Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 101
________________ १८ वर्ष ३४, किरण ४ प्रमेकाले पक्षाग्रह है। उसमें युक्ति या प्रमाण (माघार) कुछ भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिनमें तत्वार्थ सूत्रकार और दिगम्बर प्राचार्यों में भी मतभेद है। प्रतः कुछ बातों में तस्वार्थ समीक्षा का तीसरा प्रश्न है कि 'न्यायशास्त्र के समग्र सूत्रकार मौर मन्य श्वेताम्बर भाचार्यों में मतभेद होना विकास की प्रक्रिया में ऐसा नही हमा है कि पहने जैन इम बात का प्रमाण नहीं है कि तत्वार्थ सूत्रकार श्वेताम्बर न्याय विकसित हुप्रा और फिर बौद्ध एवं ब्रह्मणों ने परम्परा के नहीं हो सकते ।' प्राने इस कथन के समर्थन उसका अनुकरण किया हो।' हमें लगता है कि समीक्षक मे कुन्दकुन्द मोर तत्वार्थ सूत्रकार के नयों और गहस्थ के ने हमारे लेख को पापाततः देखा है. उसे ध्यान से पढ़ा ही १२ व्रतों सम्बन्धी मतभेद को दिया है। इसी मुद्दे में नहीं है। उसे यदि ध्यान से पढ़ा होता, तो वे ऐसा हमारे लेख में प्रायो कुछ बातों का और उल्लेख करके स्खलित और भड़काने वाला प्रश्न न उठाते । हम पुनः उनका समाधान करने का प्रयत्न किया है। उनसे उसे पढ़ने का अनुरोध करेंगे। हमने 'जैन न्याय का इस मुद्दे पर भी हम विचार करते है। प्रतीत होता विकास" लेख में यह लिखा है कि 'जैन न्याय का उद्गम है कि डा. माहब मतभेद और परम्परा भेद दोनों में कोई उक्त (बौद्ध और ब्राह्मग) म्यायों से नही हुमा, अपितु अन्तर नही मान रहे है, जब कि उनमें बहुत अन्तर है। वे दष्टिवाद श्रुत से हमा है। यह सम्भव है कि उन्क न्यायों यह तो जानते है कि अन्तिम श्रत केवली भद्रबाह के बाद आप जैन न्याय भी फला-फूला हो । अर्थात् जैन न्याय जैन संघ दो परम्परामो में विभक्त हो गया-एक दिगम्बर के विकास में ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय का विकास और दूसरी श्वेताम्बर । ये दोनों भी उप-परम्परामो मे प्रेरक हा हो और उनकी विविध क्रमिक शास्त्र. विभाजित है। किन्तु मूलतः दिगम्बर और श्वेताम्बर ये रचना जैन न्याय की क्रमिक शास्त्र-रचना में सहायक हुई दो ही परम्पराएं है। जो प्राचार्य दिगम्बरस्व का पोर हो। समकालीनों में ऐमा मादान प्रदान होना या प्रेरणा जो श्वेताम्बरत्व का समर्थन करते है वे क्रमशः दिगम्बर लेना स्वाभाविक है।' यहाँ हमने कहा लिखा कि पहले और श्वेताम्बर प्राचार्य कहे जाते है तथा उनके द्वारा जैनन्याय विकसित हुमा और फिर बौद्ध एवं ब्रह्मगों ने निर्मित साहित्य दिगम्बर पौर श्वेताम्बर साहित्य माना उसका अनुकरण किया। हमे खेद पोर प्राश्चर्य है कि जाता है। समीक्षक एक शोध संस्थान के निदेशक होकर भी तथ्यहीन अब देखना है कि तत्वार्थ सूत्र मे दिगम्बरत्व का और भड़काने वाली शब्दावली का प्रारोप हम पर लगा समर्थन है या श्वेताम्ब रत्व का। हमने उक्त निबन्ध में रहे हैं। जहां तक जैन न्याय के विकास का प्रश है उममें इसी दिशा में विचार किया है। इस निबन्ध की भूमिका हमने स्पष्टतया बौद्ध पौर ब्राह्मग न्याय के विकास को बांधते हुए उसमे प्रावृक्ष के रूप मे हमने लिखा है" प्रेरक बतलाया है और उनकी शास्त्र-रचना को जैन न्याय कि "जहां तक हमारा ख्याल है, सबसे पहले पण्डित को शास्त्र रचना में सहायक स्वीकार किया है। हाँ, सुखलाल जी 'प्रज्ञाचक्ष' ने तत्वार्थ सूत्र पोर उसकी जैन न्याय का उद्गम उनसे नही हुमा, अपितु दृष्टिवाद व्याख्यानों तया कर्तृत्व विषय में दो लेख लिखे थे मोर नामक बारहवें अगश्रुत से हुमा। अपने इस कथन को उनके द्वारा तत्वार्थ सूत्र और उसके कर्ता को तटस्थ सिद्धसेन (द्वात्रिशिकाकार), प्रकलंक, विद्यानन्द मोर परम्परा (न दिगम्बर, न श्वेताम्बर) का सिद्ध किया था। यशोविजय के प्रतिपादनों से पुष्ट एवं प्रमाणित किया इसके कोई चार वर्ष बाद सन् १९३४ में उपाध्याय है। हम पाठकों, खासकर समीक्षक से अनुरोध करेंगे कि श्री प्रात्माराम जी ने कतिपय श्वेताम्बर भागमों के सूत्रों वे उस निबन्ध को गौर से पढ़ने की कृपा करें और सही के साथ तत्वार्थ सूत्र के सूत्रों का तथोक्त समन्वय करके स्थिति एवं तथ्य को अवगत करें। तस्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय' नाम से एक ग्रन्थ लिखा डा० सागरमल जी ने चौथे पोर मन्तिम मुद्दे में मेरे और उसमें तत्वार्य सूत्र को श्वेताम्बर परम्परा का प्रय तस्वार्थ सबकी परम्परा' निबाघ को लेकर लिखा है कि प्रसिद्ध किया जब यह अन्य पणित सुखलाल जी को प्राप्त

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