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________________ मात्मा सर्वच प्रसंस्थात प्रवेशी है अवगाहना का क्षेत्र माना गया है-परमपारिणामिक भाव प्रसंख्यप्रदेशो घोषित करते हैं, वे हो भाचार्य प्रात्मा को नही । यदि इन का मापदण्ड भावों से किया गया होता तो कयमपि किसी भी प्रसग मे भप्रदेशो नही कह सकते । प्राचार्य पाहतों और सिद्धों को भी "प्रप्रदेशो" घोषित "जीवापोग्गलकाया पम्माषम्मा पुणो यामागासं। करते, जबकि उन्होने ऐसा घोषित नही किया । सपवेसेहि प्रसंसा गरिय पदेससि कालस्स ॥ ___उक्त विषय में अन्य प्राचार्यों के वचन ऊपर प्रस्तुत -कुन्दकुन्द, प्रवचनसार ४३ किए गए। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सबगित विषय को जिम "प्रस्ति च संवर्तविस्तारयोरपि लोकाकाशरूप में प्रस्तुत किया है उसे भी देखना प्रावश्यक है। तुल्पाऽसंस्पेय-प्रदेशापरित्यागात् जीवस्य ।" क्योंकि "समयसार" उन्ही की रचना है । "समयसार" के -वही, अमृतचन्द्राचार्य-तत्वदीपिका सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार मे कहा गया है : "तस्य तावत संसारावस्थायां विस्तारोपसंहारयोरपि "अप्पा निच्चो संलिम्जपवेसो वेसिमो उसमयम्हि। प्रबोपवत् प्रवेशाना हानिवृद्धयोरभावात् व्यवहारे बेहविसो सबकई तत्तो होणो हिमो यका ॥" मात्रोऽपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमिताऽसंख्येय प्रदेशस्वम।" -समयसार ३४२ -वही, जयसेनाचार्य, तात्पर्यवृत्ति "जीवो हि व्यरूपेण तावग्नित्यो, असंख्येयप्रवेशो जीव के असंख्यात प्रदेशित्व को किसी भी प्रपेक्षा से लोकपरिमाणश्च ।" उपचार या व्यवहार का कथन नही माना जा सकता। -टोका, अमृनचन्द्राचार्य (धात्मख्याति) प्रदेश व्यवस्था द्रव्यों के स्वाधीन है और वह उनका "मात्मा द्रव्यापिकनयेन नित्यस्तथा चाऽसल्यातप्रवेशो स्वभाव हो है पोर स्वभाव मे उपचार नहीं होता । तत्वार्थ देशित: समये परमागमे तस्यात्मनः शबचतन्यान्वयलक्षण राजवातिक (५/८/१३) का कथन है कि-- दव्यत्वं तयेवाऽसंख्यातप्रदेशत्वं च पूर्वमेव तिष्ठति ।" हेत्वपेक्षाभावात् ॥३॥ पुद्गलेष प्रसिड हेतु-टीका जयसेनाचार्य, (तात्पर्यवृत्ति) मवक्ष्य षर्माविषु प्रवेशोपचार:न क्रियते तेवामपि स्वाधीन उक्त सन्दर्भ को स्पष्ट करने की प्रावश्यकता नही है। प्रवेशत्वात् । तस्मादुपचार कल्पना न युक्ता।" नाममयात म स्वर्गीय, न्यायाचार्य प. महेन्द्रकुमार जी का यह "द्रव्यरूपेण", पोर तात्पर्यवत्ति में "दन्याथिकनयेन", ये क्थन विशेष दृष्टव्य है :तीनों विशेष-निर्देश द्रव्याथिक (निश्चय ) नय के कथन को शुद्ध नय वृष्टि से प्रखण्ड उपयोग स्वभावको इगित करते है। एतावतः इम प्रसग म प्रात्मा के मसख्यात विवक्षा से मात्मा में प्रवेश भेद न होने पर भी ससारी प्रदेशित्व का कथन निश्चय नय को दृष्टि से ही किया जीव मनाविकम-बन्धनबद्ध होने से सावयव ही है।" गया है, व्यवहार नय की दृष्टि स नही। -त० वा. (जानपीठ) पृ. ६६६ पागम मे व्यवहार मोर निश्चय इन दोनो नयों के एक बात पौर। अपेक्षाश्रित होने से नय-दृष्टि मे वस्तु यथेच्छ रीति से प्रयोग करने की हमे छुट नही दी गई। का पूर्ण कालिकशुद्धस्वभाव गम्य नहीं होता। पूर्ण ग्रहण इनके प्रयोग की अपनी मर्यादा है। निश्चय नय के कथन तो सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान द्वारा होता है। इसीलिए में वस्तु की स्वभाव शक्ति एव गुण धर्म को मख्यता रहती प्राचार्य पदार्थज्ञान को नय-दष्टि से प्रतीत घोषित करते है पोर व्यवहार नय मे उपचार की। इसके अनुसार है। वे कहते है :प्रात्मा का बहुप्रदेशित्व निश्चय नय का कथन है, व्यवहार "णयपरतातिरकतो भणवि जो सो समयसारी।" नय का नहीं। "सम्बणयपसरहिवो भणियो जो सो समयसारो।" इसका फलितार्थ यह भी निकलता है कि जो -समयसार, १४२, १४४ कुन्दकुन्दाचार्य प्रात्मा के स्वभावरूप-परम पारिणामिक मूतं ब्रम्य मे तो परमाण की प्रदेश संज्ञा मानी जा भाव-रूप-सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार में मात्मा को नित्य एवं सकती है, पर प्रवेश की शास्त्रीय परिभाषा की वहां को
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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