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बनानी वर्शनोरन वर्णन
गदहा बनाता है। अरस्तू ने भी प्लेटो के त को कायम देवी देवता का शरीर पौदगलिक है, उनके पोवगलिक रखा। परन्तु दोनो अंशो के अन्तर को दूर कर दिया, शरीर में एक क्षेत्रावगाहो पात्मा है। ये पारमायें भिन्नपदार्थों का तत्व में बदलने वाला प्रश, उनसे पृथक, उनके भिन्न शरीर मे भिन्न-भिन्न: । जोगत्मा परमाणुमों का बाहर नही; उनके अन्दर है। परस्तु के सामान्य विशेष संघात न होकर उपयोग लक्षण वाला ममूतं द्रव्य है। मृत्य की यह प्रवधारणा जैनसिद्धान्त से मिलती-जलती है। होने पर स्थूल शरीर का ही त्याग हो जाता है। तंजस परस्तू मूल प्रकृति को प्राकार विहीन मानता था। तथा कार्मण शरीर मृत्यु के बाद भी जीव का साथ नहीं जनदर्शन किसी एक द्रव्य को मूल प्रकृति नही मानता! छोड़ते हैं। जीव का मस्तित्व अनादि काल से है और उसके अनुसार पुद्गल द्रव्य हो केवल मूर्ति है, शेष द्रव्य अनन्तकाल तक रहेगा; वह केवल इसी जीवन के लिए प्रमूर्तिक है। अरस्तू के विवरण मे चार प्रकार के कारणों नही है। नरकों का अस्तित्व है, उनके दण्डों के विषय में का वर्णन है
कहना मोर सोचना व्यर्थ नही है।। १. उपादान कारण ।
एपिक्युरस का यह मत जनदर्शन से मिलता है कि २. निमित्त कारण ।
ससार मे जो कुछ हो रहा है। प्राकृत नियम के अधीन हो
रहा है। इसमे किसी चेतन सत्ता का प्रयोजन विखाई नही ३. प्राकारात्मक कारण ! ४. लक्ष्यात्मक कारण ।
देता। मनुष्य स्वाधीनता के उचित प्रयोग से अपने पापको जैनदर्शन में केवल दो कारण माने गए हैं १. उपादान
सुखी बना सकता है। एपिक्युरस ने भारम्भ मे क्षणिक कारण २. लक्ष्यात्मक कारण ।
तृप्ति को भले ही महत्त्व दिया हो, तो भी पीछे उसने एविक्युरस (३४२-२७० ई० पू०) ने लोगों को मृत्यु
दुःख की निवृत्ति को ही मादर्श समझा। किसी प्रकार की और परलोक के भय से मुक्त करने का निश्चय किया,
स्थिति मे विचलित न होना, हर हालत में सन्तुलन बनाए इसके लिए उसने डिमाक्राइटस के सिद्धान्त का प्राश्रय
रखमा भले पुरुष का चिह्न है। दार्शनिक का काम ऐसा लिया। उसने कहा कि दृष्ट जगत् परमाणुमो से बना है;
स्वभाव बनाना और दूसरो को ऐसा स्वभाव बनाने मे इसके बनाने में किसी चेतन शक्ति का हाथ नही। देवी
सहायता देना है। जनदर्शन मे भी धर्म उसे ही कहा गया देवता तो पाप परमाणों से बने है; यद्यपि उसको
है, जो प्राणियों को संसार के दुःख से छुड़ा कर उत्तम बनावट के परमाणु अग्नि के सूक्ष्म परमाणु है । जीवात्मा
सुख मे पहुचा दे। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने मोह मोर मोम
से रहित प्रात्मा के साम्यपरिणाम पयवा चारित्र को धर्म भी ऐसे परमाणुप्रो का संघात है। मृत्यु होने पर स्थूल
कहा है।" एपिक्युरस का विचार था कि अपनी परमाणु वातावरण में जा मिलते है। इस जीवन के बाद
मावश्यकतामों को कम करो, इससे मन को शान्ति प्राप्त कुछ रहता नही; नरक के दण्डों को बाबत कहना और
होगी। जनदर्शन का प्राररिग्रहवाद भी यही है । एपिक्युरस सोचना व्यर्थ है।
सुखी जीवन के लिए सादगी, बद्धिमत्ता और न्याय के जनदर्शन भी लोगों को मृत्यु और परलोक के भय मा मित्रता को पावश्यक समझता था। प्राणिमात्र के से मुक्त होने का मार्ग बतलाता है, किन्तु उसके अनुसार प्रति मंत्री भाव रखना जनों का भी मम मात्र है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की एकता मोक्ष एपिक्युरस ने कहा था कि कोई घटना अपने पापमें का मार्ग है।" जगत् छ: द्रव्यों की निर्मित है। इसके मच्छी या बुरी नही। हमारी सम्मति उन्हें अच्छा, बरा बनाने में किसी (मकेलो) चेतनशक्ति का हाथ नहीं है।
(शेष पृष्ठ भावरण ३ पर) १६. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः। तत्त्वार्थसूत्र ११ २१. चारित्रे खल धम्मो जो सो समोतिणिछिटो। २०. देशयामि समीचीन धर्मम् कर्म निबर्हणम् । मोहाखोहविहीणो परिणामो पप्पणो इसमो॥ संसारदुःखतः सवत्त्वान् यो घरव्युत्तमे सुखे ॥
प्रवचनसार रलकर श्रावकाचार