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मात्मा सर्वथा संस्थात प्रदेशी है
मागम में द्रव्य का मूल स्वाभाविक लक्षण उसके गुणों घोर पर्यायो को बतलाया गया है और ये दोनो ही सदा कालद्रव्य में विद्यमान है। द्रव्य के गुण द्रव्यार्थिक नय और पर्याय पर्यायार्थिक नय के विषय है जब हम कहते हैं कि 'भ्रात्मा श्रखड है' तो यह कथन द्रव्यार्थिकनय का विषय होता है और जब कहते है कि 'धारमा प्रसंख्यात प्रदेशी है' तो यह कथन पर्यायायिकनय का विषय होता है दोनो ही नय निश्चय में प्राते है । जिसे हम व्यवहार नय कहते है वह द्रव्य को पर-सयोग अवस्थारूप मे ग्रहण करता है। चूंकि प्रात्मा का असख्य प्रदेशत्व स्वाभाविक है अतः वह इस दृष्टि से व्यवहार का विषय नहीं निश्चय का ही विषय है। द्रव्यायविपर्यायादिक दोनों में एक की मुख्यता में दूसरा गौण हो जाता है - द्रव्यस्वभाव में न्यूनाधिकता नहीं होती । श्रतः स्वभावतः किसी भी अवस्था में श्रात्मा प्रदेशी नहीं है। वह त्रिकाल सम्पतिप्रदेशी तथा प्रखण्ड है ।
धारमा को सर्वदा प्रदेश मानने पर भयं क्रियाकारित्व का प्रभाव भी नहीं होगा यनः अयंक्रिया कारित्व का प्रभाव वहा होता है जहा द्रव्य के अन्य धर्मों की सर्वथा उपेक्षा कर उसे एक धर्मरूप में ही स्वीकार किया जाता है । यहा तो हमे धारमा के अन्य सभी घमं स्वीकृत है केवल प्रदेशत्वधर्म के सम्बन्ध में ही उसके निर्धारण का प्रश्न है यहा अन्य धर्मों के रहन से स्वभावशून्यता भी नही होगी और ना ही द्रव्यरूपता का प्रभाव यदि एक धर्म के ही घासरे (धन्य धर्मों के [रते हुए) क्रियाकारिख की हानि होती हो तब तो एकप्रदेशी होने से कालाणु, पुद्गलाणु म और प्रसंख्यात
प्रदेशी होने से सिद्धों मे भी पर्थक्रियाकारित्व का बचाव हो जायगा- - पर ऐसा होता नहीं ।
राजवार्तिक में मात्मा के प्रदेशपने का भी कथन है पर बहू घारमा के प्रसवतप्रदेशस्य के निषेध में न होकर शुद्धदृष्टि को लक्ष्य मे रखकर ही किया गया है पर्या आत्मा यद्यपि परमार्थ से प्रसंख्यात प्रवेशी अवश्य है
तथापि बुद्धदृष्टि की विवक्षा मे बहुप्रदेशीपने को गौण कर प्रखण्डरूप से ग्रहण करने के लिए अभिप्रायवश उसे प्रदेशरूप कहा गया है। प्रदेश की शास्त्रीय परिभाषा को लक्ष्य कर नहीं ।
प्रकृत में उपसंहाररूप इतना विशेष जानना चाहिए कि जहां तक मोक्षमार्ग का प्रसंग है, उसमें निश्चय का अर्थ करते समय, उसमें यथार्थता होने पर भी प्रभेद पौर धनुवचार की मुख्यता रखी गई है। इस दृष्टि को साथ कर जब प्रदेशी का अर्थ किया जाता है, तब प्रदेश का अर्थ भेद या भाग करने पर भ्रप्रदेश का प्रथं प्रखण्ड हो जाता है। इसलिए परमार्थ से जीव के स्व-स्वरूपशक्ति से प्रदेश होने पर भी दृष्टि की अपेक्षा उसे प्रखण्डरूप से अनुभव करना प्रागम सम्मत है । प्रदेश की शास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि से भ्रात्मा संख्यातप्रदेशी और लण्ड है हो धौर एक प्रदेशावगाही होकर भी उसके सस्यप्रदेशी हो सकने में कोई बाधा नहीं इसका निष्कर्ष है कि धारमा प्रदेशी तथा प्रखण्ड नहीं, अपितु सख्यात प्रदेशी तथा प्रखण्ड है ।
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वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
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