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________________ २, ३४, कि० २.३ अनेकान्त 'पाप्त' की बड़ी ही व्यापक परिभाषा दी है और प्राचार्यो ज्ञान की उत्पत्ति र ज्ञप्ति की दशाम्रो के प्रामाण्य के के रचित ग्रन्थों और उसके पर्थबोधो को भी प्रामाणिकता स्वतःपरत: के सबंध में पर्याप्त चर्चा पाई जाती है । की कोटि में ला दिया है। यही नही, यो यत्र प्रविसंवादकः हिरोशिमा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए० यूनो इम विषय स तत्र प्राप्तः। ततः परोऽनाप्तः । तत्वप्रतिपदनमवि- पर विशेष अनुसंधान कर रहे है । यह स्पष्ट है कि सवाद:, तदर्थज्ञानात ११' के अनुसार वर्तमान वैज्ञानिकों सर्वज्ञ और स्वानुभति के ज्ञान को छोड़ कर ज्ञान का द्वारा लिखित श्रुतों को भी प्रामाणिकता प्राप्त होती है। प्रामाण्य परत: ही माना जाता है। इस प्रकार हमारा फलतः नवीन श्रुत में नये अवाप्त ज्ञान क्षितिजो का श्रुत निबद्ध ज्ञान वर्तमान सदी की विश्लेषणात्मक धारा के समाहरण किया जाना चाहिये । यह प्राज के युग की एक निकष पर कसा जा सकता है। यह प्रसन्नता की बात है अनिवार्य मावश्यकता है। वर्तमान प्राचीन श्रत की कि जैन दर्शन की अनेक पुरातन मान्यताये, विशेषतः प्रामाणिकता पर अकलंक के मत का विशेष प्रभाव नही पदार्थ की परिभाषा, परमाणुवाद को मान्यतायें, ऊर्जा पड़ता। उनके प्रणेताओं ने परपराप्राप्त ज्ञान को स्मरण, और द्रव्य की एकरूपता पादि-इस निवप पर से जाने मनन और निदिध्यासन के प्राधार पर लिखा है। यही पर पर्याप्त मात्रा में खरी उतरी है यही कारण है कि नही, उन्होंने विभिन्न युगों में उत्पान सैद्धान्तिक एव प्राज भनेक विद्वान जैन दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन की ताकिक समस्यापों के लिये परिवचित एवं योगशील मोर प्रेरित हो रहे है और जन विद्या के अनेक प्रज्ञात व्याख्यायें दी हैं जो उनके मनन और अनुभति के परिणाम पक्षो को उद्घारित कर रहे है । हैं । इनसे अनेक म्रान्तियां भी दूर हुई है। विशेषावश्यक भाष्य और लघीयस्त्रय में इन्द्रिय ज्ञान को लौकिक प्रत्यक्ष श्रुतज्ञान का अनक्षरात्मक रूप भी हमारे ज्ञानार्जन के रूप में स्वीकृति, वीरसेन द्वारा स्पर्शनादि इन्द्रियो की में सहायक है। इसके प्रसंख्यात भेद होते है ।" संकेत प्राप्यकारिता-प्रप्राप्यकारिता को मान्यता, मष्ट मूल गुणों दर्शन, मानसिक चिन्तन तथा ऐसे ही अन्य प्रक्रमो से जो के दो प्रकार, प्रमाण के लक्षण का क्रमिक विकास, काल ज्ञान होता है वह अनक्षर श्रुतात्मक होता है प्राज जो श्रतविद्यमान है, उसके विविध रूपो का विवरण की द्रव्यता प्रादि तथ्य वस्तुतत्व निर्णय में जनाचार्यों द्वारा गोम्मटसार, सर्वार्थसिद्धि आदि में दिया गया है। वस्तुतः एरीक्षण प्रौर चिन्तन की प्रवत्ति की प्रधानता के प्रतीक विभिन्न श्रुत श्रुतज्ञान के साधन है। ज्ञान के रूप में हैं । इसीलिये प्राचार्य समंतभद्र को परीक्षा प्रधानी' कहा श्रतज्ञान मतिज्ञान की सीमा का विस्तार करता है, उसमें जाता है। स प्रक्रिया में इन्द्रिय और बुद्धि का क्रमशः बौद्धिक नवीनता लाता है। मधिकाकि उपयोग किया जाता है इस प्रकार हमारे विद्यमान श्रृत परीक्षण प्रधान है, वैज्ञानिक है। इस प्रकार सामान्य जन का वर्तमान ज्ञान प्रवग्रहहावैज्ञानिक ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया की एक और वायघारणाः" की प्रक्रिया पर आधारित है। यह प्रक्रिया विशेषता होती है । यद्यपि यह पूर्वज्ञात ज्ञान या श्रुत से जितनी ही सूक्ष्म, तीक्ष्ण पोर यथार्थ होगी, हमारा ज्ञान विकसित होती है, पर यह पूर्वज्ञात ज्ञान की वैधता उतना ही प्रमाण होगा। प्राज उपकरणों ने प्रवग्रह की का परीक्षण भी करती है। उसकी वैधता का पुनर्मूल्याकन प्रक्रिया में अपार सूक्ष्मता तथा विस्तार ला दिया है। करती है। सामान्यतः वैज्ञानिक ज्ञान का प्रामाण्य परतः लेकिन दर्भाग्य से हमारे यहाँ प्राचार्य नहीं है जो इस ही पधिक समीचीन माना जाता है। हमारे शास्त्रों में क्षमता का उपयोगकर नये श्रत का उद्घाटन कर सके। सन्दर्भ १. उमास्वामि पाचार्य; (तत्वार्थसूत्र, १.३, वर्णी २. उमास्वामि, पाचार्य ; पूर्वोक्त, १.६ । प्रन्थमाला, काशी, २६५० । ३. उमास्वामि, प्राचार्य; पूर्वोक्त, १-७, ८ ।
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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