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________________ अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक डा० दरबारी लाल कोठिया, न्यायाचार्य 'श्रमण' मासिक पत्र, वर्ष ३२, अंक ५, मार्च १९८१ विमोचन भी प्राचार्य विद्यासागर महाराज के द्वारा उसी में मेरे "जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन" ग्रन्थ जन १७, १९८० को सागर (मध्यप्रदेश) मे समायोजित की समीक्षा प्रकाशित हुई है। यह ग्रन्थ जून १६८० मे अनेक समारोही के अवसर पर हो चुवा है। उसकी वीर वा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणमी से प्रस्ट पा है । इसका मासिक. माप्ताहिक प्रादि पत्रो' एवं जनलो में' समा. (पृष्ठ १३ का शेषाश) लोचना भी निकल ची है। इन सभी पयो मोर अनेक ६ सम्यक्रव कौमुदी चौपाई-अनपद (२) मनीषियो ने ग्राम की मुक्त .ण्ठ से सराहना की है। किन्तु विनय चन्द रचित पत्र १०७ सं० १८८५ फाल्गुन वदि ७ 'तुलमी प्रज्ञा" और 'श्रमण' ने उसकी समीक्षा मे उसके को रचित । कुछ लेखो को 'दुराग्रहमात्र' कहा है। पर उनके लिए इस तरह पान संस्कृत प्रौर ६ राजस्थानी श्वे. कवियो कोई प्राधार या प्रमाण नही दिया। के रवित का विवरण जिनरलकोष प्रौर जैन गुर्जर कवियो थमण' के सम्पादक ने तो कुछ विस्तृत (५। पृष्ठ मे प्रकाशित हो चुका है। इनमे से जयमल्ल की रचना प्रमाण) समीक्षा करते हुए कुछ ऐसी बाते व ही है जिनका की एक मात्र प्रति हमारे संग्रह मे ही प्राप्त हुई है। अन्य स्पष्टीकरण यावश्यक है। यद्यपि समीक्षक को समीक्षा भण्डारों में विदोष खोज करने पर कुछ अतिरिक्त रचनायें करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है, किन्तु उसे यह भी भी मिल सकती है। अनिवार्य है कि वह पूर्वाग्रह से मुक्त रहकर समीक्ष्य के एक ही कथा सम्बन्धी ऐसे अनेको जैन ग्रंप छोटे और गुण-दोषो का पर्यालोचन करे। यही समीक्षा की बड़े प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश हिन्दी, राजस्थानी, वनड़ मर्यादा है। मादि भाषामों में लिखे मिलते है। उन सबका तुल- ज तव्य है कि समीक्षित ग्रन्थ के शोध-निबन्ध और नात्मक अध्ययन एक शोध प्रबंध में ही किया जा सकता है। अनुसन्धानपूर्ण प्रस्तावनाएं पाज से लगभग ३६ वर्ष पूर्व रचनामो के परिमाण के काफी प्रसर है प्रतः कइयो मे (मन् १६४२ से १९७७ तक) 'प्रनेकान्त', जैनसक्षेप से मोर कइयों में विस्तार से कथा दी गई होगी। गिद्धान-मास्तर' अादि पत्रो तथा न्यायदीपिका, प्राप्त प्रत्येक लेखक अपनी रुचि पौर योग्यता के अनुसार कक्षा परीक्षा प्रादि प्रन्यो में प्रकाशित है। किन्तु विगत वर्षों में मे परिवर्तन प्रौर वर्णन मे अन्तर कर देते है। इससे सब श्रमण' के सम्पादक डा० सागरमल जैन या अन्य किसी प्रयों को देखने पर ही कथा के मूल स्रोत एव समय-समय विद्वान् ने उन पर कोई प्रतिक्रिया प्रकट नही की। अब पर उसने किये गये परिवर्तनों की जानकारी मिल सकती उन्होने उक्त समीक्षा में अन्य के कुछ लेखो के विषयों है। इसके सम्बन्ध मे तुलनात्मक अध्ययन काफी रोचक पर प्रतिक्रिया भक्त की है। परन्तु उसमे अनुमन्धान और मोर ज्ञानवर्धक हो सकता है। सम्यक्त्व कौमदी की गहराई का नितान्त प्रभाव है। हमे प्रसन्नता होती, यदि कथानों का मूल स्रोत क्या और किस प्रकार का रहा है, वे पूर्वाग्रह से मकर होकर शोध प्रौर गम्भीरता के साथ यह अवश्य हो अन्वेषणीय है। उसे प्रस्तुत करते। यहां मैं उनके उठाये प्रश्नो अथवा नाहटों को गवाड़ बीकानेर मद्दों पर विचार करूँगा और उनकी सरणि को नहीं 0 मरनाऊँगा।
SR No.538034
Book TitleAnekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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