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________________ अनेकान्त जाती रही है और लोग उनका पूर्ण लाभ भी उठाते रहे हैं भागम मार्ग में रहस्यपूर्ण चिट्टी वे हैं जो प्रयोजनभूतमात्मा का रहस्य खोलती हैं। ऐसी चिट्ठियों में हमें एक बिट्टी पं० प्रवर टोडरमल जी की मिलती है, जो उन्होंने मुल्तान के अध्यात्मिक श्रावकों को लिखी थी। वे लिखते है ३० वर्ष ३४, कि० ४ प्रलोभन देने वालों की न पहिले कमी थी और न प्राज कमी है। हमे सोचना है कि हम कौन सा मार्ग अपनाएं ? सम्यग्ज्ञान में ये तीनों ही नहीं होते । सम्यग्ज्ञानी जीवादि सात तत्त्वों को यथार्थ जानता | ज्ञान के विषय मे प्राचार्य कहते हैं- न्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वे यदाहुस्तज्ज्ञानमार्गामिनः ॥ प्रयोजनभूत जीवादि सात तत्वों को ययातथ्य जानने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है । श्रतः श्रावक व मुनि दोनों को भौतिक ज्ञान की भोर प्रवृत्त न हो-मोक्षमार्ग मे सहायक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए और घमं प्रभावना करनी चाहिए । (२) रहस्यपूर्ण चिट्ठी क्या है ? पर वे श्राप चिट्ठी हम लिखते हैं, मोर वे भी लिखते हैं। दूमरे 'वे' होते है जो रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखते है । कहेंगे प्राज भी ऐसी चिट्टियों का चलन है जो रहस्यपूर्ण और गोपनीय होती हैं । बहुत-सी रहस्यपूर्ण चिट्टियाँ अनेकों गुप्तचरों द्वारा पकड़ी जाती है, सेन्सर की जाती है और नेकों रहस्य खोलती हैं। पर, यदि भागम दृष्टि से देखा जाय तो वे चिट्ठियाँ रहस्यपूर्ण नही होती- घोसे को पकड़ने का धोखा भरा साधन मात्र होती हैं। जो लिखता ह वह स्वयं धोखे मे रहकर दूसरे को धोखा देता है और पकड़ने वाला उस धोखे को धोखे में पकड़ता है - फलतः न वह रहस्य होता है धौर ना ही रहस्य को पकड़ने (का दम्भ भरने वाला रहस्य को पकड़ पाता है । 'रहस्य' शब्द बड़ा रहस्यमय है । इसे रहस्य के पारखी ही जानते हैं। वे जब लिखने है तब रहस्यमय, समझते हैं तब रहस्यमय और कहते है तब भी रहस्यमय रहस्य वस्तु-स्वरूप मे तिल में तल से भी गहरा - पूर्ण रूप से समाया हुआ है । जैन दर्शन के अनुसार तो हर वस्तु रहस्यमय है तथा हर वस्तु का रहस्य भी अपना घोर पृथक है | अपने रहस्य को बतलाने और समझने वाले ही वास्तविक लेखक मौर वास्तविक वाचक है । यदि प्राप अपना (ग्रात्मा का रहस्य अंकित करते है तो प्राप रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखते हैं । पहिले ऐसी चिट्ठियां लिखी 'वर्तमानकाल में प्राध्यात्म के रमिक बहुत थोड़े हैं । धन्य है जो स्वात्मानुभव की बार्ता भी करे है, सो ही बहा है- 'तत्प्रतिपतिचित्तेन येन वार्तानि हि श्रुता । निश्चित सः भवेद्भथ्यो, भावि निर्वाण भाजनम् ॥ भव यह है कि जिस जीव ने प्रसन्नचित्त होकर इस चेतन स्वरूप श्रात्मा की बात सुनी है वह निश्चय - भव्य है और निर्वाण का पात्र है।" पाठक देखें कितना रहस्य है इन चन्द पक्तियों में ? विचारने पर क्या ये अन्तरंग को झकझोर कर जगाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ? जो इन्हें पढ़ेगा- विचारेगा अनुभव में लाएगा वह प्रवश्य ऐसे रहस्य को पाएगा जिसे कोटिकोटि तपस्वियों ने कोटि-कोटि तपस्याए करके भी कठिनता से पाया हो । अपनी चिट्ठी में पं० प्रवर ने किन-किन रहस्यों को खोला है ये हम आगे लिखेंगे ये प्रसंग तो रहस्यपूर्ण चिट्ठी की परिभाषा मात्र का था । प्रस्तु । (३) सम्यग्ज्ञान क्या है ? मोक्ष मे प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों को जानना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। श्रावक और मुनि दोनों में इस ज्ञान का होना मावश्यक बिना इस ज्ञान के वह मोक्ष का उपाय नहीं कर सकता और ना ही उसका ज्ञान सायंक हो सकता है। लोक में भौतिक-सांसारिक विषयों की खोज र उनमें प्रवृत्ति के सूचक जो ज्ञान देखे जाते हैं। और जिनके माधार से ज्ञानी की पहिचान की जाती हैवे सभी ज्ञान प्रात्म मार्ग में सहायी न हं ने से मिथ्या ज्ञान की श्रेणी में प्रतेि है - लोकव्यवहार में चाहे वे सही भी क्यों न हों ? ज्ञान के मिथ्या या सम्यक् होने में मूल कारण मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन है और इसीलिए प्राचार्यो
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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