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१०, बर्ष ३४, कि.१ का नाश होता है वह भाव निर्जरा है और कर्म-पुद्गलों मोल-मार्ग का वर्णन करने के पश्चात् प्राचार्य का झड़ना द्रव्य निर्जरा है। मोक्ष दो प्रकार का है-- नेमिचन्द्र ने उस निश्चय पोर व्यवहार रूप मोक्ष-मार्ग के भामोक्ष प्रो. द्रा मोः । सम्पूर्ण कमी के नाश का साधक रूप ध्यान अभ्यास की प्रेरणा देते हुए लिखा है कारण तो प्रात्मा है वह भाव मोक्ष है और कर्मों का कि ध्यान करने से मुनि नियम से निश्चय और व्यवहार या से सर्वथा पृशक होना द्रव्य मोक्ष है। शुभ पोर रूप मोम-मार्ग को पाता है, इसलिए चित्त को एकाग्र कर अशुभ भावो से युक्त जीव क्रमशः पुण्य भोर पाप रूप ध्यान का अभ्यास करे। वह ध्यान अनेक प्रकार का है, हाता है । साता वेदनीय, शुभ-प्रायु, शुभ नाम और उच्च इसकी सिद्धि के लिए एकाग्र चित्त प्रावश्यक है और गोत्र (शुभ गोत्र) ये पूण्य प्रतियां है, शेष पाप एकाग्रचित्त के लिए इष्ट पोर अनिष्ट रूप जो राग द्वेष
एवं मोह रूप इन्द्रियो के विषय है उनका त्याग प्रकृतियों है।
प्रावश्यक है। इस प्रकार नौ पदार्थों के विवेचन प्रसंग में मोक्ष की अनेक प्रकार के ध्यानो के प्रसग में पदस्थ ध्यान की चा करने के पश्चात उस मोक्ष प्राप्ति का कारण अथवा चर्चा करते हुए मनि नमिचन्द्र ने पच परमेष्ठियो के वाचक मार्ग क्या है ? इस बात को ध्यान में रख कर प्राचार्य पंतीस सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षर रूप नेमिनन्द्र ने लिखा है कि -सम्यगग्दर्शन, सम्यग्यान पोर मंत्रो के जाप का निर्देश दिया है। उन पच परमेष्ठियो
में चार घातिया कर्मों के नष्ट करने बाल तथा अनन्त सम्याचारित्र इन तीनों का समुदाय व्यवहार नय से मोक्ष
दर्शन, सुख, ज्ञान और बोयं के धारक, शुभ देह म स्थित, कारण है तथा निश्चय नय से उपर्युक्त सम्यग् दर्शन,
शुद्ध यात्म-स्वरूप प्ररहन्त भगवान् हैं। प्रष्ट कर्म रूप सम्यमज्ञान और सम्यकचरित्रमयी अपनी प्रात्मा ही मोक्ष
शरीर को नष्ट करने वाली, लोकाकाश भोर मलाकाकाश का कारण है। क्योकि आत्मद्रव्य को छोड़ कर अन्य
को ज्ञाता-दृष्टा, पुरुषाकार, लोक के अग्रभाग में स्थित किसी द्रव्य में रत्नत्रय विद्यमान नही रहता है, इसलिए
प्रात्मा सिद्ध परमेष्ठी है । दर्शनाचार और ज्ञानाचार को रत्नपघारी प्रात्मा ही निश्चय नय से मोक्ष का कारण
मख्यता को लेकर वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार है। जीवादि सप्त तत्त्वो अथवा नो पदार्थों पर श्रद्धान
इन पाचो प्राचारो मे जा स्वयं तत्पर है तथा अन्य को करना सम्यकत्व है। वह सम्यक्त्व प्रात्मा का स्वरूप है
भी लगाते हैं वे मनि प्राचार्य है। जो रत्नत्रय से युक्त मोर उसके होने पर दुभिनिवे# (संशय, विपर्यय मोर
प्रतिदिन धर्मोपदेश में रत है तथा मुनियों में प्रधान है वह पनघवसाय) से रहित सम्यग्ग्यान होता है। प्रात्मा मौर
प्रात्म। उपाध्याय है। दर्शन पोर ज्ञान से परिपूर्ण, मोक्षउससे भिन्न पर पदार्थों का संशय, विमोह तथा विभ्रम
मार्ग स्वरूप सदा शुद्ध चारित्र का जो पालन करते है वे रहित शान होना सम्यग्ज्ञान है, वह साकार मोर भनेक
साधु परमेष्ठी है। भेदो वाला होता है । पदार्थों (भावों) मे भेद न करके,
इसी प्रसंग मे साधु के निश्चय और परम ध्यान प्राप्ति विका न करके पवापों का जो सामान्य ग्रहण है वह
का उल्लेख करते हुए कहा है कि-एकाग्रता को प्राप्त दर्शन है। छद्मस्थ संसारी जोवो के दर्शनपूर्वक ज्ञान
सनपूर्वक शान कर जिस किसी वस्तु का चिन्तन करते हुए जब साधु होता है, दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते। किन्तु केवलो निरीह वत्ति (हच्छा रहित) होता है तब उसके निश्चय भगवान के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग युगपद होते ध्यान होता है और जब मन, वचन काय की क्रिया से है। प्रशुभ कार्य से निवृत्ति और शुभ कार्य में प्रवृत्ति रहित होकर अपनी प्रास्मा मे ही तल्लीन होता है तब व्यवहार चरित्र है, जो व्रत समिति मोर गुप्ति रूप है। उसके परम ध्यान है। क्योकि तप, श्रुत और व्रत का संसार के कारणो का नाश करने के लिए ज्ञानी जीव की धारक प्रात्मा ध्यान रूपी रथ की धुरी को धारण करने जो बाह्य और प्राभ्यन्तर क्रियामो का निरोध है वह मे समर्थ होता है, पत: ध्यान की प्राप्ति के लिए उपयुक्त उत्कृष्ट सम्यक चारित्र है।
तीनों को माराधनाकरें।