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२२, वर्ष ३४, कि०४
ममेकाम्त
रचना मानने पर इन दो पराषहों की तरह पुरुष परीषह पार्थक्य के बीज प्रारम्भ हो गये और वे उत्तरोत्तर बढ़ते का भी उसमें प्रतिपादन होता, क्योंकि सचेल श्रुत में स्त्री गये। इन बीजों में मरूप वस्त्रग्रहण था। वस्त्र को पौर पुरुष दोनों को मोक्ष स्वीकार किया गया है तथा स्वीकार कर लेने पर उसकी अचेल परीषह के साथ दोनों एक-दूसरे के मोक्ष में उपद्रवकारी हैं। कोई कारण । संमति बिठाने के लिए उसके अर्थ में परिवर्तन कर उसे नहीं कि स्त्री परीषह तो प्रभिहित हो और पुरुषपरीषह मल्पचेल का बोधक मान लिया गया। तथा सवस्त्र साधु मभिहित न हो, क्योंकि सचेल त के अनुसार उन दोनों की मक्ति मान ली गयी। फलतः रावस्त्र स्त्री की मक्ति में मुक्ति के प्रति कोई वैषम्य नहीं। किन्तु दिगम्बर श्रुत भी स्वीकार कर ली गयी। साधुनों के लिए स्त्रियों द्वारा के अनुसार पुरुष में वज्रवृषभनाराच संहनन त्रय हैं, जो किये जाने वाले उपद्रवों को सहन करने को प्रावश्यकता मुक्ति में सहकारी कारण है। परन्तु स्त्री के उनका प्रभाव . . देने हेतु संवर के साधनों में स्त्रीपरीषह का प्रतिहोने से उसे मुक्ति सभव नहीं है और इसी से तत्वार्थसूत्र पादन तो .का-त्यों बरकरार रखा गया। किन्तु स्त्रियों में मात्र स्त्रीपरीषह का प्रतिपादन है, पुरुषपरीषह का के लिए पुरुषों द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों को सहन नहीं। इसी प्रकार दंशमशक परीषह सचेल साधु को नहीं करने हेतु संबर के साधनों में पुरुषपरीषह का प्रतिपादन हो सकती-नग्न-दिगम्बर- पूर्णतया चेल साधु को सचेल श्रत में क्यों छोड दिया गया, यह वस्तुतः अनुसन्धेय ही संभव है।
__ एवं चिन्त्य है। अचेल त में ऐसा कोई विकल्प नहीं है। समीक्षक ने इन दोनों बातों की भी समीक्षा करते प्रतः तत्वार्थसूत्र में मात्र स्त्रोपरीषह का प्रतिपादन होने से हुए हमसे प्रश्न किया है कि 'जो ग्रन्थ इन दा पराषहा का वह अचेल श्रत का अनुसारी है। स्त्रीमुक्ति को स्वीकार उल्लेख करता हो, वह दिगम्बर परम्परा का होगा, यह न करने से उसमें पुरुषपरीषद के प्रतिपादन का प्रसंग ही कहना भी उचित नहीं है। फिर तो उन्हें श्वे० प्राचार्यों नहीं पाता। स्त्रीपरीषद मोर दंशमकपरीषह इन दो एवं अन्धों को दिगम्बर परंपरा का मान लेना होगा, परीषहों के उल्लेखमात्र से ही तत्वार्थसूत्र दिगम्बर ग्रन्थ क्योंकि उक्त दोनों परीषहों का उल्लेख तो सभी श्वे० नही है, जिससे उनका उल्लेख करने वाले सभी पवे. प्राचायाने एवं श्वे. पागमों में किया गय. पोर किसी प्राचार्य और अन्य दिगंबर परपरा के हो जाने या मानने श्वे० प्रग्य में पुरुषपरीषह का उल्लेख नहीं है।'
का प्रसंग माता, किन्तु उपरिनिर्दिष्ट वे अनेक बातें है, जो समीक्षक का यह प्रापादन उस समय बिल्कुल निरर्थक सचेल श्रत से विरुद्ध है और प्रचेल श्रुत के अनुकूल है। सित होता है जब जैन संघ एक प्रविभक्त संघ था भोर ये अन्य सब बातें श्वे. प्राचार्यों और उनके ग्रन्थों में नहीं तीर्थकर महावीर की तरह पूर्णतया प्रचेल (सर्वथा वस्त्र है। इन्हीं सब बातो से दो परंपरामो वा जन्म हुमा मोर रहित) रहता था। उसमे न एक, दो प्रादि वस्त्रो का महावीर तीर्थकर से भद्रबाहु श्रुतके वली तक एक रूप में ग्रहण पापोर न स्त्रीमोक्ष का समर्थन था । गिरि-कन्दरामों, चला पाया जैन संघ टकड़ों में बट गया। तीव्र एवं मूल वृक्ष कोटरों, गुफामों, पर्वतों और वनो मे ही उसका वास के उच्छेदक विचार-मेद के ऐसे ही परिणाम निकलते हैं। पा। सभी साधु मचेलपरीषद को सहते थे। प्रा० समन्तभद्र दंशमशक परीषद वस्तुत: निर्वस्त्र (नग्न) साधु को (२री-३ री शती) के नुमार उनके काल में भी ऋषि- ही होना सम्भव है, सवस्त्र साधु को नहीं, यह साधारण गण पर्वतों और उनको गुफामों में रहते थे। स्वयम्भूस्तोत्र व्यक्ति भी समझ सकता है। जो साधु एकाधिक कपड़ों में २२वें तीर्थकर मरिष्टनेमि के तपोगिरि एवं निर्वाणगिरि सहित हो, उसे डांस-मच्छर कहां से काटेंगे, तब उस कर्जयन्त पर्वत को तीथं संशा को वहन करने वाला बतलाते परीषद के सहन करने का उसके लिए प्रश्न ही नहीं हए उन्होंने उसे ऋषिगणों से परिव्याप्त कहा है। पौर उठता। सचेल श्रुत में उसका निर्देश मात्र पूर्वपरंपरा का उनके काल में भी वह वंसा था।
स्मारक भर है। उसकी सार्थकता तो पचेल श्रत में ही भद्रबाह के बाद जब संघ विभक्त हवा तो उसमें संभव है।