Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 125
________________ साहित्य-समीक्षा १. श्री समयसार कलश (टोका)--अनुवादक : ३. जय गंजार-(स्वाध्याय प्रेमी स्मृति अंक)स्थानक. श्री महेन्द्रसेन जैनी । प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ वासी साधु श्री चादमल जी म. सा. की बारहवी पुण्य दरियागज, नई दिल्ली-२। प्रथमावृत्ति, १९८१, छपाई स्मृति के अवसर पर प्रकाशित, 'जय गंजार' वर्ष ४ प्रादि उत्तम:०सं० २७६ मूल्य ७ रु० । प्रस्तुत प्रस्थ का ८६ अक १६६+३०-१६६ पृष्ठो में सजाया भाचार्य अमृतचन्द्र जी की प्राध्यात्मिक कृति समयसार गया उत्तम प्रक है । जो सपादक डा० पी० सी. कलश पर पं० श्री राजमल जी की ढूंढारी भाषा का जैन तथा डा. तेजसिंह गौड को जागरूकता का हिन्दी रूपान्तर है। इसमे विषय को सरल रूप में प्राह्य सहज परिचय देता है। अंक में साधु जी के विविध बनाया गया है, साधारण से साधारण रसिक भी प्रल्प प्रसगो पर पर्याप्त प्रकाश डालते हए उन्हें श्रद्धांजलियां प्रयास से वस्तु तत्व के अन्तस्तल का स्पर्श कर सकता है। भेंट की गई है। मरूप बात विविध प्रायामों से स्वाध्याय प्रारभ में श्री बाबूलाल जैन (कलकत्ते वाले) द्वारा लिखी विषय पर प्रकाश की है, जिससे पाठको को मार्ग दर्शन को २८ पष्ठो की मौलिक प्रस्तावना है। ग्रन्थ प्राध्यात्मिक- सामग्री उपलब्ध होती है। स्वाध्याय संबंधो लेख मननीय रसिकों के लिए परम उपयोगी सिद्ध होगा मोर यदि है। मंत उपयोग लगावें तो इसके सहारे वे समयसार --प्रात्मा के ४. मलचंद किशनदास कापडिया प्रभिनंबन प्रय-- शुद्ध रूप तक पहुंच सकेंगे ऐसा हमे विश्वास है। प्रत्य , प्रकाशक : डाह्याभाई कापडिया सूरत । पृष्ठ २३२ मूल्य सग्रहणीय है। बीस रुपए। २. अन्तव-लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार सेठी: कापडिशाजी के विषय में जो लिखा जाय पल्प होगा। प्रकाशक : होरा भैया प्रकाशन इन्दौर, पृ० सं० ७६। वे जैन समाज के अग्रदूतो में से थे और ऐसे अग्रदूत जो मूल्य ३ रुपया। प्रांघो मेह की परवाह किए बिना पथ पर सदा ही बढ़ते पुस्तक में लेखक ने सोलह निबन्धो के माध्यम से मन.. रहे ! जनमित्र और अन्य प्रकाशनो के माध्यम से तो पापन स्थितियो पर प्रकाश डालने का उत्तम प्रयास किया है। समाज के उत्थान में योग दिया हो: वे यत्र-तत्र भ्रमण पुस्तक पढ़ने से मन को स्थितियों के साथ लेखक की करके भी ययावसर जनता को लाभ देते रहे । धामिक और माध्यात्मिक रुचि का भी सहज बोध होता है - पुस्तक के सामाजिक चेतना जाग्रत करने में पेठ माणिकचद जीव प्रारम्भ मे मुनि श्री विद्यानन्द जी के आशीर्वचन मे सभो पू०७० शीतलप्रसाद जी के कार्य में भी परम सहयोगी रहे। निहित है--कुछ लिखना शेष नही रहता । पुस्तक उपयोगी उक्त प्रकाशन उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन मात्र है। है । साधुवाद। प्रयत्न सराहनीय है। -सम्पादक (पृष्ठ ३४ का शेषांश) हो गयी। उसके मिलने का महत्व है उसकी महिमा है। बोलने की कला सीख कर अपने को भ्रम से मान बैठा छोडा तो कंकड़ पत्थर है उसकी क्या महिमा है कि कि सत्य मिल गया"वह व्यक्ति अपने को ज्ञाता मान लेगा कितना छोड़ा है। मौर बाहर में यद्वातदा गलत प्रवृति करेगा उसको वास्तव यहां पर एक बात ज्यादा गौर करने की है कि किसी में सत्य उपलब्ध नहीं हुमा । पुस्तक में शब्द रूप सत्य के व्यक्ति को वास्तव में तो स्व की प्राप्ति अथवा ज्ञाता को बारे में पढ़ कर यह समझ लिया है कि सत्य मिल गया उपलब्धि हई नहीं "परम्तु शास्त्र के शब्दों को पकड़ कर बखतरमा व्यक्ति सिद्ध होता है।

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