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________________ प्रवाहावापवारणाः ईहादिक चरण व्यक्त रूप में ही होते है। मतिज्ञान से श्रत ज्ञान को परिभाषा शास्त्रों में अनेक प्रकार से की पदार्थों की जिन विशेषतापो का अध्ययन किया जाता गई है। कुछ लोग श्रवणेन्द्रिय प्रधानता के प्राधार पर है, उनकी संख्या १२ बताई गई है : श्रुत को मतिज्ञान मानना चाहते है, पर यह सही नही है। १.२ बहु पोर पल्प संख्या तथा परिणाम (भार) प्रकलंक" ने साहचर्य, एकत्रावस्थान, एकनिमित्तता, द्योतक विषय साधारणता तथा कारण-कार्य सदशता के प्राधार पर ३.४ बहुविध और एकविध पदार्थों के विविध जातीय रूपो मति-श्रुत की एकता का खंडन करते हुए बताया है कि की संख्या तथा परिमाण श्रुतज्ञान मनोप्रधान है, इन्द्रियप्रधान नही। वह त्रिकाल५.६ क्षिप्र पोर प्रक्षिप्र वेग शील मौर मन्द पदार्थ का वर्ती तथा पपूर्व विषयों का भी ज्ञान कराता है। उसमें बोधक बुद्धिप्रयोग के कारण पदार्थो की विशेषतामों, समानताओं ७.८ प्रनिःमृत पौर नि.सृत प्रप्रकट या ईषत प्रकट और एव विषमता ग्रो के अपूर्व ज्ञान की भी क्षमता है। यह प्रकट पदार्थ बोवक सही है कि श्रुतज्ञान का माघार मतिज्ञान ही है, लेकिन यह देखा गया है कि श्रतज्ञान भी मतिज्ञान की सीमायें बोधक बढाने में सहायक होता है। शास्त्री" ने श्रुतज्ञान से. ११-१२ ध्रव और प्रध्रुव पदार्थ की एकरूपता व श्रतज्ञान को भी प्रोपचारिक उत्पत्ति मानी है। इसीलिये परिवर्तनीयता का द्योतक जो सुना जाय, जिस साधन से सुना जाय या श्रवण क्रिया इन विशेषतामों के देखने से पता चलता है कि मात्र को पूज्यपाद पोर श्रुतसागर ने श्रुत कहा है। मतिज्ञान से पदार्थ के केवल स्थूल गुणो का ही ज्ञान होता प्रकलंक ने इस परिभाषा में एक पद पोर रखा -- श्रूयते है, पातरिक संघटन या अन्य नैमित्तिक गुणों का नही। स्मेति, जो सुना गया हो, वह भी श्रुत है।" इससे हमे प्राचीन मतिज्ञान की सीमा का भी भान होता यह श्रुतज्ञान दो प्रकार का होता है--प्रक्षरात्मक है। यही नही, उपरोक्त बारह विशेषतानो मे अनेक में पोर मनक्षरात्मक । साधारणत: श्रुत को प्रक्षरात्मक एव पुनरुक्ति प्रतीत होती है। जिनका सतोषजनक समाधान भाषा रूप माना जाता है। प्रारंभ में यह कण्ठगत ही शास्त्रीय भाषा से नहीं मिलता।" फिर भी, मतिज्ञान के विकसित हुप्रा पर यह समय-समय पर लिखित और १२४४४६ (५ इन्द्रिय+१ मन)=२८८ भोर मुद्रित रूप में प्रकट होता रहा है। वस्तुत: प्राज की भाषा व्य जनावग्रह के १२४४ (चार इद्रिय)-४८=३३६ भेद में यक्षरात्मक श्रुत विभिन्न प्रकार के मतिज्ञानों से उत्पन्न शास्त्रों में किये गये हैं। इसस सीमित मतिज्ञान की धारणामो का रिकार्ड है जिससे मानव के ज्ञान के पर्याप्त प्रसीमता का पता चलता है। इसकी तुलना मे, क्षितिजो के विकास में सहायता मिले । वर्तमान विज्ञान यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्मतर निरीक्षण क्षमता के में ज्ञानार्जन के साथ उसके संप्रसारण का भी लक्ष्य रहता इस उपकरण प्रधान युग मे मतिज्ञान की सीमा मे काफी है। विज्ञान की मान्यता है कि ज्ञान का विकास पूर्वज्ञात वृद्धि हो चुकी है। अब इससे बहिरग के प्रवग्रहादिक के ज्ञान के प्राधार पर ही हो सकता है। इसलिये मति से साथ अंतरंग के प्रवग्रहादिक भी सम्भव हो गये हैं। प्राप्त ज्ञान को श्रुत के रूप में निबद्ध किया जाता है। मति ज्ञान के क्षेत्र में पिछले दो सौ वर्षों के विकास ने विज्ञान का यह सप्रसारण चरण ही पक्षरात्मक श्रुत हमारे पदार्थ विषयक शास्त्रीय विवरणों को काफी पीछे मानना चाहिये। इसकी प्रामाणिकता इसके कर्ताओं पर कर दिया है। निर्भर करती है : उनकी निरीक्षण-परीक्षण पद्धति से ज्ञान के क्षितिजों एवं सीमामों का विकास प्राप्त निष्कर्षों की यथार्थता पर निर्भर करती है। यह बताया जा चुका है कि सामान्य जन की ज्ञान- प्रकलंक" ने श्रत की प्रामाणिकता के लिये अविसवादकता प्राप्ति दो प्रकार के ज्ञानों से होती है-मति ज्ञान भोर तथा प्रवंचकता के गुण माने हैं। इस माघार पर उन्होंने
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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