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प्राचार्य नेमिन और उनका व्य संग्रह
सबसे पन्त मे मुनि नेमिचन्द्र ने अपनी लघुता प्रकट है इसका उल्लेख किया है। उन्होंने निश्चय, व्यवहार करते हुए दोष विहीन एवं ज्ञान सपन्न मुनीश्वरो से द्रव्य शुद्ध भोर पशुद्ध इन चार नयों के माध्यम से जीव संग्रह ग्रंथ के सशोधन का निवेदन किया है।
और मजीव इन द्रव्यों का विवेचन किया है। गाथा बृहद्रव्य संग्रह के निरूपण को विशेषता :
२६ में पुदगल परमाणु के प्रस्तिकायत्व के प्रसंग में १. प्राचार्य नमिचन्द्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ को द्वितीय गाथा "उवयारा" शब्द का प्रयोग है। प्रतः जिस प्रकार में जीव का लक्षण उपस्थित करते हुए उसके नौ विशेषण प्रत्येक नय-विवक्षा से ज्ञेय पदार्थ म भेद पैदा हो जाता है, दिये है। ये नो विशेषण अपने प्राप मे महत्त्वपूर्ण है। उसी प्रकार उक्त गाथा मे नय का स्थानापन्न शब्द क्योंकि इन नौ विशेषणो के माध्यम से प्राचार्य नेमिचन्द्र "उवयारा" अन्य किसी ज्ञेयान्तर की पोर इंगित करता ने तत्कालीन विभिन्न दार्शनिको द्वारा मान्य सिद्धांतों का है। वह ज्ञेयान्तर क्या है ? यह एक विचारणीय विषय खण्डन किया है। मामान्यतया चार्वाक सिद्धांत में मात्मा है साथ ही पूर्व में व्यवहार-नय का प्रयोग किया गया है, का अस्तित्व स्वीकार नही किया गया है। प्रतःप्रथम मतः "उवयारा' शब्द व्यवहार-नय का प्रपरनाम प्रतीत विशेषण-जीता है, यह चार्वाक सिद्धांत का खण्डन करता होता है। अन्यथा व्यवहार के अतिरिक्त "उपचार" की है। नयायिक गुण पोर गुणी (ज्ञान प्रौर मात्मा) इन कल्पना का अन्य उद्देश्य क्या हो सकता है ? दोनों में एकान्त रूप से भेद मानते हैं, अत: जीव का ३. प्राचार्य नेमिचन्द्र ने जीव और मजीव इन दो द्वितीय विशेषण - "उपयोगमय" नैयायिकों के सिद्धांत का द्रव्यों के विवेचन प्रसंग में निश्चय पोर व्यवहार-मादि खण्डन करता है। इसी प्रकार भट्ट भोर चार्वाक के नयों की शैली को अपनाकर विवेचन किया है, किन्तु शेष सिद्धांत का खण्डन करने के लिए "जीव के अमूर्तपने की प्रास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा भोर मोक्ष इन पांच तत्वों के स्थापना", सांख्यो के खण्डन हेतु "मात्मा के कर्मों के कर्ता विवेचन प्रसंग में उपर्युक्त अभिप्रेत निश्चय व्यवहारपरक रूप की स्थापना", नैयायिक, मीमामक और सांख्यों के नय-शैली का समन्तात् परित्याग कर द्रव्य-भाव शैली का खण्डन हेतु "मात्मा का भोक्तृत्व रूप", सदाशिव के अनुसरण किया है । अर्थात् शेष पाँच द्रव्यो को द्रण्यासवखण्डन हेतु "प्रात्मा का ससारस्थ" कथन, भट्ट भोर भावानव प्रादि के माध्यम से निर्दिष्ट किया है। यहाँ चार्वाक के खण्डन हेतु 'प्रात्मा का सिद्धत्व स्वरूप" और प्रश्न उपस्थित होता है कि प्राचार्य नेमिचन्द्र ने पर्व भाण्डलीक मन का अनुसरण करने वालो के विण्डन हेतु अभिप्रेत निश्चय-व्यवहार परक नय-शैली का अन्त तक मात्मा (जीव) के स्वाभाविक ऊध्वंगमन का विवेचन निर्वाह क्यों नहीं किया? क्या ऐसा करना संभव नही किया गया है।
था? पथवा हमके मूल मे प्राचार्य नेमिचन्द्र का कोई २. जिम नयवाद सिद्धात को नीव पर जैन-दार्शनिको प्रम्य अभिप्राय है ? विद्वज्जन स्पष्ट करें! का परमत खण्डन और स्वमत मण्डन रूप प्रासाद खड़ा ४. नयों एवं द्रव्य-भाव पक्षों के प्रयोग से पूर्व लेखक हमा है, वही नयवाद मिद्धात प्राज जैन-विद्वानी में पसर ने उन्हें परिभावित नहीं किया, जिससे पाठकों को इन विवाद उपस्थित कर रहा है। इसका मूल कारण है- शब्दों के पर्यों को समझने हेतु प्रन्य ग्रन्थों का सहारा नय सिद्धांत का मम्यग मर्थ न समझना। विभिन्न प्राचार्यों लेना पड़ता है। कही-कही नयादिकों को स्पष्ट घोषणा ने नय के भनेक भेद किये हैं, जिन प निश्चय पोर व्यवहार किये बिना भी विवेचन दृष्टिगत होता है। ऐसी स्थिति ये दो प्रमुख है। प्राचार्य ने मिचन्द्र ने द्रव्य-संग्रह मे नय- में नय-विवक्षा भी पाठकों के हस्तगत हो जाती है। प्रतः विवक्षा को प्रायः स्पष्ट रूप में ही प्रस्तुत किया है। उपयुक्त महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को दृष्टि से प्रोझल किये बिना मर्थात उन्हे कौन सा कथन किस नय-विवक्षा से प्रभोष्ट एक तर्कसंगत समाधान की खोज सतत बनी रहती है। १. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा २६
बदेसो "उवयारा" तेण य कामो भणंति सम्वण्ह ।। एयपदेसो वि मण जाणाखषप्पदेसदो होदि। २. द्रष्टव्य-बहद्व्य संग्रह, गाथा १७, १८, १९,२५॥