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८, वर्ष ३४, किरण १
पहाव्यसंग्रह :
मे जीव का लक्षण व्यवहारनय से कहा है पौर शुखमय बहदद्रव्यसग्रह में कुल ५८ धारायें है, जो नोन की अपेक्षा शुद्ध दर्शन और ज्ञान ही जीव का लक्षण है। अधिकारों में विभक्त है। प्रथम अधिकार म कुल २७ जीव के तृतीय विशेषण "प्रमूतिक" की चर्चा करते गाथायें हैं, इसे षडद्रव्यपंचास्तिकम्य पनिपादकनामा प्रथम हुए ग्रन्थकार ने लिया है कि निश्चयनय से जीव मे पाँच शिकार रहा है। द्वितीय अधिकार में ११ गाथाय है, वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध पोर घ3 स्पर्श नहीं है, प्रतः इसे सप्ततस्व नवपदार्थ प्रतिपादक द्वितीय महाधिकार कहा जीव प्रमूर्तिक है और व्यवहार नय की अपेक्षा कमों के है। तृतीय अधिकार में २० गायाय है, इसे मोक्ष माग बन्धन के कारण मूर्तिक है। प्रतिपादक नामा तृतीय ग्राघकार कहा है। इन तीनो जोन के चतुर्थ विशेषण 'कत्ता" पर विचार करते प्रधिकारो को श्री ब्रह्मदेव न परेक अन्तराधिकारी में हुए कहा है कि-व्यवहारनय से प्रात्मा, (जीव) पदगल
वपिन अन्तराधिकारी का विभाजन कर्म प्रादि का कत्ता है, निश्चय नय से चेतन-कर्म का विषय-विभाजन को दोष्ट महत्वपूर्ण है। न्तु यह कर्ता और शुद्ध नय की अपेक्षा शुद्ध भावों का का है। साकार का होते, प्राचाय नमिचन्द्र कृत नहीं। जीव का पचम विशेषण है - स्वदेह परिमाण ।
हाव्य संग्रह प्राचार्य नमिचन्द्र न सवप्रयम तदनुसार ब्यवहारनय की अपेक्षा से यह जीव समदधात जीव-जीव द्रव्यों का निर्देश करने वाले भगवान् जिनन्द्र व राहत प्रवस्था मे सकोच तथा विस्तार रूप अपने बोलेको को नमस्कार किया है।
शरीर के परिमाण में रहता है और निश्चय नय से असंख्य पुनः जीव का लक्षण करत हुए लिखा कि १. जो प्रदेशों को धारण करने वाला है। योगमय है.३. अतिक, ४. पाता है, जीव का षष् विशेषण है -भोकमा। तदनसार
माता ससार म विद्यमान व्यवहारनय में यात्मा (जीव) मुख-दुःख रूप पुद्गल कर्म हैन सिद्ध है. स्वभावम ऊर्ध्वगमन करने वाला है फलो । गाना है और निश्चय नय को अपेक्षा प्रपने प्रर्थात जिसमें उपर्युक्त नो विशानाय पाई जय व जाव चेतन भाव का भोक्ता है। है। जीव के प्रथम विशेषण-- “जो जीता है" को ध्यान जीव , सप्तम विशेषण है-ससार में विद्यमानता। में रख कर व्यवहार और निश्चयनय का अपेक्षा सजाव
तदनुसार अन्य कार ने संभागे जीवो का विवेचन करते हए के दो पृथक्-पृथक् लक्षण करते हुए कहा है कि -जो भून, लिया
लिया है कि --पृथ्वी, जल तेज, वायु और वनस्पति के भविष्य एवं वर्तमानकाल में इन्द्रिय, वन, प्रायु और ।
भेद म एकन्द्रिय के घार के स्थावर जीवो के अनेक भेद है श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणो को धारण करता है व
तया शव प्रदिही द्वन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पोर व्यवहारनय से जीव है तथा निश्चयनय स जसक चतना।
पचेन्द्रिय स जीव है। पचन्द्रिय के दो भेद हैं तथा शख है वह जीव है।
प्रादिदीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय प्रौर पचेन्द्रिय प्रस जीवके लक्षण जिस उपयोग को चर्चा की गई जीव है। पचन्द्रिय के दो भेद है- सज्ञी और संजी। है वह उपयोग दो प्रकार का है - दर्शनोग्योग और शेष द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय मन रहित ज्ञानोपयोग । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है - चक्षुदर्शन, प्रसज्ञी है। एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रचक्षदर्शन, अधिदर्शन और केवल दर्शन । ज्ञानोपयोग प्रकार के है-इस प्रकार उपर्युक्त कुल सात प्रकार के पाठ प्रकार का है --कुमति, कुथुन, कुपवधि, मति, श्रुत, जीवो के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार अवधि, मनःपर्यय तथा केवल । मे से कुप्रधि, प्रवधि, है। अतः ये जीव समास (सक्षप मे) चौदह प्रकार के हैं। मनः पर्यय मोर केवल ये चार प्रत्यक्ष है तथा शेष चार इनमे ससारी जीव अशुद्धनय की दृष्टि से चौदह मार्गणा अप्रत्यक्ष । उपर्युक्त पाठ प्रकार के ज्ञानोपयोग और चार तथा चोदह गुणस्थानो के भेद से चौदह-चौदह प्रकार के प्रकार के दर्शनोपयोग को धारण करने वाला सामान्य रूप होते है । पोर प्रशुदनय से सभी ससारी जीव शुद्ध है।