Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 118
________________ श्रावक के दैनिक प्राचार 0 श्रीमती सुधा जैन एम० ए० निर्माण और निर्वाग ये दोनों शब्द मौलिक हैं। क्योंकि मनुष्य भी माहार करता है और पशु भी माहार निर्माण बनने बनाने को कहते हैं और निर्वाण मुक्ति या करता है। निद्रा, भय, मथुन प्रादि को प्रपेक्षा भी पशुभों छटकारा पाने को कहते है। दोनों ही में सुख निहित है। और मनुष्यों में कोई भेद नहीं है। प्रतः यह तो मानना यदि मानव प्रपना निर्माण उचित रीति से करले--प्रपने ही पड़ेगा कि कर्तव्य प्रमुख है। और वह इसलिए किमाचार और विचारों को सही रूप मे करले तो उसे ससारी मनुष्य को पशु-पक्षी और अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धिजीवन में भी सूख है । और यदि उद्यम द्वारा अपनी कर्म. विशेष मिली हुई है। अन्य प्राणियों का ज्ञान खाने-पीने कालिमा-रागादि कषायों को निर्मूल कर दे तब उसे मोक्ष और विषय भोगों तक ही सीमित है। बाह्य-जगत में हम मे भी सुख है। प्रब यह निर्णय मानव को स्वयं करना है देखते है कि मनुष्य नव- निर्माण करता है। प्राज तो वह कि वह इन दोनो मे से किसे पसन्द करता है ? हो, इतना चन्द्र नोक तह पर राज्य करने की योजना बना रहा है। प्रवश्य है कि जो स्थिति पाज है उसे देखते हुए यह अप यह सब बुद्धि और ज्ञान विशेष का ही प्रभाव है--पशुकहा जायगा कि पाज का मानव-समाज मार्ग से बहुत कुछ पक्षियो मे ये बातें कहाँ ? भटक गया है। प्रास्तिक-जगत-जो प्रात्मा तथा इस लोक पोर परजैन दष्टि से यह पत्रमकाल है। इममे इस क्षेत्र से लोक में भी विश्वास रखता है, की ऐसी मान्यता है कि मारमा निर्वाग नही है। यदि निर्वाण पाना हो तो पहिले हमे जसे भले बुरे कार्य करता है उसे अगले जन्म में भोगना प्रपना निर्माण करना पड़ेगा, अपने को बनाना होगा और पडना है। इस जन्म मे हम जिन्हे सुखी-दुखी देखते हैं वे उसी के प्राधार से हम विदेह क्षेत्र में जन्म ले सकेगे और उनके किए कर्म फल ही हैं। यज्ञ-प्रादि क्रियाकाण्डों में वहाँ से निर्वाण पा सकेंगे। प्रतः प्राइए, पहिले निर्माण विश्वास रखने वाले क्रियाकाण्डी, यज्ञादि क्रियापों को को ही चर्चा कर लें। 'कर्म' कहते है। पौराणिक लोग व्रत-त्याग-नियम मादि प्रश्न ये होते हैं कि--हमे निर्माण की प्र.वश्यकता को कर्म मानते हैं और जैन-दर्शनकार फल-शक्ति सहित क्यों है ? और यदि निर्माण करें भी तो क्या और कैसा? पुद्गल (कार्माण) वर्गणानों को 'कर्म' मानते हैं। प्रात्मा क्या वास्तव में हमारा निर्माण नही हुमा है ? हम पंदा जः कषाय युक्त होता है, तब उस में मन-वचन-काय संबंधी नही हुए है क्या? या हम मनुष्य नहो , वया? प्रादि। क्रिया होती है और उस क्रिया के अनुसार उसे उसका इसमे सन्देह नही. कि हम मनुष्य है और प्राकृति को फल प्रागामी काल मे भोगना पड़ता है। इस प्रकार फल अपेक्षा हमारा मनुष्य रूप में निर्माण भी हो चुका है। भोगने की बात सभी को स्वीकार है। भोर क्रिया के हमारे समान अन्य भी करोड़ों मनुष्य--प्राकृति से मनुष्य अनुसार ही फल होगा ऐसा भी सभी को स्वीकार है। हैं। पर, मनुष्य का अर्थ इतना मात्र ही नहीं है कि इसका निष्कर्ष यह निकला कि यदि हम शुभ-फल-- भाकृति ही मनुष्य रूप हो। इसके साथ कर्तब्य भी जुड़ा सामारिक सुख चाहते हैं, तो हमे अच्छी क्रियामों का हुधा है। यदि हम मनुष्योचित कर्तव्यों को पूरा नही माचरण करना चाहिए। बस, इसी शुभ-क्रिया की पोर करते तो हम अपने प्रापको मनुष्य कहलाने के अधिकारी लगना हमारा निर्माण है। और जब हम अपना निर्माण नहीं। यदि वर्तव्य को मानवता से पृथक कर दिया जाय कर लेते है, तब निर्वाण का मार्ग भी हमें सरल दीख तो मनुष्य-मनुष्य पोर पशु-मनुष्य मे भेद ही मिट जायगा। पड़ेगा।

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