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________________ तीन - श्री बाबूलाल जैन (कलकत्ता वाले) हर कार्य में तीन काम साथ-साथ होते हैं एक शरीर खाया गया यह मैंने भी देखा है इस प्रकार वह मात्र ज्ञाता को क्रिपा एक विकारी भाव या विकला और एक जानने है करता नही, भोक्ता नहीं। को क्रिया । जानने की क्रिया प्रात्मा से उठती है। शरीर जबकि एक दूसरा व्यक्ति है जो इस ज्ञाता को नहीं को क्रिपा शरीर को ही है। रही विकारी भावों की बात पहचानता वहाँ पर वह समझता है कि सब कुछ करने वह भी पर के समझ से होने वाली है। जानने की क्रिया वाला मैं ही हूं वह शरीर को क्रिया का भी पौर विकारी बाकी दो क्रिपात्रों को जानती है उस रूप नही होती। वों का भी दोनों का कर्ता। दोनों को अपने रूप शरीर को जानते हुए शरीर रूप नही होती-क्रोधादि जानता है और दोनों में अहम् बुद्धि रखे हुए है। वहां भावों के होते उस रूप नही होतो वह तो अपने रूप ही तोन नही दो ही है। जब ज्ञाता पकड़ में नहीं पाता तो रहती है। विकार का करता बन जाता है और उसमे और शरीर में अपर हम खा रहे है तो वही पर भी तीन कार्य हो अहम् बुद्धि करता है। जिसमे महम् बुद्धि होगी उसमे रहे है शरीर को क्रिस-खाने का भाव और खाने में रस भासक्ति भा होगा । लौकिक में भी जिसको हम अपना माना और उसको जानने की क्रिया । जैसे हम दूर बैठ मानते है उसमे धासक्ति होती ही है। वह पासक्ति तब कर पिसी दुमरे प्रादमी को क्रिया देखते है। वह बीमार तक नही छूट सकती जब तक प्रहम् बुद्धि नहीं छटती। है तो हम देख रहे हैं परन्तु बीमारी का भोक्ता वही है इसलिये जो लोग पर मे, शरीर से प्रासक्ति छोड़ना चाहते देखने वाला नहो, अगर वह क्रोध कर रहा है तो उसका है उन्हे पहले उसमें से प्रहम् बुद्धि छोड़नी है तब प्रसक्ति वत्ता भीता बही है देखने वाला नही, अगर वह चलता है अपने माप छुट जायेगो और महम् न तब तक नहीं तो देखने वाला नही चलना वह तो पलग है अगर दूसरा छुटती जब तक ज्ञाता पकड मेड़ी माता । ज्ञाता पकड़ बोल रहा है को देय ने वाला प्रबोला है। ठीक यही दशा में पाने पर ग्रहम् नारा पायेगा 7' पर में महम् बुद्धि प्रहमा के जान की है कोषादि होते है परन्तु देखने वाला नही रहेगी और प्रासक्ति धपा माप छु जायेगी। छोड़ना तो देखने काम कर रहा है। इस प्रकार उसके तीन पर मे प्रहम् बुद्धि को है। यह Negative है यह कहना क्रियाबदामी मे होती है वह एक का मालिक है एक चाहिए कि अपने में प्रहम् बुद्धि लानी है यह Positive के सार उसका अपनापना-एकत्वपना, प्रहम् एना है बाकी है। प्रज्ञानता क्या है, संसार क्या है, पर में महम् बुद्धि। दो के साथ उसका अपनापना-एकात्मपना-महाना नही पर को छोड़ने से, उससे दूर भाग जाने से महम् बुद्धि नहीं है। परकीदो क्रिया होती है कभी क्रोध कर रहा है छटेगी। परन्नु पपने को जानने से पहम् बुद्धि छटेगी। कभी क्षमा मांग रहा है। परन्तु जानने वाला तो मात्र अपने को नही जानना यही मशान है और यही प्रज्ञान जान हो रहा है वह तो न क्रोध करता है और न क्षमा अनंत ससार, अनंत दुख हं यही बन्धन है। उसका उपाय मांगता है परन्तु इनका मानने वाला है। इसलिये यह अपने को जानना है वह शास्त्र के द्वारा-शब्दों के द्वारा कहना चाहिए कि वह खाते हुए खाता नही। चलते हुए पोर गुरु के द्वारा भी नहीं होगा। वहां से तो पाप स्वर पलसा नही बोलते हुए बोलता नही। इस प्रकार कोई बारे मे जानकारी कर सकते है । स्व के बारे में शास्त्र से कहता है कि पापने खाना खाया यह कह सकता है खाना जान सकते हैं परन्तु स्व को देख नहीं सकते उसे तो अपने
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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