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________________ शंका शल्य श्री रत्नत्रयधारी जैन ज्ञान के भेद अनन्त हैं। सामान्य दृष्टि से समझा जा है। स्वयं अनुभव करते है तथा असहाय रूप होकर दूसरी सके प्रत: श्रमण महावीर ने ज्ञान के मुख्य पांच भेद कहे है। प्रात्मा प्रो को इस दुखद स्थिति मे, दुखद तथा रौद्र रूप से प्रथम मति, द्वितीय श्रुत, तृतीय प्रवधि, चतुर्थ मनः पर्यय अनंत वार महन करते हुये, अवलोकन करते हैं। दुख पोर पंचम केवल ज्ञान (सम्पूर्ण स्वरूप) है। प्रज्ञान से पंदा होता है और प्रज्ञानादिक कम के सहन वस्तु के स्वरूप को जानने का नाम ज्ञान है। वस्तुएं करने से उसका अन्त नहीं दिखाई देता है। इसको दूर मनन्त हैं। प्रनम्त वस्तुएं प्रनत अंगो की अपेक्षा से है। करने के लिये ज्ञान की परिपूर्ण प्रावश्यकता है। मुख्य वस्तुत्व स्वरूप से जानने योग्य पदार्थ जीव और अगर ज्ञान की आवश्यकता है तो उसे प्राप्त करने के अजीव हैं। साधनों के विजय पर विचार करना पड़ेगा। सभी मनुष्य काल भेद से इस समय मात्र मति पौर श्रुत ये दो हो या अधिकतर लोग प्रात्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाते है। या प्रा ज्ञान विद्यमान है। शेष तीन ज्ञानों का प्रभाव है। फिर मात्मज्ञान पूर्ण ज्ञानी (केवली) के वचनामृत की श्रुति भी जब श्रद्धा भाव से नन-तत्व ज्ञान के विचारों का मन्थन तथा श्रद्धा से ही हो सकता है। श्रुति के बिना संस्कार किया जाता है तो हमें प्रात्म-प्रकाश, प्रानन्द, समर्थज्ञान नहीं। यदि सस्कार नहीं होवे तो श्रद्धा कहां से हो ? को स्फुरण का नवनीत प्राप्त होता है। पूनः पूनः मनन जिज्ञासु भप होना परम पावश्यक है। करने से चंचलमन सद्धर्म मे स्थिर हो जाता है। धर्म ध्यान से परिणामों की विशुद्धि होगी। शुद्ध ज्ञान क्या है। जो प्रात्मा है वह जानता है जो जानता पारणामा स भवांत हो जायेगा। धर्मध्यान के चार है वह पास्मा है । ज्ञान प्रात्मा का गुण है। ज्ञान प्रात्मा लक्षण हैं। प्राज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और नाममा भानाभावी उपदेशरुचि है। धर्मध्यान के चार प्रालंबन है। वचना, पारमा (जीव) कमी भी मनात्मा (मजीव) नही बनता है। प्रच्छना, परावर्तना और धर्म कथा । पोर मनात्मा कभी भात्मा नहीं बनता है। स्वाध्याय तप इस लेख का विषय पृच्छना है। शंका शल्य के है। इससे सत्यासत्य का विवेक प्राप्त होता है दोषमुक्ति निवारण के लिए-गुरु अथवा अपने से अधिक ज्ञानी से व कममक्ति के लिये एकाग्रता होती है जो व्यक्ति को प्रश्न पूछने को पृच्छ नालम्बन कहते है। प्रात्मनिष्ठ बनाती है। मन का केन्द्रीकरण स्वभावो- संत-समागम में भी यह मार्ग शंका समाधान का न्मुख है। निहित है। ज्ञान की पा मावश्यकता है। प्रात्मा की सकर्म- इन्द्रभूति ब्राह्मण (गौतम गणघर) की शंका का स्थिति से अनादिकाल से इस लोक में चतुर्गति में भ्रमण निवारण सन्मति भगवान के दर्शन मात्र से हो गया था। है। इस पर्यटन का कारण अनंत दुखद ज्ञानावरणीयादि दिव्य-ध्वनि का खिरना तथा गणधर का प्रश्नकर्ता को कम हैं। प्रात्मा स्वरूप को पा नहीं रहो है। विषयादिक उपदेश देना और उससे जिज्ञासु की शका का समाधान मोह बंधन को स्वरूप मान रही है। इस संसार में निमेष हो जाता था। प्राचार्यों की सभा में प्रश्न उत्तर की मात्र भी सुख नहीं है। क्या हम निरन्तर इसका अनुभव परम्परा थी। नहीं करते हैं। प्रसह्य दुखों को अनंत पार सहन किया (शेष पृष्ठ ४० पर)
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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