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________________ कर्म सिद्धान्त की जीवन में उपयोगिता 0 सुश्री श्री पुखराज जैन मुक्ति ! मुक्ति !! मुक्ति !!! सर्वत्र यही चर्चा है। लालायित है, तो उसके लिए कम-सिद्धान्त की रहस्यमय लेकिन मुक्ति मिले कैसे ? जब तक जीव निज-पहचान- सम्यक जानकारी अनिवार्य है। अन्यथा कर्म का स्वरूप, श्रद्धान-रमणता रूप त्रिवेणी में डुबकी लगाकर ज्ञान-ध्यान- प्रास्रव (प्रागमन) के कारण, बन्ध (मात्मा केसाथ) की तप रूपी अग्नि में जीव के अनादिकालीन-कर्म-शत्रुओं का प्रक्रिया, कर्मों की स्थिति और मैं इनसे भिन्न एकमात्र नाश न करे। यदि जीव भवभ्रमण से थकान महसूस करता ज्ञानस्वभावी पात्मा हं- यह सब जाने बिना किस प्रकार है और सच्चे प्रथों मे शाश्वत निराकुल सुख के लिए स्वभाव सन्मुख होकर परम-इष्ट मक्ति का वरण करेगा। - प्रतः कम विज्ञानका यथार्थ ज्ञान प्रपेक्षित है। (पृष्ठ ३५ का शेषांश) साधक के प्रात्म-विकास में जिस कारण से बाधा से प्रारम्भ कर भगवान पाश्र्वनाथ के होने तक के करोड़ों उपस्थित होती है। उसे जनदर्शन में कर्म कहते है । जैनों करोड़ों वर्षों का लंबा काल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मे लग के अतिरिक्त कर्म सिद्धान्त को साख्य योग, नैयायिक, गया । यदि दर्शन शीघ्र भी हो जाय तो भी पाश्चर्य नही वंशेषिक, मीमांसक बौद्धादि मत भी मानते है। लेकिन पर इसका होना जरूरी है क्योंकि इसके बिना ज्ञान और अन्य दर्शनो से भिन्न जैन शासन मे कर्म-सिद्धान्त पर चारित्र दोनों ही सम्यक्ता को प्राप्त नहीं करते । अपेक्षाकृत अधिक गभीर, विशद, वैज्ञानिक चितना की गई इतना ध्यान रखें कि उक्त कथन 'दर्शन' की मुख्यता है। निष्पक्षता व दृढता-पूर्वक इसे जैनागम की मौलिक विधा को लिए हुए है। वैसे जैनधर्म चारित्र प्रधान धर्म है और कहा जा सकता है। कर्म सिद्धान्त के प्रभाव में जैनागम इसमें सभी रूपों में चारित्र की महिमा गाई गई है । साधा का अध्ययन पंगु है। रण जन के लिए मुनिपद तो बड़ी दूर की कल्पना की बात विश्व की विविधता का समाधान कर्म तत्वज्ञान है, इसके श्रावक पद का ही चारित्र इतना ऊँचा भोर द्वारा (अन्य दर्शनो से भिन्न) तर्कानुकुल पद्धति से जैन कठिन है कि जिसे देख स्वर्ग में देव तक भी ईष्या करते शासन में होता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक प्राणी है। वे चारित्र पालन में हेतुभूत मनुष्य भव की चाहना अपना भाग्य-विधाता स्वयं है । वह ईश्वर की किचित भी करते हैं क्योंकि मनुष्य भव के बिना चारित्र नही होता अपेक्षा नही करता न कम करने मे न भोगने में । स्मरणीय भोर चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। भाखिर, यथा है कि विचित्रतामों से पूर्ण विश्व एक स्वभाव वाले ईश्वर ज्यात चारित्र-चारित्र की उच्चतम अवस्था हो का नाम जोममा है। मूल बात ये कि यह यथाव्यात चारित्र भी सम्य कर्म केवल संस्कार मात्र नहीं वस्तुभूत पदार्थ है । जो प्रदर्शन के बल पर ही होता है- मल सम्यग्दर्शन होने पर रागी-देषी जीव की योग-क्रिया मन-वचन काय से कभी न कभी चारित्र होता ही है । अतः प्राचार्य ने दर्शन प्राकष्ट होकर जीव के पास पाता है और मिथ्यात्वको मल कहते हुए उपयुक्त गाथा में उसकी प्रशमा मोर विपरीत मान्यता प्रविरत. प्रमादबकषाय का निमित्त महानता को दर्शाया है। भाव ऐसा जानना चाहिए कि पाकर जीव से बध जाता है। हमें बाह्य चारित्र में रहकर दशन प्राप्त करने में 'उद्यम बंध अवस्था मे जीव व पुद्गल अपने-अपने गुणो से करना चाहिए, चारित्र से विमुख नही होना चाहिए। कुछ च्युत होकर एक नवीन प्रवस्था का निर्माण करते है। (क्रमशः) सामान्यपने से कम एक ही है, उसमे भेद नहीं लेकिन दम्य
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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