Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 123
________________ अनेकांत जायेगा? राज्य ही क्या, कोई भी मेरा नहीं, मुझे इसमे में प्रकिचन-धर्म का प्राश्रय लिया और अन्त में उसी पण रंचमात्र भी ममस्व नहीं।" रूप को महाव्रत के रूप में परिवर्तित किया और इस इस प्रकार मान में किचनपूर्ण भावों के प्रागमन संसार-पाश से मुक्ति पाई। के साथ ही उन्होंने युद्धस्थल में ही मुनि दीक्षा ले ली। क्षेमश्री के परिणयोपरान्त क्षेमारी से निकल कर, एवंविध राजा सत्यंघर हमारे सम्मुख अकिंचन-पुरुष के अपने मणिमयी प्राभूषणों को देने की इच्छा होने पर रूप में उपस्थित होते है। वस्तुत: प्रधानता है उन मनो. जीवन्धर स्वामी को एक कृषक दिखलाई दिया उन्होंने भावों को, जो राजसी भोग में लिप्त था वही कुछ क्षण उसे पंचाणवत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का बाद पाकिञ्चन्य-धर्मी के रूप में स्थित हुप्रा। सम्यक उपदेश दिया। जिनमें पंचाणुवन के मम्तर्गत नायकजीवधर स्वामी का पाकिञ्चन्य-जीवन्धर परियपरिमाणाणवत प्राविञ्चन-भाव से प्रोत-प्रोत है। चम्के प्रम्तर्गत जीवन्धर स्वामी की प्राचिन्ध-प्ररूपणा उन्होंने उस किसान से कहा कि जिस प्रकार बैल द्वारा उस्लेखनीय है क्योंकि राजैश्वर्य के साथ साथ गत्ववंदत्ता । धारण करने योग्य भार उसका बछड़ा धारण नहीं कर प्रभत प्रष्ट शनियों के सुख के मध्य पाकिचन्य धर्म का सकता उसी प्रकार मनि द्वारा धारण करने योग्य व्रत को अवलम्बन लेकर मुक्ति पदवी को पाना यथार्थन: पाश्चर्य गृहस्थ धाण नहीं कर सकते । गृहस्थ के लिए प्रणवत ही का विषय है। उन्होंने जीवन में पद-पद पर मणुव्रत रूप परमोपयोगी है। -(क्रमश:) (पृष्ठ ३८ का शेषां श) वैदिक साहित्य में भी धर्म चर्चा मोर संत समागम सोही बहा हैकी प्रणाली रही है। पुराणों और उपनिषदों में प्रश्न और तत्प्रति प्रीत चिनेन, येन वातापि हि श्रुता । उत्तर के रूप मे धर्म चर्चा की गई है। गीता मे नर निश्चित स: वेदव्या, भाविनिर्वाण भाजनम् ।। (पर्जुन) को नारायण (श्रीकृष्ण) द्वारा प्रात्मोपदेश इसी पद्मनन्दि पंच विशतिका (एकत्वशीति: २३) प्रकार से दिया गया है। अर्थ-जिहि जीव प्रसन्नचित करि इस चनन स्वरूप यूनान में सुकरात प्लटो, अरस्तू दार्शनिको ने इसी प्रात्मा की बात ही सुनी है. सो निश्चय कर भव्य है। मार्ग को अपनाया था। चर्चा करने तथा उत्तर देने वाल प्रल्पकाल विर्ष 'मोक्ष का पात्र है।' के पपने ज्ञान का संवर्धन होता है तथा सुनने वाले को सो भाई जी तुम प्रश्न लिखे निराके उत्तर प्रपनी एकाग्रता प्राप्त होती है। बुद्धि अनुमार कुछ लिखिए है मो जाननापौर अध्यात्म जन समाज में संध्या व रात्रि की शस्त्रसभानों का प्रागम की चर्चा गभित पत्र तो शंघ्र शीघ्र वो करो, यही प्रयोजन था। निश्छल मन से चर्चा से सुनाने वाला मिलाप कभी होगा तब होगा। पर निरन्तर स्वरूपानुभव तथा सुनने वाला दोनों प्रात्मविभोर हो जाते है। वीतराग मे रहना श्रीग्स्तुः" (पूरी चिट्रो प्रागामी अंक मे) के एक सैद्धान्तिक शब्द से ज्ञानावरणीय का बहु क्षयोपशम इस पत्र तथा अन्य पत्रों और समाधानो का इतना होता है। प्रभाव हुप्रा कि जो विस्मयमयी है । मुलतान समाज के शंका समाधान की पर्चा से कितना बड़ा उपकार हो मैन बन्धु पोसवाल थे तथा श्वेताम्बर (स्थानकवासी) सकता है उसका चलन्त उदाहरण पं० प्रवर पं० टोडर माम्नाय के मानने वाले थे। परतु बाद में दिगम्बर मल जी की रहस्यपूर्ण निट्ठी है। पं० जी ने अपने पत्र में प्राम्नाय में प्राकर निग्रंथ धर्म को पालना प्रारम्भ कर कहा कि "तुम्हारे चिदानन्द धन के अनुभव से सहजानाद दिया। प्रोसवाल वधु सारे भारतवर्ष मे श्वेताम्बर कीवविवाहिए । सो भाईजी ऐसे प्रश्न तुम मारिष ही स्थानक के बासी मन्दिर मार्गी) है, परन्तु मुलतान के लिखें पवार वर्तमान काल में मध्यात्म के रसिक बहुत मोसवाल बन्धु इसके अपवाद है। घोडे। बम्ब जो स्वात्मानुभव की वार्ता भी करे हैं, ८, वा, जनपथ, नई दिल्ली

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