Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 102
________________ अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति पावश्यक हुमा, तो अपने पूर्व (तटस्थ परम्परा) के विचार को छोड २. एक साथ १९ परीषह, एक साथ बोस परीषह, कर उन्होंने उसे मत्र श्वेताम्बर परम्परा का प्रकट किया ६-१७ उत्तरा० त० जना० पृ.२०८ तथा यह कहते हुए कि 'उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा ३. तीर्थकर प्रकृति के १६ तीर्थकर प्रकृति के २० बंधके थे मोर उनका सभाष्य तत्वार्थ सचेल पक्ष के श्रुत के बंध कारण, ६-२४ कारण (ज्ञातृ सू०८.६४) प्राधार पर ही बना है।'-'वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर ४. विविक्तशय्यासन तप, संलीनता तप, (व्याख्या प्र० परम्परा में हुए, दिगम्बर मेन। नि:सकोच तत्वार्थसूत्र ६.१६ सू. २५७८) और उसके कर्ता को श्वेताम्बर होने का प्रपना निर्णय भी ५. नाम्यपरीषह, 8-8 मचेलपरीषह (उत्तरा० सू०, दे दिया है।" पु. ८२ इसके बाद पं० परमानन्दजी शास्त्री," पं फल चन्द्र ६. लोकान्तिक देवो के लोकान्तिक देवों के भेन जी शास्त्री" १० नाथराम जी प्रेमी" जैसे कुछ दिगम्बर ८ भेद ४.४२ (ज्ञात, भगवती) विद्वानों ने भी तत्वार्थ सूत्र की जांच की। इनमें प्रथम के दो विद्वानो ने उसे दिगम्बर और प्रेमी जी ने यापनीय यह ऐमा मौलिक अनार है, जिसे श्वे० प्राचार्यों का ग्रन्थ प्रकट किया। हमने भी उस पर विचार करना मतभे: नही कहा जा सकता। वह तो स्पष्टतया परम्परा उचित एव मावश्यक समझा मोर उमी के फलस्वरूप भेद का प्रकाशक है। नियुक्तिकार भद्रबाहु या अन्य तत्वार्थसूत्र की मूल परम्परा खोजने के लिए उक्त निबन्ध श्वेता. प्राचार्यों ने सचेल श्रुत का पूरा अनुगमन किया है, लिखा। अनुमन्धान करने और साधक प्रमाण मिलने पर पर तत्वार्थ मूत्र कार ने उसका अनुगमन नहीं किया। हमने उसकी मल परम्परा दिगम्बर बतलायी। समीक्षक प्रन्यथा सचेत निट उन ने उन्हे निरस्त न कर मात्र व्याख्यान दिया है। किन्तु मेन मिलता। पाख्यान समीक्षा नहीं कहा जा सकता, अपितु वह अपने पक्ष का समर्थक कहा जायेगा। तत्वार्थ सूत्र मे 'अचेलपरीषह' के स्थान पर 'नाग्न्य. तत्वार्थसत्र मौर कन्दकुन्द के ग्रन्थों मे प्रतिपादित परीषद' रखने पर विचार करते हुए हमने उक्त निबन्ध नयों और गहस्थ के १२ वनों में वैचारिक या विवेचन मे लिखा था कि 'प्रचेल' शब्द जब भ्रष्ट हो गया और पद्धति का अन्तर है। ऐसा मतभेद परम्परा की भिन्नता उसके अर्थ मे भ्रान्ति होने लगी तो प्रा० उमास्वाति को प्रकट नहीं करता। समन्तभद्र, जिनसेन मोर सामदेव ने उसके स्थान मे नग्नता-सर्वथा वस्त्र रहितता अर्थ को के प्रष्ट मूल गुण भिन्न होने पर भी वे एक ही (दिगम्बर) स्पष्टत ग्रहण करने के लिए 'नाग्न्य' शब्द का प्रयोग परम्परा के है। पात्रभेद एव कालभेद हैं उनमें ऐसा किया। इसका तर्कसंगत समाधान न करके डा. सागरमल विचार भेद होना सम्भव है । विद्यानन्द ने अपने ग्रन्यो में जी लिखते है कि 'डा० साहब ने वे० प्रागमों को देखा प्रत्यभिज्ञान के दो भेद माने हैं और अकलक, माणिक्यनन्दिनी ही नही है। श्वे० प्रागमों मे नग्न के प्राकृत रूप नग्न या पादि ने उसके अनेक (दो से ज्यादा) भंद बतलाये है। णगिण के अनेक प्रयोग देखे जाते हैं।' प्रश यह नहीं है पौर ये सभी दिगम्बर प्राचार्य हैं। पर तस्वार्थ सूत्र और कि प्रागमों में नग्न के प्राकृत रूप नग्न या णगिन के सचेलश्रुत मे ऐसा अन्तर नही है। उनमें मौलिक अन्तर प्रयोग मिलते हैं। प्रश्न यह है कि श्वे० प्रागमों में क्या है, जो परमरा भेद का सूचक है। ऐसे मौलिक अन्तर को 'मचेल परीषह' की स्थानापन्न 'नाम्य परीषह' उपलब्ध ही हमने उक्त निबन्ध मे दिखाया है। संक्षेप मे उसे यहाँ है? इस प्रश्न का उत्तर न दे कर केवल उनमें मान्य' दिया जाता है - शब्द के प्राकृत रूपों (नग्न, नगिन) के प्रयोगों की बात तस्वार्थसूत्र सचेल भ्रत १. प्रदर्शनपरीषद, ६-६-१४ दंसणपरीसह, सम्मत्तपरीसह करना और हमें श्वे० भागमों से अनभिज्ञ बताना न (उत्तर.. सू० पछठ ८.) समाधान हैं और न शालीनता है। वस्तुत: उन्हें यह

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