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________________ .., ४,कि० २.१ अनेकान्त कहना चाहिये कि भव्य जीव योग्य पुरुषार्थ द्वारा प्रशुभ कर्म को ही प्रास्मा मानने वाले जीव इस तथ्य से प्रमभिज्ञ को शुभ में संक्रमण कर सकता है। अनन्त कर्मों के पुंज हैं कि कौ का नाश कर बोरागता जीव को ही प्रकट कोतव पुरुषार्थ द्वारा (उपशम) उदय के प्रयोग्य बनाया करना है। कर्म को ही प्रात्मा कहने वालों का यह तक जा सकता है। है कि जैसे लकड़ी के पाठ टुकड़ों से भिग्न कोई पलंग नहीं कर्म सिमान्त द्वारा प्राणी मात्र की स्वतन्त्रताको उसी प्रकार कर्म सयोग से भिन्न कोई मात्मा नहीं। यद्यपि बोषणा-जैन धर्मानुसार प्रत्येक प्राणी स्वय प्रपना भाग्य. पाठ टुकड़ों से बना निःसन्देह पलंग ही है तथापि पलग विधाता है।उस्कृष्ट शुभकर्मोपार्जन कर एक जीव नारायण पर सोने वाला पुरुष द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा प्रतिनारायण चक्रवर्ती और यहां तक कि सोलहकारण पलंग से नितान्त भिन्न हैं। इसी प्रकार प्रष्ट कमौके भावनामों के चितवन के फलस्वरूप लोकोत्तर सर्वोत्तम सयोग से भिन्न कर्मावरण में रहने बाला चैतन्य महाप्रभु समवशरणादि वैभव का स्वामी बनता है। प्रत्येक प्राणी पलंग से पुरुषवत् भिन्न है। अकेला कर्मोपार्जन करता है और अकेला ही भोगता है। इस प्रकार भेद-विज्ञान कर उस चैतन्य प्रभ की कविवर पं० दौलतराम जी ने छहढ़ाला में एकत्व भावना क्रमशः पहचान, श्रद्धान, रमणता से प्रष्टकर्म संयोग भी में कहा है छुट जाता है। जब तक कमों से भिन्न ज्ञायक मात्मा की 'शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एक ही ते ते । प्रतीति न होगी, तब तक उसे स्वभाव पर दृष्टि के बल सुत-बारा' होय न सीरी', सब स्वारथ के हैं भीरी।।' से भिन्न करने का उपक्रम भी कैसे किया जायेगा। कर्म सिदान्त द्वारा भव विज्ञान-त्रा, पुन, संपदा, कर्म सिद्धान्त का ज्ञान परंपरा से मोक्ष का कारणमहल व मकानादि तो प्रत्यक्ष ही भिन्न है। मौदारिक जिस प्रकार क्रमवद्धपर्याय का निर्णय करे तो दृष्टि पर्याय शरीर को भी मृत्यु के समय भिन्न होते प्रत्यक्ष देखा जाता के क्रम पर न रह कर पर्याय के पुंज को भेदती हुई है। तैजस पर कार्माण शरीर जिनका प्रात्मा के साथ ज्ञायक-स्वभाव पर केन्द्रित हो जाती है। इसी प्रकार संबद्ध अनादि काल से है (अनादि सबंधे च') उनकी कर्म-सिद्धान्त की सम्यक जानकारी जब ख्याल मे माती भिन्नता का ज्ञान कम सिद्धान्त द्वारा होता है। कर्म चूंकि है तो दृष्टि कर्म माहात्म्य को गौण कर प्रखण्ड ज्ञानपुंज पौगलिक जड़ है पत: स्वाभाविक रूप से वह प्रमूर्तिक सुखकंद प्रास्मा में जम जाती है। मोर स्वभाव-सम्मुख ज्ञानादि गुणों के धारी जीव से नितान्त भिन्न है। चाहे दृष्टि रूपी हंस अन्तर्मुहुर्त मात्र में कर्म और प्रात्मा की चक्रवर्ती का राज्य मिले या तीर्थकर का समवशरणादि नीरक्षीरवत् भिन्न कर देता है । मब जीव पूर्ण विकसित प्रत्यन्त प्राश्चर्यकारी वैभव यह सब कर्म कृत है। अन्तरग लक्ष्मी (अनन्त चतुष्टय) का स्वामी मोर तीन चिदानन्द स्वरूप तो पर से नितान्त भिन्न है। इस प्रकार लोक का नाथ बन जाता है। का विवेक जागृत होने से भेद-विज्ञान होता है। कर्म-विज्ञान को ख्याल मे लेते हुए भव्य जीव पूर्वकृत कर्मानुसार ही नर-नारकादि भव मिलते हैं इसलिए प्रज्ञानी जीव कम को ही मात्मा मानने को भूल विचार करता है । मह ! हो !! मेरे तपाये हुए सोने के कर बैठता है । इस तथ्य से विस्मृत होकर, कि जीव की समान शुद्ध स्वरूप में मनादि से यह किटकालिमा रूप ज्ञानावरणादि प्रष्ट कर्म भोर शीरादि नो-कर्म चिपके भूल के कारण ही पुद्गलपुंज कर्म रूप परिणमन हुमा है । पड़े हैं । अतः वह स्वभाव-सन्मुख हो ज्ञान-ध्यान तप रूपी वे कर्मों पर सुख-दुख कर्ता होने का मिथ्या पारोप लगाते भग्नि का माश्रय लेकर कर्म कालिमा को दूर करने के हैं। स्मरणीय है कि जीव की सत्ता में कम सत्ता का लिए कमर कस लेता है। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त मूल प्रवेश ही नहीं हो सकता तो वे जीव को सुखी दुःखी कसे की भूल से परिचित करा शाश्वत सुख-शांति का मार्गकर सकते हैं ? अर्थात नहीं कर सकते। पौर यदि करने निर्देशन करता है। में समर्थ हों तो अनन्त स्वतन्त्रता के पारी मात्म तत्व को २ (घ) २७ जवाहरनगर, पराधीन कहा जायेगा जो तीन काल मे भी संभव नहीं। जयपुर १. स्त्री २. भागीदार
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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