रकार से दिया है । केवलज्ञान के साथ 'अनुमानविज़म्भि- किया है । वस्तुत: विकास का भी यही नियम है कि वह तम्' – 'अनुमान से सिद्ध' शिंपण लगा कर तो प्रकलंक उत्तरकाल में विस्तृत होता है । इस उलेख से भी स्पष्ट (वि० सं० ७वीं शती) ने रहा-सहा सन्देह भी निरावृत जाना जाता है कि समन्तभद्र पूर्ववर्ती है और कुमारिल कर दिया है। इस उल्लेख-प्रमाण से भी प्रकट है कि परवर्ती। कुमारिल ने समन्तभद्र को प्राप्त मीमांसा का खण्डन किया इसका ज्वलन्त प्रगण यह है कि ई० १०२५ के मौर जिसका उत्तर समन्तभद्र से कई शताब्दी बाद हुए प्रसिद्ध, प्रतिष्ठिन और प्रामाणिक तर्क ग्रन्थकार वादिराज अकलंक ने दिया है । समन्तभद्र को कुमारिल का परवर्ती मूरि" ने अपने न्यायविनिश्चय-f० वरण (भाग १, पृ० मानने पर उनका जवाब वे स्वय देते, प्रकल क को उसका ४३६) मे समन्तभद्र की प्रानमोमासा की उल्लिखित अवसर ही नहीं पाता। कारिका ५६ को और कुमारिल दृ को उपरि चचित (३) कुमारिल ने समन्तभद्र का जहां खण्डन किया ढाई कारिकामो में से डंढ़ कारिका को भी 'उक्तं स्वामि. है वहां उनका अनुगमन भी किया है। विदित है कि समन्तभद्रस्तदुपजीविना भट्टे पि'शों को देकर कुमाजैन दर्शन मे वस्तु को उत्पाद, व्यय पोर धोव्य इन तीन रिल भट्ट को समन्तभद्र का उपजीवी-अनुगामी स्पष्टतया रूप माना गया है"। समन्तभद्र ने लोकिक और पाध्या- प्रकट किया है कि एक हजार वर्ष पहा भी दार्शनिक एवं स्मिक दो उदाहरणो द्वारा उसकी समर्थ पुष्टि की है"। साहित्यकार समन्तभद्र को पूर्ववर्ती और कुमारिल भट्ट को इन दोनों उदाहरणों के लिए उन्होने एक-एक कारिका का परवर्ती विद्वान मानते थे। सजन किया है। पहली (५६वी) कारिका के द्वारा उन्होने (४) च धमकीति को लीजिए । धर्मकीति (६० प्रकट किया है कि जिस प्रकार घट, मकुट और स्वर्ण के ६३५) ने भी समन्तभद्र को प्राप्तमीमांसा का खण्डन इन्छकों को उनके नाश, उत्पाद और स्थिति में क्रमशः किया" किदित है कि प्राप्तमीमांसा (का. १०४) शोक, हर्ष और माध्यस्थ्य भाव होता है और इसलिए मे समन्तभद्र ने स्यादवाद का लक्षण दिया है" और स्वर्णवरतु व्यय, उत्पाद और स्थिति इन तीन रूप है, लिखा है कि 'सर्वथा एकान्त के त्याग से जो किचित' उसी प्रकार विश्व की सभी वस्तुयें त्रवारमक हैं। दूसरी (कचित्) का विधान है वह स्यावाद।' धर्मकीर्ति ने Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष ३४, कि० ४ समन्तभद्र के इस स्याद्वाद लक्षण को बड़े प्रावेग के साथ पश्लील, प्राकुल पोर प्रयुक्त प्रलाप करता है, उसे प्रमत्त समीक्षा की है। उनके किचित् के विधान - स्याद्वाद को (पागल) नड़बद्धि और विविध प्राकुलतानो से घिग प्रयुक्त, मश्लील पोर माकुल 'प्रलाप' कहा है।' हुमा समझना चाहिए।' समन्तभद्र पर किये गये धर्म कीति ज्ञातव्य है कि मागमो" में "सिया पज्जत्ता, सिया के प्रथम प्राक्षेप का यह जवाब 'जैसे को तैसा' नीति का अपनत्ता, 'गोयमा । जीवा सिय सासया, सिय प्रपासया' पूर्णतया परिचायक है। जैसे निरूरणों में दो भंगों तथा कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय" धर्मकीति के दूसरे प्राक्षेप का भी उत्तर प्रकलंक में सिय प्रत्थि पत्थि उहयं-' इस गाथा (१४) के द्वारा उपहासपूर्वक देते हुए कहते है कि 'जो वही और ऊँट मे गिनाये गये सात भगों के नाम तो पाये जाते है । पर अभेद का प्रसग देकर सभी पदार्थों को एक हो जाने को स्याद्वाद को उनमे कोई परिभाषा नहीं मिलती। समन्तभद्र प्रापत्ति प्रकट करता है और इस तरह स्याद्वाद -- को प्राप्तमीमांसा में ही प्रथमत: उसको परिभाषा और अनेकान्लवाद का खण्डन करता है वह पूर्व पक्ष (प्रने कान्तविस्तन विवेचन मिलते है। धर्मकीति ने उक्त खण्डन वाद -स्याद्वाद) को न समझ कर दूपक (दूषण देने समन्तभद्र का ही किया है, यह स्पष्ट ज्ञात होता है। वाला) होकर भी विदूषक-दूपक नही है, जोकर है । धर्मकीति का 'तदप्येकान्तसम्भवात्' पद भी प्राकस्मिक सुगत भी कभी गृग था और मृग भी सुगत हुप्रा माना नहीं है, जिसके द्वारा उन्होंने सर्वथा एकल के त्याग से जाता है तथापि सुगत को वन्दनीय और मृा को भक्षणीय होने वाले किचित् (कथचित्) के विधान-स्याद्वाद कहा गया है और इस तरह पर्याप भव मे सुगत प्रौर मृग (अनेकार) में भी एकान की सम्भावना करके उसका- मे बन्दनीय एवं भक्षणीय को भेदव्यवस्था तया चित्तसम्मान अनेकान्त का खण्डन किया है। की पेक्षा से उनमे प्रभेद व्यवस्था को जाती है, उसी इसके सिवाय धर्मकीति ने समन्तभद्र की उस मान्यता प्रकार प्रतीति बल से -पर्यार और द्रव्य को प्रतीति से का भी खण्डन किया है, जिसे उन्होंने 'सदेव सर्व को सभी पदार्थों में भेद और प्रभेद दोनो की व्यवस्था है। नन्छेत' (का० १५) प्रादि कथन द्वारा स्थापित किया प्रत दही खा' कहे जाने पर कोई ऊँट को खाने के लिए है। वह मान्यता है सभी वस्तुपों को सद्-प्रसद्, एक. वो दौडेगा, क्योंकि सत् -- द्रव्य की अपेक्षा से उनमें प्रतेक प्रादि रूप से भयात्मक (पने कानात्मक) प्रभेद होने पर भी पर्याय को दृष्टि से उनमे उमो प्रकार प्रतिपादन करना। धर्मकीति उसका खण्डन करते हुए भेद है, जिस प्रकार सुगत पौर मृग में है। प्रतएव 'दी कहते हैं कि 'सबको उभय रूप मानने पर उनमें कोई भेद खा कहने पर कोई दही खाने के लिए ही दोगा क्योकि महीं रहेगा। फलतः जिसे 'दही खा' कहा, वह ऊंट को वह भणीय है और ऊरवाने के लिए वह नही दौडगा, खाने के लिए क्यों नही दौड़ता? जब सभी पदार्थ सभी क्योकि वह प्रभक्षणीय है। इस तरह विश्व की सभी वस्तम्रो रूप हैं तो उनके वाचक शब्द और बोधक ज्ञान भी भिन्न- को उभयात्म :-- अनेकान्तात्मक मानने में कौन-सी प्रापत्ति भिन्न नहीं हो सकते।' या विपत्ति है अर्थात् कोई प्रापत्ति या विपत्ति नही है। धर्मकीर्ति के द्वारा किया गया समन्तभद्र का यह मालक के इन सन्तुलित एवं सबल जवाबों से खण्डन भी प्रा.लक को सह्य नही हुपा और उनके उपर्युक्त बिल्कुल प्रसन्दिग्व है कि समन्तभद्र को प्राप्त मीमांसागत दोनों प्रक्षेपों का जवाब बड़ी तेजस्विता के स थ उन्होंने स्माद्वाद और प्रने कान्तवाद की मान्यतापो का ही घमंकीति दिया है। प्रथम प्राक्षेप का उत्सर देते हुए वे कहते हैं ने खण्डन किया है और जिसका मुहतोड़, किन्तु शालीन कि 'जो विज्ञप्ति मात्र को जानता है और लोकानुरोध से एक करारा उसर प्रकलंक ने दिया है। यदि समन्तभद्र बाध-पर को भी स्वीकार करता है और फिर भी सबको धमकीति के परवर्ती होते तो वे स्वयं उनका जवाब देते शुन्य कहता है तथा प्रतिपादन करता है कि न ज्ञाता है, और उस स्थिति में प्रकलंक को धर्मकीति के उपर्युक्त न उसमें फल मोर म कुछ अन्य जाना जाता है, ऐसा पापों का उत्तर देने का मौका ही नहीं पाता । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान में पूर्णमुक्ति प्रावश्यक पालीस-पचास वर्ष पूर्व स्व०पं० महेन्द्र हमार न्यायाचार्य स्व० पं० सुखलाल संघवी बाद कुछ विद्वानों ने सभ को धर्मकी का परवर्ती होने की सम्भावना की थी।" किंतु अब ऐसे प्रचुर प्रमाण सामने मा गये हैं, जिनके साधार पर धर्मकीर्ति समन्तभद्र से काफी उत्तरवर्ती (३००-४०० वर्ष पश्चात् ) सिद्ध हो चुके हैं। इस विषय में डाक्टर ए० एन० उपाध्ये एवं डा० हीरालाल जैन का शाकटायन व्याकरण पर लिखा प्रधान सम्पादकीय द्रष्टव्य है ।' 'धर्मकीति और समन्तभद्र' शीर्षक हमारा शोषपूर्ण लेख भी अवलोकनीय है, जिसमें उक्त विद्वानों के हेतुपों पर विमर्श करने के साथ ही पर्याप्त नया धनुन्धान प्रस्तुत किया गया है। ऐसे विषयों पर हमें उन्मुक्त दिमाग से विचार करना चाहिए और सत्य के ग्रहण में हिचकिचाना नही चाहिए । ३९ सम्पादक ने दूसरा प्रश्न उठाया है कि 'सिद्धसेन के श्यामावतार और समन्तभद्र के श्रावकाचार में किसी पद (पद्य) को समान रूप से पाये जाने पर समन्तभद्र को ही पूर्ववर्ती क्यों माना जाय ? यह भी तो सम्भव है कि समन्तभद्र ने स्वयं उसे सिद्धसेन से लिया हो और वह उससे परवर्ती हो ? १७ ने हमें पद्य" के द्वारा शास्त्रका लक्षण निरित किया है। यह पद्य सिद्धसेन के व्यायावतार में भी उसके हवें पद्य के रूप में पाया जाता है । सम्पादक की प्रस्तुत सम्भावना इतनी शिथिल प्रौर निर्जीव है कि उसे पुष्ट करने वाला एक भी प्रमाण नही दिया जा सकता और न स्वयं सम्पादक ने ही उसे दिया है । अनुसन्धान के क्षेत्र में यह आवश्यक है कि सम्भावना के पोषक प्रमाण दिये जायें, तभी उसका मूल्यांकन होता है और तभी वह विद्वानो द्वारा धान होती है। यहाँ उसी पर विष किया जाता है। ऊपर जिन समन्तभद्र की बहुत चर्चा की गयी है, उन्ही का रचित एक आवकाचार है, जो सबसे प्राचीन महत्वपूर्ण मोर व्यवस्थित धावकाचार का प्रतिपादक ग्रभ्य है। इसके भारम्भ मे धर्म की उसका उद्देश्य बतलाते हुए उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पोर सम्यग्वारि इन तीन रूप बतलाया गया है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप उन्होंने देव शास्त्र] पोर गुरु का दृढ एवं समूह बढान् कहा है। अतएव उन्हे इन तीनो का लक्षण बतलाना भी प्रावश्यक था। देव का लक्षण प्रतिपादन करने के उपरान्त समन्तभद्र अब विचारणीय है कि यह पद्य श्रावकाचार का मूल पद्य है या न्यायावतार का मूल पद्य है। श्रावकाच र मे यह जहाँ स्थिति है वहाँ उसका होना आवश्यक पर अनिवार्य है। किन्तु म्वायावतार में जहाँ वह है वहाँ उसका होना भावश्वक एवं धनिवार्य नहीं है, क्योकि वह पूर्वीक शब्द-लक्षण (का०८) " के समर्थन मे दिस प्रति है । उसे वहाँ से हटा देने पर उसका अग-भंग नहीं होता । किन्तु समन्तभद्र के श्रावकाचार से उसे लगकर देने पर उसका अंग भंग हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि उक वां पद्य, जिसमे शास्त्र का लक्षण दिया गया है, श्रावकाचार का मूल है और न्यायावतार मे अपने विषय ( वें पद्य में कथित शब्दलक्षण) के समर्थन के लिए उसे वहां से प्रकार ने स्वयं लिया है या किसी उतरवर्ती ने लिया है पोर जो बाद को उक्त ग्रन्थ का भी प्रंग बन गया। यह भी ध्यातव्य है कि श्रावकाचार में प्राप्त के लक्षण के बाद प्रावश्यक तौर पर प्रतिपादनीय शास्त्र लक्षण का प्रतिपादक प्रश्य कोई पद नहीं है, जब कि स्थायावतार मे शाब्द लक्षण का प्रतिपादक पद्य है । इस कारण भी उक्त वा पद्य ( प्राप्तोपज्ञउनु) श्रावकाचार का मूत्र पद्य है, जिसका वहा मून रूप से होना नितान्त श्रावश्यक प्रौर प्रनिवार्य है। तथा यावर में उसका, वें पथ के समक्ष मून करमेोधनावश्यक व्यर्थ पोर पुनरक्वत है। प्रत: यहो मानने योग्य एवं न्यायसंगत है कि न्यायावतार में वह समन्तभद्र के श्रावकाचार से लिया गया है, न कि श्रावकाचार में व्यायावतार से उसे लिया गया है । न्यायावतार से श्रावकाचार में उसे (हवें पद्य को) लेने की सम्भावना बिल्कुल निर्मून एवं मे दम है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देने पर न्यायावतार मे धर्मकीर्ति" ( ई० ६३५), कुमारिल (६० ६५०)" पोर पात्रस्वामी (६० डी, जीं शती)" ६ठी इन ग्रन्थकारों का अनुसरण पाया जाता है और ये तीनों ग्रन्थकार समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं। तब समन्तभद्र को व्यायावतारकार सिद्धसेन का परवर्ती बतलाना केवल Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वर्ष ३४, किरण ४ प्रमेकाले पक्षाग्रह है। उसमें युक्ति या प्रमाण (माघार) कुछ भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिनमें तत्वार्थ सूत्रकार और दिगम्बर प्राचार्यों में भी मतभेद है। प्रतः कुछ बातों में तस्वार्थ समीक्षा का तीसरा प्रश्न है कि 'न्यायशास्त्र के समग्र सूत्रकार मौर मन्य श्वेताम्बर भाचार्यों में मतभेद होना विकास की प्रक्रिया में ऐसा नही हमा है कि पहने जैन इम बात का प्रमाण नहीं है कि तत्वार्थ सूत्रकार श्वेताम्बर न्याय विकसित हुप्रा और फिर बौद्ध एवं ब्रह्मणों ने परम्परा के नहीं हो सकते ।' प्राने इस कथन के समर्थन उसका अनुकरण किया हो।' हमें लगता है कि समीक्षक मे कुन्दकुन्द मोर तत्वार्थ सूत्रकार के नयों और गहस्थ के ने हमारे लेख को पापाततः देखा है. उसे ध्यान से पढ़ा ही १२ व्रतों सम्बन्धी मतभेद को दिया है। इसी मुद्दे में नहीं है। उसे यदि ध्यान से पढ़ा होता, तो वे ऐसा हमारे लेख में प्रायो कुछ बातों का और उल्लेख करके स्खलित और भड़काने वाला प्रश्न न उठाते । हम पुनः उनका समाधान करने का प्रयत्न किया है। उनसे उसे पढ़ने का अनुरोध करेंगे। हमने 'जैन न्याय का इस मुद्दे पर भी हम विचार करते है। प्रतीत होता विकास" लेख में यह लिखा है कि 'जैन न्याय का उद्गम है कि डा. माहब मतभेद और परम्परा भेद दोनों में कोई उक्त (बौद्ध और ब्राह्मग) म्यायों से नही हुमा, अपितु अन्तर नही मान रहे है, जब कि उनमें बहुत अन्तर है। वे दष्टिवाद श्रुत से हमा है। यह सम्भव है कि उन्क न्यायों यह तो जानते है कि अन्तिम श्रत केवली भद्रबाह के बाद आप जैन न्याय भी फला-फूला हो । अर्थात् जैन न्याय जैन संघ दो परम्परामो में विभक्त हो गया-एक दिगम्बर के विकास में ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय का विकास और दूसरी श्वेताम्बर । ये दोनों भी उप-परम्परामो मे प्रेरक हा हो और उनकी विविध क्रमिक शास्त्र. विभाजित है। किन्तु मूलतः दिगम्बर और श्वेताम्बर ये रचना जैन न्याय की क्रमिक शास्त्र-रचना में सहायक हुई दो ही परम्पराएं है। जो प्राचार्य दिगम्बरस्व का पोर हो। समकालीनों में ऐमा मादान प्रदान होना या प्रेरणा जो श्वेताम्बरत्व का समर्थन करते है वे क्रमशः दिगम्बर लेना स्वाभाविक है।' यहाँ हमने कहा लिखा कि पहले और श्वेताम्बर प्राचार्य कहे जाते है तथा उनके द्वारा जैनन्याय विकसित हुमा और फिर बौद्ध एवं ब्रह्मगों ने निर्मित साहित्य दिगम्बर पौर श्वेताम्बर साहित्य माना उसका अनुकरण किया। हमे खेद पोर प्राश्चर्य है कि जाता है। समीक्षक एक शोध संस्थान के निदेशक होकर भी तथ्यहीन अब देखना है कि तत्वार्थ सूत्र मे दिगम्बरत्व का और भड़काने वाली शब्दावली का प्रारोप हम पर लगा समर्थन है या श्वेताम्ब रत्व का। हमने उक्त निबन्ध में रहे हैं। जहां तक जैन न्याय के विकास का प्रश है उममें इसी दिशा में विचार किया है। इस निबन्ध की भूमिका हमने स्पष्टतया बौद्ध पौर ब्राह्मग न्याय के विकास को बांधते हुए उसमे प्रावृक्ष के रूप मे हमने लिखा है" प्रेरक बतलाया है और उनकी शास्त्र-रचना को जैन न्याय कि "जहां तक हमारा ख्याल है, सबसे पहले पण्डित को शास्त्र रचना में सहायक स्वीकार किया है। हाँ, सुखलाल जी 'प्रज्ञाचक्ष' ने तत्वार्थ सूत्र पोर उसकी जैन न्याय का उद्गम उनसे नही हुमा, अपितु दृष्टिवाद व्याख्यानों तया कर्तृत्व विषय में दो लेख लिखे थे मोर नामक बारहवें अगश्रुत से हुमा। अपने इस कथन को उनके द्वारा तत्वार्थ सूत्र और उसके कर्ता को तटस्थ सिद्धसेन (द्वात्रिशिकाकार), प्रकलंक, विद्यानन्द मोर परम्परा (न दिगम्बर, न श्वेताम्बर) का सिद्ध किया था। यशोविजय के प्रतिपादनों से पुष्ट एवं प्रमाणित किया इसके कोई चार वर्ष बाद सन् १९३४ में उपाध्याय है। हम पाठकों, खासकर समीक्षक से अनुरोध करेंगे कि श्री प्रात्माराम जी ने कतिपय श्वेताम्बर भागमों के सूत्रों वे उस निबन्ध को गौर से पढ़ने की कृपा करें और सही के साथ तत्वार्थ सूत्र के सूत्रों का तथोक्त समन्वय करके स्थिति एवं तथ्य को अवगत करें। तस्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय' नाम से एक ग्रन्थ लिखा डा० सागरमल जी ने चौथे पोर मन्तिम मुद्दे में मेरे और उसमें तत्वार्य सूत्र को श्वेताम्बर परम्परा का प्रय तस्वार्थ सबकी परम्परा' निबाघ को लेकर लिखा है कि प्रसिद्ध किया जब यह अन्य पणित सुखलाल जी को प्राप्त Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति पावश्यक हुमा, तो अपने पूर्व (तटस्थ परम्परा) के विचार को छोड २. एक साथ १९ परीषह, एक साथ बोस परीषह, कर उन्होंने उसे मत्र श्वेताम्बर परम्परा का प्रकट किया ६-१७ उत्तरा० त० जना० पृ.२०८ तथा यह कहते हुए कि 'उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा ३. तीर्थकर प्रकृति के १६ तीर्थकर प्रकृति के २० बंधके थे मोर उनका सभाष्य तत्वार्थ सचेल पक्ष के श्रुत के बंध कारण, ६-२४ कारण (ज्ञातृ सू०८.६४) प्राधार पर ही बना है।'-'वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर ४. विविक्तशय्यासन तप, संलीनता तप, (व्याख्या प्र० परम्परा में हुए, दिगम्बर मेन। नि:सकोच तत्वार्थसूत्र ६.१६ सू. २५७८) और उसके कर्ता को श्वेताम्बर होने का प्रपना निर्णय भी ५. नाम्यपरीषह, 8-8 मचेलपरीषह (उत्तरा० सू०, दे दिया है।" पु. ८२ इसके बाद पं० परमानन्दजी शास्त्री," पं फल चन्द्र ६. लोकान्तिक देवो के लोकान्तिक देवों के भेन जी शास्त्री" १० नाथराम जी प्रेमी" जैसे कुछ दिगम्बर ८ भेद ४.४२ (ज्ञात, भगवती) विद्वानों ने भी तत्वार्थ सूत्र की जांच की। इनमें प्रथम के दो विद्वानो ने उसे दिगम्बर और प्रेमी जी ने यापनीय यह ऐमा मौलिक अनार है, जिसे श्वे० प्राचार्यों का ग्रन्थ प्रकट किया। हमने भी उस पर विचार करना मतभे: नही कहा जा सकता। वह तो स्पष्टतया परम्परा उचित एव मावश्यक समझा मोर उमी के फलस्वरूप भेद का प्रकाशक है। नियुक्तिकार भद्रबाहु या अन्य तत्वार्थसूत्र की मूल परम्परा खोजने के लिए उक्त निबन्ध श्वेता. प्राचार्यों ने सचेल श्रुत का पूरा अनुगमन किया है, लिखा। अनुमन्धान करने और साधक प्रमाण मिलने पर पर तत्वार्थ मूत्र कार ने उसका अनुगमन नहीं किया। हमने उसकी मल परम्परा दिगम्बर बतलायी। समीक्षक प्रन्यथा सचेत निट उन ने उन्हे निरस्त न कर मात्र व्याख्यान दिया है। किन्तु मेन मिलता। पाख्यान समीक्षा नहीं कहा जा सकता, अपितु वह अपने पक्ष का समर्थक कहा जायेगा। तत्वार्थ सूत्र मे 'अचेलपरीषह' के स्थान पर 'नाग्न्य. तत्वार्थसत्र मौर कन्दकुन्द के ग्रन्थों मे प्रतिपादित परीषद' रखने पर विचार करते हुए हमने उक्त निबन्ध नयों और गहस्थ के १२ वनों में वैचारिक या विवेचन मे लिखा था कि 'प्रचेल' शब्द जब भ्रष्ट हो गया और पद्धति का अन्तर है। ऐसा मतभेद परम्परा की भिन्नता उसके अर्थ मे भ्रान्ति होने लगी तो प्रा० उमास्वाति को प्रकट नहीं करता। समन्तभद्र, जिनसेन मोर सामदेव ने उसके स्थान मे नग्नता-सर्वथा वस्त्र रहितता अर्थ को के प्रष्ट मूल गुण भिन्न होने पर भी वे एक ही (दिगम्बर) स्पष्टत ग्रहण करने के लिए 'नाग्न्य' शब्द का प्रयोग परम्परा के है। पात्रभेद एव कालभेद हैं उनमें ऐसा किया। इसका तर्कसंगत समाधान न करके डा. सागरमल विचार भेद होना सम्भव है । विद्यानन्द ने अपने ग्रन्यो में जी लिखते है कि 'डा० साहब ने वे० प्रागमों को देखा प्रत्यभिज्ञान के दो भेद माने हैं और अकलक, माणिक्यनन्दिनी ही नही है। श्वे० प्रागमों मे नग्न के प्राकृत रूप नग्न या पादि ने उसके अनेक (दो से ज्यादा) भंद बतलाये है। णगिण के अनेक प्रयोग देखे जाते हैं।' प्रश यह नहीं है पौर ये सभी दिगम्बर प्राचार्य हैं। पर तस्वार्थ सूत्र और कि प्रागमों में नग्न के प्राकृत रूप नग्न या णगिन के सचेलश्रुत मे ऐसा अन्तर नही है। उनमें मौलिक अन्तर प्रयोग मिलते हैं। प्रश्न यह है कि श्वे० प्रागमों में क्या है, जो परमरा भेद का सूचक है। ऐसे मौलिक अन्तर को 'मचेल परीषह' की स्थानापन्न 'नाम्य परीषह' उपलब्ध ही हमने उक्त निबन्ध मे दिखाया है। संक्षेप मे उसे यहाँ है? इस प्रश्न का उत्तर न दे कर केवल उनमें मान्य' दिया जाता है - शब्द के प्राकृत रूपों (नग्न, नगिन) के प्रयोगों की बात तस्वार्थसूत्र सचेल भ्रत १. प्रदर्शनपरीषद, ६-६-१४ दंसणपरीसह, सम्मत्तपरीसह करना और हमें श्वे० भागमों से अनभिज्ञ बताना न (उत्तर.. सू० पछठ ८.) समाधान हैं और न शालीनता है। वस्तुत: उन्हें यह Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20, 34 कि. 4 अनेकान्त बताना चाहिए कि उनमें नान्य परीषह है। किन्तु यह को एक बाघ तप बतलाया है, जो उनकी सक्षम सव्य है कि उनमें 'नाग्य परीषह नही है। सत्वार्थ सूत्रकार सिद्धान्तशता को प्रकट करता है / वास्तव में पर्या विविक्त मे ही उसे 'अचेलपरोषह' के स्थान में सर्वप्रथम अपने में नही हो सकती। मार्ग में जब साधु गमन करता है तो उसमे उसे मार्गजन्य कष्ट तो हो सकता है और उसे सहन तस्वार्थ सूत्र में दिया है। करने से उसे परीषहजय कहा जा सकता है। किन्तु उसमें उक्त निबन्ध में परम्पराभेद की सचक तत्वार्थसूत्र गत विविक्तपना नहीं हो सकता और इसलिए उन्होंने विविक्त एक बात यह कही है" कि तत्वार्थ सूत्र मे श्वे० श्रुतमम्मत चर्या नप नही बतलाया / शय्या और पासन दोनों एकान्त संलीनता तप का ग्रहण नहीं किया, इसके विपरीत उसमें में हो सकते हैं। प्रतएव उन्हें विविक्त शय्यासन नाम से विविक्तशय्यासन तप का ग्रहण है, जो श्वे० श्रुत में नहीं एक तप के रूप में बाह्य तपों में भी परिगणित .या गया है। हरिभद्रसरि के" अनुसार संलीनता तप के चार भेदों है। डा० सागरमल जी सूक्ष्म विचार करेंगे, तो उनमे मे परिगणित विविक्त चर्या द्वारा भी तत्वार्थ सूत्रकार के स्पष्टतया अर्थभेद उन्हें ज्ञात हो जायेगा। प० सुखलाय जी" विविक्त शय्यासन का ग्रहण नही हो सकता, क्योकि ने चर्या मोर शय्यासन मे प्रथं भेद स्वीकार किया है। विविक्त चर्या दूसरी चीज है और विविक्त शम्पसन अलग उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'स्वीकार किये धर्म जीवन को पुष्ट रखने के लिए प्रसंग होकर भिन्न-भिन्न स्थानों में 2. सागरमल जी ने हमारे इस कथन का भी बिहार पोर किसी भी एक स्थान में नियत वास स्वीकार प्रयाध समीक्षण करते हुए लिखा है कि 'डा० साहब ने न करना चर्या परीषह है।'-'मासन लगा कर बैठे हए में और विविक्तशय्यासन में भी अन्तर मान ऊपर यदि भय का प्रसंग पा पड़े तो उसे प्रकम्पित भाव कि किस प्राधार पर वे इनमें अन्तर करते है, से जोतना किंवा मासन से च्युत न होना निषद्या परीषह इसका कोई स्पष्टीकरण नही दे पाये हैं, वस्तुत: दोनों में है-जगह में समभावपूर्वक शयन करना शय्यापरीषह है।' कोई प्रभेद है ही नहीं।' प्राशा है डा. साहब चर्या, शय्या, मासन के पण्डित जी उनके इस समीक्षण पर बहुत पाश्चर्य है कि जो द्वारा प्रदर्शित मर्थभेद को नही नकारेंगे और उनकी अपने को श्वे० भागमों का पारंगत मानता है वह विविक्त को स्वीकारेंगे। चर्या और विविक्त शय्यासन के पर्थ मे कोई भेद नहीं तस्वार्थ सूत्र में परम्परा भेद की एक और महत्वपूर्ण बतलाता है तथा दोनों को एक ही कहता है। जैन धर्म बात को उसी निबन्ध में प्रदर्शित किया है " हमने लिखा का साधारण ज्ञाता भी यह जानता है कि चर्चा गमन है कि श्वेताम्बर श्रत मे तीथंकर प्रकृति के 20 बन्ध (चलने) को कहा गया है और शय्यासन सोने एवं बैठने कारण बतलाये हैं और इस में ज्ञातृ धर्म कांगसूत्र (8.64) को कहते हैं। दोनों में दो भिन्न दिशाबों की तरह भेद तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु को मावश्यक नियुक्ति की चार हैसाथ जब ईर्यासमिति से चलता है-चर्या करता है गाथाएं प्रमाण रूप में दी है। किन्तु तत्वार्थ सूत्र में सबब सोताठता नहीं है और जब सोता-बैठता है तब तोयंकर प्रकृति के 16 ही कारण निर्दिष्ट हैं, जो दिगम्बर बह चलता नहीं है / वस्तुत: उनमें पूर्व और पश्चिम जैसा परम्परा के प्रसिद्ध प्रागम 'षट्खण्डागम (3.14) के अन्तर है। पर डा० सागरमल जी अपने पक्ष के समर्थन प्रसार है और उनका वही क्रम तथा वही नाम है।' की धुन में उस पन्तर को नहीं देख पा रहे हैं। यहां विशेष ध्यातव्य है कि तत्वार्थसूत्र ने 22 परीषहो मे चर्या, इसकी भी उन्होंने समीक्षा की है। लिखा है कि निषद्या मोर शय्या इन तीनों को परीषह के रूप में प्रथम तो यह कि तत्वार्थ एक सूत्रग्रम्य है, उसकी शैली गिनाया है। कि तपों का विवेचन करते हुए उन्होंने संक्षिप्त है, दूसरे तत्वार्थ सूत्रकार ने १६की संस्थाका चर्या को तप नहीं कहा, केवल शस्या भोर भासन दोनों निर्देश नहीं किया है। यह लिखने के बाद तत्वार्थस्त्र में Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसम्मान में पूर्वाग्रहमुक्ति पावश्यक सचेल बतपना सिद्ध करने के लिए पुन: लिखा है कि अनावश्यक है। तत्संख्यक कारणों को गिना देने से ही वह 'प्रावश्यक नियुक्ति मोर ज्ञात धर्मकथा में जिन वीस बोलों संख्या सुतरां फलित हो जाती है १६ की संख्या न देने का का उल्लेख है उनमें जो ४ बातें अधिक है वे है-धर्मकथा, यह अर्थ निकालना सर्वथा गलत है कि उसके न देने से सिद्धभक्ति, स्थविरभक्ति (बात्सल्य), तपस्वी-वात्सल्य तत्वार्थ सूत्रकार को २० कारण अभिप्रेत हैं और उन्होंने और पपूर्वज्ञान ग्रहण । इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं सिद्ध भक्ति प्रादि उन चार बन्ध कारणों का संग्रह किया है, जो दिगम्बर परम्परा को अस्वीकृत रही हो, इसलिए है, जिन्हें मावश्यक नियुक्ति पोर ज्ञातरम वथा में २० छोड़ दिया हो, यह तो मात्र उसकी संक्षिप्त शैली का कारणो (बोलो) के अन्तर्गत बतलाया गया है, डा० परिणाम है। सागरमल जी का उससे ऐसा अर्थ निकालना नितान्त भ्रम इस सम्बन्ध में हम समीक्षक से पूछते हैं कि ज्ञ'तृधर्म- है। उन्हे तत्वार्थसूत्र की शैली का सूक्ष्म अध्ययन करना कथा सूत्र भी सूत्र ग्रन्य है, उसमे बीस कारण क्यों गिनाये, चाहिए। दूसरी बात यह है कि तीर्थकर प्रकृति के १६ तस्वार्थसत्र की तरह उसमे १६ ही क्यों नही गिनाये, बन्ध कारणों का प्ररूपक सत्र (त० स० ६.२४) जिस क्योकि सूत्र ग्रन्थ है और सूत्र ग्रन्य होने से उसकी भी शैली दिगम्बर थुत खट् ण्डागम के मापार से रग गया है सक्षिप्त है। तत्वार्थ सूत्र में १६ की संख्या का निर्देश न उसमे स्पष्टतया 'दंसणविसुज्झदाए-इच्चेदेहि सोलसेहि होने की तरह ज्ञातधर्म कथासत्र में भी २० को संख्या कारण हि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंचंति - का निर्देश न होने से क्या उसमे २० के सिवाय और भी (३.४१, पुस्तक ८) इस सूत्र" में तथा उसके पूर्ववर्ती कारणों का समावेश है ? इसका उत्तर समीक्षक के पास सूत्र" (३.४०) मे भी १६ की सख्या का निर्देश है। प्रता नही है। वस्तुत: तत्वार्थ सूत्र मे सचेलश्रुत के माघार पर खट्खण्डागम के इन दो सूत्रों के पाघार से रचे तत्वार्थसत्र तीर्थकर प्रकृति के बन्धकारण नही बतलाये, अन्यथा के उल्लिखित (६-२४) सूत्र मे १६ की संख्या का निर्देश पावश्यक नियुक्ति की तरह उसमे ज्ञातधर्म कथासत्र के अनावश्यक है। उसकी मनुवृत्ति वहाँ से सुतरा हो जाती है। सिद्धभक्ति मादि प्रधिक ४ बातें दिगम्बर परम्परा प्रतिपादित होते। किन्तु उसमें दिगम्बर परम्परा के मे स्वीकृत है या नहीं, यह अलग प्रश्न है। किन्त यह सस्य षटखण्डागम के अनुसार वे ही नाम मोर उतनी ही है कि वे तीर्थकर प्रकृति की अलग बम्घकारण नहीं मानी १६ की संख्या को लिए हए बन्धकारण निरूपित है। गयो । सिद्ध भक्ति कर्मध्वंस का कारण है तब वह कर्मबन्ध का कारण कैसे हो सकती है। इसी से उसे तीर्थकर प्रकृति इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थसत्र दिगम्बर श्रुत के माघार पर रचा गया है और इसलिए वह दिगम्बर परम्परा का प्रन्य के बन्ध कारणों में सम्मिलित नहीं किया। अन्य तीन है और उसके कर्ता दिगम्बराचार्य है। उत्सूत्र और उत्सत्र । बातो मे स्थविर भक्ति पोर तपस्वि वात्सल्य का प्राचार्य लेखक श्वेताम्बर परम्परा का अनुसारी नही हो सकता, भक्ति एवं साधु-समाधि मे तथा अपूर्वज्ञान ग्रहण का यह डाक्टर साहब के लिए अवश्य चिन्त्य है। अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग मे समावेश कर लेने से उन्हें पृषक अब रही तत्वार्थ सूत्र में १६ की संख्या का निर्देशन ग्रहण करने की प्रावश्यकता नहीं है। समीक्षक को होने की बात । सो प्रथम तो वह कोई महत्व नही रखती, गम्भीरता और सूक्ष्म अनुसन्धान के साथ ही समीक्षा करनी क्योंकि तत्वार्थसूत्र में जिसके भी भेद प्रतिपादित हैं, चाहिए, ताकि नीर-क्षीर न्याय का अनुसरण किया जा उसको संख्या का कही भी निर्देश नही है। चाहे तपो के सक भार एक पक्ष में प्रवाहित होने से बचा जा सके। भेद हों, चाहे परीषहों प्रादि के भेद हों। सूत्रकार की यह हमने अपने उक्त निबाघ मे दिगम्बरस्व की समर्थक पनि है, जिसे सर्वत्र अपनाया गया है। प्रतः तत्वार्थ एक बात यह भी कहो है कि तत्वार्थसूत्र में स्त्रीपरीषह सत्रकार को तीर्थकर-प्रकृति के बन्ध कारणों को गिनाने मोर दंशमशक इन दो परीषहों का प्रतिपादन है, जो के बाद संख्यावाची १६ (मोलह) के पद का निर्देश प्रचेलश्रुत के अनुकूल है। उसकी सचेल श्रत के मापार से Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष ३४, कि०४ ममेकाम्त रचना मानने पर इन दो पराषहों की तरह पुरुष परीषह पार्थक्य के बीज प्रारम्भ हो गये और वे उत्तरोत्तर बढ़ते का भी उसमें प्रतिपादन होता, क्योंकि सचेल श्रुत में स्त्री गये। इन बीजों में मरूप वस्त्रग्रहण था। वस्त्र को पौर पुरुष दोनों को मोक्ष स्वीकार किया गया है तथा स्वीकार कर लेने पर उसकी अचेल परीषह के साथ दोनों एक-दूसरे के मोक्ष में उपद्रवकारी हैं। कोई कारण । संमति बिठाने के लिए उसके अर्थ में परिवर्तन कर उसे नहीं कि स्त्री परीषह तो प्रभिहित हो और पुरुषपरीषह मल्पचेल का बोधक मान लिया गया। तथा सवस्त्र साधु मभिहित न हो, क्योंकि सचेल त के अनुसार उन दोनों की मक्ति मान ली गयी। फलतः रावस्त्र स्त्री की मक्ति में मुक्ति के प्रति कोई वैषम्य नहीं। किन्तु दिगम्बर श्रुत भी स्वीकार कर ली गयी। साधुनों के लिए स्त्रियों द्वारा के अनुसार पुरुष में वज्रवृषभनाराच संहनन त्रय हैं, जो किये जाने वाले उपद्रवों को सहन करने को प्रावश्यकता मुक्ति में सहकारी कारण है। परन्तु स्त्री के उनका प्रभाव . . देने हेतु संवर के साधनों में स्त्रीपरीषह का प्रतिहोने से उसे मुक्ति सभव नहीं है और इसी से तत्वार्थसूत्र पादन तो .का-त्यों बरकरार रखा गया। किन्तु स्त्रियों में मात्र स्त्रीपरीषह का प्रतिपादन है, पुरुषपरीषह का के लिए पुरुषों द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों को सहन नहीं। इसी प्रकार दंशमशक परीषह सचेल साधु को नहीं करने हेतु संबर के साधनों में पुरुषपरीषह का प्रतिपादन हो सकती-नग्न-दिगम्बर- पूर्णतया चेल साधु को सचेल श्रत में क्यों छोड दिया गया, यह वस्तुतः अनुसन्धेय ही संभव है। __ एवं चिन्त्य है। अचेल त में ऐसा कोई विकल्प नहीं है। समीक्षक ने इन दोनों बातों की भी समीक्षा करते प्रतः तत्वार्थसूत्र में मात्र स्त्रोपरीषह का प्रतिपादन होने से हुए हमसे प्रश्न किया है कि 'जो ग्रन्थ इन दा पराषहा का वह अचेल श्रत का अनुसारी है। स्त्रीमुक्ति को स्वीकार उल्लेख करता हो, वह दिगम्बर परम्परा का होगा, यह न करने से उसमें पुरुषपरीषद के प्रतिपादन का प्रसंग ही कहना भी उचित नहीं है। फिर तो उन्हें श्वे० प्राचार्यों नहीं पाता। स्त्रीपरीषद मोर दंशमकपरीषह इन दो एवं अन्धों को दिगम्बर परंपरा का मान लेना होगा, परीषहों के उल्लेखमात्र से ही तत्वार्थसूत्र दिगम्बर ग्रन्थ क्योंकि उक्त दोनों परीषहों का उल्लेख तो सभी श्वे० नही है, जिससे उनका उल्लेख करने वाले सभी पवे. प्राचायाने एवं श्वे. पागमों में किया गय. पोर किसी प्राचार्य और अन्य दिगंबर परपरा के हो जाने या मानने श्वे० प्रग्य में पुरुषपरीषह का उल्लेख नहीं है।' का प्रसंग माता, किन्तु उपरिनिर्दिष्ट वे अनेक बातें है, जो समीक्षक का यह प्रापादन उस समय बिल्कुल निरर्थक सचेल श्रत से विरुद्ध है और प्रचेल श्रुत के अनुकूल है। सित होता है जब जैन संघ एक प्रविभक्त संघ था भोर ये अन्य सब बातें श्वे. प्राचार्यों और उनके ग्रन्थों में नहीं तीर्थकर महावीर की तरह पूर्णतया प्रचेल (सर्वथा वस्त्र है। इन्हीं सब बातो से दो परंपरामो वा जन्म हुमा मोर रहित) रहता था। उसमे न एक, दो प्रादि वस्त्रो का महावीर तीर्थकर से भद्रबाहु श्रुतके वली तक एक रूप में ग्रहण पापोर न स्त्रीमोक्ष का समर्थन था । गिरि-कन्दरामों, चला पाया जैन संघ टकड़ों में बट गया। तीव्र एवं मूल वृक्ष कोटरों, गुफामों, पर्वतों और वनो मे ही उसका वास के उच्छेदक विचार-मेद के ऐसे ही परिणाम निकलते हैं। पा। सभी साधु मचेलपरीषद को सहते थे। प्रा० समन्तभद्र दंशमशक परीषद वस्तुत: निर्वस्त्र (नग्न) साधु को (२री-३ री शती) के नुमार उनके काल में भी ऋषि- ही होना सम्भव है, सवस्त्र साधु को नहीं, यह साधारण गण पर्वतों और उनको गुफामों में रहते थे। स्वयम्भूस्तोत्र व्यक्ति भी समझ सकता है। जो साधु एकाधिक कपड़ों में २२वें तीर्थकर मरिष्टनेमि के तपोगिरि एवं निर्वाणगिरि सहित हो, उसे डांस-मच्छर कहां से काटेंगे, तब उस कर्जयन्त पर्वत को तीथं संशा को वहन करने वाला बतलाते परीषद के सहन करने का उसके लिए प्रश्न ही नहीं हए उन्होंने उसे ऋषिगणों से परिव्याप्त कहा है। पौर उठता। सचेल श्रुत में उसका निर्देश मात्र पूर्वपरंपरा का उनके काल में भी वह वंसा था। स्मारक भर है। उसकी सार्थकता तो पचेल श्रत में ही भद्रबाह के बाद जब संघ विभक्त हवा तो उसमें संभव है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति मावश्यक प्रतः ये (नाम्यपरोषह, दंशमशकपरीषद पोर स्त्री- कहने वालो के सम्बन्ध में भी कुछ लिखो और उनके परीषह) तीनों परीषह तत्वार्थ सूत्र में पूर्ण निर्ग्रन्थ (नग्न) सत्य की जांच कर दिखाते कि उसमें कहा तक सचाई, साधु की दृष्टि से अभिहित हुए है। प्रतः 'तत्वार्थसूत्र की नीर-क्षीर विवेक एव बौद्धिक ईमानदारी है। वास्तव में परंपरा' निबन्ध में जो तथ्य दिये गये है, वे निर्वाध हैं और अनुसन्धान में पूर्वाग्रह की मुक्ति पावश्यक है। हमने उक्त उसे वे दिगम्बर परंपरा का ग्रन्थ प्रकट करते है। उसमें निबन्ध में वे तथा प्रस्तुन किये है जो अनुसन्धान करने समीक्षक द्वारा उठायी गयो पापत्तियों में से एक भी पर उपलब्ध हुए है। यदि हमारे तथ्य एकपक्षीय हैं तो पापत्ति बाधक नही है, प्रत्युत वे सारहीन सिद्ध होती है। हमारा अनुरोध है कि अब तक निकले, प्रकाश में पाये और जो अभी प्रकाश में पाने वाले है उन तमाम उभय समीक्षा के अन्त में हमें कहा गया है कि 'अपने धर्म पक्ष के निष्कर्षों पर पूर्ण तटस्थ विद्वान के द्वारा विमर्श पौर संप्रदाय का गौरव होना अच्छी बात है, किन्तु एक एवं अनुसन्धान कराया जाये । विद्वान् से यह भी अपेक्षित है कि वह नीर-क्षीर विवेक से बौद्धिक ईमानदारी पूर्वक सत्य को सत्य के रूप में प्रकट हम डा० सागरमल जी को धन्यवाद देंगे कि उक्त करे । प्रच्छा होता, समीक्षक समीक्ष्य ग्रन्थ की समीक्षा के ग्रन्य की समीक्षा के माध्यम से उन्होंने विचार के लिए समय स्वयं भी उसका पालन करते और 'उमास्वाति कई प्रश्न या मुद्दे प्रस्तुत किये, जिन पर हमें कितना हो श्वेतांबर परंपरा के थे और उनका सभाष्य तत्वार्थ सचैल नया और गहरा विचार करने का अवसर मिला। पक्ष के श्रुन के माधार पर ही बना है।' 'वाचक दिनाक १५ जुलाई १६८१, उमास्वाति श्वेतांबर परंपरा में हए, दिगबर में नही। ऐमा वाराणसी (उ० प्र०) सन्दर्भ सूची १. जैन सन्देश, वर्ष ४४, अंक ५३, संच-भवन चौरासी, (ख) से भगव अग्हि जिणो के वली मम्वन्न सव्व. मथुरा, नवम्बर १९८० जनमित्र, वर्ष ८१ अक ५२, भावदरिसी सम्वलो! ध्वजीवाणं सब्वं सूरत, १९८०, जैन बोधक, वर्ष ६६ अंक ५१, भावाइ जाणमाणो पासमाणो । १९८०, वीरवाणी, वर्ष ३३, अक ६, जयपुर, -शाचा मू०.२ श्र०३ दिसम्बर १९८०, तीर्थ कर, वर्ष १०, अंक ६, इन्दौर ७ प्रवच० सा०, १४७, ४८, १६, कुन्दकुन्द भारती, अक्टूबर १९८० मादि। फल्टन, १९७०। २. कोसल, जनल माफ दि इंडियन रिसर्च सोसाइटी माफ अवध, वोल्यूम ३, नं० १,२,१२२२ दिल्ली ८ तीर्थ कृत्ममयानां च परस्पर विरोघतः । दरवाजा फैजाबाद, १९८१ । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरुः ॥३॥ ३. खण्ड ६, अंक १०, जनवरी १९८१, जैन विश्व भारती, दोषावरणयोहानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । लाडनं (राज.)। क्वचिद्यथा स्वहेतुम्यो बहिरन्त मलक्षयः ॥४॥ ४. वर्ष ३२, अंक ५, मार्च १९८१, पा० विद्याश्रम शोध सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्य या। संस्थान, वाराणसी-५ । अनुमेयत्वतोऽम्यादिरिति सर्वश-संस्थितिः ।।५।। ५. प्रनेकान्त, वर्ष ५, किरण १२, ई० १६४५, जनदर्शन स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । पौर प्रमाणशास्त्र परि.पृ० ५३८, वीरसेवा मन्दिर अविरोधो यविष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ ट्रस्ट, वाराणसी-५ जून १९८० । स्वन्मतामृतवाह्यान सर्वध कान्तवादिनाम् । ..(क) सम्वलोए सव्वजीवे सम्बभावे सम्मसमं जाणदि प्राप्ताभिमानदग्धान! स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ पस्सवि -षट् खं० ५.५.६८ । --समन्तभद्र, प्राप्तमी०,३,४,५,६,७। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वर्ष ३४,कि. अनेकान्त ६. स्वाभिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । सत्यमर्थ बलादेव पुरुषातिशयो मतः । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्राश्यते ।। प्रभवः पौरुषेयोऽस्यप्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥ पार्श्वनायचरि० १११७ -न्या० वि० का० ४१२-१३ १०. देवागमेन येनात्र व्यक्तो देवाऽऽगमः कृतः । १६. मी० श्लो० बा०, पृ० ६१६ । -पाण्डव पृ०। २०. दश्व सल्लकावणय उप्पादध्ययधुत्त सजतं । ११. सर्वज्ञेषु च भूयस्सु विरुद्धार्थोपदेशिषु । गुणपज्जयासयं वा जंतं भण्णंति सम्वाह ।। - कुन्दकुन्द, पंचास्ति०, गा० १० तुल्ण्हेतुषु सर्वेषु को नामकोऽवधार्यताम् ।। अथवा-'सद्रव्यलक्षणम्', उत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।' सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। -उमास्वाति (गद्धपिच्छ), त० सू०, ५-२६, ३० । प्रथावभावपि सर्वज्ञो मतभेदः कथं तयोः ।। प्रत्यक्षाद्य विसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य च । २१. घट-मौलि-स्वार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । सद्भाववारणे शक्त को न तं कल्पयिष्यति ।। शोकप्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति स हेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोति दधिवतः । बौद्ध विद्वान शान्तरक्षित ने इन कारिकाप्रो में प्रथम की दो कारिकाए अपने तत्वस ग्रह (का० ३१४८-४६) प्रागोरस्वतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् ।। -अ.० मी० स०,५६,६० मे कुमारिल के नाम से दी है। दूसरी कारिका २२. वर्धमानकभगे च रुचकः क्रियते यदि । विद्यानन्द ने प्रष्टस० पृ० ५ मे 'तदुक्तम्' के साथ तदा पूर्वाथिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरायिनः।। उद्धत को है। तीसरी कारिका मीमांसाश्लोकवातिक हेमाथिनस्तु माध्यस्थ्यं तरमा वस्तु प्रयात्मकम् । (चोदयासु०) १३२ है। न नाशेन विना शोको नोत्सादेन विना मुखम् ।। १२. प्राप्तमी का० ४,५। स्थित्वा विना न माध्यस्थ्य तेन सामान्य नित्यता ।। १३. मी० श्लो० चो मू०, का० १३२ । -मी० श्लो० वा०,१०६१६ । १४. 'तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादियंत्र हेतुलक्षणं पुष्गाति तं २३. "उक्त स्वामिसमन्तभद्रस्त दुपजीविना भद्रं नारिकथं चेतन: प्रपिषेद्ध मर्हति सशयितु वा।' मागे समन्तभद्र को पूर्वोल्लिखित कारिका ५६ और -प्रष्टश० का० ५। कुमारिल भट्ट को उपर्युक्त कारिकामो मे से प्रारम्भ १५. प्रकलंक के उत्तरवर्ती बौद्ध विद्वान् शान्तक्षित ने भी की डेढ कारिका उद्धत है । कुमारिल के खण्डन का जवाब दिया है। उन्होने त्या. वि दि० भाग १,१०४३६ । लिखा है २४. एतेनैव यत्किचिदयुतमश्लीलमा कुलम् । एवं यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्वादिलक्षणा: । प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम वात् ।। निहन्तुं हेतवोऽशक्ताः को न त कल्पयिष्यति।। --प्रमाणवा० १.१८२ -तत्वसं० का०८८५। २५. स्यावाद: सर्वथकान्तत्यागारिकवतचिद्विधिः । १६. प्राप्तमी० का०६, ७, वीरसंवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, सप्तभगनयापेक्षो हेयादेय विशेषकः ।। -प्राप्तमी० का० १०४ । वाराणसी, दि० स० १६७८ । २६. भूतबली-पुष्पदन्त, पट् ख० १.११७६ । १७. एवं यः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । २७. सिय प्रत्यि णस्थि उहयं प्रवत्तवं पुणो य तत्तिदय । सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ।। दवं खु सत्तभग प्रादेसवसेण संभवदि । नर्ते तदागमात्सिद्धयेत् न च तेनागमो विना । -पंचास्ति०, गा० १४ । -मीमांसा श्लो०८७। २८. सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः । १८. एवं यस्केवलज्ञान मनुमान विजम्भितम् । चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ॥ नर्ते तवागमास्सियेत् न तेन बिनाऽऽगमः ।। -प्रमाणवि०, १-१८ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसम्मान में पूर्वाग्रहमक्ति प्रावश्यक २६. पथचित्ते सदेवेष्ट कथंचिदसदेव तत् । ३६. कुमारिल के प्रसिद्ध प्रमाण लक्षण (तत्रापूर्थिविज नं तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ।। निश्चित बाधजितम् । प्रदुष्टकारणारब्धं प्रमाण लोकसदेव सर्व को नेच्छेन स्वरूपादिचतुष्टयात् । सम्मतम् ।। ) का 'बायजितम' विशेषण न्यायावतार के असदेव विपर्यामान चेन्न व्यवतिष्ठते ।। प्रमाण लक्षण में वायजितम्' के रूप में प्रनसृत है। -प्राप्तमी० का० १४, १५ प्रादि। ३७. पात्रस्वामि का 'प्रन्यथानुपपन्नत्वं मादि प्रसिद्ध हेतु३०.(क) ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्र परमपि, लक्षण न्यायावतारमे 'अन्यथानुपपन्नस्व हेतोलक्षणमोरि. च बहिर्भासि भावप्रवादम्, । तम्' इस हेतुलक्षण प्रतिपादक कारिकाके द्वारा अपनाया चके लोकानुरोधात् पुनरपि, गया है और 'ईरितम्' पद का प्रयोग कर उसकी सबल नेति तत्वं प्रपेरे॥ प्रसिद्धि भी प्रतिपादित की गयी है। न ज्ञाता तम्य तस्मिन् न च, ३८. जैन दर्शन पौर प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ. ७ . फरमपरं ज्ञायते नापि किंचित । ३६. द्वात्रिशिका, १.३०. ४.१५ । इत्यश्लील प्रमत्तः प्रलपति, ४०. तत्वार्थवा० ८ १,२६५ । जडवीराकुल व्याकुलाप्त: ।। ४१. प्रष्टस० प० २३८ । -न्या० वि०१.१६१।। ४२. प्रष्ट सह वि० टी० १०१। (ख) दध्युष्ट्रादेर भेदत्वप्रसंगादेक चोदनम् । ४३. जैन दर्शन और प्रमाणशा०, ५०७६ । पूर्वपक्षमविज्ञाय दूपको विदूषकः । ४४. प्रनेकन्त, वर्ष, ४ कि०१ । गुगतोऽरि मृमो जातो मृग'ऽपि सुगतः स्मृतः । ४५. वही, वर्ष ४, कि० ११-१२ तथा वर्ष ५, कि०१२। तथापि सुगतो व द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यने ।। ४६. जैन साहित्य का इतिहास, पृ. ५३३, द्वि.सं., १९५६ । त दातावर ४७. जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ.८३ । चोदिनो दधि सादेति विमष्टमभिघावति ? ४८. वही, पृ० ८१ । ~म्या० वि०३.३७३, ३७४ ४६. व्यारूपाप्र० श० २५, उ०७, सू०८की हरिभद्र ३१. न्यायक. दि०भा० प्रस्ना० पृ० २७. प्रबल ग्रंयनयः सूकृित वृत्ति । तथा वहीं पृ० ८१ । प्रक० १०६,न्यायकु द्वि० प्रा० पृ० १८-२०। ५०. त• मू०, ६.१६ । ३२. जैनशन पोर प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० १२६ ५१. त० सू०, विवेचन सहित, ६.६, पृ० ३४८ । ५२. जैन दर्शन और प्रमाण शास्त्र पनि०, पृ. ७६८० । ३३. प्राप्तोपज मनु लघाम दृष्टेष्ट विरोधकम् । ५३. षट्ख०, ३.४०, ४१ पुस्तक ८, पृ० ७८-७६ । तत्वोपदेशमा शास्त्र कापयट्टनम् ।। ५४. दंसविसुज्झदाए विणणसाए सीलपदेसु -रस्नो णिरदिचारदाए प्रावासएसु अपरिहीणदाए खणलब३४. दृष्टेष्टानाद्वाक्यात परमार्थाभिधायिनः। बुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपदाए जयाथामे तथा तवे तस्तग्राहिनापन्न मान शाब्दं प्रकीरितम् ॥ साहूण पासुप्रपरि चागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए ३५. (क) न प्रत्यक्ष परोक्षाम्या मेयस्यान्यस्य राभवः । साहूणं वेजावच्च जोगजुत्तदाए परहंतमत्तीए तस्मात्प्रमेयाद्वित्वेन प्रमाण द्वित्तमिष्यते ।। बहदभत्तीए पवयणमसीए परयणवच्छलदाए -प्र० वा० ३.६३ । प्रत्यक्ष च परोक्षं च विघा मेयविनिश्चयात् । पवयणप्पभावणदाए पभिक्षण ममिक्खणं गाणोब-न्यायाव, इलो०१० जोगज़तदाए इच्चे देहि सोलसेहि कारणेहि जीवा (ख) कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । तिस्पयरणामगोदं कम्म बंधति ॥४६॥ -या०वि०प०११। ५५ तस्थ इमेहि सोलसे हि कारणहिजीबो तित्यपरणाम. गोदकाम बघति ॥४०॥ अनुपान दभ्रान्त प्रमाणत्वात् समक्षवत् । -व्यायाव. श्लो०५। इन दोनों सूत्रों में १६ की संख्या का स्पडट मिश Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम निवारण गोविन्दमठ, टेढोनीम, वाराणसी से वि० सं० २०२२ की विजयादशमी को प्रकाशित ब्रह्मसूत्र शादुरभाग्य की सत्यानन्द सरस्वती कृत सत्यानन्दी दीपिका में जैन धर्म के विषय में भ्रान्त सूचनायें दी गई है। उक्त सूचनाम्रों को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि लेखक जैन धर्म के सामान्य सिद्धान्तों से भी अनभिज्ञ है। जैन धर्म की सामान्य जानकारी न रखने वाले पाठक उक्त ग्रन्थ को पढ़ कर जैन धर्म के विषय मे भ्रमित न हो, एतदर्थ उक्त भ्रामक सूचनाओं का निराकरण प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है सत्यानन्दी दीपिका- जीवास्तिकाय तीन प्रकार का है - बद्ध, मुक्त और नित्यसिद्ध । 'प्रस्ति कायत इति मस्टिका' जो मस्ति शब्द से कहा जाय वह मस्तिकाय है। यह जैन ग्रन्थों में परिभाषिक शब्द पदार्थवाची है । पुद्गलास्तिकाय छ: है पृथ्वीमादि चारभूत स्थावर ( बादि) और जम मनुष्य बादि 'पूर्यते वृक्ष जङ्गम । गलन्तीति पुद्गला' पूर्ण हो और गन जायें वे पुद्गल है। यह लक्षण पृथ्वी प्रादि छ: और परमाणु समुदाय में घटता है, अतः वे पुद्गल रहे है। यह लक्षण पृथ्वी प्रादि छः और परमाणु समुदाय में घटता है, अतः वे गल कहे जाते है। सम्यक् प्रवृत्ति से अनुमेय धर्म है। ऊर्ध्वगमनशील जीव की देह मे स्थिति का हेतु प्रघमं है ।" निराकरण जैन धर्म में जीवों को संसारी पौर मूक्त दो ही भागों में विभाजित किया गया है, निश्वसिद्ध जैसा कोई विभाजन प्राप्त नहीं होता है। पुद्गल के अन्तर्गत स्थावर (बुशमादि) और अम मनुष्य धादि की गणना नहीं होती, इनका कलेवर प्रदश्य पौनिक पोद्गलिक पर्याय है। जैनधर्म में धर्म और प्रथमं नामक दो स्वतन्त्र द्रव्य माने गए है जो जीव घोर पुद्गल की गति में उदासीन निमित्त हो उसे धर्म तथा जो इन्हें ठहराने में उदासीन निमित्त हो, उसे प्रथमं द्वय कहते है। डा० रमेशच द्र जैन, बिजनौर ऊर्ध्वगमनशील जीव की देह में स्थिति का हेतु प्रघमंद्रव्य न होकर प्रायुकमं है | सत्यानन्वी दीपिका प्रावरण का प्रभाव प्राकाश है। वह लोकाकाश और प्रलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का है ऊ ऊ लोकों के मन्तर विद्यमान प्राकाश लोकाकाश प्रौर उससे भी ऊर्ध्वं मोक्षस्थान प्रलोकाकाश है, वह केवल मुक्त पुरुषों का प्राश्रयस्थान है । मिथ्याप्रवृत्ति पालव है और सम्प्र प्रवृत्ति सबर और निर्जर है विषयों के प्रभिमुख इन्द्रियों को प्रवृत्ति मात्र है निराकरण - श्रवगाह देने वाले द्रव्य का नाम ग्राकाश है । जितने प्राकाश मे लोक अवस्थित है, उतने ग्राकाश को लोकाकाश तथा शेष सब प्राकाश को प्रलोकाकाश कहते है। लोकाकाश मुक्त पुरुषों का प्रथय स्थान नही है । श्रपितु मुक्त पुरुष लोक के अन्त में रहते है । प्रास्रव । शुभ पोर अशुभ दोनो प्रवृत्तियों से युक्त होता है भा का निरोध सवर है तथा कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है। - सत्यानन्दी दीपिका तस्वज्ञान से मोक्ष नही होता, यह स्थित भावना ज्ञानावरणीय है। महंत दर्शन के अभ्यास से मोक्ष नहीं होता, यह भावना दर्शनावरणीय है बहुत तीर्थंकरों से परस्पर विरुद्ध प्रदर्शन मार्गों में freeभाव मोहनीय है। मोक्षमार्ग को प्रवृत्ति में विघ्नकारक प्रतराय है । ये ज्ञानावरणीय धादि चार कल्याण के घातक होने से पातिप्रसाधु कर्म कहे जाते है। मुझे यह तस्व ज्ञातव्य है, ऐसा अभिमान वेदनीय है, मैं इस नाम का हूं, ऐसा अभिमान नाम है। मैं पूज्य देशिंक महंत के शिष्य वंश में प्रविष्ट हूं, यह प्रभिमान गोत्रिक है और शरीर की स्थिति के लिए कर्म प्रायुष्क है । तस्वज्ञान के धनुकूल होने से ये वेदमीय आदि चारों कवं तस्वावेदक पुण्यवत् शरीर के साथ सम्बन्धी होने से प्रती कर्मसाधु कर्म कहे जाते Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। इस प्रकार ये माठों कर्म जन्म के हेतु होने से प्रास्रव अनुसरण करने वाले शिष्य उसके उपदिष्ट पनिर्धारित मादि द्वारा पुरुष को बांधते है, प्रतः बग्घरूप है। समस्त रूप पर्थ में कैसे प्रवृत्त होंगे? परन्तु व्यभिचरित फर क्लेश कर्मपाश का नाशकर ज्ञान द्वारा सबके ऊपर का निर्धारण होने पर उसके साधनानुष्ठान के लिए सब मलोकाकाश में सतत सुखपूर्वक स्थिति का नाम मोक्ष है लोक प्रनाकुल-नि.सन्देह प्रवृत्त होते हैं, अन्यथा नहीं। अथवा ऊर्ध्वगमनशील जीव धर्माधर्म से मुक्त होकर सतत इसलि{ प्रनिर्धारित प्रर्थ वाले शास्त्र का प्रणयन करता ऊर्ध्वगमन करता है, यही उसका मोक्ष है।' हुमा मत्त पौर उन्मत्त के समान अनुपादेय वचन होगा।' निराकरण - जो ज्ञान को प्रावत करे, वह ज्ञानावरण निराकरण-उपर्युक्त तक संशय के प्राधार पर किया कम है। जो प्रात्मा के दर्शन गुण को प्रकट न होने दे, गया है। जब दोनों धर्मों की प्रपने दृष्टिकोणों से सर्वथा बद्ध दर्शनावरण है। जो मोहित करता है या जिसके द्वारा निश्चित प्रतीति होती है, तब संशय कसे कहा जा सकता महा जाता है वह मोहनीय कम है। जो दाता पोर है ? संशय का प्राकार तो होता है-वस्तु है या नहीं? देय में अन्तर करता है, अर्थात् - दान, लाभ, भो, परन्तु स्याद्वाद में तो दृढ़ निश्चय होता है; वस्तु स्व-स्वरूप और उपभोग और वीर्य मे रुकावट लाता है, वह अन्तगय से है ही पर रूप में नही ही है । समग्र वस्तू उभयात्मक है कर्म है। जो वेदन करता है या जिसके द्वारा वेदा जाता ही। चलित प्रतीति को संशय कहते है, उसकी दढ निश्चय है. वह वेदनीय कर्म है। जो संमारी प्रात्मा के निमित्त मे सम्भावना नहीं की जा सकती।' हारीर-प्रांगोपागादि की रचना करता है वह नामकम है। सत्यानन्वी दीपिका--पदार्थों में प्रवक्तव्य भी संभव जिसके द्वारा उच्च नीच कहा जाता है, वह गोत्र कर्म है, नहीं है यदि प्रवक्तव्य है तो नहीं कहे जायेंगे, परन्तु कहे जिसके द्वारा यह जीव नरक मादि भवों मे रुका रहता है, जाते है और पुन: प्रवक्तध्य है, यह विरुद्ध है। वह प्रायकम है।' ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय पोर निराकरण- जैनधर्म पदार्थों को सर्वथा HERBA अन्तराय ये घातिया कर्म कहे जाते है। क्योकि ये जीव नही कहता, उसकी दृष्टि में पदार्थ कथंचित् वक्तव्य भी के परिणामों को सर्वदेश पात करते है, अन्य चार कर्म है। विरोघ तो अनुपलम्भ साध्य होता है अर्थात जो वस्त प्रघातिया कहे जाते हैं-ग्रंश का घात करते हैं। क्योंकि जैसी दिखाई न दे, उसे वैसी मानने पर होता है। जब प्राति कर्म के प्रभाव में ये जीव के परिणामों का पूर्ण धात एक वस्तु मे वक्तव्य, अव्यक्तव्यपना पाया जाता है. तब करने में वे समर्थ नहीं हैं। मोक्षावस्था मे जीव लोक के विरोध कसा? अन्त में लोकाकाश मे ही विद्यमान रहता है, क्योकि सत्यानन्दो दीपिका-शरीर परिमाणत्व होने पर प्रलोकाकाश मे धर्मास्तिकाय का प्रभाव होने से उसमे पात्मा प्रकृत्स्न -- प्रसवंगत-परिच्छिन्न होगा. इससे कम मुक्तजीव की गति नही होती। को घट प्रादि के समान अनित्यत्व प्रसक्त होगा। शरीरों सध्यानगी दीपिका - सब वस्तुप्रो मे निरकुश का प्रनिश्चित परिण म होने से मनुष्य जीव मनुष्य शरीर सोनाव की प्रतिज्ञा करने वाले के मत में निर्धारण को परिमाण होकर पुन: किसी कर्मविपाक से हस्ति जन्म भी वस्तत्व के समान होने पर स्यादस्ति स्थानास्ति प्राप्त कर सम्पूर्ण हस्ति शरीर को व्याप्त नहीं करेगा और (कथंचित है और कथंचित् नही है) इस प्रकार विकल्प चींटी का जन्म पाकर पूर्ण रूप से चीटी को शरीर मे के प्राप्त होने से मनिर्धारणात्मकत्व होगा। इस प्रकार नहा समाएगा । एक जन्म में भी कोमार, यौवन, वाक्य निर्धारण करने वाले का और निर्धारण फल का पक्ष मे यह दोष समान है । पूर्व पक्षी-परन्तु जीव अनन्त अवयव मस्तित्व होड़ा और पक्ष में नास्तित्व होगा। ऐसा होने वाला है, उसके वे ही प्रवयव प्रल्प शरीर में संचित होंगे mतबोरा सा भी तीर्थकर प्रमाण, प्रमेय, मोर बड़े शरीर में विकसित होंगे। उत्तरपक्ष-यदि ऐमा प्रमाता भोर प्रमिति के निर्धारित होने पर उपदेश करने हो तो पुनः जीव के उन पनन्त अवयवों के एकेदशस्व में कैसे समर्थ होगा? अथवा उसके अभिवावका का प्रतिघात होता है या नहीं? यह कहना चाहिए । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपात होने पर तो अनन्त अवयव परिच्छिम्न देश में जिस प्रकार निरावरण पाकाश प्रदेश में यद्यपि दीपक के नहीं समायेंगे और प्रतिघात होने पर भी एक प्रबयब- प्रकाश के परिमाण का निश्चय नहीं होता तथापि वह देशतकी भापत्ति होने से सब प्रवयवों को प्रषिमा- सकोरा, मानसिक तथा प्रावरण करने वाले दूसरे पदार्थों स्थूल ना अनुपपन्न होने से जीव को अणुमात्रत्व प्रसङ्ग के प्रावरण के वश से तत्परिमाण होता है। उसी प्रकार होगा पौर शरीरमात्र परिच्छिन्न जीव अवयवों के प्रकृत में जानना चाहिए।" जैन दर्शन मे जीव को मनात माननस्य को कल्पना नहीं की जा सकती।' प्रवयव वाला न मान कर प्रसंख्यात प्रदेशी माना गया निराकरण-जैन दर्शन में प्रत्येक द्रव्य उत्पादन, है। जैसे घट प्रादि पदार्थ के रूप प्रादि गुण जिस स्थान व्यय प्रौव्यात्मक है। इस दष्टि से कवित् प्रात्मा पनित्य मे देखे जाते है, उसी स्थान में उस घटादि पदार्थ की है। पास्मा ममूर्त स्वभाव है तो भी मनादिकालीन बन्ध विद्यमानता प्रतीत की जाती है और उस स्थान से भिन्न के कारण एकपने को प्राप्त होने से मूर्तिक हो रही है और स्थान में उन घट दि को विद्यमानता नही जानी जाती है। कार्माण शरीर के कारण वह छोटे बड़े शरीर में रहता है, इसी प्रकार से प्रात्मा के जो ज्ञान प्रादि गुण है वे शरीर इसलिए वह प्रदेशों के सकोच पोर विस्तार स्वभाव वाला मे ही देखे जाते है। शरीर के बाहर नही देखे जाते है। है और इसलिए शरीर के अनुसार दीपक के समान उसका इस कारण प्रात्मा शरीर प्रमाण ही है अर्थात् जितना बड़ा लोक के प्रसंस्पातवें भाग आदि में रहना बन जाता है। उस प्रात्मा का शीर है, उतना बड़ाही वह प्रत्मा है। संदर्भ ग्रंथ सूची १. ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य (मस्यानन्दी दीपिका)पृ० ४५५। ७. पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य : जैन दर्शन पृ० ५७० । २ वही १०४५५। ८. सत्यानन्दी दीपिका १० ४५८ । ३. वही १० ४५६ । ४. सर्वार्थ सिदि व्याख्या-।४ ६. ब्रह्मसूत्र (शाङ्करभाष्य) सत्यानन्दो दीपिका ५. धर्मास्तिकायाभावात् - तत्त्वार्थसूत्र १०/८ । पृ०४५६। ६. ब्रह्मसूत्र-शाङ्गराभाष्य (सत्यानन्दी दीपिका) १०. प्रदेशसंहारविसम्यां प्रदीपवत् - तत्त्वार्थसूत्र ५।१६ पु. ४५७ । -(सर्वार्थ सिद्धि व्याख्या) आप कौन हैं, कहाँ से आए हैं ओर कहाँ जाएँगे ? उक्त प्रश्नों के उत्तर में लौकिकजन साधारणतया लौकिक जाति-पद ग्राम और गन्तव्य नगर आदि का परिचय देने के अभ्यासी हो रहे हैं - वास्तविकता की ओर उनका तनिक भी लक्ष्य नहीं। यदि एक बार भी अपने स्वरूप का बोध हो जाय तो दुख से मुक्ति में क्षण न लगे। जिन जीवों को स्व-बोध हुआ हो वे स्वभावतः जल में भिन्न कमलवत् जीवन यापन करते हैं और उनके अन्तर में सदा स्वरूप चिन्तन रहता है-ऐसे जीवों की गणना घर ही में वैरागी' के रूप में होतो है। स्व० पण्डित प्रवर श्री टोडरमल जी के शब्दों में ऐसे जीवों का चिन्तन निम्न भांति होता है 'मैं हूँ जीव द्रव्य नित्य, चेतन स्वरूप मेरो, लाग्यो है अनादि तै कलंक कर्ममल को। ताही को निमित्त पाय, रागादिक भाव भए, भयो है शरीर को मिलाप जैसे खल को॥ रागादिक भावनि को पायके निमित्त पुनि, होत कर्म-बंध ऐसो है बनाव कल को। ऐसे ही भ्रमत भयो मनुष्य शरीर जोग, वन तो बनै यहाँ उपाय निज थल को॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए ! (१) धर्म प्रभावना कैसे हो ? वीतराग के प्रागम मे परिग्रह के त्याग का विधान है - साधु को पूर्ण अपरिग्रह होने का और गृहस्थ को ममत्वभाव से रहित परिग्रह के परिमाण का उपदेश है । इन्हीं विचारधाराओंों को लेकर जब जीवन यापन किया जाता है तब धार्मिक्ता श्रौर घर्म दोनों सुरक्षित होते है । तीर्थकर की समवसरण विभूति से भी हमें इसको स्पष्ट झलक मिलती है प्रर्थात् तीर्थंकर भगवान छत्र, चमर, सिंहासन प्रादि जैसी विभूति के होने पर भी पृथ्वी से चार अगुल अधर चनते है और बाह्य आडम्बर से अछूते रहते है - प्रन्तरंग तो उनका स्वाभाविक निर्मल होता ही है । इसका भाव ऐसा ही है कि वहाँ धर्म के पीछे धन दौड़ता है और धर्म का उस धन से कोई सरोकार नही होता | पर, प्राज परिस्थिति इमसे विपरीत है यानी धर्म दौड़ रहा है धन के पीछे । ऐसी स्थिति में हमें सोचना होगा कि ग्राज धर्म को मान्यता धर्म के लिए कम और अर्थ के लिए अधिक तो नहीं हो गई है ? तीर्थ यात्रात्रों में तीर्थं (धर्म) की कमी और सासारिक मनोतियों की बढ़वारी तो नही है ? मात्र छत्र चढ़ा कर त्रैलोक्य का छत्ररति बनने की माग तो नहीं है ? जिन्हे तीर्थंकरों ने छोड़ा था उन भौतिक सामग्रियों से लोग चिके तो नहीं जा रहे ? कहीं ऐसा तो नही हो गया कि पहिले जहाँ धर्म के पीछे धन दोडना वहाँ अव धन के पीछे धर्म दौड़ने लगा हो ? कतिपय जन प्रपने प्रभाव से जनता को बाह्य श्राडम्बरों की चकाचौर मे मोहित कर कुदेवादि की उपासना का उपदेश तो नहीं देने लगे ? जहाँ तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि के प्रचार-प्रसार हेतु वीनगगी पूर्णश्रुतज्ञानी गणधरों की खोज होती थी वहाँ भ्राज उनका स्थान रागी, राजनीति पट और जैन तत्वज्ञान शून्य नेता तो नहीं लेने लगे ? प्रादि । उक्त प्रश्न ऐसे हैं जिनका समाधान करने पर हमे स्वयं प्रतीत हो जायगा कि धर्म का ह्राम क्यों हो रहा है। धर्म प्रभावना का शास्त्रों में उपदेश है मोर समाज के जितने अंग है-मुनि, व्रनीश्रावक, विद्वान् पौर प्रवृती सभी पर धर्म की बढ़वारी का उत्तरदायित्व है । स्वामी समंतभद्र के शब्दों में 'प्रज्ञानतिमिरख्यातिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥' - १८ ॥ अर्थात् अज्ञान तिमिर के प्रसार को दूर करके, जिन शासन को जैसा वह है उसी रूप में महत्ता प्रकट करनाप्रभावना है। प्रभावना मे हमें यह पूरा ध्यान रखना परमावश्यक है कि उसमें धर्ममागं मलिन तो नहीं हो रहा है। यदि ऐसा होता हो और उनास्य उपासक का स्वरूप ही बिगड़ता हो तथा सांसारिक वासनाओं की पूर्ति के लिए यह सब कुछ किया जा रहा हो तो ऐसी प्रभावना से मुख मोड़ना ही श्रेष्ठ है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी किसी भी भवस्था में सांसारिक सुख वृद्धि के लिए घमं सेवन नहीं करता और न वह मान बड़ाई ही चाहता है । कहा भी है 'भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिगिनाम् । प्रणामं विनयचैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।।' सम्यग्दृष्टि जीव भय- आशा स्नेह प्रथवा लोभ के वशीभूत होकर भी कुदेव कुशास्त्र धीर कुगुरुमों को प्रणाम विनय (प्रादि) नही करते हैं । प्रागे ऐसा भी कहा है कि राग द्वेष से मलीन- लोकमान्य चार प्रकार के देवों को देव मान कर किसी भी प्रसंग की उपस्थिति में उनकी पूजा भारती वीतराग धर्म की दृष्टि से करना देवमूढ़ता है। इसी प्रकार धर्म मूढ़ता मोर लोक मूढ़ता के त्याग का भी जिन शासन में उपदेश है। यहाँ तो वीतरागता में सहायक साधनों -सुदेव, सुशास्त्र और सुगुरु की पूजाउपासना की भाज्ञा है श्राज्ञाताओं से धर्मोपदेश श्रवण की प्राज्ञा है । यदि हम उक्त रीति से अपने प्राचरण में सावधान रहते हैं तो धर्म प्रभावना हो धर्म-प्रभावना है । अन्यथा यंत्र-मंत्र-तंत्र करने भोर सांसारिकसुग्वों का Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जाती रही है और लोग उनका पूर्ण लाभ भी उठाते रहे हैं भागम मार्ग में रहस्यपूर्ण चिट्टी वे हैं जो प्रयोजनभूतमात्मा का रहस्य खोलती हैं। ऐसी चिट्ठियों में हमें एक बिट्टी पं० प्रवर टोडरमल जी की मिलती है, जो उन्होंने मुल्तान के अध्यात्मिक श्रावकों को लिखी थी। वे लिखते है ३० वर्ष ३४, कि० ४ प्रलोभन देने वालों की न पहिले कमी थी और न प्राज कमी है। हमे सोचना है कि हम कौन सा मार्ग अपनाएं ? सम्यग्ज्ञान में ये तीनों ही नहीं होते । सम्यग्ज्ञानी जीवादि सात तत्त्वों को यथार्थ जानता | ज्ञान के विषय मे प्राचार्य कहते हैं- न्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वे यदाहुस्तज्ज्ञानमार्गामिनः ॥ प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्वों को ययातथ्य जानने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है । श्रतः श्रावक व मुनि दोनों को भौतिक ज्ञान की भोर प्रवृत्त न हो-मोक्षमार्ग मे सहायक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए और घमं प्रभावना करनी चाहिए । (२) रहस्यपूर्ण चिट्ठी क्या है ? पर वे श्राप चिट्ठी हम लिखते हैं, मोर वे भी लिखते हैं। दूमरे 'वे' होते है जो रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखते है । कहेंगे प्राज भी ऐसी चिट्टियों का चलन है जो रहस्यपूर्ण और गोपनीय होती हैं । बहुत-सी रहस्यपूर्ण चिट्टियाँ अनेकों गुप्तचरों द्वारा पकड़ी जाती है, सेन्सर की जाती है और नेकों रहस्य खोलती हैं। पर, यदि भागम दृष्टि से देखा जाय तो वे चिट्ठियाँ रहस्यपूर्ण नही होती- घोसे को पकड़ने का धोखा भरा साधन मात्र होती हैं। जो लिखता ह वह स्वयं धोखे मे रहकर दूसरे को धोखा देता है और पकड़ने वाला उस धोखे को धोखे में पकड़ता है - फलतः न वह रहस्य होता है धौर ना ही रहस्य को पकड़ने (का दम्भ भरने वाला रहस्य को पकड़ पाता है । 'रहस्य' शब्द बड़ा रहस्यमय है । इसे रहस्य के पारखी ही जानते हैं। वे जब लिखने है तब रहस्यमय, समझते हैं तब रहस्यमय और कहते है तब भी रहस्यमय रहस्य वस्तु-स्वरूप मे तिल में तल से भी गहरा - पूर्ण रूप से समाया हुआ है । जैन दर्शन के अनुसार तो हर वस्तु रहस्यमय है तथा हर वस्तु का रहस्य भी अपना घोर पृथक है | अपने रहस्य को बतलाने और समझने वाले ही वास्तविक लेखक मौर वास्तविक वाचक है । यदि प्राप अपना (ग्रात्मा का रहस्य अंकित करते है तो प्राप रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखते हैं । पहिले ऐसी चिट्ठियां लिखी 'वर्तमानकाल में प्राध्यात्म के रमिक बहुत थोड़े हैं । धन्य है जो स्वात्मानुभव की बार्ता भी करे है, सो ही बहा है- 'तत्प्रतिपतिचित्तेन येन वार्तानि हि श्रुता । निश्चित सः भवेद्भथ्यो, भावि निर्वाण भाजनम् ॥ भव यह है कि जिस जीव ने प्रसन्नचित्त होकर इस चेतन स्वरूप श्रात्मा की बात सुनी है वह निश्चय - भव्य है और निर्वाण का पात्र है।" पाठक देखें कितना रहस्य है इन चन्द पक्तियों में ? विचारने पर क्या ये अन्तरंग को झकझोर कर जगाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ? जो इन्हें पढ़ेगा- विचारेगा अनुभव में लाएगा वह प्रवश्य ऐसे रहस्य को पाएगा जिसे कोटिकोटि तपस्वियों ने कोटि-कोटि तपस्याए करके भी कठिनता से पाया हो । अपनी चिट्ठी में पं० प्रवर ने किन-किन रहस्यों को खोला है ये हम आगे लिखेंगे ये प्रसंग तो रहस्यपूर्ण चिट्ठी की परिभाषा मात्र का था । प्रस्तु । (३) सम्यग्ज्ञान क्या है ? मोक्ष मे प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों को जानना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। श्रावक और मुनि दोनों में इस ज्ञान का होना मावश्यक बिना इस ज्ञान के वह मोक्ष का उपाय नहीं कर सकता और ना ही उसका ज्ञान सायंक हो सकता है। लोक में भौतिक-सांसारिक विषयों की खोज र उनमें प्रवृत्ति के सूचक जो ज्ञान देखे जाते हैं। और जिनके माधार से ज्ञानी की पहिचान की जाती हैवे सभी ज्ञान प्रात्म मार्ग में सहायी न हं ने से मिथ्या ज्ञान की श्रेणी में प्रतेि है - लोकव्यवहार में चाहे वे सही भी क्यों न हों ? ज्ञान के मिथ्या या सम्यक् होने में मूल कारण मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन है और इसीलिए प्राचार्यो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा सोचिए ने सम्यग्दर्शन को प्रथम रखा है। भाव ऐता है कि मोदा- उद्विग्न अवस्था में इसके शरीर से वह तरल पदार्थ मार्ग में प्रयोजन भूत जीव-प्रजीव-प्रास्रव बंध-सवर-निर्जरा निकलने लगता है जिसमें से सुगन्ध निचोड़ा जाता है और पौर मोक्ष इन सात तत्वों को संशय, विपर्यय और उसकी ग्रन्यी को चाक से खरोचा जाता है। मनध्यवसाय रहित याथातथ्य - जैसे का तसा जानना सौन्दर्य प्रसाधन है सम्यक ज्ञान है। पंडित प्रवर टोडरमल जी ने इस विषय "स्वन्डर लोरिस" नामक छोटा सा बन्दर जो भारत को इस भांति स्पष्ट किया है-'बहरि यहां ससार' मोक्ष में अब बहुन कम सख्या में रह गया है क्योंकि इसका के कारणभूत सांचा भला जानने का निर्धारण करना है, शिकार प्रत्यधिक किया जा चुका है। इसको मांखें बाहर सो जेवरी-सादिक का यथार्थ वा अन्यथा ज्ञान समार, निकाल ली जाती है। इसका दिल बाहर निकाल लिया मोक्ष का कारण नाही तात तिनको अपेक्षा इहाँ मिथ्याज्ञान-सम्यग्ज्ञान न कह्या। इहाँ प्रयोजनभूत बाता है। इन दोनो को पीस कर सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री बनाई जाती है। जीवादिक तत्त्वनि हो का जानने की अपेक्षा मिथ्याज्ञान, सम्यग्ज्ञान कह्या है।' धूप मे चमकती हुई सीप को देख कोट कपड़े आदिकर ऐमा विकल्प करना कि यह सीप है या चांदी-संशय चूहे जसा ही जानवर होता है बीवर'। इसके शरीर पहलाता है। चमकती ई सीप को चांदी हप जानने का से निकला तेल सौन्दर्य प्रसाधन सामग्रंः बनाने में काम नाम विपर्यय-उल्टा ज्ञान है : प्रौर मार्ग में चलते हुए पाता है। इसकी साल के कोट बनते है। छोटा-सा यह यदि पैर में कोई तिनका चभ जाय तो उसमे विकल्प उठा जानवर रुमाल बराबर है। करीब ६० ऐसे जानवरों की कर कि ये क्या है, उसी क्षण (बिना निर्धारण के) उपेक्षा साल । एक व्यक्ति का कोट बनता है। भाव लाबर भागे बढ़ जाना-कि कुछ होगा, यह सीलनयमाय है। सम्यग्ज्ञान में ये तीनो भी नहीं होते। सील मछली के बच्चो के साग भी करता कुछ कम और सम्यग्ज्ञान के लक्ष्य, प्रयोजनमत जीवादि तत्त्व नही होती है। व नाडा में सवाल खनने के बल्ले से होते है। डण्डे से इस मछली के बच्चो की लगातार सब तक (४) प्राप इतने कर तो न थे ? पिटाई की जाती है जब तक वे सर न जाएं। नारवे में (भगवान महावीर का हिसामयी घर्म पालन करने के तोहे की तीखी मलाख मील के बच्चो के सिरसा लिए हमे अपने दैनिक जीवन मे पर्याप्त परिवर्तन लाना दी जाती है और उसकी खाल तुम्न उतारने के लिए से होगा-हिंसाजन्य सौन्दर्य प्रसाधन सामग्रियो का सर्वथा भीर दिया जाता है। वेवारी माने शिक्षको परित्याग करना होगा। विविध सौन्दर्य प्रसाधन मिस मन्ती रहती है । जब शिकारी चले जाते हैं तो वह अपने भांति और किन जीवों की बलि देकर निर्मित किए जाते शिशु के अस्थिपजर के समीप पाकर अपने मह से उस हैं, इसकी सक्षिप्त भ.लक 'इनको जिन्दगी प्रापका फैशन' लहूलुहान के िण्ड को सूची है। वहां गया उसका से बन कर यहां दी जा रही है-प्राशा है महावीर के शिशु? वह तो सदा के लिए विलुप्त होगया। खाल अनुयायी इससे लाभान्दित होगे ) -संपादक किसी रईस का कोट बन गई। १. बिज्जू का सैण्ट मिन्कबिज्ज नामक जानबर बिल्ली से बहुत छोटा होता मिक नामक जानवर पानी में रहता है और इसके है। बहुत कम लोगो ने इसे जंगल मे देखा होगा। बाहर भी । इसका कसूर सिर्फ इतना है कि मुलायम बाल चिड़ियाघरों में भले ही देखा हो। इस छोटे से जानवर वाली इसको खाल प्रत्यात मोहक एवं लुभावनी होती है। को बेतों से पीटा जाता है ताकि यह उद्वेलित हो जाय। मतः भिक पर कहर ढाया जा रहा है। रईस लोगो के Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ३४, ०४ प्रनेत कोट को खातिर मिक का व्यापक वध हो रहा है। के कुत्तों को एक साथ खड़ा करके उनके शरीर में विद्यत "चिचिला" नामक दक्षिणी अमेरिका के जानवर को भी का करन्ट प्रवाहित किया जाता है। कापते, सिहरते, मिक को भाति प्रकारण सजा-ए-मौत सहनी पड़ रही है। कपकंपाते हुए कुत्तो का झण्ड-का-भण्ड दम तोड़ देता है । इनके नरम कान का उपयोग "पसं' बनाने में होता है। कराकुल-- कराकूल भेड़ के बाल बड़े घंघराले और खाल प्रत्यन्त नरम होतो है। मन चले लोग अपने शौक की पूर्ति के लिए हर छठे माह शुतुर्मुर्ग के पंख नोचे जाते हैं क्योकि इसी खाल के कपड़े या टोपी पहनना चाहते हैं। लेकिन लोगों को इस विशालतम पक्षी के पवो से प्यार है । पंख मेमने के पैदा होते ही इसके बालों का मुलायमपन कम हो नोंच लिए जाने के बाद इसकी खाल नोची जाती है। जाता है। अत: मादा भेड़ को गर्भावस्था में ही बेंतों से खरोचने पोर नोंचने का यह क्रम तब तक चलता है जब पीटा जाता है। इस कदर बेंतो से उस पर प्रहार किया तक कि शुतुर्मुर्ग के प्र ण पखेरु उड न जाएँ। खाल का जाता है कि उसके प्राण पखेरू उड़ जाएं । मरते ही उसके थैला बन जाता है और पंख प्रापके टोप मे खोस लिए पेट से होने वाले मेमने को निकाला जाता है। करता को जाते है । पाशविकता इससे अधिक क्या होगी कि उस मेमने की। रेशम-- खाल जिन्दा अवस्था में ही उतार ली जाती है। रेशम तो देखी है। पहनी भी होगी ही। रेशम का पर्स या सूटकेस को देखा है ? रेशम का धागा प्राप्त करने में इसके कीड़े को जो मरणान्तक पोड़ा का सामना करना पड़ता है ____ लोग कहते है मगरमच्छ सदा मुंह खोल कर हमता उसके बारे में कभी अन्दाज भी लगाया है ? रेशम के एक रहता है लेकिन लोगो की हँसो ज्यादा क्रूर है। मगरमच्छ कुर्ते की खातिर कितने हजार कोड़ो की जीव हत्या होनी को पानी से बाहर चालाकी से लाया जाता है और उसे है ? किस पीड़ा से उन्हे माग जाता है ? जल विहीन परिस्थिति मे छटपटाने को मजबूर किया देखा मापने, मूक-जीवो को कितनी यातना दो जाती जाता है ताकि उसकी मौत करोब, मोर करीब पाती है? लोगो के सौन्दर्य प्रसाधन हेतु ? फिर भी पशु-पक्षियो जाए। यकायक उसकी नाक मे एक पैना छु ग घोप दिया को हत्या और उनके साथ अमानवीय व्यवहार जारी है। जाता है ताकि उसका जीवन समाप्त हो जाये । प्रोसतन एक जानवर को जिन्दा पकड़ने या एक स्थान स ___ मगरमच्छ की खाल पर बहुत लोग माख लगाए हुए हैं क्योकि उसका उपयोग चमड़े के रूप मे महिलायो के दूपरे स्थान पर भेजने म ५.७ जानवर मर जात है। हाल ही मे २० लाख जिन्दा मगरमच्छ अन्तराष्ट्रीय जात् "पसं" या "सूटकेस" मादि बनाने में किया जाता है। मे बेचने के लिए एक देश से दूसरे देश में लाए गए। परन्तु इनमें से प्राधे तो रास्ते में ही मर गए। कुत्ता तो अगरक्षक होता है। लेकिन प्रादमी उसको पहिसा प्रमियों को इस प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधनो जान का भी भक्षक बनता जा रहा है। बेशकीमती नस्ल से सर्वथा बचना चाहिये। -सपादक कुत्ता नीरक्षीरविवेके, हंसालस्यं त्वमेव कुरुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनाऽन्यःकुलवतं पालयिष्याति कः ॥ -हे हंस, यदि तुम ही दूध और जल का भेद भाव बताने में प्रमाद करोगे तो बतलाओ इस संसार में और कौन व्यक्ति न्याय-पद्धति को अपनाएगा? Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन - श्री बाबूलाल जैन (कलकत्ता वाले) हर कार्य में तीन काम साथ-साथ होते हैं एक शरीर खाया गया यह मैंने भी देखा है इस प्रकार वह मात्र ज्ञाता को क्रिपा एक विकारी भाव या विकला और एक जानने है करता नही, भोक्ता नहीं। को क्रिया । जानने की क्रिया प्रात्मा से उठती है। शरीर जबकि एक दूसरा व्यक्ति है जो इस ज्ञाता को नहीं को क्रिपा शरीर को ही है। रही विकारी भावों की बात पहचानता वहाँ पर वह समझता है कि सब कुछ करने वह भी पर के समझ से होने वाली है। जानने की क्रिया वाला मैं ही हूं वह शरीर को क्रिया का भी पौर विकारी बाकी दो क्रिपात्रों को जानती है उस रूप नही होती। वों का भी दोनों का कर्ता। दोनों को अपने रूप शरीर को जानते हुए शरीर रूप नही होती-क्रोधादि जानता है और दोनों में अहम् बुद्धि रखे हुए है। वहां भावों के होते उस रूप नही होतो वह तो अपने रूप ही तोन नही दो ही है। जब ज्ञाता पकड़ में नहीं पाता तो रहती है। विकार का करता बन जाता है और उसमे और शरीर में अपर हम खा रहे है तो वही पर भी तीन कार्य हो अहम् बुद्धि करता है। जिसमे महम् बुद्धि होगी उसमे रहे है शरीर को क्रिस-खाने का भाव और खाने में रस भासक्ति भा होगा । लौकिक में भी जिसको हम अपना माना और उसको जानने की क्रिया । जैसे हम दूर बैठ मानते है उसमे धासक्ति होती ही है। वह पासक्ति तब कर पिसी दुमरे प्रादमी को क्रिया देखते है। वह बीमार तक नही छूट सकती जब तक प्रहम् बुद्धि नहीं छटती। है तो हम देख रहे हैं परन्तु बीमारी का भोक्ता वही है इसलिये जो लोग पर मे, शरीर से प्रासक्ति छोड़ना चाहते देखने वाला नहो, अगर वह क्रोध कर रहा है तो उसका है उन्हे पहले उसमें से प्रहम् बुद्धि छोड़नी है तब प्रसक्ति वत्ता भीता बही है देखने वाला नही, अगर वह चलता है अपने माप छुट जायेगो और महम् न तब तक नहीं तो देखने वाला नही चलना वह तो पलग है अगर दूसरा छुटती जब तक ज्ञाता पकड मेड़ी माता । ज्ञाता पकड़ बोल रहा है को देय ने वाला प्रबोला है। ठीक यही दशा में पाने पर ग्रहम् नारा पायेगा 7' पर में महम् बुद्धि प्रहमा के जान की है कोषादि होते है परन्तु देखने वाला नही रहेगी और प्रासक्ति धपा माप छु जायेगी। छोड़ना तो देखने काम कर रहा है। इस प्रकार उसके तीन पर मे प्रहम् बुद्धि को है। यह Negative है यह कहना क्रियाबदामी मे होती है वह एक का मालिक है एक चाहिए कि अपने में प्रहम् बुद्धि लानी है यह Positive के सार उसका अपनापना-एकत्वपना, प्रहम् एना है बाकी है। प्रज्ञानता क्या है, संसार क्या है, पर में महम् बुद्धि। दो के साथ उसका अपनापना-एकात्मपना-महाना नही पर को छोड़ने से, उससे दूर भाग जाने से महम् बुद्धि नहीं है। परकीदो क्रिया होती है कभी क्रोध कर रहा है छटेगी। परन्नु पपने को जानने से पहम् बुद्धि छटेगी। कभी क्षमा मांग रहा है। परन्तु जानने वाला तो मात्र अपने को नही जानना यही मशान है और यही प्रज्ञान जान हो रहा है वह तो न क्रोध करता है और न क्षमा अनंत ससार, अनंत दुख हं यही बन्धन है। उसका उपाय मांगता है परन्तु इनका मानने वाला है। इसलिये यह अपने को जानना है वह शास्त्र के द्वारा-शब्दों के द्वारा कहना चाहिए कि वह खाते हुए खाता नही। चलते हुए पोर गुरु के द्वारा भी नहीं होगा। वहां से तो पाप स्वर पलसा नही बोलते हुए बोलता नही। इस प्रकार कोई बारे मे जानकारी कर सकते है । स्व के बारे में शास्त्र से कहता है कि पापने खाना खाया यह कह सकता है खाना जान सकते हैं परन्तु स्व को देख नहीं सकते उसे तो अपने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३४०रण ४ में ही देखना होगा। वास्त्रों मे देख कर पण्डित हो सकते हैं स्व के बारे में कथन कर सकते हैं परन्तु सबके मालिक नहीं हो सकते। अनेकार हमने पर को दुख का कारण प्राशक्ति का कारण समझ कर उसको तो करोड़ों दफे छोड़ा परन्तु पर मे ग्रहम् बुद्धि नहीं छोड़ी। पहले पर के ग्रहण में महम् बुद्धि थी अब पर के त्याग में ग्रहम् बुद्धि हो गयी पहले वाली से दूसरी ज्यादा खतरनाक होती है परन्तु अपने ज्ञाता में महम् बुद्धि नहीं भाई पर के ग्रहण से पर के त्याग मे तो बदल गयी परन्तु अपने में नहीं श्राई तो बाहर में तो बदला हुआ दिखाई देता है भेष बदला हुआ मालून देता है परन्तु अन्तर में स्व में कुछ बदला नहीं है वह तो वैसा का-सा ही है। इसलिये पर बदल गया परन्तु रहने वाला नहीं बदला - जिसको बदलना था । जब पर में अहम् बुद्धि हट कर स्व में ग्रहम् बुद्धि मा जाय तो मासक्ति तो अपने आप छट गयी। जो रोकना है वह तो अहम् का ही है मकान के लिये कोई नहीं शेका मेरा चला गया उसके लिये रोता है । मकान कही नहीं जाता मात्र मेरा नहीं रहता । जहाँ मेरा है वही रस है. जब मेरा नहीं रहा तो रस भी सूख गया। स्त्री नही जाती मात्र मेरी नहीं रहती और मेरा निकलने पर कुछ नही रहता। बच्चों के खेलने में रस नहीं माता परन्तु मेरे बच्चे का रस माता है । इसलिये मेरापन ही रस पैदा करता है। इस प्रकार हम अपने ज्ञाता को पड़े । ज्ञाता अपने भावको पर रूप देखता था वह अपने प्रापको अपने रूप देखे और अपने को अपने रूप जाने और अपने में ही लीन हो जाये यही मार्ग है । पर तो पर था ही वह कभी स्थ हो नहीं सकता था उसको मज्ञानता से स्व मान लिया या अब भपना ज्ञान हुम्रा तो पर को पर रूप जाना पर को पर रूप देखा । श्रब जितना अपने से ठहरे उतना पर का रस सूखने लगा पर की महिमा गयो । जितना स्व में ठहराव, लीनता बढ़े उतना विकार दूर हो भोर जितना विकार दूर हो उतनी बाहर में पर की पकड़ छुटती जाये । बाहर से देखने वाला कहता है त्याग दिया भीतर से देखने बाला कहता हूँ पकड़ने को कुछ रहा ही नहीं बाहर देखने वाला कहता है त्याग कर चला गया। भीतर से देखने वाला कहता है जान कर चला गया । जान लिया यहाँ मेरा अपना कुछ नही तो फिर ठहरने को रहा हो नहीं । इस प्रकार ठराव बढ़ता जाता है कार्य भीतर में हो रहा है बाहर मे तो उसका Reaction भा रहा है बाहर से देखने वाला Reaction को धर्म समझता है उसको पुरुषार्थ समझना है और उस बाहरी Reaction की नकल करता है भीतर से देखने वाला जानता है पुरुषार्थ तो भीतर में है । स्त्र को जानने का पहला पुरुषार्थ और उसमें ठहरते जाना, ठहरते जाना और ठहरते ठहरते उसमें पूर्ण रूप से लीन हो जाना यह दूसरा पुरुषार्थ है । ऐसा लीन हुआ कि बाहर में पाने की जरूरत ही न रहा बस विकार का भी प्रभाव हो गया शरीर का भी प्रभाव हो गया मात्र ज्ञाता रह गया इसी का नाम मोक्ष है इमो का नाम परमात्मा होना है । जैसे-जैसे निज को निज रूप देखता है विचार कम होने लगते है । पहले तीव्र क्रोधादि जाते है तब बाहर में अन्याय रूप श्राचरण मिट जाता है। बाहर से हटने लगता है फिर मंद कोवादि जाने लगते है तो बाहर में पच महाबन रूप श्राचरण होने लगता है घर से प्रयोजन नही रहना। जब मंद मे मंदतर होते है तो बाहर की जरूरत नही रहनी अपने में ही धान में लीन हो जाना हैं । इस प्रकार "भीतर से बाहर का मिलन" है परन्तु "बाहर से भीतर का मिलन नहीं है।" हमने बाहर को पकड़ लिया भीतर को भूल गये मूल को छोड़ दिया पत्तो को पड़ । बंठे है | तत्व यह नहीं है कि उसने क्या छोड़ा। तस्य यह है कि क्या उपलब्ध हुप्रा । त्यागा नहीं है पाया है ।" जब हीरे मिल गये तो पत्थर कंकड़ छुट गये क्योकि बेमाने हो गये । ककड़-पत्थर को कुछ कीमत समझ कर पकड़ रखा था जब कंकड़ पत्थर दिखाई दे गये तो बेमाने हो गये । अपने माप छुट गये । महत्व छुट गया इसका नहीं हैं महत्व मिल गया इसका है। कोई ऐसी चीज मिल गयी कि उसके सामने चक्रवर्ती की विभूति भी कंकड़-पत्थर (शेष प्रावरण पृष्ठ ३ पर) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के दैनिक प्राचार 0 श्रीमती सुधा जैन एम० ए० निर्माण और निर्वाग ये दोनों शब्द मौलिक हैं। क्योंकि मनुष्य भी माहार करता है और पशु भी माहार निर्माण बनने बनाने को कहते हैं और निर्वाण मुक्ति या करता है। निद्रा, भय, मथुन प्रादि को प्रपेक्षा भी पशुभों छटकारा पाने को कहते है। दोनों ही में सुख निहित है। और मनुष्यों में कोई भेद नहीं है। प्रतः यह तो मानना यदि मानव प्रपना निर्माण उचित रीति से करले--प्रपने ही पड़ेगा कि कर्तव्य प्रमुख है। और वह इसलिए किमाचार और विचारों को सही रूप मे करले तो उसे ससारी मनुष्य को पशु-पक्षी और अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धिजीवन में भी सूख है । और यदि उद्यम द्वारा अपनी कर्म. विशेष मिली हुई है। अन्य प्राणियों का ज्ञान खाने-पीने कालिमा-रागादि कषायों को निर्मूल कर दे तब उसे मोक्ष और विषय भोगों तक ही सीमित है। बाह्य-जगत में हम मे भी सुख है। प्रब यह निर्णय मानव को स्वयं करना है देखते है कि मनुष्य नव- निर्माण करता है। प्राज तो वह कि वह इन दोनो मे से किसे पसन्द करता है ? हो, इतना चन्द्र नोक तह पर राज्य करने की योजना बना रहा है। प्रवश्य है कि जो स्थिति पाज है उसे देखते हुए यह अप यह सब बुद्धि और ज्ञान विशेष का ही प्रभाव है--पशुकहा जायगा कि पाज का मानव-समाज मार्ग से बहुत कुछ पक्षियो मे ये बातें कहाँ ? भटक गया है। प्रास्तिक-जगत-जो प्रात्मा तथा इस लोक पोर परजैन दष्टि से यह पत्रमकाल है। इममे इस क्षेत्र से लोक में भी विश्वास रखता है, की ऐसी मान्यता है कि मारमा निर्वाग नही है। यदि निर्वाण पाना हो तो पहिले हमे जसे भले बुरे कार्य करता है उसे अगले जन्म में भोगना प्रपना निर्माण करना पड़ेगा, अपने को बनाना होगा और पडना है। इस जन्म मे हम जिन्हे सुखी-दुखी देखते हैं वे उसी के प्राधार से हम विदेह क्षेत्र में जन्म ले सकेगे और उनके किए कर्म फल ही हैं। यज्ञ-प्रादि क्रियाकाण्डों में वहाँ से निर्वाण पा सकेंगे। प्रतः प्राइए, पहिले निर्माण विश्वास रखने वाले क्रियाकाण्डी, यज्ञादि क्रियापों को को ही चर्चा कर लें। 'कर्म' कहते है। पौराणिक लोग व्रत-त्याग-नियम मादि प्रश्न ये होते हैं कि--हमे निर्माण की प्र.वश्यकता को कर्म मानते हैं और जैन-दर्शनकार फल-शक्ति सहित क्यों है ? और यदि निर्माण करें भी तो क्या और कैसा? पुद्गल (कार्माण) वर्गणानों को 'कर्म' मानते हैं। प्रात्मा क्या वास्तव में हमारा निर्माण नही हुमा है ? हम पंदा जः कषाय युक्त होता है, तब उस में मन-वचन-काय संबंधी नही हुए है क्या? या हम मनुष्य नहो , वया? प्रादि। क्रिया होती है और उस क्रिया के अनुसार उसे उसका इसमे सन्देह नही. कि हम मनुष्य है और प्राकृति को फल प्रागामी काल मे भोगना पड़ता है। इस प्रकार फल अपेक्षा हमारा मनुष्य रूप में निर्माण भी हो चुका है। भोगने की बात सभी को स्वीकार है। भोर क्रिया के हमारे समान अन्य भी करोड़ों मनुष्य--प्राकृति से मनुष्य अनुसार ही फल होगा ऐसा भी सभी को स्वीकार है। हैं। पर, मनुष्य का अर्थ इतना मात्र ही नहीं है कि इसका निष्कर्ष यह निकला कि यदि हम शुभ-फल-- भाकृति ही मनुष्य रूप हो। इसके साथ कर्तब्य भी जुड़ा सामारिक सुख चाहते हैं, तो हमे अच्छी क्रियामों का हुधा है। यदि हम मनुष्योचित कर्तव्यों को पूरा नही माचरण करना चाहिए। बस, इसी शुभ-क्रिया की पोर करते तो हम अपने प्रापको मनुष्य कहलाने के अधिकारी लगना हमारा निर्माण है। और जब हम अपना निर्माण नहीं। यदि वर्तव्य को मानवता से पृथक कर दिया जाय कर लेते है, तब निर्वाण का मार्ग भी हमें सरल दीख तो मनुष्य-मनुष्य पोर पशु-मनुष्य मे भेद ही मिट जायगा। पड़ेगा। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष ३४, किरण ४ अनेकान्त अब सोचना यह है कि जिन क्रियामों को शुभ नाम दवाई एक मोर रखी रहती है, तब भी उसके रोग का से कहा जाता है, वे कियाएं कौन-सी है? उपचार नहीं होता। रोग का उपचार तब ही होगा जब यपि लोक में विविध प्रकार की पसख्यातों क्रियाएँ रोगी में श्रद्धा-ज्ञान और भाचरण तीनों की पूर्णता हो! हैं। सबका लेखा-जोखा करना संभव नहीं । तथापि उनके इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र को मल पर प्रकाश डालने के लिए यहाँ कुछ मावश्यक मुख्य जानना चाहिए । जो इन तीनों की भोर प्रवृत्त हो उसे क्रियामों का वर्णन किया जाता है। श्रावक कहा जायगा। तीथंकर-महावीर और उनसे पहिले के तेईस तीर्थंकरों जहा तक श्रद्धा की बात है, वह बहन गहरी और ने धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने धर्म-पालकों को चार भावात्मक क्रिया है। यह जानना बड़ा कठिन है कि श्रेणियों में विभाजित किया। वे वार श्रेणियाँ है-- किसकी श्रद्धा किस रूप में, कमी है ? अतः हमे इस प्रसंग (१) साधु (२) साध्वी (३) श्रावक (४) धाविका। में इतना ही ध्यान रखना चाहिए कि यदि कोई जीव धर्म-पालक होने से ये 'तीर्थ'--'वत्रता के स्थान भी अपने भावों में सरलता रख कर मोह को कम कर रहा है, कहलाए। इनकी स्थापना करने के कारण चौबीसों उसके प्राचार.विचार या क्रिया काण्ड से स्वय या अन्य महापुरुष तीर्थकर कहलाए। इन चारों में साधु पोर को बाधा नदी पहुच रहा है, वह नित्ति मार्ग की पोर माध्वी अन्तिम पदवी हैं और ये पद सांसारिक समरभ- जा रहा है तो वह श्रद्धालु ज्ञानी भोर सदाचारी होने के समारंभ-मारंभ से ऊँचे उठे स्थान है। श्रावक भोर नाते थावक है। यह श्रावक का व्यवहार एव स्थल रूप है। श्राविका प्रारंभिक श्रेणियाँ है। इस प्रकरण मे हमारा मोक्ष के प्रसंग में श्रद्धा ज्ञान चारित्र का विशदरूप है गौर NEL इन्हीं प्रारंभिक दो श्रेणियो पर है। यदि हम इनमे वह मनिवत्ति से बंधा हा है। प्रस्तुत प्रसंग में तो बाह्य खरे उतरते है तो ऐसा समझना चाहिए कि हमारा लोक-व्यवहार को भी साथ लेकर चलने की बात है। प्रस्तु, प्रारंभिक निर्माण हो रहा है। प्रसंग के अनुसार यहाँ जैनाचार में श्रावक के लिए कुछ मर्यादाएँ रखी गई श्रावक'का प्रर्थ भी जान लेना प्रावश्यक है। फलतः-- है जिनसे श्रावको प्रपने पद मे स्थिर रहने मे महायता श्रावक शब्द का भाव प्रति महत्व के ऐसे पद से है मिलती है। और वह सन्मार्ग से गिरने या कुमार्ग मे जाने जो मोन में सहायक हो। जो ताथकरा का वाणा का से बच जाता है। इन मर्यादानों को व्रत-नियम-यम मादि श्रवण करता है, तदनुरूप प्राचरण करता है, उसे श्रावक के नामों से सबोधित किया जाता है। वैसे तो समयानुसार करते। यदि हम श्रावक शब्द का प्रामीण रीति से हम श्रावकों को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते है-एक विश्लेषण करना चाहे, तो इस प्रकार कह सकते है कि-- प्रवती श्रावक और दूसरे व्रती श्रावक । जिन्होंने प्रत्यक्षतः श्रावक शब्द में तीन वर्ण हैं-श्रा+व+क। श्रा से कोई वा तो न लिए हो, पर श्रद्धा के साथ कुछ स्थल श्रद्धा से विवेक और क से क्रिया का भाव है. और ये नियमों का पालन करते हों, जैसे शराब न पीना, मौस न तीनो मोक्ष के साधन हैं। कहा भी है-'सम्यग्दर्शन ज्ञान खाना, मधु प्रादि हिंसा से उत्पन्न होने वाले पदार्थ पौर चारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्त्वार्थ सूत्र ११ प्रर्थात् सम्यग्- नशीली चीजें मेवन न करना, तुच्छ जीवों से पूरित फलदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यरचारित्र पूर्ण पोर सदित रूप फर वनस्पति प्रादि न खाना, पीना छान कर पानी, गति से मोह के मार्ग है। व्यवहार में भी इन तीनो के बिना भोजन न करना प्रादि। जिनके परिणाम सरल मौर कार्य की सिद्धि नहीं होती। यथा-- यथ.शक्ति श्रद्धा ज्ञान-चरित्र के अनुकूल हो, पर शक्ति न मान लीजिए, एक रोगी पुरुष है। उसे पौषधि पर मानकर व्रतो को ग्रहण न कर सके हो-नियमों में न बंध विश्वास है और ज्ञान नहीं है कि प्रौषधि कहाँ किस प्रकार सके हों। प्राप्त होगी, तो वह निरोग नही हो सकता और यदि उसे व्रती श्रावक वे हैं जो बारह व्रतों में न्यूनाधिक बंधे श्रवान ज्ञान बोनों हैं पौर दवाई का प्रयोग नहीं करता- रहते हैं और पापों का स्थलरीति से त्याग किए रहते हैं, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषककेनिकमाचार बारह व्रत इस प्रकार हैं-५ अणुव्रत,.३ गुणवत, ४ शिक्षा- अंतरंग-बहिरंग दोनों परिग्रहों से सर्वथा रहित-नग्न व्रत । इन व्रतों का वर्णन करने से पूर्व इतना संकेत और परमनग्न होते हैं और ज्ञान, ध्यान तप में लीन रहते हैंकर दें कि इन व्रतों के पालन के साथ-साथ श्रावकों के ६ वे गुरु कहलाते हैं। ऐसे गुरुषों की उपासना करने से पावश्यक कर्म (कार्य) प्रतिदिन के मोर भी बतलाए गए वीतराग मुद्रा के प्रति श्रद्धा होती है-वीतरागता का हैं। सभी श्रावकों को धर्म में स्थिर रहने के लिए इनका पाठ भी मिलता है। ये मुद्रा मोक्षमार्ग की प्रतीक है। यथाशक्ति-सुविधानुसार पालन करना प्रत्युपयोगी है। वे अत. श्रावक को गुरु-उपासना परमोपयोगी है। छह मावश्यक कार्य इस प्रकार है-(१) देव पूजा, (३) स्वाध्य य-महन्त सर्वज्ञ देव द्वारा उपदिष्ट (२) गुरु-उपासना, (३) स्वाध्याय, (6) संयम और गुरु परंपरा से उपलब्ध-वाणी-जिन वाणी, जिसका (५) तप और (६) दान ।। किसी के द्वारा खण्डन नही किया जा सकता पोर जो (१) देव-पूजा-परम-शुद्ध प्रात्माग्रो को देव शब्द स्याद्वादमयी होने से पूर्वापर विरोध रहित है, का पठनसे संबोधित किया जाता है। और जैन-दर्शन में इन्हें पाठन, मनन चितवन करना स्वाध्याय कहा गया है। परमात्मा कहा गया है। ये देव दो प्रकार के हैं- प्रात्मा प्रादिक पदार्थों का इससे विस्तार पूर्वक प्रशस्त सकल-परमात्मा मौर निकल परमात्मा जो संसारा ज्ञान होता है और वह ज्ञान ही प्रात्म-साधना में उपयोगी प्रात्मा अपने प्रात्मोद्यम से कर्मों को पूर्ण रूप से है। श्रावक को इससे लाभ होता है और वह मोक्षमार्ग में क्षय करके संसार से सदा-सदा के लिए मुक्त हो लगता है। जाते है वे नि-कल अर्थात शरीर-रहिन-सिद्ध परमात्मा (४) संयम-अपनी इन्द्रियों और मन को वश में कहलाते हैं। और जो क्षुधा, पिपासा, बुढापा, रोग जन्म, रखना, जीवों की रक्षा करना संपम कहलाता है। इन्द्रियों मरणभय, मद, राग, प, मो आदि से रहित होकर को वश मे किए बिना किसी प्रकार भी उद्धार नहीं हो भी शरीर मे बास करते हैं, वे सकल अर्थात् शगेर सकता। अत: इन्द्रियों को वश मे करना और सब जीवों सहित - अरहत परमात्मा कहलाते है। दोनों ही प्रकार के को अपने समान समझकर उनकी रक्षा करना परमात्मा मात्मा के परमोत्कर्ष को प्राप्त होते है और परमोपयोगी है। वीतराग तथा सर्वज्ञ होते हैं। प्ररहत परमात्मा हित पूर्ण (५) तप-मनुष्य की इच्छाएँ संसार परिम्रमण में उपदेश भी देते हैं। इनको सांसारिक सभी प्रकार की प्रमुख कारण है जब तक इच्छाओं को कम नहीं किया भंझटों से कोई प्रपोजन नही होता। जायगा-रोका नहीं जायगा तब तक प्रशान्ति ही रहेगी! चंकि जैन-दर्शन के अनुसार संसार का प्रत्येक जीव इच्छाएं कभी शान्त नहीं होतीं। जैसे अग्नि, घी डालने अनन्त शक्तियां अनन्त रूप मे रखता है और वह प्रतिबंधक से बढ़ती ही है. वैसे ही एक इच्छा के पूर्ण होने के बाद कमो का अन्त करके उन्हे सदा के लिए प्रकट भी कर दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है, अत: इच्छामों को सकता है। प्रतः इस ओर लक्ष्य देने और बार-बार शुद्ध रोकना चाहिए। इन्हे रोकना ही परम तप है-इच्छा. मात्मानों का ध्यान-मनन-पाराधन करने से उसका मार्ग निरोधस्तपः।प्रशस्त होता है। इसलिए देव-पूजा का शास्त्रों में विधान (६) दान-उपचार के लिए अपनी वस्तु-जिसके किया गया है और श्रावक को इसका नियमित प्राचरण द्वारा जीवों की प्रवृत्ति धर्म में होती हो, पात्म-हित की बतलाया है। दृष्टि से उन्हें शान्ति मिलती हो-या उनका भौतिक (२) गह उपासना-जो इन्द्रियों संबधी सांसारिक दु.खों निस्तार होता हो-पर-हेतु देना 'दान' कहलाता विषयों के सेवन और उनकी प्राशा मात्र का भी परित्याग है। दान में दाता मोर पात्र दोनों का हित-निहित है। कर देते हैं, किसी प्रकार के भी संसार बढ़ने-वाले दान लोकोपयोगी पौर धर्म को बढ़ाने वाला हो, ऐसा कार्यों को नहीं करते, किसी प्रकार का परिग्रह (बहिरग ध्यान रहना प्रावश्यक है। व अंतरंग) नहीं रखते - पर विकारों से उभयथा यानी -स्टेट बैक माफ इंडिया, श्रीगंगानगर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका शल्य श्री रत्नत्रयधारी जैन ज्ञान के भेद अनन्त हैं। सामान्य दृष्टि से समझा जा है। स्वयं अनुभव करते है तथा असहाय रूप होकर दूसरी सके प्रत: श्रमण महावीर ने ज्ञान के मुख्य पांच भेद कहे है। प्रात्मा प्रो को इस दुखद स्थिति मे, दुखद तथा रौद्र रूप से प्रथम मति, द्वितीय श्रुत, तृतीय प्रवधि, चतुर्थ मनः पर्यय अनंत वार महन करते हुये, अवलोकन करते हैं। दुख पोर पंचम केवल ज्ञान (सम्पूर्ण स्वरूप) है। प्रज्ञान से पंदा होता है और प्रज्ञानादिक कम के सहन वस्तु के स्वरूप को जानने का नाम ज्ञान है। वस्तुएं करने से उसका अन्त नहीं दिखाई देता है। इसको दूर मनन्त हैं। प्रनम्त वस्तुएं प्रनत अंगो की अपेक्षा से है। करने के लिये ज्ञान की परिपूर्ण प्रावश्यकता है। मुख्य वस्तुत्व स्वरूप से जानने योग्य पदार्थ जीव और अगर ज्ञान की आवश्यकता है तो उसे प्राप्त करने के अजीव हैं। साधनों के विजय पर विचार करना पड़ेगा। सभी मनुष्य काल भेद से इस समय मात्र मति पौर श्रुत ये दो हो या अधिकतर लोग प्रात्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाते है। या प्रा ज्ञान विद्यमान है। शेष तीन ज्ञानों का प्रभाव है। फिर मात्मज्ञान पूर्ण ज्ञानी (केवली) के वचनामृत की श्रुति भी जब श्रद्धा भाव से नन-तत्व ज्ञान के विचारों का मन्थन तथा श्रद्धा से ही हो सकता है। श्रुति के बिना संस्कार किया जाता है तो हमें प्रात्म-प्रकाश, प्रानन्द, समर्थज्ञान नहीं। यदि सस्कार नहीं होवे तो श्रद्धा कहां से हो ? को स्फुरण का नवनीत प्राप्त होता है। पूनः पूनः मनन जिज्ञासु भप होना परम पावश्यक है। करने से चंचलमन सद्धर्म मे स्थिर हो जाता है। धर्म ध्यान से परिणामों की विशुद्धि होगी। शुद्ध ज्ञान क्या है। जो प्रात्मा है वह जानता है जो जानता पारणामा स भवांत हो जायेगा। धर्मध्यान के चार है वह पास्मा है । ज्ञान प्रात्मा का गुण है। ज्ञान प्रात्मा लक्षण हैं। प्राज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और नाममा भानाभावी उपदेशरुचि है। धर्मध्यान के चार प्रालंबन है। वचना, पारमा (जीव) कमी भी मनात्मा (मजीव) नही बनता है। प्रच्छना, परावर्तना और धर्म कथा । पोर मनात्मा कभी भात्मा नहीं बनता है। स्वाध्याय तप इस लेख का विषय पृच्छना है। शंका शल्य के है। इससे सत्यासत्य का विवेक प्राप्त होता है दोषमुक्ति निवारण के लिए-गुरु अथवा अपने से अधिक ज्ञानी से व कममक्ति के लिये एकाग्रता होती है जो व्यक्ति को प्रश्न पूछने को पृच्छ नालम्बन कहते है। प्रात्मनिष्ठ बनाती है। मन का केन्द्रीकरण स्वभावो- संत-समागम में भी यह मार्ग शंका समाधान का न्मुख है। निहित है। ज्ञान की पा मावश्यकता है। प्रात्मा की सकर्म- इन्द्रभूति ब्राह्मण (गौतम गणघर) की शंका का स्थिति से अनादिकाल से इस लोक में चतुर्गति में भ्रमण निवारण सन्मति भगवान के दर्शन मात्र से हो गया था। है। इस पर्यटन का कारण अनंत दुखद ज्ञानावरणीयादि दिव्य-ध्वनि का खिरना तथा गणधर का प्रश्नकर्ता को कम हैं। प्रात्मा स्वरूप को पा नहीं रहो है। विषयादिक उपदेश देना और उससे जिज्ञासु की शका का समाधान मोह बंधन को स्वरूप मान रही है। इस संसार में निमेष हो जाता था। प्राचार्यों की सभा में प्रश्न उत्तर की मात्र भी सुख नहीं है। क्या हम निरन्तर इसका अनुभव परम्परा थी। नहीं करते हैं। प्रसह्य दुखों को अनंत पार सहन किया (शेष पृष्ठ ४० पर) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन्धर चम्पू में पाकिञ्चन्य - कु. राका जैन प्रन्य परिचय-गद्य-पद्य से भिन्न किन्तु दोनो से किनन का मात्र परिलक्षित होता है। प्रकिचन का मर्थ समन्वित काव्य चम्पू काव्य कहलाता है। जीबन्धर-चम्पू है -विञ्चित मात्र भी न रहना अथवा मोह जनित काव्य-प्रणेता महाकवि हरिचन्द्र ने स्वयं चम्पूकाव्य- विचारों को त्यागना प्रर्थात्-प्रपरिग्रहवाद । अपरिग्रह वरीयता को उद्घाटित किया (प्राकिचन्च) रूपी साधन का सहारा लेकर जन साधक गद्यावली पद्य परम्परा च, माध्य (मक्ति-पद) को पा सके । प्रत: जैन धर्म के उत्कृष्ट प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् । लक्ष की उपलब्धि हेतु अकिचन का माश्रय लेना हपं प्रकर्ष तनुते मिलिवा, परमावश्यक है। जीवन्धर स्वामी जिनका सम्पूर्ण जीवन द्राबाल्यनारुपवतीव कान्ता ॥ राजवैभव एवं कामिनी वैभव के मध्य ध्यतीत हुमा उन्होंने अर्थात् गद्यावली और पद्य परम्परा ये दोनों पृयक भी अन्ततोगत्वा प्राचिन्य धर्म का सहारा लेकर निर्वाण पृथक् भी प्रानन्द उत्पन्न करती है फिर जहां दोनों मिल पद को पाया। जीवन्धर स्वामी के सदश ही जीवन्धर जाती हैं वहां की तो बात ही निराली है, वहां वे दोनो चम्पू मे चित्रित चरित्रों के मध्य भी किचन-तत्व दशित शैशव भोर तारुण्य के बीच विनरने वाली कान्ता के समान होता है। अन्य के प्रयम लम्भ में ही राजा सत्यत्पर प्रत्यानन्द देती है। किचन-धारक के रूप में उपस्थित होते है। जीवन्धर ___महाकवि हरिचन्द्र के समान ही विविध चम्पू-काव्य चम्पू में व्यवहत प्राकिञ्चन्य-निरूपण निम्न पात्रों के सृजेतानों ने चम्पू के गद्य-पद्य-मिश्रण को वाद्य समन्वित माध्यम से पाठको के मध्य उपस्थित हो सकता है - सगीत माध्वोक और मृती अथवा सुधा और मायीक के सम्यक योग से प्राप्त प्रानन्द एव इसके सौन्दर्य को नपराज सत्यन्धर का प्राविञ्चन्य-जीवन्धर-जनक रागमणि संयुक मकनामाला अथवा कोमल-किसनय कलित सत्यं घर नपगज सुग्यपूर्वक जीवन-यापन करने के लिए तुलसीसक सदृश मनोरम माना है।। राज्यभार को मन्त्री काष्ठा ङ्गार पर सौंप देते हैं और इस प्रकार चमत्कार प्रधान, गद्य-पद्य - गुम्फिन एवं राज्य की तरफ से चिन्तारहित होकर विजयारानी के मानव-मानस-मजलव म्यूकाव्य महावीरस्वामी के समकालीन साथ जीवन घड़ी को चलाते है कि यकायक बही क्षत्रचुडामणि जीवन्धरस्वामी का जिसमे जीवन-चरित काष्ठाङ्गार अधिपति बनने की इच्छा से राजा के साथ निरूपित है -'जीवावर चम्पू' नाम से विश्वविख्यात हुमा। युद्ध करना प्रारम्भ कर देता है। प्रतिकार रूप में नृप सम्पूर्णकया प्रलोक्कि घटनामों से भरी है रजकता को रानी विज्ञया के मना करने पर भी एकाकी ही रणभूमि देखते हुए मालोचकों को मन्त्रणा रही है कि काश ! में पहुंच जाते है। स्व-बाहुवल से अनेक प्रतिनियों को इसका चित्रपट बन जाता तो मनायास ही यह मादर्श मौत के घाट उतार देते है। दोनों पोर से घोर युद्ध होता लोगों के मध्य उपस्थित हो जाता । विषय वस्तु ११ लम्भों है कि यकायक नपराज के मनोभाव होते है कि-"जिस में व्यवहत है जिसकी रोचकता प्रकथनीय है। राज्य के लिए हम युद्ध कर रहे हैं, न जाने कितने ही जीवनपरचम्पू में पाकिञ्चन्य - यद्यपि जीवन्धर जीवों की मेरे द्वारा हिंसा हो रही है, न जाने कितने चम्पू श्रृंगार-प्रधान काव्य है तथापि उसमें यत्र-तत्र धुणित कार्य मेरे द्वारा हो रहे हैं, क्या वह मेरे साथ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत जायेगा? राज्य ही क्या, कोई भी मेरा नहीं, मुझे इसमे में प्रकिचन-धर्म का प्राश्रय लिया और अन्त में उसी पण रंचमात्र भी ममस्व नहीं।" रूप को महाव्रत के रूप में परिवर्तित किया और इस इस प्रकार मान में किचनपूर्ण भावों के प्रागमन संसार-पाश से मुक्ति पाई। के साथ ही उन्होंने युद्धस्थल में ही मुनि दीक्षा ले ली। क्षेमश्री के परिणयोपरान्त क्षेमारी से निकल कर, एवंविध राजा सत्यंघर हमारे सम्मुख अकिंचन-पुरुष के अपने मणिमयी प्राभूषणों को देने की इच्छा होने पर रूप में उपस्थित होते है। वस्तुत: प्रधानता है उन मनो. जीवन्धर स्वामी को एक कृषक दिखलाई दिया उन्होंने भावों को, जो राजसी भोग में लिप्त था वही कुछ क्षण उसे पंचाणवत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का बाद पाकिञ्चन्य-धर्मी के रूप में स्थित हुप्रा। सम्यक उपदेश दिया। जिनमें पंचाणुवन के मम्तर्गत नायकजीवधर स्वामी का पाकिञ्चन्य-जीवन्धर परियपरिमाणाणवत प्राविञ्चन-भाव से प्रोत-प्रोत है। चम्के प्रम्तर्गत जीवन्धर स्वामी की प्राचिन्ध-प्ररूपणा उन्होंने उस किसान से कहा कि जिस प्रकार बैल द्वारा उस्लेखनीय है क्योंकि राजैश्वर्य के साथ साथ गत्ववंदत्ता । धारण करने योग्य भार उसका बछड़ा धारण नहीं कर प्रभत प्रष्ट शनियों के सुख के मध्य पाकिचन्य धर्म का सकता उसी प्रकार मनि द्वारा धारण करने योग्य व्रत को अवलम्बन लेकर मुक्ति पदवी को पाना यथार्थन: पाश्चर्य गृहस्थ धाण नहीं कर सकते । गृहस्थ के लिए प्रणवत ही का विषय है। उन्होंने जीवन में पद-पद पर मणुव्रत रूप परमोपयोगी है। -(क्रमश:) (पृष्ठ ३८ का शेषां श) वैदिक साहित्य में भी धर्म चर्चा मोर संत समागम सोही बहा हैकी प्रणाली रही है। पुराणों और उपनिषदों में प्रश्न और तत्प्रति प्रीत चिनेन, येन वातापि हि श्रुता । उत्तर के रूप मे धर्म चर्चा की गई है। गीता मे नर निश्चित स: वेदव्या, भाविनिर्वाण भाजनम् ।। (पर्जुन) को नारायण (श्रीकृष्ण) द्वारा प्रात्मोपदेश इसी पद्मनन्दि पंच विशतिका (एकत्वशीति: २३) प्रकार से दिया गया है। अर्थ-जिहि जीव प्रसन्नचित करि इस चनन स्वरूप यूनान में सुकरात प्लटो, अरस्तू दार्शनिको ने इसी प्रात्मा की बात ही सुनी है. सो निश्चय कर भव्य है। मार्ग को अपनाया था। चर्चा करने तथा उत्तर देने वाल प्रल्पकाल विर्ष 'मोक्ष का पात्र है।' के पपने ज्ञान का संवर्धन होता है तथा सुनने वाले को सो भाई जी तुम प्रश्न लिखे निराके उत्तर प्रपनी एकाग्रता प्राप्त होती है। बुद्धि अनुमार कुछ लिखिए है मो जाननापौर अध्यात्म जन समाज में संध्या व रात्रि की शस्त्रसभानों का प्रागम की चर्चा गभित पत्र तो शंघ्र शीघ्र वो करो, यही प्रयोजन था। निश्छल मन से चर्चा से सुनाने वाला मिलाप कभी होगा तब होगा। पर निरन्तर स्वरूपानुभव तथा सुनने वाला दोनों प्रात्मविभोर हो जाते है। वीतराग मे रहना श्रीग्स्तुः" (पूरी चिट्रो प्रागामी अंक मे) के एक सैद्धान्तिक शब्द से ज्ञानावरणीय का बहु क्षयोपशम इस पत्र तथा अन्य पत्रों और समाधानो का इतना होता है। प्रभाव हुप्रा कि जो विस्मयमयी है । मुलतान समाज के शंका समाधान की पर्चा से कितना बड़ा उपकार हो मैन बन्धु पोसवाल थे तथा श्वेताम्बर (स्थानकवासी) सकता है उसका चलन्त उदाहरण पं० प्रवर पं० टोडर माम्नाय के मानने वाले थे। परतु बाद में दिगम्बर मल जी की रहस्यपूर्ण निट्ठी है। पं० जी ने अपने पत्र में प्राम्नाय में प्राकर निग्रंथ धर्म को पालना प्रारम्भ कर कहा कि "तुम्हारे चिदानन्द धन के अनुभव से सहजानाद दिया। प्रोसवाल वधु सारे भारतवर्ष मे श्वेताम्बर कीवविवाहिए । सो भाईजी ऐसे प्रश्न तुम मारिष ही स्थानक के बासी मन्दिर मार्गी) है, परन्तु मुलतान के लिखें पवार वर्तमान काल में मध्यात्म के रसिक बहुत मोसवाल बन्धु इसके अपवाद है। घोडे। बम्ब जो स्वात्मानुभव की वार्ता भी करे हैं, ८, वा, जनपथ, नई दिल्ली Page #124 --------------------------------------------------------------------------  Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. श्री समयसार कलश (टोका)--अनुवादक : ३. जय गंजार-(स्वाध्याय प्रेमी स्मृति अंक)स्थानक. श्री महेन्द्रसेन जैनी । प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ वासी साधु श्री चादमल जी म. सा. की बारहवी पुण्य दरियागज, नई दिल्ली-२। प्रथमावृत्ति, १९८१, छपाई स्मृति के अवसर पर प्रकाशित, 'जय गंजार' वर्ष ४ प्रादि उत्तम:०सं० २७६ मूल्य ७ रु० । प्रस्तुत प्रस्थ का ८६ अक १६६+३०-१६६ पृष्ठो में सजाया भाचार्य अमृतचन्द्र जी की प्राध्यात्मिक कृति समयसार गया उत्तम प्रक है । जो सपादक डा० पी० सी. कलश पर पं० श्री राजमल जी की ढूंढारी भाषा का जैन तथा डा. तेजसिंह गौड को जागरूकता का हिन्दी रूपान्तर है। इसमे विषय को सरल रूप में प्राह्य सहज परिचय देता है। अंक में साधु जी के विविध बनाया गया है, साधारण से साधारण रसिक भी प्रल्प प्रसगो पर पर्याप्त प्रकाश डालते हए उन्हें श्रद्धांजलियां प्रयास से वस्तु तत्व के अन्तस्तल का स्पर्श कर सकता है। भेंट की गई है। मरूप बात विविध प्रायामों से स्वाध्याय प्रारभ में श्री बाबूलाल जैन (कलकत्ते वाले) द्वारा लिखी विषय पर प्रकाश की है, जिससे पाठको को मार्ग दर्शन को २८ पष्ठो की मौलिक प्रस्तावना है। ग्रन्थ प्राध्यात्मिक- सामग्री उपलब्ध होती है। स्वाध्याय संबंधो लेख मननीय रसिकों के लिए परम उपयोगी सिद्ध होगा मोर यदि है। मंत उपयोग लगावें तो इसके सहारे वे समयसार --प्रात्मा के ४. मलचंद किशनदास कापडिया प्रभिनंबन प्रय-- शुद्ध रूप तक पहुंच सकेंगे ऐसा हमे विश्वास है। प्रत्य , प्रकाशक : डाह्याभाई कापडिया सूरत । पृष्ठ २३२ मूल्य सग्रहणीय है। बीस रुपए। २. अन्तव-लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार सेठी: कापडिशाजी के विषय में जो लिखा जाय पल्प होगा। प्रकाशक : होरा भैया प्रकाशन इन्दौर, पृ० सं० ७६। वे जैन समाज के अग्रदूतो में से थे और ऐसे अग्रदूत जो मूल्य ३ रुपया। प्रांघो मेह की परवाह किए बिना पथ पर सदा ही बढ़ते पुस्तक में लेखक ने सोलह निबन्धो के माध्यम से मन.. रहे ! जनमित्र और अन्य प्रकाशनो के माध्यम से तो पापन स्थितियो पर प्रकाश डालने का उत्तम प्रयास किया है। समाज के उत्थान में योग दिया हो: वे यत्र-तत्र भ्रमण पुस्तक पढ़ने से मन को स्थितियों के साथ लेखक की करके भी ययावसर जनता को लाभ देते रहे । धामिक और माध्यात्मिक रुचि का भी सहज बोध होता है - पुस्तक के सामाजिक चेतना जाग्रत करने में पेठ माणिकचद जीव प्रारम्भ मे मुनि श्री विद्यानन्द जी के आशीर्वचन मे सभो पू०७० शीतलप्रसाद जी के कार्य में भी परम सहयोगी रहे। निहित है--कुछ लिखना शेष नही रहता । पुस्तक उपयोगी उक्त प्रकाशन उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन मात्र है। है । साधुवाद। प्रयत्न सराहनीय है। -सम्पादक (पृष्ठ ३४ का शेषांश) हो गयी। उसके मिलने का महत्व है उसकी महिमा है। बोलने की कला सीख कर अपने को भ्रम से मान बैठा छोडा तो कंकड़ पत्थर है उसकी क्या महिमा है कि कि सत्य मिल गया"वह व्यक्ति अपने को ज्ञाता मान लेगा कितना छोड़ा है। मौर बाहर में यद्वातदा गलत प्रवृति करेगा उसको वास्तव यहां पर एक बात ज्यादा गौर करने की है कि किसी में सत्य उपलब्ध नहीं हुमा । पुस्तक में शब्द रूप सत्य के व्यक्ति को वास्तव में तो स्व की प्राप्ति अथवा ज्ञाता को बारे में पढ़ कर यह समझ लिया है कि सत्य मिल गया उपलब्धि हई नहीं "परम्तु शास्त्र के शब्दों को पकड़ कर बखतरमा व्यक्ति सिद्ध होता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registial of Newspaper at R. N. 11059162 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन हतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पोर श्री जगल किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित / पुरत्यन शासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द / ... 2-50 समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द / नप्रम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 : संस्कृत और प्राकृत के 171 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द / ... नग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2 : अपभ्रंश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थो को प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण मग्रह / पचपन प्रन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित / स. प. परमानन्द शास्त्री / सजिल्द। 15-00 समाषितन्त्र प्रौर इष्टोपवेश : प्रध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... पाय-दीपिका : भा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा रा 0 अनु०। 10.00 मन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य न की, जिस पर धी पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिमूत्र लिखे / सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1000 मे भी अधिक पृष्ठों में / पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द / ... 2500 .. मेन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया प्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री 12-00 भावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया न लक्षणावली (तीन भागों में) : सं० प. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग 40.00 समयसार-कलश-टोका : कविवर राजमल्ल जी कृत ढूंढारी भाषा-टीका का अाधुनिक सरल भाषा रूपान्तर : सम्पादनवर्ता: श्री महेन्द्र सेन नी / ग्रन्थ में प्रत्येक कलश के अर्थ का विशद रूप में खलासा किया गया है / आध्यात्मिक रमिको को परमोपयोगी है। 7-00 Jain Monoments: टी० एन० रामचन्द्रन 11.00 Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद / बड़े पाकार के 300 पृ., परको जिल्द 8.00 Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print) सम्पादन परामर्श मण्डल-डा.ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक-श्री पपचन्द्र शास्त्री प्रकाशक-रत्नत्रयधारी जैन वीर सेवा मन्दिर के लिए, कुमार बादर्स प्रिटिंग प्रेस के-१२, नवीन शाहदरा दिल्ली-३२ से मुद्वित।