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________________ ate मोर रस्मत्रये इन बातों पर दृष्टिपात करने से ऐसा ही बोध होता है कि उक्त वर्णन में प्राचार्य का तात्पर्य उन जीवों को संबोधन का रहा है जो कदाचित् मात्र पुण्य को ही सब कुछ मान उसे मोक्ष का कारण तक मान बैठे हों । प्राचार्य ने दर्शाया है कि हे भव्य जीवो, केवल पुण्य को ही मोक्ष का कारण न मान सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रयत्न करो । अन्यथा पुण्य तो मिथ्यात्वी के भी होता है । प्राचार्य का भाव ऐसा है कि जब सम्यग्दर्शन होगा, तभी पुण्य शुभ रूप में उपस्थित होगा । यद्यपि पुण्य साक्षात् रूप से तब भी मोक्ष न पहुंचायेगा श्रपितु उस पुण्य को भी नष्ट करना ही होगा । यह तो सम्यग्दर्शन की महिमा होगी कि उससे प्रभावित पुप सामग्री उप जोत्र को निरन्तर उत्त की ओर ले चलेगी। प्रन्यया पुन साधारण तो मिथ्यादृष्टि के भी देखा जाता है । वध कर्म करने वाले बाघक को पुण्य योग मे पान सामग्री व जैसे प्रशुभ कार्य मे प्रयुक्त होती देखी हो जाती है । स्पष्ट यह है कि पुन शुभ है और पाप अशुभ है । शास्त्रों में प्रशुभ से निवृत्ति कर शुभ में प्रवृत्ति और शुभ से निवृत्ति कर शुद्र मे प्रवृत्ति का उपदेश है । अशुभ सर्वथा हेय है और शुभ कथचित् उपादेय है । कथचित इसलिए कि शुभ भाव सहित सम्यग्दृष्टि शुद्धि की घोर बढता है । अन्ततोगत्वा मोक्ष विधि में शुभ को सर्वथा छोड़ शुद्धी चारण करना पड़ता है। बहुत से जीव ऐसा विचार कर लेते है कि अशुभ की निवृत्ति से शुभ और शुभ की निवृत्ति से शुद्ध स्वाभाविक ही हो जाता है । इस प्रकार शुन-पुण्य से मोक्ष हो ही जाये। सो उनका ऐसा मानना भी भ्रम है। क्योंकि ऐसा नियम नहीं है । अतः जीव शुभ से निवृत्त हो अशुभ में भी जा सकता है, शुद्ध मे भी जा सकता है। ये सव जीवों के प्रपने परिणामों पर निर्भर करता है और परि णामों के सम्यक् व मिथ्या होने मे जीव के सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन] मुख्य कारण है। इसी बात को पंडित प्रवर टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक में विशेष स्पष्ट करते है, वे कहते हैं ३४ तेसे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग हो है । ऐसे ही कार्य कारणपना होय तो शुभोपयोग का कारण प्रशुभोपयोग ठहरे। प्रथवा द्रयलिंगी के शुभोपयोग तो उत्कृष्ट ही हैशुद्धोपयोग होता ही नही ।' 'कोई ऐसे माने कि शुभोपयोग है सो शुद्धोपयोग को कारण है । सो जैसे प्रशुभोपयोग छूटि शुभोपयोग हो है 'बहुरि जो शुभोपयोग ही को भला जानि ताका सघन किया करें तो शुद्धोपयोग कैसे होय । तातं मिथ्यादृष्टि का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग की कारण है नहीं । सम्यग्दृष्टि के शुभपयोग भये निकट शुद्धोपयोग की प्राप्ति होय, ऐसा मुख्यपना करि कहीं शुभोपयोग की शुद्धोपयोग का कारण भी कहिए है ।' इससे स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग प्रकरण में सर्वत्र सभ्य दर्शन की ही प्रधानता है। किसी कर्म प्रकृति की प्रधाजनता सर्वया ही नहीं अपितु कर्म प्रकृतियों के नष्ट करने का ही विधान है। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं कि पुत्र को सभी दृष्टियों से हेय मान पापरूप प्रवृत्ति को जाय । जब तक जीव की प्रवृत्ति शुद्ध दशा की ओर सर्वथा नहीं, तब तक पुण्यजनक क्रियायें करने का शास्त्रो मे समर्थन है । देव पूजा श्रादि पट्कर्म श्रावक और मुनि के व्रत सभी इसी के अंग है । जहाँ तक व्यवहार है ये सब रहेंगे । पर सर्वथा इनसे ही चिपके रहना और मात्मा की शुद्ध परिणति की सभाल न करना श्रात्म-कल्याण में प्राचार्य को इष्ट नही । निष्कर्ष ये निकला कि बिना सम्यग्दर्शन के शुभक्रियायें भी श्रात्म-साधन मे कार्यकारी नहीं । प्रत: सम्यग्दर्शन की सभाल रखनी चाहिए : सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव सदा ही भ्रष्ट हैं- यह पूर्वार्ध का भाव है । मूल गाथा में जो ऐसा कहा गया है कि 'सिज्झति चरिय भट्टा' इसका प्राशय इतना ही है कि जिन जीवों को सम्यग्दर्शन है और चारित्र नहीं है, उन्हें भविष्य में स्वभाव प्राप्ति की तीव्र लगन होने पर चारित्र सहज भी प्राप्त हो जाता है । शास्त्रों में वर्णन है कि बाह्य चारित्र के प्रभाव में भी 'प्राणं ताण कछु न जाणं' मोर 'तुषमाषं घोषन्तो' रटते हुए अंजन चोर प्रादि धनेकों जीव कदाचित् क्षणमात्र में पार हो गए । प्रर्थात् उन्हें प्रत्मबोध मोर लीनता प्राप्त करते देर न लगी। मोर दर्शनभ्रष्ट मरीचि जैसे जीव को सीझते सोझते भगवान भाविनाथ के काल (शेष पृ० ३६१र )
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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