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प्रमेकाम्त
भी दिखाते हुए कहते हैं कि यदि सुगत सर्वज्ञ है, कपिल प्रादि हेतु सर्वज्ञ के निषेधक है, उनसे सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं, तो इसमें क्या प्रमाण है और यदि दोनों सर्वज्ञ है, कैसे की जा सकती है। इसका सबल उत्तर समन्तभद्र की हो उनमें मतभेव कसा।' इसके अलावा वे और कहते हैं प्राप्तमीमांसा के वित्तिकार प्रकलंकदेव ने दिया है। कि 'प्रमेयत्व प्रादि हेतु जिम (सर्वज्ञ) के निषेधक हैं, उन प्रकलंक कहते हैं कि 'प्रमेयत्व मादि तो मनुमेयत्व' हेतु हेतुपों से कौन उम (सर्वज) की कल्पना (सिदि) के पोषक है"-अनुमेयत्व हेतु की तरह प्रमेयत्व प्रादि करेगा।'
सर्वज्ञ के सद्भाव के साधक है, तब कौन समझदार उन यहाँ ध्यातव्य है कि समन्तभद्र के परस्पर-विरोधत:' हेतुनों से सर्वज्ञ का निषेध या उसके सद्भाव मे सन्देह पद के स्थान में विरुद्धार्थोपदेशिष', सर्वेषां की जगह कर सकता है।' 'सर्वेषु' और 'कश्चिदेव' के स्थान मे 'को नाम 6.' पदों का यह सारी स्थिति बतलाती है कि कुमारिल ने समन्त. कुमारिल ने प्रयोग किया है और जिस परस्पर विरोध भद्र का दण्डन किया है, ममन्तभद्र ने कुमारिन का नही। की सामान्य सूचना समन्तभद्र ने की थी, उसे कुमारिल ने यदि समन्तभद्र कुमारिल के परवर्ती होत तो कुमारिल के सुगत, कपिल पादि विरोधी तत्वोपदेष्टापो के नाम लेकर खण्डन का उत्तर स्वय समन्तभद्र देते, प्रकलंक को उनका विशेष उल्लेख किया है। समनभद्र ने जो सभी तीर्थ- जवाब देने का अवसर नहीं पाता, तथा समन्तभद्र के प्रवतंकों (सुगत प्रादि) मे परस्पर विरोध होने के कारण 'मन मेयत्व हेतु का समर्थन करने का भी मौका उहे नहीं 'कश्चिदेव भवेद गुरुः' शब्दो द्वारा कोई (एक) को ही मिलता। गुरु-सर्वज्ञ होने का प्रतिपादन किया था, उस पर (२) अनुमान से सवंज-सामाग्य की सिद्धि करने के कुमारिल ने प्रश्न करते हुए कहा कि 'जब सभी सर्वज्ञ हैं उपरान्त समन्तभद्र ने अनुमान से ही सर्वज्ञ-विशेष की पौर विरुद्धार्थोपदेशी है तथा सबके साधक हेतु एक से है, सिद्धि का उपन्याग करके उसे 'मह-त' मे पर्यवसित किया तो उन सबमें से 'को नामेकोऽवधार्यताम्'-किस एक का है। जैसा कि हम ऊपर प्राप्तमीमांसा कारिका ६ मोर अवधारण (निश्चय) करते हो।' कुमारिल का यह प्रश्न ७ के द्वारा देख चुके हैं। कुमारिल ने समन्तभद्र की इस समन्तभद्र के उक्त प्रतिपादन पर ही हपा है। मोर उन्होंने विशेष सर्वज्ञता की सिद्धि का भी खण्डन किया है। उस पनवधारण (सर्वज्ञ के निर्णय के प्रभाव) को 'सुगतो महन्त का नाम लिए बिना वे कहते हैं कि जो लोग जीव यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा' प्रादि कथन द्वारा प्रकट (प्रहन्त) के इन्द्रियादि निरपेक्ष एव सूक्ष्मादि विषयक भी किया है। यह सब पाकस्मिक नही है।
केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की कल्पना करते है वह भी युक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्र ने अपने नही है, क्योकि वह पागम के बिना और प्रागम केवलउक्त प्रतिपादन पर किसी के प्रश्न करने के पूर्व ही अपनो ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है और इस तरह मन्योउक्त प्रतिज्ञा (कश्चिद भवेद्गुरु ) को प्राप्तमीमांसा न्याश्रय दोष होने के कारण परहन्तजिन में भी सर्वज्ञता (का०४ पौर ५) मे अनुमान-प्रयोगपूर्वक सिद्ध किया मिद नही होती।' है"। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अनुमान प्रयोग ज्ञातव्य है कि जैन अथवा जनेतर परम्परा मे समस्तमें उन्होंने 'मनुमेयत्व' हेतु दिया है जो सर्वज्ञ सामान्य की भद्र से पूर्व किसी दार्शनिक ने अनुमान से उक्त प्रकार मिद्धि करता है और जो किसी एक का निर्णायक नहीं है। विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की हो ऐसा एक भी उदाहरण इसी से कुमारिल ने 'तुल्य हेतुषु सर्वेषु' कह कर उसे अथवा उपलब्ध नहीं होता। हा, प्रागमों में केवलज्ञान का स्वरूप उस जैसे प्रमेयस्व प्रादि हेतुपों को सर्वज्ञ का अनवधारक प्रवश्य विस्तारपूर्वक मिलता है, जो प्रागमिक है, मानु(प्रनिश्चायक) कहा है। इतना ही नही, उन्होने एक मानिक नही है। समन्तभद्र ही ऐसे दार्शनिक हैं, जिन्होंने अन्य कारिका के द्वारा समन्तभद्र के इस 'नुमेय स्व' हेतु मरहन्त में पनुमान से सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की तीब पालोचना करते हुए कहा कि जो प्रमेयत्व, की है और उसे दोषावरणों से रहित, दियादि निरपेक्ष