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________________ नेत बर्ष ३४,कि.४ पहनान निरक्षरों को भी हो सकती है। इस काल में भाषा की छोटी-सी रचना यदि मिलमो है तो उसे लोक भाषा में जान प्रचार करने वाले सभी लोग सामर चिनगारी की तरह सहेज कर रखना चाहिए क्योंकि उसमें हीसहीं:पंडित थे, जन अध्यात्म के दोहाकार, मिड और बहन बडे पालोक की सभावना है, उसमें गुण के पूर्ण हठयोमी पंडित थे। यह पश्य है कि उन्होंने लोकमाषा मे मनुष्य को प्रमागिन करने की क्षमता है। अजीब बात है अपनी बात कही। संस्कृत के विरुद्ध लोकप्रचलन वाणी कि जो माहिन्य सूर्यविनकी नराय लोकित है, उसमें मे अपनी बात कहने की परंपरा बुद्ध महावीर के ममय से न पानोक है और न पूर्ण मनु को प्रकाशित करने को बनी पा रही थी। इतिहास एक जीवंत प्रवाह है, हर क्षमता, जो नही है, उसमे सारी मंधावाएं निहित है। प्रवाह का पूर्व स्रोत होता है प्रतः पालोच्यकाल बीज अपन का काल नहीं था, बल्कि बीज के वृक्ष बनने की यह सोचना राही नही है कि ६.१०वा सदी से देशी प्रकिया का काल था। इतना ही नही, परवी हिन्दी भाषामों मे नत्मम शब्दों के बाधिक प्रवेश के कारण काव्य में जिन लियों का विकास हुमा उसके पूर्वका उनका स्वरूप बदल गया। भापा का स्वरूप शब्दो के स्वयंभ और पुष्पदत की रचनायो में पूरी प्रामाणिकता प्रदेश से नहीं रमनागत परिवर्तनों के कारण बनता है। मौजद है। यदि अपभ्रंश कवियो की पडिया-शनी, दोहा जब कोई नई भापा साहित्यिक और भापक अभिक्ति अंबरडाछन्द शेती प्रा मे न माती तो लोग यही की माध्यम बनती है तो उसमे तत्पम परदो का प्रवेश समझने तुलसो की दोहा, चौपाई शैली, कबीर को होगा ही। हिन्दी प्रदेश के एक पर नदादायी गई साखियां और सूर की पद शेनी - ईपनी कविता शंती का है, दूसरे पर विद्यापि, नौनी छोर पर स्वयम और प्रभाव है पुष्पदन, इनके समानर ( छबाद को)ी रचनाएं मालोच्य काल को साहित्यगत प्रवृत्तियों के मूल्याकन भी मिलती है. उनके माता पर कमा सकता है कि में सबसे बड़ा बाषक तत्व है हमारा मधुरा शान । साहित्य जिसे हम वीरगाथा वा प्राधिकालात है, व्ह वस्तुतः के एक अंग (रासो या देश्य भाषा लिखित)को छ कर मा अपग्रंग काल है, जिसमें परवर्ती माहित्य को गिल्पगत तो हम उसे पूरा हामी मान खेते है, या फिः, यह कहते है मोर चेतनागत प्रवृतियो का एवं दया जा सकता है। इस कि हाथी समय की बाग में बह गया है, उसका एकग काल की भाषा को ताह माहिपको समग्र मूलाकन को महत्वपूर्ण पा, उसे खोजना जरूरी है। एक विवान लिखते पावश्यकता ज्यो की-त्यो बनी हुई है। है-इस प्रकार युग को मालोकित करने वाली देशी इन्दौर विश्वविद्यालय, इन्दौर 00 जय-स्याद्वाद 0 श्री कल्याणकुमार 'शशि' तु ऊर्वोन्नत मस्तक विशाल, नव युक्तायुक्त-विचार-सार! जैनत्व तत्त्व का स्फटिक भाल नित अनेकान्त का सिह द्वार, अपहृत मिथ्या भ्रमतिमिर जाल करते आए तेरा प्रसार ! । तू जैनधर्म का शंखनाद ! ___ अतुलित तीर्थकर-पूज्यवाद ! तीर्थकर पद की निधि ललाम ; तू पक्षापक्ष-विरूप-तूप सिद्धान्तवाद का सद्-विराम, नय विनिमय का सर्वाग रूप प्राकृत मंति का अमर धाम जूझे तुझसे पण्डित अनू। तू संस्कृतिका निरुपम प्रसाद ! गौतम गणधर, जैमिनि कणाद ! जय स्यावाद जय स्यावाद !
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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