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जरा सोचिए !
(१) धर्म प्रभावना कैसे हो ?
वीतराग के प्रागम मे परिग्रह के त्याग का विधान है - साधु को पूर्ण अपरिग्रह होने का और गृहस्थ को ममत्वभाव से रहित परिग्रह के परिमाण का उपदेश है । इन्हीं विचारधाराओंों को लेकर जब जीवन यापन किया जाता है तब धार्मिक्ता श्रौर घर्म दोनों सुरक्षित होते है । तीर्थकर की समवसरण विभूति से भी हमें इसको स्पष्ट झलक मिलती है प्रर्थात् तीर्थंकर भगवान छत्र, चमर, सिंहासन प्रादि जैसी विभूति के होने पर भी पृथ्वी से चार अगुल अधर चनते है और बाह्य आडम्बर से अछूते रहते है - प्रन्तरंग तो उनका स्वाभाविक निर्मल होता ही है । इसका भाव ऐसा ही है कि वहाँ धर्म के पीछे धन दौड़ता है और धर्म का उस धन से कोई सरोकार नही होता | पर, प्राज परिस्थिति इमसे विपरीत है यानी धर्म दौड़ रहा है धन के पीछे ।
ऐसी स्थिति में हमें सोचना होगा कि ग्राज धर्म को मान्यता धर्म के लिए कम और अर्थ के लिए अधिक तो नहीं हो गई है ? तीर्थ यात्रात्रों में तीर्थं (धर्म) की कमी और सासारिक मनोतियों की बढ़वारी तो नही है ? मात्र छत्र चढ़ा कर त्रैलोक्य का छत्ररति बनने की माग तो नहीं है ? जिन्हे तीर्थंकरों ने छोड़ा था उन भौतिक सामग्रियों से लोग चिके तो नहीं जा रहे ? कहीं ऐसा तो नही हो गया कि पहिले जहाँ धर्म के पीछे धन दोडना
वहाँ अव धन के पीछे धर्म दौड़ने लगा हो ? कतिपय जन प्रपने प्रभाव से जनता को बाह्य श्राडम्बरों की चकाचौर मे मोहित कर कुदेवादि की उपासना का उपदेश तो नहीं देने लगे ? जहाँ तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि के प्रचार-प्रसार हेतु वीनगगी पूर्णश्रुतज्ञानी गणधरों की खोज होती थी वहाँ भ्राज उनका स्थान रागी, राजनीति पट और जैन तत्वज्ञान शून्य नेता तो नहीं लेने लगे ? प्रादि । उक्त प्रश्न ऐसे हैं जिनका समाधान करने पर हमे स्वयं प्रतीत हो जायगा कि धर्म का ह्राम क्यों हो रहा है।
धर्म प्रभावना का शास्त्रों में उपदेश है मोर समाज के जितने अंग है-मुनि, व्रनीश्रावक, विद्वान् पौर प्रवृती सभी पर धर्म की बढ़वारी का उत्तरदायित्व है । स्वामी समंतभद्र के शब्दों में
'प्रज्ञानतिमिरख्यातिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥' - १८ ॥ अर्थात् अज्ञान तिमिर के प्रसार को दूर करके, जिन शासन को जैसा वह है उसी रूप में महत्ता प्रकट करनाप्रभावना है। प्रभावना मे हमें यह पूरा ध्यान रखना परमावश्यक है कि उसमें धर्ममागं मलिन तो नहीं हो रहा है। यदि ऐसा होता हो और उनास्य उपासक का स्वरूप ही बिगड़ता हो तथा सांसारिक वासनाओं की पूर्ति के लिए यह सब कुछ किया जा रहा हो तो ऐसी प्रभावना से मुख मोड़ना ही श्रेष्ठ है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी किसी भी भवस्था में सांसारिक सुख वृद्धि के लिए घमं सेवन नहीं करता और न वह मान बड़ाई ही चाहता है । कहा भी है
'भयाशास्नेहलोभाच्च
कुदेवागमलिगिनाम् । प्रणामं विनयचैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।।' सम्यग्दृष्टि जीव भय- आशा स्नेह प्रथवा लोभ के वशीभूत होकर भी कुदेव कुशास्त्र धीर कुगुरुमों को प्रणाम विनय (प्रादि) नही करते हैं । प्रागे ऐसा भी कहा है कि राग द्वेष से मलीन- लोकमान्य चार प्रकार के देवों को देव मान कर किसी भी प्रसंग की उपस्थिति में उनकी पूजा भारती वीतराग धर्म की दृष्टि से करना देवमूढ़ता है। इसी प्रकार धर्म मूढ़ता मोर लोक मूढ़ता के त्याग का भी जिन शासन में उपदेश है। यहाँ तो वीतरागता में सहायक साधनों -सुदेव, सुशास्त्र और सुगुरु की पूजाउपासना की भाज्ञा है श्राज्ञाताओं से धर्मोपदेश श्रवण की प्राज्ञा है । यदि हम उक्त रीति से अपने प्राचरण में सावधान रहते हैं तो धर्म प्रभावना हो धर्म-प्रभावना है । अन्यथा यंत्र-मंत्र-तंत्र करने भोर सांसारिकसुग्वों का