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________________ १८ वर्ष ३४, कि० २-३ मनकामी जौनपुर की शी सल्तनत के मन्तगंत सत कबीर, अनुशाशन को त्याग कर पालस्य तथा भोग-विलास की जुलाहा जाति के प्रतिनिधि, गोरखपंथी विचारो को लेकर जीवन व्यतीत करन लगे थे । यद्यपि जैन सस्कृति के प्रति चले और गोरखनाथी विचारधारा स्वयं जैन धर्म से प्रभा. उनकी सेवाएं ऐसी है जिनकी बदौलत न केवल मति वित थी । कबीर के निर्गण प्रेम मार्ग में इस्लाम का शुद्ध गढ़न, मन्दिर निर्माण एव प्रथ लिपि-करण को बड़ा एकेश्वरवाद एव जैन धर्म के उच्च सिद्धान्तों का पुट प्रोत्साहन मिला किन्तु द्रव्य-सकलन और उनके ठाठमौजूद है। कबीर ही के समकालीन गुजरात (अहमदाबाद) माडंबर के कारण वे मठाधीश बन कर रह गए थे। के श्वेताम्बर जैन समाज मे संत लोकाशाह की उत्पत्ति परस्पर विचरते रहने के विपरीत, भट्टारकों ने चंत्यालयो हुई जिन्होंने कबीर के समान ही मूर्ति पूजा का खण्डन और उपास रामों मे तत्र-मत्र तथा प्रायुर्वेद ज्योतिष का किया और यतियो को ललकार कर कहा कि प्रतिमा-पूजा अभ्यास चलाया। भट्टारकों में जो विद्वान थे, उनके का मौचित्य क्या है ?-मागम साहित्य मे कोई इसका विचार संकीर्ण भोर प्रतिक्रियावादी थे और शद्रो तथा प्रमाण हो तो लामो।" विदित रहे कि लोकाशाह के स्त्रियों की मोक्ष प्राप्ति को स्वीकार नही करते थे। प्रमुख दो शिष्यों में लखमसी पारिख, मालवा की राज. तारण-तरण के विचार भट्रारको से अलग थे और सर्व. धानी माण्डव के निवासी थे प्रतः यह अनुमान किया जा जातीय अपनी मडली महिन तारण से मल खेडी, सूखा सकता है कि वाराणसी तथा माण्डवगन के मध्य स्थित (दमोह जिला) तथा राख (पब मल्हारगढ़) के निकटचन्देरी देश (बन्देलखण्ड) मे इन नवीन विचागे ने दोनों वर्ती जगलो मे तपस्या करते रहे। ममल मान शिष्यो मे दिशामों से प्रवेश किया होगा। लोकाशाह का जन्म लुकमान साह की कुटिया निसई क्षेत्र के होते के बाहर सम्बत् १४७५ विक्रमी १४१८ ईस्वी है जबकि उनसे एक विद्यमान है। दूसरे शिष्य रूइयारमन भी मसलमान पीढी पश्चात तारण-तरण स्वामी ने बन्देलखण्ड के बिल. पिजारे कहे जाते है। हरी नगर (कटनी तहसील-जबलपुर जिला) मे सम्वत १५०५=१४४८ ई० में जन्म लिया। लोकाशाह का तारण-तरण की एक दर्जन रचनामो का संग्रह पाज ढुंढिया पंथ सं० १५०८-१४५१ ई. से स्थापित हुप्रा तो उपलब्ध है जिसमें जन धम क विशेष सिदातो-अनेकान्त छग्रस्त बाणो के लेखानुसार तारण स्वामी ने अट्ठावन वर्ष तथा स्याद्वाद -का पग-पग पर दिग्दर्शन होता है । यद्यपि की अवस्था में अपने मत का प्रचार किया जिसका सम्बत तारण सामी के क्रियाकाड मे मूर्तिपूजा के लिए कोई १५६३ ईस्वी १५०६ बैठता है। स्थान न था तथापि दिगम्बर श्रावको और उनके गुरुप्रो की मूर्ति पूजा पर सीधा प्राघात उन्होने नही किया जैसा तारण-नरण स्वयं विद्वान् न थे। एक भक्त के लिए कि लोकामाह ने श्वेताम्बरों पोर कवीर ने वैष्णवो के विद्वान होना अनिवार्य भी नही है। भट्रारकों के रूढिवादी बीच किया था। तारण की रचनाप्रो की भाषा विचित्र प्राचार विचार और उनके शिथिलाचार का यह युग था। और अटपटी है उसमें सस्कन, प्राकृत, अपभ्रश और देशी तारण परवार जातीय गढा माह के यहाँ उत्पन्न हए और शब्दावली का सम्मिश्रण है। सिरोज नगर (जिला विदिशा) के पास से मल खेड़ी मे अपने मामा के घर जाकर रहे। जब होश सभाला तो सारण स्वामी ने सडसठ वष की प्रवस्था मे शरीर मूलसंघीय चन्देरी पट्टाधीश, विद्वान लेखक श्रुतकीति का त्याग दिया। उनकी समाधि निसई जी के नाम से जमाना था। स्वयं तारण-तरण सत्य की खोज मे यथा. तारणपंथी समाज का मुख्य केन्द्र है जहा से दिगम्बर कथित भट्टारकों से दूर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए परवार जाति के इस सर्वोच्च महान प्रात्मा की विचार. विभिन्न स्थानों में तप करते रहे। भट्रारक तो प्राचीन बारा का प्रकाश चारों दिशामो मे फैलता रहा है। किन्त मनियों के पादर्श से नीचे गिर चुके थे और उनके कठोर कबीर तथा लोका जसे ऊँचे भक्तो की टक्कर का यह
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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