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प्रने सम्मान में पूर्वाग्रहमति प्राश्यक तथा सूक्ष्मादि विषयक बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि (६०वी) कारिका के द्वारा बतलाया है कि जैसे दुग्बनती, कुमारिल ने समन्तभद्र को ही उक्न मान्यता का खण्डन दूध ही ग्रहण करता है, दही नही लेता और दही का व्रत किया है। इसका सबल प्रमाण यह है कि कुमारिल के रखने वाला दही हो लेता है, दूध नहीं लेता है तथा दूध उक्त खण्डन का भी जवाब प्रकलक देव ने दिया है"। और दही दोनों का त्यागी दोनों को ही ग्रहण नहीं करता उन्होंने बड़े सन्तुलित ढंग से कहा है कि 'अनुमान द्वारा पोर इस तरह गोरस उत्पाद, व्यय और ध्रुवता तीनों से सुसिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) भागम के बिना और प्रागम मुक्त है, उसी तरह मखिल विश्व (नत्व) यात्मक है। केवलज्ञान के बिना सिद्ध नहीं होता, यह सत्य है, तथापि कुम रिल ने भी समन्तभद्र को लौकिक उदाहरण वाली दोनों में प्रन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योकि पुरुपातिशय कारिका (५६) के प्राधार पर प्रानी नयी ढाई कारि(केवलज्ञान) प्रतीतिवश से माना गया है। इन (के वल- कार्य रची है और समन्तभद्र की ही तरह उनके द्वारा ज्ञान और प्रागम) दोनों मे बोज और अकुर की तरह वस्तु को यात्मक सिद्ध किया है"। उनको इन कारिमनादि प्रबन्ध (प्रवाह-सन्तान) है'।
कामो में समन्तभद्र की कारिका ५६ का केवल बिम्बपालक के इस उत्तर से विल्कुल स्पष्ट है कि प्रतिविम्वभाब ही नहीं है, अपितु उनको शनावली, शैली समन्तभद्र ने जो अनुमान से परहन्त के केवलज्ञान (म. प्रौर विच, रसरणि भी उनपे समाहित है। समन्तभद्र ने ज्ञता) को सिद्धि की थी, उसी का खउन कुमारिल ने जिस बात को प्रतिसक्ष मे एक कारिका (५६) मे कहा किया है और जिमका सयुक्तिक उत्तर प्रकलंक ने उक्त है, उसी को कुमारिल ने ढाई कारिकामों में प्रतिपादन प्रकार से दिया है । केवलज्ञान के साथ 'अनुमानविज़म्भि- किया है । वस्तुत: विकास का भी यही नियम है कि वह तम्' – 'अनुमान से सिद्ध' शिंपण लगा कर तो प्रकलंक उत्तरकाल में विस्तृत होता है । इस उलेख से भी स्पष्ट (वि० सं० ७वीं शती) ने रहा-सहा सन्देह भी निरावृत जाना जाता है कि समन्तभद्र पूर्ववर्ती है और कुमारिल कर दिया है। इस उल्लेख-प्रमाण से भी प्रकट है कि परवर्ती। कुमारिल ने समन्तभद्र को प्राप्त मीमांसा का खण्डन किया इसका ज्वलन्त प्रगण यह है कि ई० १०२५ के मौर जिसका उत्तर समन्तभद्र से कई शताब्दी बाद हुए प्रसिद्ध, प्रतिष्ठिन और प्रामाणिक तर्क ग्रन्थकार वादिराज अकलंक ने दिया है । समन्तभद्र को कुमारिल का परवर्ती मूरि" ने अपने न्यायविनिश्चय-f० वरण (भाग १, पृ० मानने पर उनका जवाब वे स्वय देते, प्रकल क को उसका ४३६) मे समन्तभद्र की प्रानमोमासा की उल्लिखित अवसर ही नहीं पाता।
कारिका ५६ को और कुमारिल दृ को उपरि चचित (३) कुमारिल ने समन्तभद्र का जहां खण्डन किया ढाई कारिकामो में से डंढ़ कारिका को भी 'उक्तं स्वामि. है वहां उनका अनुगमन भी किया है। विदित है कि समन्तभद्रस्तदुपजीविना भट्टे पि'शों को देकर कुमाजैन दर्शन मे वस्तु को उत्पाद, व्यय पोर धोव्य इन तीन रिल भट्ट को समन्तभद्र का उपजीवी-अनुगामी स्पष्टतया रूप माना गया है"। समन्तभद्र ने लोकिक और पाध्या- प्रकट किया है कि एक हजार वर्ष पहा भी दार्शनिक एवं स्मिक दो उदाहरणो द्वारा उसकी समर्थ पुष्टि की है"। साहित्यकार समन्तभद्र को पूर्ववर्ती और कुमारिल भट्ट को इन दोनों उदाहरणों के लिए उन्होने एक-एक कारिका का परवर्ती विद्वान मानते थे। सजन किया है। पहली (५६वी) कारिका के द्वारा उन्होने (४) च धमकीति को लीजिए । धर्मकीति (६० प्रकट किया है कि जिस प्रकार घट, मकुट और स्वर्ण के ६३५) ने भी समन्तभद्र को प्राप्तमीमांसा का खण्डन इन्छकों को उनके नाश, उत्पाद और स्थिति में क्रमशः किया" किदित है कि प्राप्तमीमांसा (का. १०४) शोक, हर्ष और माध्यस्थ्य भाव होता है और इसलिए मे समन्तभद्र ने स्यादवाद का लक्षण दिया है" और स्वर्णवरतु व्यय, उत्पाद और स्थिति इन तीन रूप है, लिखा है कि 'सर्वथा एकान्त के त्याग से जो किचित' उसी प्रकार विश्व की सभी वस्तुयें त्रवारमक हैं। दूसरी (कचित्) का विधान है वह स्यावाद।' धर्मकीर्ति ने