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________________ बम्बेलखगका बम तिहास अथवा गही स्थापित हुई। उसको पट्रावली के तीन शुभनाम राज्यपालों का प्रचलित विरुद 'महाखान भोजखान' मात्र तत्कालोम बुन्देलखण्ड के जैन इतिहास की त्रिमूति' है-प्रथम ही उल्लिखित है। सुलतान ग्यास शाह का तत्कालीन देवेन्द्र कौति गुजरात के निवासी भोर भट्टारक पद्मनन्दि, राज्यपाल, सुप्रसिद्ध मल्लखान का पुत्र मल्लखान ही हो के शिष्य थे और सर्वप्रथम वे ही चन्देरी के मंडलाचार्य सकता है। चन्देरी पट के भट्रारकों को विशेषता यह थी बनाए गए थे। ये ही देवेन्द्र कीति सन् १४३६ ई० के कि वे बन्देलखण्ड के सुविख्यात दिगम्बर जैन परवार पूर्व किसी समय चन्देरी पट्ट के स्थापक हुए, जैसा कि जाति के प्रतिनिधि ये पोर परवार जाति प्राज भी बुन्देल पडित फलचन्द शास्त्री प्रमाणों के प्राचार पर अनुमान खण्ड के जैनियों मे बहसंख्यक पौर प्रभावशाली है। करते है। इसी समय खिलजी कूल के महमूद खां ने गोरी कुल के मुहम्मद शाह से राज-सत्ता छीन कर चन्देरी विद्रोह श्रुतकीति के सिबाय, प्राधुनिक दतिया जिले में स्थित का दमन किया था पौर कई जैन परिवारों के लोग सोनागिर के भट्टारक थे जिनका संघ काष्ठा, गच्छ माथुर महम्मद शाह गोरी का पक्ष लेने के कारण बन्दी बनाए पौर गण पुरुकर था और समकालीन गुरु कमलकीति थे. गए थे । उपरोक्त देवगढ़ वाल मूर्ति लेख में सुलतान होशंग जो इस गद्दी का पहला नाम है, और इनके उत्तराधिकारी शाह के समय, देवेन्द्र कीति का नाम पाया है। देवेन्द्र पट्टाधीश शुभचन्द्र थे । प्रथम गुरु कमलकोतिदेव के कीति के शिष्य चन्देरी देश के निवासी पर वार जातंय शिलालेख सन ईस्वी १४४६, १४५३ पौर १४७३ के पाए विद्यानन्दी हा जो सन् १४६८ ई० के पूर्व किसी समय गए है। सोनागिर, ग्वालियर की शाखा पीठ था और विभवनकीनि के नाम से चन्देरी के मण्डलाचाय हए और तोमर राजपूतो की राजधानी ग्वालियर का यह जैन केन्द्र जब गुरु का देहान्त हुप्रा तो पट्टाधीश हो गए । इन त्रिभु सबसे बड़ा एव सम्पन्न था । ऐसी धारणा है कि सोनागिर वनकाति के शिष्य सुप्रसिद्ध श्रुतकीति थे जो अपनी विद्वता का नाम, श्रमणागिरि का विकृत रूप है और इसका नामके लिए जाने जाते है। अपभ्रश की परम्परा इस समय करण श्रमण सेन मुनि (विक्रमी सम्बत १३३९) से हुमा चल रही थी और श्रतगति प्ररभ्रश के प्रच्छे लेखक थे। माना जाता है। इन्होने गयास शाह खिलजी (१४६६.१५००) तथा नसीर शाह (१५००-११) के समय प्राय: चन्देरी देश के 'जेर हाट' जिन तारण तरण स्वामी नगर के नेमिनाथ चैत्यालय में बैठकर ग्राप रचना की ईस्वी सम्वत् की पन्द्रहवी शताब्दी अनेकों विशेषहै। यह जगहाट नामो दान कौन सा है इसका निर्णय ताये रखती हैं। हिन्दू-मुस्लिम समन्वय की पर्याप्त प्रगति अभी तक नही हो पाया है। रायबहादुर हीरालाल सागर चिन्ती सम्प्रदाय के सूफी मुस्लिम संतो द्वारा हुई थी जिले में जे हाट (जेठ) ग्राम का पता देते है किन्तु वह जिसकी ध्वनि प्रमस्लिम वैष्णव एवं जैन-समाज के तरकाकिसी जैन मन्दिर का अवशेष भी नही है । लीन साहित्य में विद्यमान है । जैन श्रावकों को जो सूची ग्रन्थ प्रशस्तियों मे मिलती है उसमें उनके नाम उस समय पण्डिन परमानन्द जैन शास्त्री ने श्रुतकीति के चार के मुस्लिम संतों के प्रथवा उनकी समाधियों के नाम पर प्रन्यो का उल्लेख किया है. : प्राधारित हैं। प्रान्तीय राज्यों में खुशहाली का दौर-दौरा था और व्यापार उन्नति पर था। एक मोर सूफियों ने (१) हरिवंशपुराण (२) धर्म परीक्षा (३) परमेष्ठी ग्रामीण बोलियों में रचना शुरू की तो दूसरी तरफ प्रकाश सार और (४) योगसार । इन प्रथों की जो पाण्डः कायस्थों, खत्रियों और कश्मीरी पण्डितों ने फारसी राजलिपियां प्राप्त हुई है । उन सत्र में सम्बत् समान रूप से कीय भाषा सीख कर बड़ी संख्या में सुलतानों के कार्यालय एक ही प्रकित हुमा है : मर्यात १५५२ विक्रमी-१४६५ को संभाला । विशेर रूप से माण्डव के दरबार में जैनियों ईस्वी मोर प्रशस्तियो मे परम्परागत, चन्देरी के शासक का पल्ला भारी था।
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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