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________________ अनुसम्मान में पूर्वाग्रहमुक्ति पावश्यक सचेल बतपना सिद्ध करने के लिए पुन: लिखा है कि अनावश्यक है। तत्संख्यक कारणों को गिना देने से ही वह 'प्रावश्यक नियुक्ति मोर ज्ञात धर्मकथा में जिन वीस बोलों संख्या सुतरां फलित हो जाती है १६ की संख्या न देने का का उल्लेख है उनमें जो ४ बातें अधिक है वे है-धर्मकथा, यह अर्थ निकालना सर्वथा गलत है कि उसके न देने से सिद्धभक्ति, स्थविरभक्ति (बात्सल्य), तपस्वी-वात्सल्य तत्वार्थ सूत्रकार को २० कारण अभिप्रेत हैं और उन्होंने और पपूर्वज्ञान ग्रहण । इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं सिद्ध भक्ति प्रादि उन चार बन्ध कारणों का संग्रह किया है, जो दिगम्बर परम्परा को अस्वीकृत रही हो, इसलिए है, जिन्हें मावश्यक नियुक्ति पोर ज्ञातरम वथा में २० छोड़ दिया हो, यह तो मात्र उसकी संक्षिप्त शैली का कारणो (बोलो) के अन्तर्गत बतलाया गया है, डा० परिणाम है। सागरमल जी का उससे ऐसा अर्थ निकालना नितान्त भ्रम इस सम्बन्ध में हम समीक्षक से पूछते हैं कि ज्ञ'तृधर्म- है। उन्हे तत्वार्थसूत्र की शैली का सूक्ष्म अध्ययन करना कथा सूत्र भी सूत्र ग्रन्य है, उसमे बीस कारण क्यों गिनाये, चाहिए। दूसरी बात यह है कि तीर्थकर प्रकृति के १६ तस्वार्थसत्र की तरह उसमे १६ ही क्यों नही गिनाये, बन्ध कारणों का प्ररूपक सत्र (त० स० ६.२४) जिस क्योकि सूत्र ग्रन्थ है और सूत्र ग्रन्य होने से उसकी भी शैली दिगम्बर थुत खट् ण्डागम के मापार से रग गया है सक्षिप्त है। तत्वार्थ सूत्र में १६ की संख्या का निर्देश न उसमे स्पष्टतया 'दंसणविसुज्झदाए-इच्चेदेहि सोलसेहि होने की तरह ज्ञातधर्म कथासत्र में भी २० को संख्या कारण हि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंचंति - का निर्देश न होने से क्या उसमे २० के सिवाय और भी (३.४१, पुस्तक ८) इस सूत्र" में तथा उसके पूर्ववर्ती कारणों का समावेश है ? इसका उत्तर समीक्षक के पास सूत्र" (३.४०) मे भी १६ की सख्या का निर्देश है। प्रता नही है। वस्तुत: तत्वार्थ सूत्र मे सचेलश्रुत के माघार पर खट्खण्डागम के इन दो सूत्रों के पाघार से रचे तत्वार्थसत्र तीर्थकर प्रकृति के बन्धकारण नही बतलाये, अन्यथा के उल्लिखित (६-२४) सूत्र मे १६ की संख्या का निर्देश पावश्यक नियुक्ति की तरह उसमे ज्ञातधर्म कथासत्र के अनावश्यक है। उसकी मनुवृत्ति वहाँ से सुतरा हो जाती है। सिद्धभक्ति मादि प्रधिक ४ बातें दिगम्बर परम्परा प्रतिपादित होते। किन्तु उसमें दिगम्बर परम्परा के मे स्वीकृत है या नहीं, यह अलग प्रश्न है। किन्त यह सस्य षटखण्डागम के अनुसार वे ही नाम मोर उतनी ही है कि वे तीर्थकर प्रकृति की अलग बम्घकारण नहीं मानी १६ की संख्या को लिए हए बन्धकारण निरूपित है। गयो । सिद्ध भक्ति कर्मध्वंस का कारण है तब वह कर्मबन्ध का कारण कैसे हो सकती है। इसी से उसे तीर्थकर प्रकृति इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थसत्र दिगम्बर श्रुत के माघार पर रचा गया है और इसलिए वह दिगम्बर परम्परा का प्रन्य के बन्ध कारणों में सम्मिलित नहीं किया। अन्य तीन है और उसके कर्ता दिगम्बराचार्य है। उत्सूत्र और उत्सत्र । बातो मे स्थविर भक्ति पोर तपस्वि वात्सल्य का प्राचार्य लेखक श्वेताम्बर परम्परा का अनुसारी नही हो सकता, भक्ति एवं साधु-समाधि मे तथा अपूर्वज्ञान ग्रहण का यह डाक्टर साहब के लिए अवश्य चिन्त्य है। अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग मे समावेश कर लेने से उन्हें पृषक अब रही तत्वार्थ सूत्र में १६ की संख्या का निर्देशन ग्रहण करने की प्रावश्यकता नहीं है। समीक्षक को होने की बात । सो प्रथम तो वह कोई महत्व नही रखती, गम्भीरता और सूक्ष्म अनुसन्धान के साथ ही समीक्षा करनी क्योंकि तत्वार्थसूत्र में जिसके भी भेद प्रतिपादित हैं, चाहिए, ताकि नीर-क्षीर न्याय का अनुसरण किया जा उसको संख्या का कही भी निर्देश नही है। चाहे तपो के सक भार एक पक्ष में प्रवाहित होने से बचा जा सके। भेद हों, चाहे परीषहों प्रादि के भेद हों। सूत्रकार की यह हमने अपने उक्त निबाघ मे दिगम्बरस्व की समर्थक पनि है, जिसे सर्वत्र अपनाया गया है। प्रतः तत्वार्थ एक बात यह भी कहो है कि तत्वार्थसूत्र में स्त्रीपरीषह सत्रकार को तीर्थकर-प्रकृति के बन्ध कारणों को गिनाने मोर दंशमशक इन दो परीषहों का प्रतिपादन है, जो के बाद संख्यावाची १६ (मोलह) के पद का निर्देश प्रचेलश्रुत के अनुकूल है। उसकी सचेल श्रत के मापार से
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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