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अनुसम्मान में पूर्वाहमुक्ति पावश्यक
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सम्पादक का प्रथम प्रश्न है कि 'समन्तभद्र की भाप्त- किसी के प्रत्यक्ष है, क्योंकि वे अनुमेय हैं, जैसे मग्नि मीमांसा प्रादि कृतियों मे कुमारिल, धर्मकीर्ति प्रादि की प्रादि।' इस अनुमान से सामान्य सर्वज्ञ की सिद्धि करके मान्यतामों का खण्डन होने से उसके प्राचार पर समन्तभद्र वे विशेष सर्वज्ञ की भी सिद्धि करते हुए (का. ६ व ७ को ही उनका परवर्ती क्यों न माना जाये ?'
मे) कहते है कि 'हे वीर जिन ! महंन । वह सर्वज्ञ भाप स्मरण रहे कि हमने 'कुमारिल भौर समन्तभद्र' ही हैं, क्योंकि पाप निदोष हैं और निर्दोष इस कारण हैं, शीर्षक' शोध निबन्ध मे सप्रमाण यह प्रकट किया है कि क्योंकि भापके बचनों (उपदेश) में युक्ति तथा मागम का समन्तभद्र की कृतियो (विशेषतया प्राप्त-मीमांसा) का विरोध नहीं है, जबकि दूसरों (एकान्तवावी प्राप्तों) के खण्डन कुमारिल और धर्मकीति के ग्रन्थों में पाया जाता उपदेशों में युक्ति एवं पागम दोनों का विरोष है, तब वे है। अतएव समन्त नद्र उक्त दोनो ग्रन्थकारों से पूर्ववर्ती सर्वज्ञ कसे कहे जा सकते है। इस प्रकार समन्तभद्र ने है, परवर्ती नही । यहाँ हम पुन: उमी का विचार करेंगे। अनुमान से सामान्य पौर विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है।
हम प्रश्न कर्ता से पूछते है कि वे बतायें, कुमारिल और इसलिए अनुमान द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना प्राप्त. पौर धर्मकीर्ति की स्वय को वे कौन सी मान्यताएं है, मीमांमागत समन्तभद्र को मान्यता है। जिनका समन्तभद्र की प्राप्तमीमामा प्रादि कृतियो मे प्राज से एक हजार वर्ष पूर्व (ई. १०२५) के प्रसिद्ध खण्डन है ? इम के समर्थन में प्रश्न कार ने एक भी तर्क ग्रन्थ कार वादिराज सूरि' ने भी उसे (प्रनुमान द्वारा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। इसके विपरीत दोनो ग्रन्थ- सर्वज्ञ सिद्ध करने को) समन्तभद्र के देवागम (माप्तकारो ने ममन्तभद्र को ही प्राप्तमीमांसागत मान्यतामों का मीमांसा) को मान्यता प्रकट की है। पार्श्वनाथ चरित में खण्डन किया है यहाँ हम दोनो ग्रन्थ कारो से कुछ उदाहरण समन्तभद्र के विस्मयावह व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए उपस्थित करते है।
उन्होंने उनके देवागम द्वारा सर्वज्ञ के प्रदर्शन का स्पष्ट (१) जैनागमो तथा कुन्दकुन्द के प्रवचनसार प्रादि निर्देश किया है। इसी प्रकार प्रा० शुभचन्द्र ने भी प्रत्यों में सर्वज्ञ का स्वरूप तो दिया गया है परन्तु अनुमान देवागम द्वारा देव (सर्वज्ञ) के प्रागम (सिद्धि) को से सर्वज्ञ की सिद्धि उनमें उपलब्ध नही होती। जैन बतलाया है। दार्शनिकों में ही नहीं, भारतीय दार्शनिकों में भी इन असन्दिग्ध प्रमाणों से स्पष्ट है कि अनुमान से समनभद्र ही ऐसे प्रथम दार्शनिक एव ताकिक है, जिन्होने सर्वज्ञ की सिद्धि करना समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसा की प्राप्तमीमांसा (का० ३, ४, ५, ६, ७.) मे अनुमान से निसन्देह अपनो मान्यता है। और उत्तरवर्ती अनेक सामान्य तथा विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है।
ग्रन्यकार उसे शताब्दियों से उनकी ही मान्यता मानते समन्तभद्र ने सर्वप्रथम कहा कि 'सभी तीथं प्रवर्तको चले पा रहे है। (सर्वज्ञों) और उनके समयो (पागमो -- उपदेशों मे) अब कुमारिल की मोर दृष्टिपात करें। कुमारिल" परस्पर विरोध होने से सब सर्वज्ञ नही है, 'कश्चिदेव'- ने सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के सर्वश का कोई ही (एक) गुरु (सर्वज्ञ) होना चाहिए', 'उस एक की निषेध किया है। यह निषेध और किसी का नहीं, सिद्धि की भूमिका बाधते हुए उन्होंने ग्रागे (का० ४ में) समन्तभद्र की माप्तमीमांसा का है। कुमारिल बड़े मावेग कहा कि किसी व्यक्ति मे दोषों और प्रावरणो का निःशेष के साथ प्रथमतः सामाग्यसर्वज्ञ का खण्डन करते हुए कहते प्रभाव (ध्वंस) हो जाता है क्योकि उनकी तरतमता है कि सभी सर्वज्ञ (तीर्थ प्रवर्तक) परस्पर विरोधी अर्थ (न्यूनाघिकता) पायी जाती है, जैसे सुवर्ण मे तापमान, (वस्तुतत्व) के जब उपदेश करने वाले हैं और जिनके कटन प्रादि साधनो से उसके बाह्य (कालिमा) और साधक हेतु समान (एक-से) हैं, तो उन सबों में उस प्राभ्यन्तर (कीट) दोनों प्रकार के मलो का प्रभाव हो एकता निर्धारण कैसे करोगे कि मयुक सर्वज्ञ है पौर जाता है। इसके पश्चात् वे कहते है कि 'सूक्ष्मादि पदार्थ भमक मर्दज्ञ नही है। कुमारिल उस परस्पर-विरोष को