SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ्रम निवारण गोविन्दमठ, टेढोनीम, वाराणसी से वि० सं० २०२२ की विजयादशमी को प्रकाशित ब्रह्मसूत्र शादुरभाग्य की सत्यानन्द सरस्वती कृत सत्यानन्दी दीपिका में जैन धर्म के विषय में भ्रान्त सूचनायें दी गई है। उक्त सूचनाम्रों को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि लेखक जैन धर्म के सामान्य सिद्धान्तों से भी अनभिज्ञ है। जैन धर्म की सामान्य जानकारी न रखने वाले पाठक उक्त ग्रन्थ को पढ़ कर जैन धर्म के विषय मे भ्रमित न हो, एतदर्थ उक्त भ्रामक सूचनाओं का निराकरण प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है सत्यानन्दी दीपिका- जीवास्तिकाय तीन प्रकार का है - बद्ध, मुक्त और नित्यसिद्ध । 'प्रस्ति कायत इति मस्टिका' जो मस्ति शब्द से कहा जाय वह मस्तिकाय है। यह जैन ग्रन्थों में परिभाषिक शब्द पदार्थवाची है । पुद्गलास्तिकाय छ: है पृथ्वीमादि चारभूत स्थावर ( बादि) और जम मनुष्य बादि 'पूर्यते वृक्ष जङ्गम । गलन्तीति पुद्गला' पूर्ण हो और गन जायें वे पुद्गल है। यह लक्षण पृथ्वी प्रादि छ: और परमाणु समुदाय में घटता है, अतः वे पुद्गल रहे है। यह लक्षण पृथ्वी प्रादि छः और परमाणु समुदाय में घटता है, अतः वे गल कहे जाते है। सम्यक् प्रवृत्ति से अनुमेय धर्म है। ऊर्ध्वगमनशील जीव की देह मे स्थिति का हेतु प्रघमं है ।" निराकरण जैन धर्म में जीवों को संसारी पौर मूक्त दो ही भागों में विभाजित किया गया है, निश्वसिद्ध जैसा कोई विभाजन प्राप्त नहीं होता है। पुद्गल के अन्तर्गत स्थावर (बुशमादि) और अम मनुष्य धादि की गणना नहीं होती, इनका कलेवर प्रदश्य पौनिक पोद्गलिक पर्याय है। जैनधर्म में धर्म और प्रथमं नामक दो स्वतन्त्र द्रव्य माने गए है जो जीव घोर पुद्गल की गति में उदासीन निमित्त हो उसे धर्म तथा जो इन्हें ठहराने में उदासीन निमित्त हो, उसे प्रथमं द्वय कहते है। डा० रमेशच द्र जैन, बिजनौर ऊर्ध्वगमनशील जीव की देह में स्थिति का हेतु प्रघमंद्रव्य न होकर प्रायुकमं है | सत्यानन्वी दीपिका प्रावरण का प्रभाव प्राकाश है। वह लोकाकाश और प्रलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का है ऊ ऊ लोकों के मन्तर विद्यमान प्राकाश लोकाकाश प्रौर उससे भी ऊर्ध्वं मोक्षस्थान प्रलोकाकाश है, वह केवल मुक्त पुरुषों का प्राश्रयस्थान है । मिथ्याप्रवृत्ति पालव है और सम्प्र प्रवृत्ति सबर और निर्जर है विषयों के प्रभिमुख इन्द्रियों को प्रवृत्ति मात्र है निराकरण - श्रवगाह देने वाले द्रव्य का नाम ग्राकाश है । जितने प्राकाश मे लोक अवस्थित है, उतने ग्राकाश को लोकाकाश तथा शेष सब प्राकाश को प्रलोकाकाश कहते है। लोकाकाश मुक्त पुरुषों का प्रथय स्थान नही है । श्रपितु मुक्त पुरुष लोक के अन्त में रहते है । प्रास्रव । शुभ पोर अशुभ दोनो प्रवृत्तियों से युक्त होता है भा का निरोध सवर है तथा कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है। - सत्यानन्दी दीपिका तस्वज्ञान से मोक्ष नही होता, यह स्थित भावना ज्ञानावरणीय है। महंत दर्शन के अभ्यास से मोक्ष नहीं होता, यह भावना दर्शनावरणीय है बहुत तीर्थंकरों से परस्पर विरुद्ध प्रदर्शन मार्गों में freeभाव मोहनीय है। मोक्षमार्ग को प्रवृत्ति में विघ्नकारक प्रतराय है । ये ज्ञानावरणीय धादि चार कल्याण के घातक होने से पातिप्रसाधु कर्म कहे जाते है। मुझे यह तस्व ज्ञातव्य है, ऐसा अभिमान वेदनीय है, मैं इस नाम का हूं, ऐसा अभिमान नाम है। मैं पूज्य देशिंक महंत के शिष्य वंश में प्रविष्ट हूं, यह प्रभिमान गोत्रिक है और शरीर की स्थिति के लिए कर्म प्रायुष्क है । तस्वज्ञान के धनुकूल होने से ये वेदमीय आदि चारों कवं तस्वावेदक पुण्यवत् शरीर के साथ सम्बन्धी होने से प्रती कर्मसाधु कर्म कहे जाते
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy