SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यूनानी दर्शन और जैन दर्शन 1 यूनान पश्चिमों दर्शन का जन्म स्थान समझा जाता है। यहाँ बेस ६२४-५५५ ई० पू० ) का नाम दार्शनिको की श्रेणी में प्रथम गिना जाता है वह सर्वसम्मति से यूनानी दर्शन का पिता माना जाता है। थेल्स ने जल की सारे प्राकृत जगत् का प्रादि धौर प्रन्त कहा. जो कुछ विद्यमान है वह जल का विकास है और अन्त में फिर जल मे ही विलीन हो जायगा एक्विमनोज (६११-५४७ ई० १०) न जल के स्थान मे वायु को जगत का आदि और धन कहा उसके अनुसार सारा दृष्टजन्तु वायु के सूक्ष्म मोर सधन होने का परिणाम है पाइथागोरस (छठी शनी ई० पू०) ने संख्या को विश्व का मूल तत्व कहा। उसके अनुसार हम ऐसे जगत् का चिन्तन कर सकते है, जिसमे रंग, रूप न हो, परन्तु हम किसी ऐसे जगत् का चिन्तन नही कर सकते, जिसमे सख्या का प्रभाव हो । जंन दर्शन के अनुसार जगत् धनादि, अनन्त है जब बल जीव, पुद्गल, धर्म, धर्म, प्राकाश और काल इन छह द्रव्यों का समुदाय जगत् है । जल तथा वायुगौलिक परमाणु रूपों में परिवर्तित होते रहते है। इनमें यद्यपि निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, किन्तु ये अपने पौद्गलिक स्वभाव को नहीं छोड़ते है। छहो द्रव्य नत्वाद, व्यय और प्रोव्य स्वभाव से युक्त है और अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते है । ने इलिया के सम्प्रदाय (जिसमे पार्मेनाइडस और जीनोफेनी के नाम प्रमुख है) वालो का कहना था कि दृष्ट जगत् त् है, बाभास मात्र है। भाव धौर प्रभाव, सत् भोर सत् मे कोई मेल का बिन्दु नही । सत् प्रसत् से उत्पन्न नही हो सकता, न सत् असत् बन सकता है। * प्राधार ग्रन्थ १. यद्यसत्सर्वथा कर्यं तन्माजनि पुष्पवत् । मोप्रादाननियामोऽभून्माश्वासः कार्यजन्मनि ॥ समन्तभद्रः प्राप्तमीमांसा ४२ D To रमेशचन्द जैन 1 जगत् का प्रवाह जो हमे दिखाई देता है, माया है, इसमें सत्या भाव का कोई पक्ष नहीं जैन दर्शन के अनुसार दृष्ट जगत् सर्वथा प्रसत् श्रथवा प्राभास मात्र नहीं है । यदि कार्य को सर्वथा प्रमत् कहा जाय तो वह प्राकाश के पुष्प समान न होने रूप ही है। यदि प्रसत् का भी उत्पाद माना जाय तो फिर उपादान कारण का कोई निगम नहीं रहता पोरन कार्य की उत्पत्ति का कोई विश्वास ही बना रहता है। गेहू बोकर उपादान कारण के नियमानुसार हम यह आशा नही रख सकते कि उससे गेहूं ही पैदा होगे। प्रसदुत्पाद के कारण उससे चने जोया मटरादिक भी पैदा हो सकते हैं और इसलिए हम किसी भी उत्पादन कार्य के विषय में निश्चित नहीं रह सकते, सारा ही लोक व्यवहार बिगड जाता है भोर यह सब प्रत्यक्षादिक के विरुद्ध है। भाव और प्रभाव, और श्रमत् में काई मेल का बिन्दु न हो ऐसा नही है। भाव और अभाव, मत् और असत् एक ही वस्तु मे श्रविरोध रूप से विद्यमान है । द्रव्य स्वरूप, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की प्रपेक्षा कथन किया जान पर धस्ति है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव स कथन किया जाने पर नास्ति है। जैसे- भारत स्वदेश भी है और विदेश भी है। देवदत्त अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र भी है। मत् पाव शती ई० पूर्व) का कहना था कि सत् नित्य और अविभाज्य है। इसमे कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, क्योकि परिवर्तन तो श्रमत् का लक्षण है । जंनाचार्यों ने द्रव्य का लक्षण सत् मानते हुए भी उसे २] देवावरतोष भाय्य (प जुगलकिशोर मुख्तार ) -४२ ३. त्रयस्वक्षेत्र, स्वाभादिष्टमस्ति द्रव्यं पद्मक्षेत्रकालभावंराद्रिष्ट नास्ति
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy