SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भट्टारककुमुद ने भी जलनेमि पर पर जिसे है एक पद में उन्होंने नेमिनाथ के प्रति राजुल की समी पुकार लिखी है। नेमि के बिना राजुल को न प्यास लगती है और न भूख सताती है। नीद नहीं घाटी मोर बार-बार उठ कर वह घर का मांगन देखती और नेमि के विरह मे विलाप करने लगती है। इसी पद की दोपक्तिया देखिये सी से सब तो रह्यो नहि जात प्राणनाथ को प्रोत न विसरत, क्षण क्षण छोजत गात ||१|| मोहन भूख मह िलागत, परहिं धरहि मुरझात मन तो डरो रह्यो मोहन से सेवन हो सुरभात ॥२॥ नेमिराजुल से सम्बस्थित नेमिनाथ के दशभव, नेमिनाथ के बारहभव, नेमिजी को मंगल ( जगत भूषण), नेमिनाथ छन्द (शुभचन्द्र), नेमिनाथ फाग ( पुण्य रतन ), नेमिनाथ मंगल ( लालचन्द), नेमि व्याहलो, नेमि राजमति चोमासिया, नेमिराजमति की घोड़ी, नेमि राजुल सज्झाय, नेमिराजमति शतक, आादि कवियों की काव्य रचनायें राजस्थान के विभिन्न चैन ग्रंथागारों में संरक्षित है। बनाती है। क्या किसी पुरुष ने मेरा अपमान किया है ? यह तो मेरे समझने की बात है। यदि मैं समझ कि अपमान हुआ है तो हुआ है, यदि समभूं कि नही हुआ तो नहीं हुआ मेरी घड़ी किसी ने उठा ली है। बया इससे मेरी हानि हुई है ? यह भी समझने का प्रश्न है | यदि मैं समझ लूं कि मुझे षड़ी की आवश्यकता ही नहीं तो जो कुछ मैंने खोया है, उसकी कोई कीमत ही नहीं हानि कहाँ हुई है? तुम स्वाधीन हो अपनी स्वाधीनता का उचित प्रयोग करके विश्वास करो कि तुम्हारे लिए कोई घटना प्रभद्र नहीं हो सकती एपिक्यूरस जैसी ही भावना जैनधर्म मे प्राप्त होती है । कविवर बनारसीदास जी ने कहा स्वास्थ के साँचे परमारथ के साँचे चित । सचि सांचे वेन कहें साँचे मेनमती हैं ॥ इस प्रकार, नेमि राजुल का जीवन जैन कवियों के लिये आकर्षण का विषय रहा है। यद्यपि अधिकांश जैन साहित्य निवृत्ति प्रधान साहित्य है जिसमें शांत रस की प्रमुखता है लेकिन नेमि राजुल के माध्यम से वे अपनी रचनाओं को शृंगार प्रधान, विरह परक एव भक्ति परक भी बना सके हैं। एक बात पर भी है कि हमारे हिन्दी कवि भ० रतनकीति एवं भ० कुमुदचन्द्र ऐसे समय में हुए ये जब चारों मोर भक्ति एवं श्रृंगार का वातावरण था । इसलिये इन्होंने भी राजुल को अपना आधार बना कर छोटी छोटी रचनायें निबद्ध करके हिन्दी जैन साहित्य के क्षेत्र को घोर भी विस्तृत बनाया। नेमि राजुल सम्बन्धित हिन्दी काव्यों पर पो होना प्रावश्यक है । प्राशा है कि शोधार्थी इस घोर ध्यान देंगे । 000 (१० २९ का शेषांश) काह के विषय नाहि परमापबुद्धि नाहिं । प्रातम] गवेवो न गृहस्थ हैं न जती हैं । ऋद्धि सिद्धि वृद्धि बोसे घर में प्रकट सदा । अन्तर की लच्छो साथी लडती हैं ।। बास भगवन्त के उदास रहें जगत सों। सुलिया सबंब ऐसे जीव समकित है ॥ नाटक समयसार उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि यूनान के दार्शनिकों की जो समस्यायें और धायें थीं, उनका समुचित समाधान जनदर्शन मे प्राप्त होता है; क्योंकि जैनदर्शन का प्राभार सर्वज्ञ की वाणी है। उसका प्रनेकान्यवाद प्रत्येक ऐकान्तिक पहलू के सामने पाने वाली कठिनाई को दूर करने में समर्थ है। इस प्रकार प्रत्येक वायनिक के परिप्रेक्ष्य में जनदर्शन का प्रध्ययन अत्यन्त उपयोगी है
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy