________________ 20, 34 कि. 4 अनेकान्त बताना चाहिए कि उनमें नान्य परीषह है। किन्तु यह को एक बाघ तप बतलाया है, जो उनकी सक्षम सव्य है कि उनमें 'नाग्य परीषह नही है। सत्वार्थ सूत्रकार सिद्धान्तशता को प्रकट करता है / वास्तव में पर्या विविक्त मे ही उसे 'अचेलपरोषह' के स्थान में सर्वप्रथम अपने में नही हो सकती। मार्ग में जब साधु गमन करता है तो उसमे उसे मार्गजन्य कष्ट तो हो सकता है और उसे सहन तस्वार्थ सूत्र में दिया है। करने से उसे परीषहजय कहा जा सकता है। किन्तु उसमें उक्त निबन्ध में परम्पराभेद की सचक तत्वार्थसूत्र गत विविक्तपना नहीं हो सकता और इसलिए उन्होंने विविक्त एक बात यह कही है" कि तत्वार्थ सूत्र मे श्वे० श्रुतमम्मत चर्या नप नही बतलाया / शय्या और पासन दोनों एकान्त संलीनता तप का ग्रहण नहीं किया, इसके विपरीत उसमें में हो सकते हैं। प्रतएव उन्हें विविक्त शय्यासन नाम से विविक्तशय्यासन तप का ग्रहण है, जो श्वे० श्रुत में नहीं एक तप के रूप में बाह्य तपों में भी परिगणित .या गया है। हरिभद्रसरि के" अनुसार संलीनता तप के चार भेदों है। डा० सागरमल जी सूक्ष्म विचार करेंगे, तो उनमे मे परिगणित विविक्त चर्या द्वारा भी तत्वार्थ सूत्रकार के स्पष्टतया अर्थभेद उन्हें ज्ञात हो जायेगा। प० सुखलाय जी" विविक्त शय्यासन का ग्रहण नही हो सकता, क्योकि ने चर्या मोर शय्यासन मे प्रथं भेद स्वीकार किया है। विविक्त चर्या दूसरी चीज है और विविक्त शम्पसन अलग उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'स्वीकार किये धर्म जीवन को पुष्ट रखने के लिए प्रसंग होकर भिन्न-भिन्न स्थानों में 2. सागरमल जी ने हमारे इस कथन का भी बिहार पोर किसी भी एक स्थान में नियत वास स्वीकार प्रयाध समीक्षण करते हुए लिखा है कि 'डा० साहब ने न करना चर्या परीषह है।'-'मासन लगा कर बैठे हए में और विविक्तशय्यासन में भी अन्तर मान ऊपर यदि भय का प्रसंग पा पड़े तो उसे प्रकम्पित भाव कि किस प्राधार पर वे इनमें अन्तर करते है, से जोतना किंवा मासन से च्युत न होना निषद्या परीषह इसका कोई स्पष्टीकरण नही दे पाये हैं, वस्तुत: दोनों में है-जगह में समभावपूर्वक शयन करना शय्यापरीषह है।' कोई प्रभेद है ही नहीं।' प्राशा है डा. साहब चर्या, शय्या, मासन के पण्डित जी उनके इस समीक्षण पर बहुत पाश्चर्य है कि जो द्वारा प्रदर्शित मर्थभेद को नही नकारेंगे और उनकी अपने को श्वे० भागमों का पारंगत मानता है वह विविक्त को स्वीकारेंगे। चर्या और विविक्त शय्यासन के पर्थ मे कोई भेद नहीं तस्वार्थ सूत्र में परम्परा भेद की एक और महत्वपूर्ण बतलाता है तथा दोनों को एक ही कहता है। जैन धर्म बात को उसी निबन्ध में प्रदर्शित किया है " हमने लिखा का साधारण ज्ञाता भी यह जानता है कि चर्चा गमन है कि श्वेताम्बर श्रत मे तीथंकर प्रकृति के 20 बन्ध (चलने) को कहा गया है और शय्यासन सोने एवं बैठने कारण बतलाये हैं और इस में ज्ञातृ धर्म कांगसूत्र (8.64) को कहते हैं। दोनों में दो भिन्न दिशाबों की तरह भेद तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु को मावश्यक नियुक्ति की चार हैसाथ जब ईर्यासमिति से चलता है-चर्या करता है गाथाएं प्रमाण रूप में दी है। किन्तु तत्वार्थ सूत्र में सबब सोताठता नहीं है और जब सोता-बैठता है तब तोयंकर प्रकृति के 16 ही कारण निर्दिष्ट हैं, जो दिगम्बर बह चलता नहीं है / वस्तुत: उनमें पूर्व और पश्चिम जैसा परम्परा के प्रसिद्ध प्रागम 'षट्खण्डागम (3.14) के अन्तर है। पर डा० सागरमल जी अपने पक्ष के समर्थन प्रसार है और उनका वही क्रम तथा वही नाम है।' की धुन में उस पन्तर को नहीं देख पा रहे हैं। यहां विशेष ध्यातव्य है कि तत्वार्थसूत्र ने 22 परीषहो मे चर्या, इसकी भी उन्होंने समीक्षा की है। लिखा है कि निषद्या मोर शय्या इन तीनों को परीषह के रूप में प्रथम तो यह कि तत्वार्थ एक सूत्रग्रम्य है, उसकी शैली गिनाया है। कि तपों का विवेचन करते हुए उन्होंने संक्षिप्त है, दूसरे तत्वार्थ सूत्रकार ने १६की संस्थाका चर्या को तप नहीं कहा, केवल शस्या भोर भासन दोनों निर्देश नहीं किया है। यह लिखने के बाद तत्वार्थस्त्र में