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________________ ३४३४०रण ४ में ही देखना होगा। वास्त्रों मे देख कर पण्डित हो सकते हैं स्व के बारे में कथन कर सकते हैं परन्तु सबके मालिक नहीं हो सकते। अनेकार हमने पर को दुख का कारण प्राशक्ति का कारण समझ कर उसको तो करोड़ों दफे छोड़ा परन्तु पर मे ग्रहम् बुद्धि नहीं छोड़ी। पहले पर के ग्रहण में महम् बुद्धि थी अब पर के त्याग में ग्रहम् बुद्धि हो गयी पहले वाली से दूसरी ज्यादा खतरनाक होती है परन्तु अपने ज्ञाता में महम् बुद्धि नहीं भाई पर के ग्रहण से पर के त्याग मे तो बदल गयी परन्तु अपने में नहीं श्राई तो बाहर में तो बदला हुआ दिखाई देता है भेष बदला हुआ मालून देता है परन्तु अन्तर में स्व में कुछ बदला नहीं है वह तो वैसा का-सा ही है। इसलिये पर बदल गया परन्तु रहने वाला नहीं बदला - जिसको बदलना था । जब पर में अहम् बुद्धि हट कर स्व में ग्रहम् बुद्धि मा जाय तो मासक्ति तो अपने आप छट गयी। जो रोकना है वह तो अहम् का ही है मकान के लिये कोई नहीं शेका मेरा चला गया उसके लिये रोता है । मकान कही नहीं जाता मात्र मेरा नहीं रहता । जहाँ मेरा है वही रस है. जब मेरा नहीं रहा तो रस भी सूख गया। स्त्री नही जाती मात्र मेरी नहीं रहती और मेरा निकलने पर कुछ नही रहता। बच्चों के खेलने में रस नहीं माता परन्तु मेरे बच्चे का रस माता है । इसलिये मेरापन ही रस पैदा करता है। इस प्रकार हम अपने ज्ञाता को पड़े । ज्ञाता अपने भावको पर रूप देखता था वह अपने प्रापको अपने रूप देखे और अपने को अपने रूप जाने और अपने में ही लीन हो जाये यही मार्ग है । पर तो पर था ही वह कभी स्थ हो नहीं सकता था उसको मज्ञानता से स्व मान लिया या अब भपना ज्ञान हुम्रा तो पर को पर रूप जाना पर को पर रूप देखा । श्रब जितना अपने से ठहरे उतना पर का रस सूखने लगा पर की महिमा गयो । जितना स्व में ठहराव, लीनता बढ़े उतना विकार दूर हो भोर जितना विकार दूर हो उतनी बाहर में पर की पकड़ छुटती जाये । बाहर से देखने वाला कहता है त्याग दिया भीतर से देखने बाला कहता हूँ पकड़ने को कुछ रहा ही नहीं बाहर देखने वाला कहता है त्याग कर चला गया। भीतर से देखने वाला कहता है जान कर चला गया । जान लिया यहाँ मेरा अपना कुछ नही तो फिर ठहरने को रहा हो नहीं । इस प्रकार ठराव बढ़ता जाता है कार्य भीतर में हो रहा है बाहर मे तो उसका Reaction भा रहा है बाहर से देखने वाला Reaction को धर्म समझता है उसको पुरुषार्थ समझना है और उस बाहरी Reaction की नकल करता है भीतर से देखने वाला जानता है पुरुषार्थ तो भीतर में है । स्त्र को जानने का पहला पुरुषार्थ और उसमें ठहरते जाना, ठहरते जाना और ठहरते ठहरते उसमें पूर्ण रूप से लीन हो जाना यह दूसरा पुरुषार्थ है । ऐसा लीन हुआ कि बाहर में पाने की जरूरत ही न रहा बस विकार का भी प्रभाव हो गया शरीर का भी प्रभाव हो गया मात्र ज्ञाता रह गया इसी का नाम मोक्ष है इमो का नाम परमात्मा होना है । जैसे-जैसे निज को निज रूप देखता है विचार कम होने लगते है । पहले तीव्र क्रोधादि जाते है तब बाहर में अन्याय रूप श्राचरण मिट जाता है। बाहर से हटने लगता है फिर मंद कोवादि जाने लगते है तो बाहर में पच महाबन रूप श्राचरण होने लगता है घर से प्रयोजन नही रहना। जब मंद मे मंदतर होते है तो बाहर की जरूरत नही रहनी अपने में ही धान में लीन हो जाना हैं । इस प्रकार "भीतर से बाहर का मिलन" है परन्तु "बाहर से भीतर का मिलन नहीं है।" हमने बाहर को पकड़ लिया भीतर को भूल गये मूल को छोड़ दिया पत्तो को पड़ । बंठे है | तत्व यह नहीं है कि उसने क्या छोड़ा। तस्य यह है कि क्या उपलब्ध हुप्रा । त्यागा नहीं है पाया है ।" जब हीरे मिल गये तो पत्थर कंकड़ छुट गये क्योकि बेमाने हो गये । ककड़-पत्थर को कुछ कीमत समझ कर पकड़ रखा था जब कंकड़ पत्थर दिखाई दे गये तो बेमाने हो गये । अपने माप छुट गये । महत्व छुट गया इसका नहीं हैं महत्व मिल गया इसका है। कोई ऐसी चीज मिल गयी कि उसके सामने चक्रवर्ती की विभूति भी कंकड़-पत्थर (शेष प्रावरण पृष्ठ ३ पर)
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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