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जैन संस्कृति में दसवीं-बारहवीं सदी की नारी
D डा. श्रीमती रमा अन
जैन संस्कृति में भारतीय नारी का गोरगपूर्ण स्थान ही था। वे अपनी इच्छा अनुसार दान धर्म मे पिता को सदा से सुरक्षित रहा है प्रादि पुराण में प्राचार्य जिनसेन ने सम्पत्ति का उपयोग कर सकती थी। कुमारी सुलोचना नारी के जिस रूप का चित्रण किया है, उसमे प्रतीत होता ने पिता की अनुमति से बहुत-सी रत्नमयी प्रतिमानो का है कि प्राज से लगभग १११० वर्ष पूर्व नारी की स्थिति निर्माण कराया था, और उन प्रतिमानो को प्रतिष्ठा. प्राज से कही प्रच्छी और सम्मानपूर्ण थी। उस ममय पूजन में भी पर्याप्त धनराशि खर्च की थी। पत्री, माता-पिता के लिये अभिशाप नही मानी जाती था। जैन सस्कृति मे स्वावलम्बी नारी जीवन की कल्पना वह कुटम्ब के लिए मंगल रूप और प्रानन्द प्रदान करने
पुराणो और शिलालेखो मे सर्वत्र मिलती है। जैन परम्परा वाली समझी जाती थी।
में भगवान महावीर से पूर्व, अन्य २३ तीर्थंकरों में भी ____ कन्यानों का लालन-पालन पोर उनकी शिक्षा-दीक्षा लेने में नारीको दीक्षित र पासमान, पुत्री के समान होती थी। भगवान ऋषभदेव ने अपनी कामगिरी
का पूर्ण अधिकार दिया था। यही कारण है कि जैन नारी ब्राह्मी और सुन्दरी दोनो पुत्रियों को शिक्षा प्राप्त करने के धर्म, कर्म एव व्रतानुष्ठानादि मे कभी पीछे नही रहीं। लिये प्रेरित करते हुए कहा था कि गुणवती, विदुषी नारी संसार में विद्वानों के बीच सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करती जैन शामन के चतुर्विध संघ के साधु के समान साध्वी है। अपने अनवरत अध्ययन के द्वारा ब्राह्मी और सन्दरी का एवं श्रावक के समान श्राविका को भी सम्मानपणं ने पूर्णतः पतित्य भी प्राप्त किया था।
स्थान प्राप्त है। वह अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास एव उस समय ममान म कन्या का विवाहित हो जाना प्रात्मकल्याण हेतु पुरुष के समान हो कठिन तपस्या, व्रत, पावश्यक नही था। ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध है कि उअवाम कशल च प्रादि धार्मिक प्राचरण कर सकती है। कन्याएं प्राजीवन अविवाहित रह कर समाज की मेवा स्वाध्याय मे अपना बौद्धिक विकास कर प्रात्मानुष्ठान द्वारा करती हुई अपना प्रात्मकल्याण करती थी। पिता पुत्री से मन पोर इन्द्रियो को वश कर, पागत उपमा परीषहों उसके विवाह के अवसर पर ता सम्मति लेता ही था, को सहन कर धर्म साधिका बन सकती है। चन्दना सती प्राजीविका पर्जन के साधनो पर भी पुत्री से सम्मति लेता ने अपनी योग्यता प्रौर प्रखर बुद्धिमना से ही प्रापिका के ही था। बदन्त चक्रवर्ती ने अपनी कन्या श्री सर्वमती कठोर व्रतों का प्राचरण कर महावीर स्वामी के तीर्थ मे को बुलाकर उसे नाना प्रकार से समझाते हए कलामो के छत्तीस हजार माथिकानो में गणिनी का पद प्राप्त सम्बन्ध में चर्चा की है। प्राजीविका उपार्जन के लिये किया था। उन्हें मूर्तिकला, चित्रकला के साथ ऐसी कलामो को भी ईसा की दसवीं शताब्दी में कवि चक्रवर्ती रस्न ने शिक्षा दी जाती थी, जिससे वे अपने भरण-पोषण कर मल्लपय की पुत्री एवं सेनापति नागदेव की पत्नी प्रतिमश्वे सकती थी। पैतृक सम्पत्ति में तो उनका अधिकार रहता की जिन भक्ति तथा उनके प्रलौकिक धर्मानुराग की भरि२ १. पितरोतां प्रपश्यन्त नितरां प्रीतिमापतुः,
२. विद्यावान पुरुषो लोके सम्मति यादि कोविदः । कलामिव सुघासूते. जनतानन्द कारिणीम् ।
३. प्रादि पुगण, पर्व ७, लोक । (पादिपुराण, पर्व ६, श्लोक ८३) ४. प्रादि पुराण पर्व ४३, श्लोक ।