Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 122
________________ जीवन्धर चम्पू में पाकिञ्चन्य - कु. राका जैन प्रन्य परिचय-गद्य-पद्य से भिन्न किन्तु दोनो से किनन का मात्र परिलक्षित होता है। प्रकिचन का मर्थ समन्वित काव्य चम्पू काव्य कहलाता है। जीबन्धर-चम्पू है -विञ्चित मात्र भी न रहना अथवा मोह जनित काव्य-प्रणेता महाकवि हरिचन्द्र ने स्वयं चम्पूकाव्य- विचारों को त्यागना प्रर्थात्-प्रपरिग्रहवाद । अपरिग्रह वरीयता को उद्घाटित किया (प्राकिचन्च) रूपी साधन का सहारा लेकर जन साधक गद्यावली पद्य परम्परा च, माध्य (मक्ति-पद) को पा सके । प्रत: जैन धर्म के उत्कृष्ट प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् । लक्ष की उपलब्धि हेतु अकिचन का माश्रय लेना हपं प्रकर्ष तनुते मिलिवा, परमावश्यक है। जीवन्धर स्वामी जिनका सम्पूर्ण जीवन द्राबाल्यनारुपवतीव कान्ता ॥ राजवैभव एवं कामिनी वैभव के मध्य ध्यतीत हुमा उन्होंने अर्थात् गद्यावली और पद्य परम्परा ये दोनों पृयक भी अन्ततोगत्वा प्राचिन्य धर्म का सहारा लेकर निर्वाण पृथक् भी प्रानन्द उत्पन्न करती है फिर जहां दोनों मिल पद को पाया। जीवन्धर स्वामी के सदश ही जीवन्धर जाती हैं वहां की तो बात ही निराली है, वहां वे दोनो चम्पू मे चित्रित चरित्रों के मध्य भी किचन-तत्व दशित शैशव भोर तारुण्य के बीच विनरने वाली कान्ता के समान होता है। अन्य के प्रयम लम्भ में ही राजा सत्यत्पर प्रत्यानन्द देती है। किचन-धारक के रूप में उपस्थित होते है। जीवन्धर ___महाकवि हरिचन्द्र के समान ही विविध चम्पू-काव्य चम्पू में व्यवहत प्राकिञ्चन्य-निरूपण निम्न पात्रों के सृजेतानों ने चम्पू के गद्य-पद्य-मिश्रण को वाद्य समन्वित माध्यम से पाठको के मध्य उपस्थित हो सकता है - सगीत माध्वोक और मृती अथवा सुधा और मायीक के सम्यक योग से प्राप्त प्रानन्द एव इसके सौन्दर्य को नपराज सत्यन्धर का प्राविञ्चन्य-जीवन्धर-जनक रागमणि संयुक मकनामाला अथवा कोमल-किसनय कलित सत्यं घर नपगज सुग्यपूर्वक जीवन-यापन करने के लिए तुलसीसक सदृश मनोरम माना है।। राज्यभार को मन्त्री काष्ठा ङ्गार पर सौंप देते हैं और इस प्रकार चमत्कार प्रधान, गद्य-पद्य - गुम्फिन एवं राज्य की तरफ से चिन्तारहित होकर विजयारानी के मानव-मानस-मजलव म्यूकाव्य महावीरस्वामी के समकालीन साथ जीवन घड़ी को चलाते है कि यकायक बही क्षत्रचुडामणि जीवन्धरस्वामी का जिसमे जीवन-चरित काष्ठाङ्गार अधिपति बनने की इच्छा से राजा के साथ निरूपित है -'जीवावर चम्पू' नाम से विश्वविख्यात हुमा। युद्ध करना प्रारम्भ कर देता है। प्रतिकार रूप में नृप सम्पूर्णकया प्रलोक्कि घटनामों से भरी है रजकता को रानी विज्ञया के मना करने पर भी एकाकी ही रणभूमि देखते हुए मालोचकों को मन्त्रणा रही है कि काश ! में पहुंच जाते है। स्व-बाहुवल से अनेक प्रतिनियों को इसका चित्रपट बन जाता तो मनायास ही यह मादर्श मौत के घाट उतार देते है। दोनों पोर से घोर युद्ध होता लोगों के मध्य उपस्थित हो जाता । विषय वस्तु ११ लम्भों है कि यकायक नपराज के मनोभाव होते है कि-"जिस में व्यवहत है जिसकी रोचकता प्रकथनीय है। राज्य के लिए हम युद्ध कर रहे हैं, न जाने कितने ही जीवनपरचम्पू में पाकिञ्चन्य - यद्यपि जीवन्धर जीवों की मेरे द्वारा हिंसा हो रही है, न जाने कितने चम्पू श्रृंगार-प्रधान काव्य है तथापि उसमें यत्र-तत्र धुणित कार्य मेरे द्वारा हो रहे हैं, क्या वह मेरे साथ

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