Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 120
________________ भाषककेनिकमाचार बारह व्रत इस प्रकार हैं-५ अणुव्रत,.३ गुणवत, ४ शिक्षा- अंतरंग-बहिरंग दोनों परिग्रहों से सर्वथा रहित-नग्न व्रत । इन व्रतों का वर्णन करने से पूर्व इतना संकेत और परमनग्न होते हैं और ज्ञान, ध्यान तप में लीन रहते हैंकर दें कि इन व्रतों के पालन के साथ-साथ श्रावकों के ६ वे गुरु कहलाते हैं। ऐसे गुरुषों की उपासना करने से पावश्यक कर्म (कार्य) प्रतिदिन के मोर भी बतलाए गए वीतराग मुद्रा के प्रति श्रद्धा होती है-वीतरागता का हैं। सभी श्रावकों को धर्म में स्थिर रहने के लिए इनका पाठ भी मिलता है। ये मुद्रा मोक्षमार्ग की प्रतीक है। यथाशक्ति-सुविधानुसार पालन करना प्रत्युपयोगी है। वे अत. श्रावक को गुरु-उपासना परमोपयोगी है। छह मावश्यक कार्य इस प्रकार है-(१) देव पूजा, (३) स्वाध्य य-महन्त सर्वज्ञ देव द्वारा उपदिष्ट (२) गुरु-उपासना, (३) स्वाध्याय, (6) संयम और गुरु परंपरा से उपलब्ध-वाणी-जिन वाणी, जिसका (५) तप और (६) दान ।। किसी के द्वारा खण्डन नही किया जा सकता पोर जो (१) देव-पूजा-परम-शुद्ध प्रात्माग्रो को देव शब्द स्याद्वादमयी होने से पूर्वापर विरोध रहित है, का पठनसे संबोधित किया जाता है। और जैन-दर्शन में इन्हें पाठन, मनन चितवन करना स्वाध्याय कहा गया है। परमात्मा कहा गया है। ये देव दो प्रकार के हैं- प्रात्मा प्रादिक पदार्थों का इससे विस्तार पूर्वक प्रशस्त सकल-परमात्मा मौर निकल परमात्मा जो संसारा ज्ञान होता है और वह ज्ञान ही प्रात्म-साधना में उपयोगी प्रात्मा अपने प्रात्मोद्यम से कर्मों को पूर्ण रूप से है। श्रावक को इससे लाभ होता है और वह मोक्षमार्ग में क्षय करके संसार से सदा-सदा के लिए मुक्त हो लगता है। जाते है वे नि-कल अर्थात शरीर-रहिन-सिद्ध परमात्मा (४) संयम-अपनी इन्द्रियों और मन को वश में कहलाते हैं। और जो क्षुधा, पिपासा, बुढापा, रोग जन्म, रखना, जीवों की रक्षा करना संपम कहलाता है। इन्द्रियों मरणभय, मद, राग, प, मो आदि से रहित होकर को वश मे किए बिना किसी प्रकार भी उद्धार नहीं हो भी शरीर मे बास करते हैं, वे सकल अर्थात् शगेर सकता। अत: इन्द्रियों को वश मे करना और सब जीवों सहित - अरहत परमात्मा कहलाते है। दोनों ही प्रकार के को अपने समान समझकर उनकी रक्षा करना परमात्मा मात्मा के परमोत्कर्ष को प्राप्त होते है और परमोपयोगी है। वीतराग तथा सर्वज्ञ होते हैं। प्ररहत परमात्मा हित पूर्ण (५) तप-मनुष्य की इच्छाएँ संसार परिम्रमण में उपदेश भी देते हैं। इनको सांसारिक सभी प्रकार की प्रमुख कारण है जब तक इच्छाओं को कम नहीं किया भंझटों से कोई प्रपोजन नही होता। जायगा-रोका नहीं जायगा तब तक प्रशान्ति ही रहेगी! चंकि जैन-दर्शन के अनुसार संसार का प्रत्येक जीव इच्छाएं कभी शान्त नहीं होतीं। जैसे अग्नि, घी डालने अनन्त शक्तियां अनन्त रूप मे रखता है और वह प्रतिबंधक से बढ़ती ही है. वैसे ही एक इच्छा के पूर्ण होने के बाद कमो का अन्त करके उन्हे सदा के लिए प्रकट भी कर दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है, अत: इच्छामों को सकता है। प्रतः इस ओर लक्ष्य देने और बार-बार शुद्ध रोकना चाहिए। इन्हे रोकना ही परम तप है-इच्छा. मात्मानों का ध्यान-मनन-पाराधन करने से उसका मार्ग निरोधस्तपः।प्रशस्त होता है। इसलिए देव-पूजा का शास्त्रों में विधान (६) दान-उपचार के लिए अपनी वस्तु-जिसके किया गया है और श्रावक को इसका नियमित प्राचरण द्वारा जीवों की प्रवृत्ति धर्म में होती हो, पात्म-हित की बतलाया है। दृष्टि से उन्हें शान्ति मिलती हो-या उनका भौतिक (२) गह उपासना-जो इन्द्रियों संबधी सांसारिक दु.खों निस्तार होता हो-पर-हेतु देना 'दान' कहलाता विषयों के सेवन और उनकी प्राशा मात्र का भी परित्याग है। दान में दाता मोर पात्र दोनों का हित-निहित है। कर देते हैं, किसी प्रकार के भी संसार बढ़ने-वाले दान लोकोपयोगी पौर धर्म को बढ़ाने वाला हो, ऐसा कार्यों को नहीं करते, किसी प्रकार का परिग्रह (बहिरग ध्यान रहना प्रावश्यक है। व अंतरंग) नहीं रखते - पर विकारों से उभयथा यानी -स्टेट बैक माफ इंडिया, श्रीगंगानगर

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