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________________ १० वर्ष ३४, किरण २-३ अनेकास "जो बीतरागी हैं समस्त पर पदार्थ को त्याग कर इसलिए वे बंदना करने योग्य है।" शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म अगीकार करके, प्रतरग मे तो प्ररहता मंगलं-सिद्धामंगलं-साहमगलं-केवलिउस शोपयोग से अपने प्रापको माप अनुभव करते है, पर पण्णतो घम्मोमंगलं । ये चार मगल रूप है। जिनसे द्रव्य मे मह बुद्धि नही रखते, अपने ज्ञान स्वभाव को हो प्रात्मा का हित हो, मात्म-कल्याण हो उन्हे ही अपना मानते हैं, पर भावों में ममत्व नही रखते, पर द्रव्य मंगलं रूप कहा है। प्रात्म हित में साधन प्राहतमोर उनके स्वभाव को जानते है परन्तु इष्ट अनिष्ट मान सिद्ध-साह और बन्तु का स्वरूप जैसा इनके द्वारा कर रागद्वेष नहीं करते। शरीर की अनेक प्रवस्था होती बताया गया है वही मंगल रूप कल्याणकारी हो सकता है, बाहर में अनेक पदार्थों का संयोग होता है परन्तु वहां है। अन्य जिनको हम लोक में मगल रूप मान रहे है वे सख-दख नहीं मानते, अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बने मगल रूप नही है। जहाँ बोतराग विज्ञानता है वहाँ वैसे बनती है, खेंच करके उनको नहीं करते, जसे पानी मे मगलपना है। कोई चीज बाहर की है, वैसे व मं के सम्बन्ध के अनुमार चार ही लोकोतन है, याने ये चार ही लोक मे उत्तम मान-सम्मान प्रादि होते हैं परन्तु किसी चीज की अपेक्षा हैं। धन-वैभव-राज्य-पद प्रादि कोई उत्तम नही क्योकि नहीं रखते, प्रपरे उपयोग को बहुत नही भ्रमाते । उदासीन बाहर से प्राया हमा है। लोक मे उत्तम है तो यह चार रह कर निश्चल वृत्ति को धारण करते है, मदराग के ही हैं। इस पद के द्वारा लोक मे अन्य बाहरी पदार्थों को उदय से कदाचित् शुभोपयोग भी होता है जिससे जो उत्तम मान कर जो पकड कर रम्बा है उनका निषेध किया है। शक्षोपयोग के बाहरी साधन है उनमे अनुराग करते है। प्रपल मे यहाँ पर भी प्ररहतादि रूप जो अपना स्वरूप है परन्तु उस राग भाव को हेय समझ कर दूर करने की चेष्टा उसे ही उत्तम पोर मगलरूप बनाया जा रहा है परन्तु जब करते, तीव्र कषाय का प्रभाव होने से हिसादिरूप शुभो- तक ऐमे स्वरूप की पूर्ण रूप से प्राप्ति नही हो जाती तब पयोग परिणति का जहा अस्तित्व ही नही है इस प्रकार तक व्यवहार में जो एसे स्वरूप को प्रप्त हर है उन्हे की प्रतरग प्रवस्था होते बाहर समस्त परिग्रह राहत मंगल रूप और उत्तम बताया है। इस प्रकार से यहां दिगम्बर सौम्य मुद्रा के धारी है, वन मे रहते है। भठाई१ बाहर से हटा कर, पर से हटा कर अपने निज स्वरूप मे मल गुणो का पालन प्रखंडित करते है. बाईस परिषह का उत्तमपना धारण करने को कहा है। सहन करते है, बारह प्रकार तप को धारण करते है, कभी चत्तारि सरणं पन्वज्जामि-इन चार की शरण लेता ध्यानमुद्रा को धारते है कभी अध्ययनादि बाहरी धर्म है ये ही शरण रूप है, ये ही शरण लेने योग्य है. ऐसा क्रिया में प्रवर्तते है, कदाचित् शरीर की स्थिति के लिए स्वरूप ही प्राप्त करने योग्य है। यहाँ पर भी किसी अन्य योग्य पाहार विहार क्रिया में सावधान होते है। ऐसे साधु व्यक्ति विशेष की शरण लेने को नहीं कहा जा रहा है। हो नमस्कार करने योग्य है । परमार्थ से तो प्राप ही अपने लिये शरणभून है परन्तु जब इन पाचो से पूज्यता का कारण वीतराग विज्ञान भाव तक ऐसे स्वभाव मे पूर्ण रूप स्थिरता नहीं हो जाती है. क्योकि जीवत्व की अपेक्षा तो जीव समान है परन्तु तब तक बाहर मे प्रार किसी का पासरा खोजने की रागादि विकार से तथा ज्ञान की कमी से तो यह जीव दरकार पड़े तो ये ही चार शरणभूत है, अन्य दुनिया के निन्दा योग्य होता है और रागादि की हीनता से पोर पदार्थ, वस्तुएं, धन-वैभव, पुण्यादि का उदय, मान, ज्ञान की विशेषता से स्तुति योग्य होता है। प्ररहन और सम्मान, राजा, महाराजा कोई भी शरण भूत नही है। कोई सिद्ध तो पूर्ण रागादि से रहित हैं और वीतराग विज्ञान- पद शरणभूत नही है, सभी नाशवान हैं, पर कारण से होने मय है और प्राचार्य, उपाध्याय और साधु मे एक देश वाले है. पर रूप है। राग की हीनता और एक देश बीतराग विज्ञान भाव है -सन्मति बिहार, नई दिल्ली २
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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