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प्रात्मा सर्वथा असंख्यात प्रदेशी है
LD पं० पप्रचन्द शास्त्री, नई दिल्ली द्रव्यों को पहिचान के लिए प्रागम मे पृथक-पृथक रूप को ज्ञाता नहीं हो सकती- - इसलिए नयाश्रित ज्ञान रूप से द्रव्यो के गुणों को गिनाया गया है, सभी द्रव्यो छमस्थ के अधीन होने से वस्तु के एक देश को जान के अपने-अपने गुण-धर्म नियत है। कुछ साधारण हे और सकता है । वह अंश को जाने-कहे, यहां तक तो ठीक है। कुछ विशेष । जहां साधारण गुण वस्तु के अस्तित्वादि पर, यदि वह वस्तु को पूर्ण वेसी पोर उतनी हो मान को इंगित करते है वहां विशेष गुण एक द्रव्य की बैठे तो मिथ्या है। यतः वस्तु, ज्ञान के अनुसार नही मन्य द्रव्यो से पृयकता बतलाते है। अस्तित्व, वस्तुत्व, होती पपितु वस्तु के अनुसार ज्ञान होता है । प्रतः जिसने द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व ये अपनी शक्ति अनुमार जितना जाना वह उसकी शक्ति से जीव द्रव्य के माधारण गुण है और ज्ञान' दर्शन, सुख, (सम्यग्नयानुसार) उतने रूप में ठीक है। पूर्ण रूप तो वीर्य, चेतनत्व प्रौर ममतत्व ये विशेष गुण है । कहा भी केवलज्ञानगम्य है. जैसा है वैमा है। नय ज्ञान उसे नही
जान सकता है । फलतः"लक्षणानि कानि" मस्तित्वं, वस्तत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं,
प्रात्मा के स्वभाव रूप असरूपात प्रदेशित्व को किसी प्रगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं, चेतनत्वं, अचेतनत्व, मूर्तत्वं प्रमूर्तस्व
भी अवस्था में नकारा नही जा सकता। स्वभावत:पात्मा द्रव्याणां वश सामान्य गुणाः। प्रत्येकमष्टावष्टो सर्वेषाम्"
निश्चय-नय से तो प्रसंख्यात प्रदेशी है हो, व्यवहार नय ज्ञानवर्शतसुखवीर्याणि स्पर्शरसगंषवर्णाः गति हेतुत्वं,
से भी जिसे शरीर प्रमाण कहा गया है वह भी मसख्यात स्थितिहेतुत्व प्रवगाहनहेतुत्वं वर्तनाहेतुत्वं चेतनमचेतनत्वं
प्रदेशी ही है। यतः दोनों नयों को द्रव्य के मल स्वभाव मूर्तममूर्तत्वं द्रव्याणां षोडशविशेषगुणाः ।
का नाश इष्ट नहीं। असंख्य प्रदेशित्व प्रात्मा का सर्वकाल प्रत्येक जीवपुद्गलयोर्षट् ।"- (प्रालापपद्धति गणाधिकार)
रहनेवाला गुण-धर्म है, जो नयोंसे कभी गौण और कभी मख्य जीव मे निर्धारित गुणो को जीव कभी भी किसी भी
कहा या जाना जाता है। ऐसे में प्रात्मा को अनेकान्त दष्टि अवस्था मे नही छोड़ता इतना अवश्य है कि कभी कोई गुण
में प्रप्रदेशी मान लेने की बात ही नही ठहरती। क्योंकि मुख्य कर लिया जाता है और दूसरे गोणकर लिये जाते है।
"मने कातवाद" (छपस्थों को) पदार्थ के सत्स्वरूप मे उसके यह पनेकान्त द्रष्टि को अपनी विशेष शैली है तव्य मे गौण
प्रश को जानने की कुंजी है, गौण किए गए अंशों को नष्ट किए गए गुण-धर्मों का द्रव्य मे सर्वथा प्रभाव नहीं हो
करने या द्रव्य के स्वाभाविक पूर्ण रूप को जानने की कजी जाता-द्रव्य का स्वरूप पपने मे पूर्ण रहता है। यदि
नही। यदि इस दृष्टि में वस्तु का मर्वथा एक अंश-रूप ही गौण रूप का सर्वथा प्रभाव माना जाय तो वस्तु-स्वरूप
मान्य होगा तो "अनेकान्त सिद्धान्त" का व्यापात होगा। एकांत-मिथ्या हो जाय और ऐसे में अनेकान्त दृष्टि का भी व्याघात हो जाय। अनेकान्त तभी कार्यकारी है जब यदि प्रात्मा में असख्य प्रदेशित्व या प्रप्रदेशित्व की वस्तु अनेक धर्मा हो--"प्रतन्तधर्मणस्तत्त्व", "सकलद्रव्य सिद्धि करनी हो तो हमें जीव की उक्त शक्ति को लक्ष्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ता।"
कर 'प्रदेश' के मूल लक्षण को देखना पड़ेगा। उसके भनेकान्त दृष्टि प्रमाण नयों पर प्राधारित है और पाधार पर ही यह संभव होगा। प्रत: यहा सिद्धांत ग्रन्थों एक देश भाग को ज्ञाता होने से नय दृष्टि वस्तु के पूर्ण से "प्रदेश" के लक्षण उद्धृत किए जा रहे हैं।