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अनुसन्धान में पूर्वाग्रहमुक्ति मावश्यक
प्रतः ये (नाम्यपरोषह, दंशमशकपरीषद पोर स्त्री- कहने वालो के सम्बन्ध में भी कुछ लिखो और उनके परीषह) तीनों परीषह तत्वार्थ सूत्र में पूर्ण निर्ग्रन्थ (नग्न) सत्य की जांच कर दिखाते कि उसमें कहा तक सचाई, साधु की दृष्टि से अभिहित हुए है। प्रतः 'तत्वार्थसूत्र की नीर-क्षीर विवेक एव बौद्धिक ईमानदारी है। वास्तव में परंपरा' निबन्ध में जो तथ्य दिये गये है, वे निर्वाध हैं और अनुसन्धान में पूर्वाग्रह की मुक्ति पावश्यक है। हमने उक्त उसे वे दिगम्बर परंपरा का ग्रन्थ प्रकट करते है। उसमें निबन्ध में वे तथा प्रस्तुन किये है जो अनुसन्धान करने समीक्षक द्वारा उठायी गयो पापत्तियों में से एक भी पर उपलब्ध हुए है। यदि हमारे तथ्य एकपक्षीय हैं तो पापत्ति बाधक नही है, प्रत्युत वे सारहीन सिद्ध होती है। हमारा अनुरोध है कि अब तक निकले, प्रकाश में पाये
और जो अभी प्रकाश में पाने वाले है उन तमाम उभय समीक्षा के अन्त में हमें कहा गया है कि 'अपने धर्म
पक्ष के निष्कर्षों पर पूर्ण तटस्थ विद्वान के द्वारा विमर्श पौर संप्रदाय का गौरव होना अच्छी बात है, किन्तु एक
एवं अनुसन्धान कराया जाये । विद्वान् से यह भी अपेक्षित है कि वह नीर-क्षीर विवेक से बौद्धिक ईमानदारी पूर्वक सत्य को सत्य के रूप में प्रकट हम डा० सागरमल जी को धन्यवाद देंगे कि उक्त करे । प्रच्छा होता, समीक्षक समीक्ष्य ग्रन्थ की समीक्षा के ग्रन्य की समीक्षा के माध्यम से उन्होंने विचार के लिए समय स्वयं भी उसका पालन करते और 'उमास्वाति कई प्रश्न या मुद्दे प्रस्तुत किये, जिन पर हमें कितना हो श्वेतांबर परंपरा के थे और उनका सभाष्य तत्वार्थ सचैल नया और गहरा विचार करने का अवसर मिला। पक्ष के श्रुन के माधार पर ही बना है।' 'वाचक
दिनाक १५ जुलाई १६८१, उमास्वाति श्वेतांबर परंपरा में हए, दिगबर में नही। ऐमा
वाराणसी (उ० प्र०)
सन्दर्भ सूची १. जैन सन्देश, वर्ष ४४, अंक ५३, संच-भवन चौरासी, (ख) से भगव अग्हि जिणो के वली मम्वन्न सव्व. मथुरा, नवम्बर १९८० जनमित्र, वर्ष ८१ अक ५२,
भावदरिसी सम्वलो! ध्वजीवाणं सब्वं सूरत, १९८०, जैन बोधक, वर्ष ६६ अंक ५१,
भावाइ जाणमाणो पासमाणो । १९८०, वीरवाणी, वर्ष ३३, अक ६, जयपुर,
-शाचा मू०.२ श्र०३ दिसम्बर १९८०, तीर्थ कर, वर्ष १०, अंक ६, इन्दौर
७ प्रवच० सा०, १४७, ४८, १६, कुन्दकुन्द भारती, अक्टूबर १९८० मादि।
फल्टन, १९७०। २. कोसल, जनल माफ दि इंडियन रिसर्च सोसाइटी माफ अवध, वोल्यूम ३, नं० १,२,१२२२ दिल्ली ८ तीर्थ कृत्ममयानां च परस्पर विरोघतः । दरवाजा फैजाबाद, १९८१ ।
सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरुः ॥३॥ ३. खण्ड ६, अंक १०, जनवरी १९८१, जैन विश्व भारती, दोषावरणयोहानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । लाडनं (राज.)।
क्वचिद्यथा स्वहेतुम्यो बहिरन्त मलक्षयः ॥४॥ ४. वर्ष ३२, अंक ५, मार्च १९८१, पा० विद्याश्रम शोध सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्य या। संस्थान, वाराणसी-५ ।
अनुमेयत्वतोऽम्यादिरिति सर्वश-संस्थितिः ।।५।। ५. प्रनेकान्त, वर्ष ५, किरण १२, ई० १६४५, जनदर्शन स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । पौर प्रमाणशास्त्र परि.पृ० ५३८, वीरसेवा मन्दिर अविरोधो यविष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ ट्रस्ट, वाराणसी-५ जून १९८० ।
स्वन्मतामृतवाह्यान सर्वध कान्तवादिनाम् । ..(क) सम्वलोए सव्वजीवे सम्बभावे सम्मसमं जाणदि प्राप्ताभिमानदग्धान! स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ पस्सवि -षट् खं० ५.५.६८ ।
--समन्तभद्र, प्राप्तमी०,३,४,५,६,७।