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अनुसन्धान में पूर्णमुक्ति प्रावश्यक
पालीस-पचास वर्ष पूर्व स्व०पं० महेन्द्र हमार न्यायाचार्य स्व० पं० सुखलाल संघवी बाद कुछ विद्वानों ने सभ को धर्मकी का परवर्ती होने की सम्भावना की थी।" किंतु अब ऐसे प्रचुर प्रमाण सामने मा गये हैं, जिनके साधार पर धर्मकीर्ति समन्तभद्र से काफी उत्तरवर्ती (३००-४०० वर्ष पश्चात् ) सिद्ध हो चुके हैं। इस विषय में डाक्टर ए० एन० उपाध्ये एवं डा० हीरालाल जैन का शाकटायन व्याकरण पर लिखा प्रधान सम्पादकीय द्रष्टव्य है ।' 'धर्मकीति और समन्तभद्र' शीर्षक हमारा शोषपूर्ण लेख भी अवलोकनीय है, जिसमें उक्त विद्वानों के हेतुपों पर विमर्श करने के साथ ही पर्याप्त नया धनुन्धान प्रस्तुत किया गया है। ऐसे विषयों पर हमें उन्मुक्त दिमाग से विचार करना चाहिए और सत्य के ग्रहण में हिचकिचाना नही चाहिए ।
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सम्पादक ने दूसरा प्रश्न उठाया है कि 'सिद्धसेन के श्यामावतार और समन्तभद्र के श्रावकाचार में किसी पद (पद्य) को समान रूप से पाये जाने पर समन्तभद्र को ही पूर्ववर्ती क्यों माना जाय ? यह भी तो सम्भव है कि समन्तभद्र ने स्वयं उसे सिद्धसेन से लिया हो और वह उससे परवर्ती हो ?
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ने हमें पद्य" के द्वारा शास्त्रका लक्षण निरित किया है। यह पद्य सिद्धसेन के व्यायावतार में भी उसके हवें पद्य के रूप में पाया जाता है ।
सम्पादक की प्रस्तुत सम्भावना इतनी शिथिल प्रौर निर्जीव है कि उसे पुष्ट करने वाला एक भी प्रमाण नही दिया जा सकता और न स्वयं सम्पादक ने ही उसे दिया है । अनुसन्धान के क्षेत्र में यह आवश्यक है कि सम्भावना के पोषक प्रमाण दिये जायें, तभी उसका मूल्यांकन होता है और तभी वह विद्वानो द्वारा धान होती है। यहाँ उसी पर विष किया जाता है। ऊपर जिन समन्तभद्र की बहुत चर्चा की गयी है, उन्ही का रचित एक आवकाचार है, जो सबसे प्राचीन महत्वपूर्ण मोर व्यवस्थित धावकाचार का प्रतिपादक ग्रभ्य है। इसके भारम्भ मे धर्म की उसका उद्देश्य बतलाते हुए उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पोर सम्यग्वारि इन तीन रूप बतलाया गया है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप उन्होंने देव शास्त्र] पोर गुरु का दृढ एवं समूह बढान् कहा है। अतएव उन्हे इन तीनो का लक्षण बतलाना भी प्रावश्यक था। देव का लक्षण प्रतिपादन करने के उपरान्त समन्तभद्र
अब विचारणीय है कि यह पद्य श्रावकाचार का मूल पद्य है या न्यायावतार का मूल पद्य है। श्रावकाच र मे यह जहाँ स्थिति है वहाँ उसका होना आवश्यक पर अनिवार्य है। किन्तु म्वायावतार में जहाँ वह है वहाँ उसका होना भावश्वक एवं धनिवार्य नहीं है, क्योकि वह पूर्वीक शब्द-लक्षण (का०८) " के समर्थन मे दिस प्रति है । उसे वहाँ से हटा देने पर उसका अग-भंग नहीं होता । किन्तु समन्तभद्र के श्रावकाचार से उसे लगकर देने पर उसका अंग भंग हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि उक वां पद्य, जिसमे शास्त्र का लक्षण दिया गया है, श्रावकाचार का मूल है और न्यायावतार मे अपने विषय ( वें पद्य में कथित शब्दलक्षण) के समर्थन के लिए उसे वहां से प्रकार ने स्वयं लिया है या किसी उतरवर्ती ने लिया है पोर जो बाद को उक्त ग्रन्थ का भी प्रंग बन गया। यह भी ध्यातव्य है कि श्रावकाचार में प्राप्त के लक्षण के बाद प्रावश्यक तौर पर प्रतिपादनीय शास्त्र लक्षण का प्रतिपादक प्रश्य कोई पद नहीं है, जब कि स्थायावतार मे शाब्द लक्षण का प्रतिपादक पद्य है । इस कारण भी उक्त वा पद्य ( प्राप्तोपज्ञउनु) श्रावकाचार का मूत्र पद्य है, जिसका वहा मून रूप से होना नितान्त श्रावश्यक प्रौर प्रनिवार्य है। तथा यावर में उसका, वें पथ के समक्ष मून करमेोधनावश्यक व्यर्थ पोर पुनरक्वत है। प्रत: यहो मानने योग्य एवं न्यायसंगत है कि न्यायावतार में वह समन्तभद्र के श्रावकाचार से लिया गया है, न कि श्रावकाचार में व्यायावतार से उसे लिया गया है । न्यायावतार से श्रावकाचार में उसे (हवें पद्य को) लेने की सम्भावना बिल्कुल निर्मून एवं मे दम है।
इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देने पर न्यायावतार मे धर्मकीर्ति" ( ई० ६३५), कुमारिल (६० ६५०)" पोर पात्रस्वामी (६० डी, जीं शती)" ६ठी इन ग्रन्थकारों का अनुसरण पाया जाता है और ये तीनों ग्रन्थकार समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं। तब समन्तभद्र को व्यायावतारकार सिद्धसेन का परवर्ती बतलाना केवल