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वेताम्बर जैन पंडित-परम्परा
चकार
है जिनमे वाग्भट्ट ने वागभट्टाचार की रचना की । कपूरचंद ने एक प्रकरण बनाया । जो हमारे मणिधारी जिनचद्रसूरि ग्रंथ में प्रकाशित हो चुके है । १३वी शताब्दी के उल्लेखनीय श्रावक-कारो में भिल्लमन कुल के कवि 'घास' हो गये है। जिनको कवि सभा श्रृंगार का उपमान मिला। उन्होने मेघदूत की सबसे पहली टीका बनाई । पर वह अभी उपलब्ध नही है । उनकी प्राकृत की रचनायें उपदेश कदमी और 'विवेकमजरो प्राप्त है विवेकमंजरी पर बालचंद्र ने विस्तृत टीका बनाई है। विवेकमजरो का रचनाकाल स० १२४८ कवि ने जिन स्तुति आदि और भी कई रचनायें बनाई थी पर वे श्रव प्राप्त नही है । सवत् १२५५-६० के ग्राम-पास मरुकोट के नेमिनंद भंडारी भी प्रसिद्धधकार है, जिनके रचित 'राष्टशतक' ग्रंथ की श्वेताम्बर समाज में इतनी अधिक प्रसिद्धि हुई कि उसकी मस्कृत व भाया टोकायें तथा पद्यानुवाद मेरी जानकारी में १२ है । दिगवर सप्रदाय में भी यह 'उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला' के नाम से प्रसिद्ध है। प्रोर इस पर दि० भागचंद ने संवत् १९१२ मे वचनिका बनाई सो प्रकाशित भी हो चुक
१२वी नाब्दी में ही 'कवि-चक्रवर्ती श्रीपाल ने कई प्रशस्ति काव्य और शतार्थो की रचना की और यशपाल ने 'मोह-पराजय नाटक बनाया । १३वी शताब्दी के प्रस्त मंत्राने वसंतविनाम महाकाव्य की रचना की तथा और भी कई विद्वान हुये है ।
१वी के नीताम्बर भावक कार ठकुर' है वे अपने ढंग के एक ही प्रकार थे। जिन्होंने वास्तुशास्त्र, मुद्राशास्त्र, गणित और ज्योतिष शास्त्र आदि विषयों को ७ रचनायें बनाई जो हमें प्राप्त १ मात्र प्रति के आधार से मूनि जिनविजय जी ने 'रत्नपरीक्षावि ग्रन्थ सप्तक' में प्रकाशित कर दी है । रन-परीक्षा, द्रम्प-परीक्षा धातु उत्पती यादि के हिन्दी अनुवाद भी हमने प्रकाशित कर दिये है ।
१५वी शताब्दी के विशिष्ट प्रकार मांडवगढ़ के कवि मदन है । ये भी ठक्कुर फेरु की तरह खरतरगच्छ के थे, उन्होंने मी व्याकरण प्रलंकार काव्य संगीत मादि कई विषयों के महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाये जिनमें से कई प्रयो
मंडन पंचावली भाग १-२ मे प्रकाशित हो चुके है। संगीत मंडन मादि ग्रंथ अभी तक प्रकाशित है । ये श्रीमाल जाति के धौर बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। इन्ही के परिवार में घनद नामक कवि हुये हैं। जिनके रचित शतकृत्य प्रकाशित हो चुके है। मांडव गढ के ही तपा गच्छीय श्रावक संग्रामसिंह ने 'बुद्धिसागर' ग्रंथ बनाया । संवत १५२० में रचित यह ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुका है।
ऊपर प्राकृत और संस्कृत के श्वेताम्बर श्रावष ग्रंथकारों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। लोक-भाषा के भी कई अच्छे कवि हो गये हैं उन कवियों की परम्परा भी १३वीं शताब्दी से निरंतर चालू रही। संवत् १२५० के पास-पास 'प्रासिगु' कवि ने चंदनवाना राम और जीवदया रास की रचना की। ये दोनों प्रकाशित हो चुके हैं । इसी शताब्दी में खरतरगच्छ के २ श्रावक कवियों ने 'जिनपतिसूरि गीत' बनाये जो हमारे संपादित ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मे छप चुके है। १४वी-१२वी शताब्दी मे कान्ह कवि ने अंचलगच्छ को गुरु परम्परा संबंधी काव्य बनाया । महाकवि ने तीर्थमाला व राणकपुर स्तवन आदि की रचना की। १७वी शताब्दी के कवि रिमदाम तो बहुत ही उल्लेखनीय कवि है । जिन्होंने हीरविजय मूरि राम मादि भनेको काव्यों की रचना की। इसी शताब्दी के सुप्रसिद्ध कवि बनारसीदास भी श्वेताम्बर मण्ड हे अनुयायी थे। उनकी प्राथमिक रचनायें दताम्बर श्रीर मान्यताओं पर प्राधारित है पर श्रागे चल कर वे समयमार गोमद्रसार आदि दिगंबर ग्रथों से प्रभावित हुये। उनका एक 'प्राध्यात्मिक मत' स्वतत्ररूप से प्रचारित हुआ, जो वर्तमान मे दिगबर तेरापथी संप्रदाय के रूप मे प्रसिद्ध है।
१८वी शताब्दी में दलपतराय, १९वीं शताब्दी मे हरजमराय, मौर सवलदास, तथा विनयचंद कवि हुये । २०वी शताब्दी में भी यह परम्परा चालू रही। श्वेताम्बर विद्वानों और प्रकारो की २०वी की उत्तप्रार्द्ध में काफी अभिवृद्धि हुई । इस तरह श्वेताम्बर विद्वानों और कवियों तथा उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त में हो यहाँ प्रकाश डाला गया है। कई श्वेताम्बर विद्वानों को भी अपने श्रावककवियों एवं विद्वानों की परम्परा की जानकारी नहीं है । इसलिए यह प्रयास काफी उपयोगी सिद्ध होगा ।
नाइटों की गवाड़, वोकानेर
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