SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में चौपाई छन्द = डॉ० माविस्य प्रचण्डिया होति' काव्य-काल की दृष्टि से जैन हिन्दी काव्य का स्थान वीरगाथाकालीन महाकवि चन्दवरवायो द्वारा व्यास है। महत्वपूर्ण है। अलकार, छन्द, शब्दशक्ति मादि प्रगो का बीररसात्मक प्रसंगों में रीतिकालीन महाकवि देवदास, इस काव्य में प्रचुर परिमाण से व्यवहार हुपा है। छद, जटमल, गोरेलाल, सूदन तथा गुलाब प्रादि के काव्यों में काग का अनिवार्य तत्त्व है। काव्य मुरूपतया छन्दबद्ध चौपाई छंद का प्रयोग उल्लिवित है। रचना के लिए प्रारम्म से ही प्रषिद्ध है। प्राचार्य विश्वनाथने प्रेमाख्यानक काव्यधारा के प्रमूख कवि जापसी, छन्द को काव्य-सृजन का मन्यतम अंग अंगीकार किया है। उसमान, नूर मोहम्मद तथा कुतुबन द्वारा प्रणीत काव्य छन्द के प्रभाव में गत्यात्मक छन्द विन्यास इस प्रकार की कृतियों में इस छ: का प्रयोग परिलक्षित है। लयात्मक माधुरी से मंडिन नही हो पाता। जिसके द्वारा। भक्तिकालीन हिन्दी काव्यधारा के प्रमुख कवि सूरवास, काव्य का श्रोता अथवा पाठक बरबस विभोर हो झूम नंददास तथा तुलसीदास द्वारा प्रणीत काम्य प्रन्यो में उठता है। इस प्रकार उसमें जीवन को प्रानन्दित करने दोहा चौपाई शंली' मे इस छंद का प्रयोग हमा है। को शाश्वत सम्पदा मखर हो उठी है। जैन-हिन्दी-पूना माधुनिक काल के हिन्दी महाकाव्यों में महाकवि काव्य में चौपाई नामक छंद का का स्थान है ? प्रस्तुन द्वारिका प्रसाद मिश्र ने स्वरचित 'कृष्णायन' नामक महानिबन्ध मे इसी सन्दर्भ मे संक्षिप्त विवेचन करना हमारा काव्य में चौगई छद का व्यवहार किया है। मूलाभिप्रेत है। यह छन्द सामान्यतया वर्णनात्मक है अतः इस द में चौपई मात्रिक सम छद का एक भेद है .. चौपाई सभी रसों का निर्ग सहज रूप में हो जाता है। कषामे सोलह कलाएं होती है। छद के अन्त में जगण (151) स काव्यों में इस छंद की लोकप्रियता का मुख्य कारण पोर तगण (55 ) नही होते है। समकल के अनन्तर विषम कल का प्रयोग वजित है।' जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ५ - यही है। ने चौपाई के सोरह मात्रामों के चरण में न तो चौकलों जैन-हिन्दी-पूजा-काव्यों में इस छंद के दर्शन पठारी का कोईम माना है और न लघ-गुरु का। उसने सम शती से होते हैं। अठारहवीं शती के कविवर मानसराय के पीछे सम भोर विषम के पीछे विषम कल के प्रयोग को ने 'श्री निर्वाणक्षेत्रपूजा' नामक कृति में इस छ। का मच्छा माना है तथा अन्त मे जगण (151) का निषेष व्यवहार सफलता पूर्वक किया है।" किया है। उन्नीसवीं शती में रामचन्द्र," बहसावररत्न, अपभ्रंश में पद्धरिया छंद में चौपाई का प्रादिम रूप कमलनयन" और मल्ल जी विरचित काव्यकृतियों में भी विद्यामान है। मपभ्रंश की काचक शैली जब हिन्दी मे यह छंद व्यवहत है। पवतरित नई तो पदरिया छंद के स्थान पर चौगाई छंद बीसवीं शती के रविमल.५ मत. . गृहीत हुमा है।' मुन्नालाल," हीराचंक," पौर दीपचं" मे अपनी पूजा हिन्दी में चौपाई छंद का प्रयोग भारम्भ से ही हुमा काव्यकृतियों में इस छंद का प्रयोग किया है। है। पीर रसात्मक काम्याभिव्यक्ति के लिए यह छंद जन-हिम्पी पूजा काव्यों में पोपाईमाषिक प्रयोग
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy