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________________ कर्म सिधातकीपीपनपयोगिता मोर तब निमित रूप में कम उपस्थित रहते हैं। इसीलिए मनुभाग का बढ़ना' व 'घटना' क्रमशः उत्कर्षण । कर्म के मत्थे दुःख का कारण मढ़ दिया जाता है । वस्तुतः अपकर्षण कहलाता है। कर्मबंध के बाद ये दोनों कियाएँ जीव अपनी ही भूल (मोहरागद्वेष) से दु:खी है। जीव को चलती हैं। प्रशुभ कर्मबंध के बाद ये दोनों क्रियाएँ चलती अपनी अनन्त वीर्य शक्ति का ख्याल नही, अन्यथा रत्नत्रय हैं। पशुभ कर्मबष के बाद यदि भावों में कलुषता बढ़ती खड्ग संभाले तो कर्म शत्रुनों का नाश होने में विलम्ब है तो उत्कर्षण होता है और उत्तरोत्तर भावों की शुद्धता नहीं। विश्व रंगमंच पर यह जीव प्राय: सभी रसों के होने पर अपकर्षण होता है । महाराजाणिक को सातवें खेल दिखाता है। यदि भूले-भटके भी यथाजातलिंग हो, नरक की उत्कृष्ट प्रायु ततीस सागर की बंधी थी लेकिन जिनेन्द्र मद्रा को धारण करे और शान्तरस का अभिनय क्षायिक सम्यग्दर्शन के प्रभाव से प्रथम नरक की प्रायू मात्र करे तो कर्म अनन्त निधि का अर्पण करते हए पास्मा के चौरासी हजार वर्ष की रही। सत्ता-कर्म बंधने के तुरन्त पास से विदा हो जायें। बाद अपना फल नहीं देते उसी प्रकार जैसे बीज डालने के तर्क की दृष्टि से भी कम महा निबंल सिद्ध होते हैं। तुरन्त बाद पौधा नही उगता। उबय--कर्म के फल देने जड़ कर्म चेतना-शक्ति सम्पन्न प्रात्मा को सुख-दुख प्रदान को उदय कहते हैं। कर्म के फल देकर नष्ट होने को करने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं। फिर जैन धर्म फलोदय मोर बिना फल दिये नष्ट होने को प्रदेशोदय तो प्रत्येक द्रव्य का ही नही कण-कण को स्वतन्त्रता का कहते है। उदीरणा-अपकर्षण द्वारा कम की स्थिति को उद्घोषक है । वस्तुतः जीव स्वय पुद्गल पुंज को कम- कम किये जाने के कारण कभी-कभी नियत समय से पूर्व योग्य परिणमन के लिए प्रामत्रित करता है। कर्म का विपाक हो जाता है जैसे भाम को पास में दबा कहा भी है-कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई। कर नियत समय से पूर्व पका लिया जाता है। संक्रमण अग्नि सहै धनधात लोह की सगति पायो॥ एक कर्म का दूसरे सजातीय पर्म रूप हो जाना। यह निम्न पक्तियों में कर्म की निर्बलता स्पष्ट झलकती संक्रमण मूल भेदों में नहीं प्रवान्तर भेदों में होता है। संक्रमण का एक सुन्दर उदाहरण सती मैना सुन्दरी के 'जिस समय हो मात्म-दृष्टि कम थर-थर कांपते हैं। जीवन का एक प्रसंग है। सिद्धचक्र विधान करने के दौरान भाव की एकाग्रता लखि छोड़ खुद ही भागते हैं । मैना सुन्दरी के विशुद्ध परिणाम भोर मतिशय पुण्य का पास्मा से है पृथक तन-धन सोय रे मन कर रहा था। बंधना सभव हुमा । परिणाम स्वरूप प्रशुभ कर्म का शुभ लखि प्रवस्था कर्म-जड़ की बोल उनसे डर रहा क्या।' कम में संक्रमण हुमा। उसी समय उसके पति श्रीपाल के यह सत्य है तभी तो जीव और वमं का श.श्वत अशुभ कर्मों की स्थिति समाप्त हुई, मोर को दूर हमा। वियोग मोक्ष सुख कहा। उपशम-कर्म को उदय में पा सकने के अयोग्य करना जैन दर्शन का रहस्यमय कर्म सिद्धान्त गढ़ व भति निषत्ति-कर्म का उदय पौर संक्रमण न होना। निकायनावैज्ञानिक है। इसका जितना गहन अध्ययन किया जाय उसमें उदय संक्रमण अपकर्षण और उत्कर्षणकाम होना। इसकी वैज्ञानिकता उजागर होती है। कर्मों का स्वरूप, इससे सिद्ध होता है कि जीव के भावों में निर्मलता मानव के कारण, बंध की प्रक्रिया कर्म-फल, संवर (कर्म प्रयवा मलिनता को तरतमता के अनुसार कर्मों के बंध भागमन रुकना) मौर निर्जरा (कर्मों का एक देश झड़ना) मादि में होनाविकता हो जाती है। कर्मों को असमय में मादि सभी चरण क्रमबद्ध व प्रति वैज्ञानिकता लिये है। उदय में लाकर, भात्मबल को जागृत कर, कर्मों की राशि भावश्यकता है इसके रहस्य को प्रात्मसात करने की। इसी जो सागरों (अपरिमित काल) काल पर्यन्त अपना फल क्रम में कर्मों की दस प्रवस्थाएं उल्लेखनीय हैं। इन्हें जैन देतो, नष्ट किया जा सकता है। ऐसी व्यवस्था न हो तो शासन में कारण कहते हैं। बंध-कर्म-पुदगल का जीव के मनन्तकाल से समाव पर माच्छादित कम राशि को कैसे साथ सबद्ध होने को बंध कहते हैं। कौ की स्थिति अलग किया जाता। इसे कर्म सिद्धान्त की महती देन ही
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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