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________________ करो ने महान विश्वस्त्रा का स्वशान में झलकार्जन लक्षात तो यह रहायों के प्राचार पारि वीर सेवा मन्दिर का एक महत्वपूर्ण प्रकाशन जैन लक्षणावली ० श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर जैनधर्म एक वैज्ञानिक और विश्वकल्याणकारी धर्म दिल्ली में मैं जब भी दिल्ली जाता ह तो वीर सेवा मन्दिर है तीर्थकरो न महान माधना करके के वन ज्ञान प्राप्त में भी पहुंचता है। प्रतः पं० बालचन्द्र जी के काम किया और उनके द्वारा विश्वस्वी का स्वरूप तथा शान्ति का मुझे अनुभव भी है। अब यह काम पूरा हो गया। ल्याण का मार्ग जो कुछ भी उनके ज्ञान में झलका, इससे मुझे व उन्हे दोनो को संतोष है। प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हो, जगह-जगह धमकर न लक्षणावली प्रन्थ के निर्माण में सबसे बड़ी वर्षों तक लोक भाषा में प्रसारित किया। अपने ज्ञान को उल्लेखनीय विशेषता तो यह रही है कि दि. और इवे. दूसरो तक पहचाने के लिए शब्दो का सहारा लेना ही दोनों सम्प्रदायों के करीब ४०० ग्रन्थों के माघार से यह पड़ता है। बहुत से गये-नये शब्द गढ़ने भी पड़ते है। महान् अव तयार किया गया है। एक-एक जैन पारि फिर भी मर्वज्ञ का ज्ञान बहुत थोड़े रूप में ही प्रचारित भाषिक शब्द को व्याख्या किस प्राचार्य ने किस ग्रंथ मे हो पाता. क्योकि वह शब्दातीत व अनन्त होता है। किस रूप में की है इसकी खोज करके उन ग्रन्थो का शब्द मोमित है। ज्ञान असाम है। जनघम की अपनी प्रावषयक उद्धरण देते हए हिन्दी मे उन व्याख्यानोका मौलिक विशेषताएं है। वह उनके पारिभाषिक शब्दों से सार दिया गया है। इससे उन-उन ग्रन्थों के उद्धरणो के प्रकट होता है। बहुत से शब्द जैन ग्रन्थों मे ऐसे प्रयुक्त हुए है ढूंढने का सारा श्रम बच गया है, और हिन्दी में उन जो अन्य किमी ग्रन्थ व कोष ग्रन्यो में नही पाये जाते । व्याख्यानों का सार लिख देने से हिन्दी वालो के लिए कई शब्द मिलते भी है तो उनका प्रर्थ वहा जैन ग्रन्यो यह ग्रंष बहुत उपयोगी हो गया है। ४०० ग्रन्थों के करीब में प्रयुक्त मथों से भिन्न पाया जाता है। अत: जैन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ सहित कोश प्रकाशित होना बहुत का संक्षेप या मंत्र दोहन इसी एक बन्ध में कर देना वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य है। पं० बालचन्द्र जी ही अावश्यक पोर अपेक्षित था, और अब भी है । अग्रेजी ने तो वर्षों तक परिश्रम करके जिज्ञासु के लिए बहुत बड़ी भाषामाज विश्व में विशिष्ट स्थान रखती है पर जैन ग्रन्थों के बहुत से शब्दो के मही अर्थ व्यक्त करने वाले ___ सुविधा उपस्थित कर दी है इसके लिए वे बहुत ही घन्यबहन म गब्द उस भाषा मे मिन ए है। यह जैन प्रन्बो बाद के पात्र है। बीर सेवा मन्दिर ने काफी खर्मा उठा के अग्रौ घनवादको को अनुभव होता है। प्रतः जैन कर बड़भन्छे रूप में इस प्रन्थ को प्रकाशित किया। इसके पारिभाषिक शब्दों के पर्याय पानी अग्रेजी शब्दो के एक बड़े लिए सस्था व उसके कार्यकर्ता भी धन्यवाद के पात्र है। कोष को आवश्यकता माज भी अनुभव की जा रही है। जन लक्षणावली इसका दूसरा नाम जैन पारिभाषिक ढाई हजार वर्षों में शब्दों के पनेक रूप और अर्थ हुए है। शब्द कोष रखा गया है । इसके नीन भाग हैं जिनमें १२२० प्रष्टों में पारिभाषिक शब्दों के लक्षण भोर मयं मकारादि उनमे परिकान हो जाना ग्वभाविक है । अनेकों प्राचार्यो, क्रम से दिये गये है। पहले के दो भागों में जिन-जिन ग्रन्थमनियो पोर विद्वानों ने एक-एक पारिभाषिक शब्द की। व्याख्या अपने-अपने ढंग की है। अत: एक ही शब्द के कारों के जिन-जिन अन्यों का उपयोग इस ग्रन्थ में हवा है उनका विवरण भी दिया गया था तीसरे भागके ४४ पृष्ठो अथं और अर्धान्तर बहु प्रकार के पाये जाते है। किसकिम नरिभाषिगाब्द का किस तरह व्याख्यान की प्रस्तावना में बहुत सी शब्दों सबंधी विशेष बाते देकर किया है. मका पता लगाने का कोई साधन नही था। प्रम्य की पाशिक पूति कर दी गयी है। पं० की प्रस्वस्थता इम कमी को पति और महीएक कोष को प्रावश्यकता के कारण तीसरा भाग काफी देरी से प्रकाशित हमा। पर का पानभन 20 श्री जगन किशोर जी मनियार को यह सम्वोष का विषय है कि इसके प्रकाशन से यह काम हमा और उन्होंने इस काम का अपने ढंग से प्रारम्भ पूरा हो गया। अब कोई भी व्यक्ति जैन लक्षणावली के किया। पर वह काम बहुत बड़ा था और वे अन्य तीनो भागो से किसी भी न पारिभाषिक शन्द के संबंध कामो मे लग रहते थे। इसलिए इसे पूरा करना उनके मे पावश्यक जानकारी प्राप्त कर सकता है। पहले दो लिए सम्भव नही हो पाया। कुछ व्यनियो के सहयोग से भागों का मूल्य तो २५.२५ रुपये रखा गया था और इस प्रयत्न को प्रागे बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। पर अब मंहगाई बढ़ जाने से तीसरे भाग का मूल्य ४० रुपये वर्षों तक एकनिष्ठ होकर उसे पूरा कर पाना संभव रखा गया है और तीनों भागों का मूल्य १२० रुपये कर नही हो पाया। वह पूरा करने का श्रेय प० बालचन्द्र जी दिया गया है। यह प्रस्थ संग्रहणीय एवं बहत्त काम का सिद्धान्त शास्त्री को मिला। वर्षों से वीर सेवा मन्दिर, है इसलिए सभी जैन ग्रन्थालयों को खरोषना ही चाहिये ।
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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