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________________ जन परम्परानुमानित विमान दृष्टा कुन्दकुन्दाचार्य ने 'समस्त गगादि परभावेच्छा त्यागेन कारण होते हैं। ये द्रव्यकर्म जब उदय में भाते हैं तो स्वरूपे प्रतपन विजयनं तपः' कहा है। वस्तुतः समस्त अपना-अपना फल दिखाते हैं। उनके बहाव में प्रारमा रागद्वेषादि विपावों की इच्छा का त्याग कर के निज स्वरूप दुःखी, क्लेषित, माकूल, व्याकूल और रागी द्वेषी होता है, या शुद्ध प्रत्मस्वरूप स्वभाव मे देदीप्यमान होना ही क्रोष-मान-माया-लोभ-कम प्रादि नाना कषाय भावों में सच्चा तप या सच्चे तप का प्रतिफल है। दूसरे शब्दों मे, ग्रस्त होता है, तथा परिणामस्वरूप नवीन वर्मबाघ करता विषय-व पायों का निग्रह करके स्वाध्याय व ान मे रहता हैनिरत होते हुए प्रात्म चिनन करने या उसमें लीन होने कषायदहनोद्दीप्तं विषये व्याकुलीकृतम् । का नाम ही तप है । ऐना नप देह एवं इन्द्रियों को तपाता सञ्चिनोतिमनः कम जन्मसम्बन्ध सूचकम् ।। हुमा कर्म को स्वत: नष्ट कर देता है, प्रात्मा की कर्म- कषाय रूपी अग्नि से प्रज्ज्वलित और विषयो से बन्ध से मका कर के परमात्मा बना देता है। एक पाश्चात्य व्याकूल मन समार के बन्धनभत कर्मों का संचय करता विचारक को दिन है कि छविहीन मनुष्य ही ईश्वर रहता है। कम से कम बंध का यह सिलसिला बराबर है -पौर इच्छ। वान ईसर मनुष्य है।' एक शायर के चलता रहता है। जब तक वह समाप्त नहीं होना मात्मा शब्दों में की मुक्ति नहीं होती, वह अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं सपा प्रारजमो ने बन्दा कर दिया मझको। होती। परन्तु - वगरना हम खुदा थे गर दिले बेमुदा होता ।। निर्वेद पदवी प्राप्य तपस्यति यथा यथा । वास्तव में, प्रत्मशोनार्थ बुद्धिपूर्वक किया गया यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा ।। सम्यक तप ही मक्ष पुरुषार्थ है, और उसकी प्रथम शर्त है संयमी प्रात्मा संपार-देह-भोगों से विरक्त होकर निः स्पृहता । इच्छाम्रो का सर्वथा प्रभाव ही परमात्मा है। जैसे-जैसे तपश्व ण में प्रवृत्त होता जाता है वह उक्त दुर्जन 'कषायमक्ति किल मदिरेव'वषाय मक्ति ही सच्ची मक्ति कर्मों का क्षय करता जाता है। है ! विषय लाला व्यक्ति के चित्त मे धाकुर केसे प्रस्तु प्राणी का परम प्राप्तव्य या प्रभीष्ट लक्ष्य सच्चे पनपेगा? सम-नियम-तप से भावित प्रात्मा के हो शाश्वत निराकुल प्रक्षय सुख की स्थिति मोक्ष या सिद्धत्व सामायिक संभव है। तपः साधना द्वारा विषय-कषायों का है। उसे प्राप्त करने के लिए नवीन कमो के माने और दमन ही मच्वी नमस्कृति भी है - बंधने के मिलमिले को रोकना प्रावश्यक है, और इस नहगो प्रजद हो शेरेनर मारा तो क्या मारा। विविध फलप्राप्ति का साधन इच्छानिरोष रूप तपानुष्ठान बढे मूजी को मारा नफसे प्रम्मारा को गर मारा। है। जिन शासन मे तप का फल सवर अर्थात् करिव इसी से साधक अनुभव करता है कि - का निरोध और निर्जरा अर्थात् पूर्व में बंधे हुए कर्मों का वरं मे अप्पा दतो सजमेण तवेण य । क्षय बताया है। यहाँ संक्षेपत: वह तपविज्ञान है जो माह परे हि दम्मतो बघणेहि वहेहिं ।। भौतिकज्ञान, शरीरशस्त्र, मनोविज्ञान एवं प्राध्यात्मिक दूसरों के द्वारा मेरा बघ-बन्धनादि रूपों मे दमन किया विज्ञान से तथा युक्कि, तर्क पोर अनुमान से भी साधित जाये इससे कही अच्छा है कि मैं अपनी प्रात्मा का संयम एव सिद्ध है । एव तप द्वारा दमन कर दूं। यह तपानुष्ठान दो प्रकार का है, बाह्य भौर पभ्यन्तर, उक्त राग द्वेषादि कषाय या विकार भाव ही जैन दर्शन जिनमें से प्रत्येक छः छः भेद हैंमे भावरम कहलाते हैं और वे ही प्रात्मा के ज्ञातावरण- द्वादशं द्विविधं चंब बाह्यान्तर भेदतः । दर्शनावरण प्रादि प्रष्टविध द्रव्य ..मो के बंधन मे जकडे तपं स्वशक्ति प्रमाणेन क्रियते धर्मवेविभिः ।। जाने तथा फलस्वरूप जन्म-मरण रूप मंमार में निरन्तर प्रशन, ऊनोदर (या पवमोदयं), वृतिपरिसंख्यान, संसरण करने एवं प्रकल्पनीय दुःखों का पात्र बने रहने के रसपरित्याग, विवित यासम पौर कायक्लेश नामक
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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