Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 110
________________ हैं। इस प्रकार ये माठों कर्म जन्म के हेतु होने से प्रास्रव अनुसरण करने वाले शिष्य उसके उपदिष्ट पनिर्धारित मादि द्वारा पुरुष को बांधते है, प्रतः बग्घरूप है। समस्त रूप पर्थ में कैसे प्रवृत्त होंगे? परन्तु व्यभिचरित फर क्लेश कर्मपाश का नाशकर ज्ञान द्वारा सबके ऊपर का निर्धारण होने पर उसके साधनानुष्ठान के लिए सब मलोकाकाश में सतत सुखपूर्वक स्थिति का नाम मोक्ष है लोक प्रनाकुल-नि.सन्देह प्रवृत्त होते हैं, अन्यथा नहीं। अथवा ऊर्ध्वगमनशील जीव धर्माधर्म से मुक्त होकर सतत इसलि{ प्रनिर्धारित प्रर्थ वाले शास्त्र का प्रणयन करता ऊर्ध्वगमन करता है, यही उसका मोक्ष है।' हुमा मत्त पौर उन्मत्त के समान अनुपादेय वचन होगा।' निराकरण - जो ज्ञान को प्रावत करे, वह ज्ञानावरण निराकरण-उपर्युक्त तक संशय के प्राधार पर किया कम है। जो प्रात्मा के दर्शन गुण को प्रकट न होने दे, गया है। जब दोनों धर्मों की प्रपने दृष्टिकोणों से सर्वथा बद्ध दर्शनावरण है। जो मोहित करता है या जिसके द्वारा निश्चित प्रतीति होती है, तब संशय कसे कहा जा सकता महा जाता है वह मोहनीय कम है। जो दाता पोर है ? संशय का प्राकार तो होता है-वस्तु है या नहीं? देय में अन्तर करता है, अर्थात् - दान, लाभ, भो, परन्तु स्याद्वाद में तो दृढ़ निश्चय होता है; वस्तु स्व-स्वरूप और उपभोग और वीर्य मे रुकावट लाता है, वह अन्तगय से है ही पर रूप में नही ही है । समग्र वस्तू उभयात्मक है कर्म है। जो वेदन करता है या जिसके द्वारा वेदा जाता ही। चलित प्रतीति को संशय कहते है, उसकी दढ निश्चय है. वह वेदनीय कर्म है। जो संमारी प्रात्मा के निमित्त मे सम्भावना नहीं की जा सकती।' हारीर-प्रांगोपागादि की रचना करता है वह नामकम है। सत्यानन्वी दीपिका--पदार्थों में प्रवक्तव्य भी संभव जिसके द्वारा उच्च नीच कहा जाता है, वह गोत्र कर्म है, नहीं है यदि प्रवक्तव्य है तो नहीं कहे जायेंगे, परन्तु कहे जिसके द्वारा यह जीव नरक मादि भवों मे रुका रहता है, जाते है और पुन: प्रवक्तध्य है, यह विरुद्ध है। वह प्रायकम है।' ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय पोर निराकरण- जैनधर्म पदार्थों को सर्वथा HERBA अन्तराय ये घातिया कर्म कहे जाते है। क्योकि ये जीव नही कहता, उसकी दृष्टि में पदार्थ कथंचित् वक्तव्य भी के परिणामों को सर्वदेश पात करते है, अन्य चार कर्म है। विरोघ तो अनुपलम्भ साध्य होता है अर्थात जो वस्त प्रघातिया कहे जाते हैं-ग्रंश का घात करते हैं। क्योंकि जैसी दिखाई न दे, उसे वैसी मानने पर होता है। जब प्राति कर्म के प्रभाव में ये जीव के परिणामों का पूर्ण धात एक वस्तु मे वक्तव्य, अव्यक्तव्यपना पाया जाता है. तब करने में वे समर्थ नहीं हैं। मोक्षावस्था मे जीव लोक के विरोध कसा? अन्त में लोकाकाश मे ही विद्यमान रहता है, क्योकि सत्यानन्दो दीपिका-शरीर परिमाणत्व होने पर प्रलोकाकाश मे धर्मास्तिकाय का प्रभाव होने से उसमे पात्मा प्रकृत्स्न -- प्रसवंगत-परिच्छिन्न होगा. इससे कम मुक्तजीव की गति नही होती। को घट प्रादि के समान अनित्यत्व प्रसक्त होगा। शरीरों सध्यानगी दीपिका - सब वस्तुप्रो मे निरकुश का प्रनिश्चित परिण म होने से मनुष्य जीव मनुष्य शरीर सोनाव की प्रतिज्ञा करने वाले के मत में निर्धारण को परिमाण होकर पुन: किसी कर्मविपाक से हस्ति जन्म भी वस्तत्व के समान होने पर स्यादस्ति स्थानास्ति प्राप्त कर सम्पूर्ण हस्ति शरीर को व्याप्त नहीं करेगा और (कथंचित है और कथंचित् नही है) इस प्रकार विकल्प चींटी का जन्म पाकर पूर्ण रूप से चीटी को शरीर मे के प्राप्त होने से मनिर्धारणात्मकत्व होगा। इस प्रकार नहा समाएगा । एक जन्म में भी कोमार, यौवन, वाक्य निर्धारण करने वाले का और निर्धारण फल का पक्ष मे यह दोष समान है । पूर्व पक्षी-परन्तु जीव अनन्त अवयव मस्तित्व होड़ा और पक्ष में नास्तित्व होगा। ऐसा होने वाला है, उसके वे ही प्रवयव प्रल्प शरीर में संचित होंगे mतबोरा सा भी तीर्थकर प्रमाण, प्रमेय, मोर बड़े शरीर में विकसित होंगे। उत्तरपक्ष-यदि ऐमा प्रमाता भोर प्रमिति के निर्धारित होने पर उपदेश करने हो तो पुनः जीव के उन पनन्त अवयवों के एकेदशस्व में कैसे समर्थ होगा? अथवा उसके अभिवावका का प्रतिघात होता है या नहीं? यह कहना चाहिए ।

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