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१६ वर्ष ३४, किरण ४
अनेकान्त
अब सोचना यह है कि जिन क्रियामों को शुभ नाम दवाई एक मोर रखी रहती है, तब भी उसके रोग का से कहा जाता है, वे कियाएं कौन-सी है?
उपचार नहीं होता। रोग का उपचार तब ही होगा जब यपि लोक में विविध प्रकार की पसख्यातों क्रियाएँ रोगी में श्रद्धा-ज्ञान और भाचरण तीनों की पूर्णता हो! हैं। सबका लेखा-जोखा करना संभव नहीं । तथापि उनके इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र को मल पर प्रकाश डालने के लिए यहाँ कुछ मावश्यक मुख्य जानना चाहिए । जो इन तीनों की भोर प्रवृत्त हो उसे क्रियामों का वर्णन किया जाता है।
श्रावक कहा जायगा। तीथंकर-महावीर और उनसे पहिले के तेईस तीर्थंकरों जहा तक श्रद्धा की बात है, वह बहन गहरी और ने धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने धर्म-पालकों को चार
भावात्मक क्रिया है। यह जानना बड़ा कठिन है कि श्रेणियों में विभाजित किया। वे वार श्रेणियाँ है-- किसकी श्रद्धा किस रूप में, कमी है ? अतः हमे इस प्रसंग (१) साधु (२) साध्वी (३) श्रावक (४) धाविका। में इतना ही ध्यान रखना चाहिए कि यदि कोई जीव धर्म-पालक होने से ये 'तीर्थ'--'वत्रता के स्थान भी अपने भावों में सरलता रख कर मोह को कम कर रहा है, कहलाए। इनकी स्थापना करने के कारण चौबीसों
उसके प्राचार.विचार या क्रिया काण्ड से स्वय या अन्य महापुरुष तीर्थकर कहलाए। इन चारों में साधु पोर
को बाधा नदी पहुच रहा है, वह नित्ति मार्ग की पोर माध्वी अन्तिम पदवी हैं और ये पद सांसारिक समरभ- जा रहा है तो वह श्रद्धालु ज्ञानी भोर सदाचारी होने के समारंभ-मारंभ से ऊँचे उठे स्थान है। श्रावक भोर
नाते थावक है। यह श्रावक का व्यवहार एव स्थल रूप है। श्राविका प्रारंभिक श्रेणियाँ है। इस प्रकरण मे हमारा मोक्ष के प्रसंग में श्रद्धा ज्ञान चारित्र का विशदरूप है गौर NEL इन्हीं प्रारंभिक दो श्रेणियो पर है। यदि हम इनमे वह मनिवत्ति से बंधा हा है। प्रस्तुत प्रसंग में तो बाह्य खरे उतरते है तो ऐसा समझना चाहिए कि हमारा लोक-व्यवहार को भी साथ लेकर चलने की बात है। प्रस्तु, प्रारंभिक निर्माण हो रहा है। प्रसंग के अनुसार यहाँ जैनाचार में श्रावक के लिए कुछ मर्यादाएँ रखी गई श्रावक'का प्रर्थ भी जान लेना प्रावश्यक है। फलतः-- है जिनसे श्रावको प्रपने पद मे स्थिर रहने मे महायता
श्रावक शब्द का भाव प्रति महत्व के ऐसे पद से है मिलती है। और वह सन्मार्ग से गिरने या कुमार्ग मे जाने जो मोन में सहायक हो। जो ताथकरा का वाणा का से बच जाता है। इन मर्यादानों को व्रत-नियम-यम मादि श्रवण करता है, तदनुरूप प्राचरण करता है, उसे श्रावक के नामों से सबोधित किया जाता है। वैसे तो समयानुसार करते। यदि हम श्रावक शब्द का प्रामीण रीति से हम श्रावकों को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते है-एक विश्लेषण करना चाहे, तो इस प्रकार कह सकते है कि-- प्रवती श्रावक और दूसरे व्रती श्रावक । जिन्होंने प्रत्यक्षतः श्रावक शब्द में तीन वर्ण हैं-श्रा+व+क। श्रा से कोई वा तो न लिए हो, पर श्रद्धा के साथ कुछ स्थल श्रद्धा से विवेक और क से क्रिया का भाव है. और ये नियमों का पालन करते हों, जैसे शराब न पीना, मौस न तीनो मोक्ष के साधन हैं। कहा भी है-'सम्यग्दर्शन ज्ञान खाना, मधु प्रादि हिंसा से उत्पन्न होने वाले पदार्थ पौर चारित्राणि मोक्षमार्गः।-तत्त्वार्थ सूत्र ११ प्रर्थात् सम्यग्- नशीली चीजें मेवन न करना, तुच्छ जीवों से पूरित फलदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यरचारित्र पूर्ण पोर सदित रूप फर वनस्पति प्रादि न खाना, पीना छान कर पानी, गति से मोह के मार्ग है। व्यवहार में भी इन तीनो के बिना
भोजन न करना प्रादि। जिनके परिणाम सरल मौर कार्य की सिद्धि नहीं होती। यथा--
यथ.शक्ति श्रद्धा ज्ञान-चरित्र के अनुकूल हो, पर शक्ति न मान लीजिए, एक रोगी पुरुष है। उसे पौषधि पर मानकर व्रतो को ग्रहण न कर सके हो-नियमों में न बंध विश्वास है और ज्ञान नहीं है कि प्रौषधि कहाँ किस प्रकार सके हों। प्राप्त होगी, तो वह निरोग नही हो सकता और यदि उसे व्रती श्रावक वे हैं जो बारह व्रतों में न्यूनाधिक बंधे श्रवान ज्ञान बोनों हैं पौर दवाई का प्रयोग नहीं करता- रहते हैं और पापों का स्थलरीति से त्याग किए रहते हैं,